सालुव वंश Saluva Dynasty

राज्य को इन खतरों से बचाने के लिए नरसिंह सालुव ने अपने अयोग्य स्वामी को सिंहासन-च्युत कर दिया और 1486 ई. के लगभग स्वयं राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। इस घटना को विजय नगर साम्राज्य के इतिहास में प्रथम बलापहार कहा जाता है। इसी के साथ संगम वंश का अंत और सालुव वंश का आरम्भ होता है।

नरसिंह सालुव को जनता का विश्वास प्राप्त था। उसके हृदय में साम्राज्य की भलाई एवं कल्याण की भावना थी। अपने छः वर्षों के शासन में उसने अधिकांश विद्रोही प्रान्तों को फिर से प्राप्त कर लिया, तथापि रायचूर दोआब बहमनियों के नियंत्रण में रहा तथा उदयगिरि उड़ीसा के राजा के नियंत्रण में रहा।

नरसिंह सालुव ने अपने विश्वासी सेनापति नरस नायक पर, जो तुलुव देश पर शासन कर चुकने वाले एक वंश से उत्पन्न होने का दावा करता था, अपने पश्चात् राज्य के प्रशासन का उत्तरदायित्व सौंप कर बुद्धिमत्ता प्रदर्शित की, यद्यपि उसकी इच्छा थी कि उसके पुत्र ही उत्तराधिकारी बनें। अभिलेखीय प्रमाण से मुसलमान इतिहासकारों एवं नूनिज के इस कथन का खण्डन हो जाता है कि नरस नायक ने अपने स्वामी के दोनों पुत्रों को मार डाला और स्वयं गद्दी हड़प ली। सच्चाई तो यह है कि वह अपने स्वामी के वंश के प्रति वफादार बना रहा। उसने अपने स्वामी (नरसिंह सालुव) के छोटे पुत्र इम्मदी नरसिंह को बड़ा करके सिंहासन पर बैठाया, जब बड़े की मृत्यु युद्ध में घावों के कारण हो गयी थी। फिर भी उसने तथ्यत: शासक के रूप में राज्य के कार्यों का प्रबन्ध योग्यतापूर्वक किया।

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