संघ और राज्यों के बीच संबध Relations Between The Union And The States

भारतीय संविधान ने संघात्मक प्रणाली की व्यवस्था की है। इस प्रणाली के अनुसार भारतीय संवैधानिक प्रणाली में एक केंद्र सरकार तथा 30 राज्य सरकारे स्थापित की गयी है। जहाँ संघात्मक प्रणाली होती है वहां केंद्र तथा राज्यों के परस्पर संबंधों की व्यवस्था की जाती है। भारतीय संविधान ने केंद्र तथा राज्यों में तीन प्रकार के संबंधों की व्यवस्था की है-

  1. विधायी संबंध
  2. प्रशासनिक संबंध
  3. वित्तीय संबंध

विधायी संबंध

केंद्र तथा राज्यों के बीच विधायी संबंधों की व्याख्या संविधान के भाग-11 के अध्याय 1 में अनुच्छेद 245-254 में की गई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 के अनुसार, संसद भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है और किसी राज्य का विधान मंडल सम्पूर्ण राज्य या उसके एक भाग के लिए कानून बना सकता है।

केंद्र तथा राज्य सरकारों में विधायी शक्तियों के विभाजन के संबंध में सातवीं अनुसूची के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत संविधान में तीन सूचियां अंकित की गई हैं- (i) संघ-सूची, (ii) राज्य-सूची, तथा; (iii) समवर्ती-सूची।

संघ-सूची

संघ-सूची में अंकित विषयों की कुल संख्या 97 है। इस सूची में अंकित सभी विषय राष्ट्रीय महत्व के हैं और इन विषयों पर केवल संघीय संसद ही कानून बना सकती है। इस सूची में रक्षा, विदेशी मामले, डाक-तार, रेलवे, टेलीफोन, सिक्के, बंदरगाह, हवाई- मार्ग, बैंक बीमा, खानें एवं खनिज,युद्ध व संधि, देशीय करण व नागरिकता, विदेशियों का आना-जाना आदि विषय सम्मिलित हैं।

राज्य-सूची


इस सूची में साधारणतः क्षेत्रीय महत्व के विषयों को रखा गया है। इस सूची में अंकित विषयों पर साधारण स्थिति में कानून निर्माण का अधिकार राज्य विधानमण्डल को सौंपा गया है। किंतु, कुछ विशेष परिस्थितियों में (जैसे-आपातकाल) में इस सूची के विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त हो जाता है। मूलतः इस सूची में 66 विषय अंकित थे, किंतु 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा इसमें से चार विषय- शिक्षा, वन, जंगली जानवरों एवं पक्षियों की रक्षा तथा नाप-तौल-राज्य सूची में से समवर्ती सूची में अंतरित कर दिए गए। राज्य-सूची में अंकित प्रमुख विषय हैं- पुलिस, न्याय, जेल, स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई एवं सड़कें आदि।

समवर्ती-सूची

समवर्ती-सूची में अंकित विषयों की कुल संख्या 52 है। इस सूची में अंकित विषयों के संबंध में केंद्रीय संसद तथा राज्य विधान मंडल दोनों ही कानून बना सकते हैं, परंतु यदि इस सूची में अंकित किसी विषय पर राज्य विधान मंडल द्वारा निर्मित कानून संघीय संसद द्वारा बनाए गए कानून के विरुद्ध हो तो राज्य विधान मंडल का कानून उस सीमा तक रद्द समझा जाता है, जिस सीमा तक राज्यों का कानून संधीय कानून का विरोध करता है। फौजदारी विषय एवं प्रक्रिया, औद्योगिक विवाद, निवारक निरोध, सामाजिक सुरक्षा एवं सामाजिक बिमा, विवाह एवं विवाह विच्छेद, श्रमिक संघ, कारखाने, पुनर्वास एवं पुरातत्व, आर्थिक एवं सामाजिक योजना, आदि इस सूची के प्रमुख विषय हैं।

अवशिष्ट शक्तियां

संविधान के अनुच्छेद 248 के अनुसार ऐसे विषय जिनका वर्णन उपर्युक्त तीन सूचियों में से किसी एक में भी अंकित नहीं किया गया है, उनके संबंध में कानून बनाने का अधिकार संघीय संसद को सौंपा गया है।

राज्य-सूची के विषयों पर संसद की कानून निर्माण की शक्ति

संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार राज्य सभा में उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा राष्ट्रीय हित से संबंधित राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाने के लिए संसद की अधिकृत कर सकती है, परंतु यह प्रस्ताव एक वर्ष से अधिक समय तक अस्तित्व में नहीं रहता है।

संविधान के अनुच्छेद 250 के अनुसार, आपातकाल की स्थिति में केंद्रीय संसद को राज्य-सूची में अंकित किसी भी विषय के संबंध में भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कानून बनाने की शक्ति होती है परंतु आपातकाल की समाप्ति के 6 महीने की अवधि से अधिक यह प्रावधान प्रभावी नहीं रहता है।

संविधान के अनुच्छेद 252 के अनुसार दो या दो से अधिक राज्यों के विधान मंडल एक प्रस्ताव पारित कर यदि संसद से यह अनुरोध करते हैं कि राज्य-सूची के विषयों पर संसद द्वारा कानून बनाया जाए, तो संसद उन विषयों पर कानून बना सकती है। ऐसे कानूनों को राज्य विधान मंडल न तो संशोधित कर सकता है तथा न ही समाप्त कर सकता है।

संविधान के अनुच्छेद 253 के अनुसार संसद को किसी अन्य देश या देशों के साथ संधि अथवा समझौते को लागू करने के उद्देश्य से किसी भी विषय पर कानून बनाने का अधिकार है।

प्रशासनिक संबंध

भारतीय संविधान के भाग-11 के अध्याय 2 में अनुच्छेद 256-263 तक प्रशासनिक संबंधों की व्याख्या की गई है। सामान्य रूप में संघ तथा राज्य सरकारों के बीच प्रशासनिक शक्तियों का विभाजन किया गया है, परंतु प्रशासनिक शक्तियों के विभाजन में संघीय सरकार अधिक शक्तिशाली है और राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए राज्य सरकारों के प्रशासन पर संघ सरकार का पूरा नियंत्रण स्थापित किया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 256 में यह प्रावधान है कि प्रत्येक राज्य को अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करना होगा, जिससे संसद द्वारा बनाए गए कानून का पालन अवश्य हो सके। इसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि इस संबंध में संघीयकार्यपालिका राज्य सरकारों को आदेश भी जारी कर सकती है।

संविधान के अनुच्छेद 257 के अनुसार, प्रत्येक राज्य को अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए जिससे संघ की कार्यपालिका शक्तियों के प्रयोग में कोई बाधा उत्पन्न न हो। इस अनुच्छेद में यह भी प्रावधान है कि संघ सरकार राज्य सरकारों की उसकी सीमाओं में केंद्रीय सम्पति और रेलगाड़ियों की रक्षा के लिए आदेश दे सकती है। साथ ही यह भी कहा गया है कि यदि केंद्रीय सरकार यह अनुभव करे कि किसी राज्य में केंद्रीय सम्पति सुरक्षित नहीं है तो उस राज्य में केंद्रीय सुरक्षा पुलिस बल भेज सकती है।

संविधान के अनुच्छेद 258 के अनुसार, राष्ट्रपतिको यह अधिकार है कि वे किसी राज्य सरकार को उसकी सहमति से किसी विषय से संबद्ध कार्य सौंप सकते हैं। ऐसे कार्य सशर्त अथवा शर्त रहित भी हो सकते हैं। मुख्य रूप से ऐसे विषयों पर संघ की कार्यपालिका शक्ति का नियंत्रण रहता है।

राज्य सरकारों के उच्च पदों पर अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी कार्य करते हैं। अखिल भारतीय सेवाएं संघ तथा राज्य सरकारों की नियुक्ति सेवाएं हैं, जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, परन्तु उनका एक बड़ा भाग राज्य सरकारों की सेवा के लिए सौंपा जाता है।

राज्य के राज्यपालों, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है उसी प्रकार पदमुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है।

यदि राष्ट्रपति युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण आपात् स्थिति की घोषणा कर दे तो ऐसी अवस्था में सम्पूर्ण देश का प्रशासन केंद्र सरकार के अधीन आ जाता है औरदेश का संघात्मक स्वरूप एकात्मक रूप धारण कर लेता है।

यदि कोई राज्य सरकार संघ सरकार की ओर से दिए गए आदेशों का पालन न करे तो राष्ट्रपति उस राज्य में संवैधानिक संकट की घोषणा करके उस राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले सकता है।

संघीय क्रियाओं, अभिलेखन तथा न्यायिक कार्यवाहियों को मान्यता प्रदान करना

अनुच्छेद 261 के अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र संघ की तथा प्रत्येक राज्य की सार्वजानिक क्रियाओं अभिलेखों तथा न्यायिक कार्यवाहियों को पूरी मान्यता दी जाएगी इनकी प्राथमिकता सिद्ध करने की रीति और शर्ते तथा उनके प्रभाव का निर्धारण संसद द्वारा उपबंधित रीति के अनुसार होगा। यह भी आयोजित किया गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग के दीवानी न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय तथा आदेश उस राज्य क्षेत्र के अंदर सभी स्थानों पर निष्पादित किये जाएंगे।

जल संबंधी विवाद

संविधान के अनुच्छेद 262 के अनुसार दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य बहने वाली नदियों के पानी के विभाजन के संबंध में या उनके संबंध में किन्हीं अन्य विवादों का निर्णय करने के लिए संसद को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई है।

अंतरराज्यीय परिषद

संविधान के अनुच्छेद 263 के अनुसार, राज्यों के परस्पर विवादों का निर्णय करने और उनमें सहयोग की भावना उत्पन्न करने के लिए राष्ट्रपति अंतरराज्यीय परिषद की स्थापना कर सकता है। इसी प्रावधान के अनुसार राष्ट्रपति ने 1990 में अंतरराज्यीय परिषद की स्थापना की थी। अंतरराज्यीय परिषद संघ तथा राज्य सरकारों की नीतियों में समन्वय उत्पन्न करने और राज्यों के परस्पर विवादों को निपटने के लिए संघ सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।

व्यापार, वाणिज्य और समागम

संसद विधि द्वारा, ऐसे प्राधिकारी की नियुक्ति कर सकेगी जो वह अनुच्छेद 301, 302, 303 और 304 के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए समुचित समझे और इस प्रकार नियुक्त प्राधिकारी को ऐसी शक्तियां प्रदान कर सकेगी और ऐसे कर्तत्य सौंप सकेगी जो वह आवश्यक समझे।

वित्तीय संबंध

केंद्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों की व्याख्या संविधान के भाग-12 के अध्याय 1 में की गई है। वित्तीय क्षेत्र में भी संघ तथा राज्यों के मध्य वित्तीय साधनों का विभाजन किया गया है। भारतीय संविधान में यह विभाजन 1935 के अधिनियम में किए गए विभाजन पर आधारित है। वर्तमान विभाजनके अनुसार कुछ कर केवल राज्य सरकारों को सौंपे गए हैं। संघ सरकार को संघ-सूची में अंकित सभी विषयों पर कर लगाने पर कर लगाने का अधिकार दिया गया है। राज्य सरकारें अपने द्वारा लगाए गए करों को स्वयं एकत्रित करती हैं और स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं किपुर्ती के लिए उस धन को व्यय करती हैं। परन्तु संघ सरकार द्वारा लगाए सभी कर संघीय सरकार न तो स्वयं एकत्रित करती है और न ही सभी करों के धन को स्वयं व्यय करती है।

संविधान के अनुच्छेद 265 के अनुसार विधि द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति ही कर लगा सकता है अथवा एकत्रित कर सकता है।

संचित निधियां

अनुच्छेद 266 के अंतर्गत भारत की संचित निधि तथा प्रत्येक राज्य की संचित निधि की स्थापना की गई है। आकस्मिक निधि तथा राज्यों को दिए जाने वाले करों तथा शुल्कों को छोड़कर, भारत सरकार को प्राप्त सभी राजस्व, उस राज्य सरकार द्वारा हुंदियां निर्गमित करके अग्रिमों द्वारा लिए गए सभी उधार तथा उधारों से उस सरकार को प्राप्त सभी धनराशियों की एक संचित निधि बनती है, जिसे भारत की संचित निधि के रूप में में जाना जाता है। उसी प्रकार किसी राज्य सरकार को प्राप्त सभी राजस्व, उस सरकार द्वारा हुंदियां निर्गमित करके, उधर अथवा अग्रिमों द्वारा लिए गए सभी उधार तथा उधारों से उस सरकार को प्राप्त सभी धनराशियों की एक संचित निधि बनती है, जिसे राज्य की संचित निधि के रूप में जाना जाता है। भारत सरकार या किसी राज्य सरकार द्वारा या उसकी ओर से प्राप्त सभी अन्य लोक धनराशियां भारत के लोक लेखे में या राज्य के लोक लेखे में जमा की जाती हैं।

आाकस्मिकता निधि

संविधान के अनुच्छेद 267 के अनुसार संसद और राज्य विधानमंडल को भारत या राज्य की आकस्मिकता निधि स्थापित करने की शक्ति दी गई है। यह निधि भारत की आकस्मिकता निधि अधिनियम, 1950 द्वारा गठित की गई है। यह निधि कार्यपालिका के व्ययनाधीन है।

सहायता अनुदान

संविधान के अनुच्छेद 273, 275 एवं 282 के अंतर्गत तीन प्रकार से सहायता अनुदान प्रदान किया जाता है। अनुच्छेद 273 के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा असम, बिहार, ओडीशा एवं पश्चिम बंगाल को जूट एवं जूट उत्पादों के निर्यात शुल्क पर सहायता अनुदान दिया जा सकता है। दूसरे, अनुच्छेद 275 के अंतर्गत यदि यह निश्चय हो जाए कि किसी राज्य को अपरिहार्य रूप से आर्थिक सहायता की जरूरत है। तीसरे, अनुच्छेद 282 के अंतर्गत केंद्र या राज्य सार्वजनिक उद्देश्य हेतु सहायता अनुदान जारी कर सकते हैं। यह अनुदान इसके अधीन नहीं होगा कि वह केंद्र या राज्य के विधायी अधिकार क्षेत्र में आता है या नहीं।

वित्त आयोग

वित्त आयोग एक संवैधानिक संस्था है और अनुच्छेद 280 के अनुसार इसका गठन राष्ट्रपति करता है। इसका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। इस आयोग में एक अध्यक्ष तथा चार अन्य सदस्य होते हैं। इसका अध्यक्ष ऐसा व्यक्ति होता है जिसे सार्वजनिक कार्यों के बारे में अनुभव हो और अन्य चार सदस्य निम्नलिखित में से नियुक्त किए जाते हैं-

  1. एक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश अथवा ऐसी ही योग्यता रखने वाला व्यक्ति
  2. एक व्यक्ति, जिसे सरकार के वित्त और लेखाओं का विशेष ज्ञान है
  3. एक व्यक्ति, जिसे वित्तीय विषयों और प्रशासन के बारे में व्यापक अनुभव है
  4. एक व्यक्ति जिसे अर्थशास्त्र का विशेष ज्ञान है।

वित्त आयोग के प्रमुख कर्तव्य:

  1. संघ और राज्यों के बीच करों के शुद्ध आगमों के वितरण के बारे में और राज्यों के बीच ऐसे आगमों के आबंटन के बारे में,
  2. भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्वों में सहायता अनुदान को शासित करने वाले सिद्धांतों के बारे में,
  3. राज्यों में पंचायतों के संसाधनों की पूर्ति के लिए किसी राज्य की संचित निधि के संवर्द्धन के लिए आवश्यक उपायों के बारे में, तथा;
  4. राज्य में नगरपालिकाओं के संसाधनों की पूर्ति के लिए किसी राज्य की संचित निधि के संवर्द्धन के लिए आवश्यक उपायों के बारे में नगरपालिकाओं के संसाधनों की पूर्ति के लिए राज्य की संचित निधि के संवर्धन के लिए आवश्यक उपायों को सौंपे गए किसी अन्य विषय के बारे में, राष्ट्रपति को वित्त आयोग सिफारिश करता है। पहला वित्त आयोग 1951 मेंगठित किया गया था जिसके अध्यक्ष के.सी. नियोगी थे। अब तक के गठित विभिन्न आयोग इस प्रकार हैं-

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केंद्र-राज्य संबंधों में समन्वय हेतु संस्थागत निकाय
योजना आयोग: योजना आयोग एक संविधानेत्तर संस्था है। संघ ने बिना विधान बनाए 1950 में एक योजना आयोग की स्थापना की। इसका उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए एक समेकित पंचवर्षीय योजना बनाना और इस निमित्त संघ की सरकार के लिए सलाहकारी निकाय के रूप में कार्य करना है। इसके कार्यकलाप में धीरे-धीरे प्रशासन के सभी क्षेत्र आ गए हैं, केवल प्रतिरक्षा तथा विदेश कार्य अपवाद हैं। यही कारण है कि एक आलोचक ने इसे सम्पूर्ण देश का आर्थिक मंत्रिमंडल कहा है। इन आलोचकों की राय में योजना आयोग राज्यों की स्वायत्तता पर भी प्रहार करता है। परंतु इन तर्को के आधार पर योजना आयोग की भूमिका की अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आयोग का कार्य देश के संसाधनों के सर्वाधिक और संतुलित विकास के लिए योजना को तैयार करना जिससे विकास की ऐसी प्रक्रिया प्रारंभ हो, जो जीवन स्तर को ऊपर उठाए और लोगों को नए अवसर प्रदान करे। वस्तुतः आयोग का काम केवल योजना बनाना है, इन योजनाओं को कार्यान्वित करना राज्यों के हाथ में है क्योंकि अधिकांश विकास योजनाएं राज्यों के विषय के बारे में है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संघ के स्तर पर आयोग की बात का महत्व अहम है क्योंकि उसका अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री होता है परंतु जहां तक राज्यों का संबंध है आयोग की भूमिका सलाहकार की ही है। योजना आयोग तथा वित्त आयोग के कार्यों तथा दायित्वों के बीच समन्वय स्थापित होना अति आवश्यक है जिससे कार्यों का सम्पादन समुचित रूप में हो सके।राष्ट्रीय विकास परिषद: दूसरी संविधानेत्तर संस्था राष्ट्रीय विकास परिषद है। यह परिषद 1952 में योजना आयोग की अनुषंगी के रूप में स्थापित की गई थी जिससे राज्यों की योजनाओं के निर्माण में सहभागी बनाया जा सके। संघ के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मिलकर बनी इस परिषद के उद्देश्य हैं- योजना के समर्थन में प्रयत्नों को गति देना और उन्हें मजबूत बनाना तथा संसाधनों का उपयोग करना, सभी महत्व के क्षेत्रों में सामान्य आर्थिक नीतियों को लागू करना और देश के सभी भागों का संतुलित विकास सुनिश्चित करना। इसके अन्य विशिष्ट महत्व हैं- समय-समय पर राष्ट्रीय योजना के कार्यान्वयन की समीक्षा करना और राष्ट्रीय योजना में बताए गए लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपायों की सिफारिश करना। इस परिषद में संघीय मंत्रिमंडल के सभी सदस्य, राज्यों के मुख्यमंत्री, संघ राज्य क्षेत्रों के प्रशासक और योजना आयोग के सदस्य शामिल होते हैं।राष्ट्रीय एकता परिषद: यह भी एक संविधानेत्तर संस्था है, जिसकी स्थापना 1986 में की गई थी। इसका उद्देश्य अखिल भारतीय स्तर पर एकीकारण हेतु कार्य करना है। इसमें संघ के मंत्रियों और राज्य के मुख्यमंत्रियों के अतिरिक्त राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि, श्रमिकों तथा महिलाओं के प्रतिनिधि भी होते हैं।क्षेत्रीय परिषद: क्षेत्रीय परिषदों का उद्भव संविधान से नहीं बल्कि संसद के अधिनियम से हुआ है। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा भारत के राज्यक्षेत्र की पांच क्षेत्रों में बांटा गया है और प्रत्येक क्षेत्र के सामान्य हित के विषयों पर सलाह देने के लिए क्षेत्रीय परिषदें बनाई गई हैं। यदि इन परिषदों का कार्य ठीक से किया जाए तो भाषा और प्रांत के आधार पर पृथकतावादी भावनाओं को रोककर एक संघीय भावना का उदय हो सकता है।

  • केंद्रीय क्षेत्र में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्य हैं।
  • उत्तरी क्षेत्र में हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर राज्य तथा दिल्ली और चण्डीगढ़ संघ शासित राज्य हैं।
  • पूर्वी क्षेत्र में बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडीशा हैं।
  • पश्चिमी क्षेत्र में गुजरात, महाराष्ट्र और गोवा राज्य तथा दादर और नगर हवेली तथा दमन और दीव के संघ राज्य क्षेत्र हैं।
  • दक्षिणी क्षेत्र में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल राज्य तथा पुडुचेरी संघ राज्य क्षेत्र हैं।

प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में उस क्षेत्र के राज्यों के मुख्यमंत्री और दो मंत्री और संघ राज्यक्षेत्र का प्रशासक होता है। संघ के गृह मंत्री को सभी क्षेत्रीय परिषदों का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। क्षेत्रीय परिषदों में उस क्षेत्र के राज्य और राज्यक्षेत्रों के समान हित के विषयों पर विचार किया जाता है। उदाहरण के लिए- आर्थिक और सामाजिक योजना, सीमा विवाद, अंतरराज्यीय परिवहन, राज्य पुनर्गठन आदि में उत्पन्न होने वाले विषय इत्यादि। इन क्षेत्रीय परिषदों के अतिरिक्त एक पूर्वोत्तर परिषद भी है, जो पूर्वोत्तर परिषद अधिनियम, 1971 के प्रावधानों के अनुसार बनाई गई है। यह परिषद- असम, मेघालय, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम की सम्मिलित समस्याओं पर विचार करती है। इसके अतिरिक्त 14 जुलाई, 2000 को सिक्किम को भी इस परिषद में शामिल कर लिया गया।

क्षेत्रीय परिषद् के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रीय अखण्डता बनाए रखना;
  • निहायती प्रादेशिक संचेतना, क्षेत्रीयता, भाषिकता और विशिष्टीकृत प्रवृत्ति को रोकना;
  • केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग को मजबूत करना और विचारों एवं अनुभवों के अदन-प्रदान को बढ़ावा देना; और
  • विकासपरक योजनाओं एवं कार्यक्रमों के तीव्र एवं सफल कार्यकरण के लिए राज्यों के बीच आपसी सहयोग का माहौल तैयार करना।

क्षेत्रीय परिषद् का सचिवालय: राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के अनुसार प्रत्येक क्षेत्र के लिए क्षेत्रीय परिषद् का कार्यालय ऐसे स्थान पर अवस्थित होगा जिसे परिषद् द्वारा निर्धारित किया जाएगा। हालांकि, 1963 से, नई दिल्ली में अवस्थित एकमात्र सचिवालय सभी क्षेत्रीय परिषदों के मामलों को देख रहा है। क्षेत्रीय परिषद् सचिवालय केंद्र-राज्य, अंतरराज्य और क्षेत्रीय मुद्दों, जो परिषद्वों या स्थायी समितियों द्वारा सौंपे जाते हैं, को देखता है।

राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के अनुसार, प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद् में एक सचिवालय होता है जिसमें एक सचिव, एक संयुक्त सचिव और अन्य ऐसे अधिकारी जिन्हें अध्यक्ष नियुक्त करना जरूरी समझे। राज्यों के मुख्य सचिव सम्बद्ध परिषद् का बारी-बारी से एक वर्ष के लिए सचिव होता है। क्षेत्रीय परिषद् का संयुक्त सचिव अखिल भारतीय सेवा या केंद्रीय सचिवालयीय सेवा का निदेशक स्तरीय अधिकारी होता है। संयुक्त सचिव को सहायता करने के लिए क्षेत्रीय परिषद् सचिवालय में 19 अन्य पद अनुमोदित किए गए हैं। संयुक्त सचिव, उप सचिव एवं चौकीदार का पद अस्थायी होता है जबकि अन्य पद स्थायी हैं।

क्षेत्रीय परिषद् का उद्गम: परिषद् की योग्यता एवं उपयोगिता सीमा विवाद एवं भाषायी अल्पसंख्यकों जैसी समस्याओं का समाधान करना है। अभी तक इन मतभेद के क्षेत्रों में परिषद् आशानुरूप कार्य नहीं कर पाई है। यदि सीमा विवाद जैसे मुद्दों का समाधान कर लिया जाता है, तो वह क्षेत्रीय परिषद् के समाधानों की तुलना में केंद्र के अच्छे प्रयासों का परिणाम अधिक होगा। इसके विपरीत, परिषदें, आर्थिक, और सामाजिक नियोजन और समागम के क्षेत्र में एक मुख्य भूमिका निभा रही हैं और निभा सकती हैं

परिषद् की उपलब्धियां:

  • विद्युत ऊर्जा संसाधनों का समन्वित विकास।
  • अंतरराज्यीय परिवहन के झगड़ों से संबंधित समस्याओं का समाधान।
  • क्षेत्रों में एक साझा पुलिस रिजर्व बल का गठन।
  • क्षेत्रों में कृषि उत्पादन एवं विकास कार्यक्रमों की समीक्षा।
  • अंतरराज्यीय मार्गों पर पुलों के निर्माण, नियंत्रण, समन्वय एवं बेहतर प्रबंधन तथा रख-रखाव को बढ़ावा दिया।

नवीनतम वित्त आयोग

बारहवें वित्त आयोग का गठन वर्ष 2002 में किया गया, जिसे वर्ष 2005-2010 की अवधि के लिए केंद्र-राज्य राजकोषीय संबंधों के बारे में सिफारिशें देने का कार्य सौंपा गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 17 दिसंबर, 2004 को सौंपी। इसकी सिफारिशों के अंतर्गत-

  • राजकोषीय हस्तांतरण की योजनान्तर्गत राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का लक्ष्य प्राप्त किया जाए।
  • राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने की केंद्र एवं राज्यों की संयुक्त जिम्मेदारी होगी।
  • केंद्रीय करों की विशुद्ध प्राप्तियों में राज्यों का 30.5 प्रतिशत हिस्सा होगा।
  • यदि राज्यों को बिना किसी निर्धारित सीमा के इन वस्तुओं (केंद्रीय करों के सामान्य पूल वाली) पर बिक्री कर लागू करने की अनुमति दी जाती है, तो हिस्सेदारी योग्य केंद्रीय करों की विशुद्ध प्राप्तियों में राज्यों की हिस्सेदारी घटकर 29.5 प्रतिशत रह जाएगी।

तेरहवें वित्त आयोग का गठन 2007 में भूतपूर्व केन्द्रीय वित्त सचिव एवं वित्त मंत्री के सलाहकार डॉ. विजय एल. केलकर की अध्यक्षता में किया गया। यह आयोग समेकित राज्य ऋण एवं राहत सुविधा 2005-2010 को दृष्टिगत रखते हुए संघ एवं राज्यों की आर्थिक स्थिति का पुनरीक्षण करेगा। साथ ही यह राजकोष की संस्थिर रखने के उपाय भी सुझाएगा। यह वित्त आयोग वर्तमान आपदा प्रबंधन के वित्तीय ढांचे, की आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के अंतर्गत गठित राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक निधि एवं आपदा राहत कोष के संदर्भ में समीक्षा करेगा। इसके अतिरिक्त 13वें वित्त आयोग को 1 अप्रैल, 2010 से लागू होने वाले वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का अर्थव्यवस्था एवं विदेश व्यापार पर पड़ने वाले प्रभाव की समीक्षा करने का कार्य सौंपा गया था। सतत् विकास के साथ पारिस्थितिकी-पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का समाधान एवं संतुलन पर इसे विचार करना होगा। उल्लेखनीय है कि 13वें वित्त आयोग की अनुशंसा 1 अप्रैल, 2010 से 31 मार्च, 2015 की अवधि के लिए लागू होगी।

वित्त आयोग की कार्यप्रणाली एवं उपादेयता

वित्त आयोग में स्वतंत्रता प्राप्त है। अब तक गठित हुए सभी वित्त आयोगों ने अपने कार्यों को सफलतापूर्वक पूर्ण किया है। इस प्रणाली के तहत् सर्वप्रथम वित्त आयेाग राज्य सरकारों को पत्र लिखकर उनसे आगामी पांच वर्षों में उनके सामान्य राजस्व व्यय और राजस्व से प्राप्त आय के आकलन देने को कहता है। इन आकलनों के प्राप्त होने पर आयोग इन आकलनों की विश्वसनीयता की जांच करता है और आवश्यक स्पष्टीकरण के लिए राज्यों के संबंधित अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श करता है। आकड़ों के सामान्य अध्ययन के पश्चात् आयोग, केंद्र सरकार तथा सभी राज्य सरकारों को करों एवं शुल्कों के हस्तांतरण के संदर्भ में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने तथा सुझाव देने को लिख देता है। आयोग सभी राज्यों का दौरा करता है। इन दौरों का उद्देश्य वित्तीय सहायता के संबंध में प्रत्येक राज्य का पक्ष सुनना होता है। केंद्रीय मंत्रिमण्डल, राज्य के मुख्यमंत्रियों, वित्त मंत्रियों, मुख्य सचिवों, केन्द्रीय मंत्रालयों तथा वित्तीय संस्थाओं से वार्ता के पश्चात् आयोग को प्रमुख समस्याओं, मांगों तथा स्थिति का आभास हो जाता है तथा व्यावहारिक सुझाव भी प्राप्त हो जाते हैं। गौरतलब वित्तीय संगठनों के अर्थशास्त्री एवं जागरूक नागरिक अपने सुझाव एवं दृष्टिकोण आयोग के सम्मुख रखते हैं। आयोग अंतिम तिथि तक अंतिम या अंतरिम रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप देता है। राष्ट्रपति कार्यान्वयन की दृष्टि से इस पर विचार करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल से अनुशंसा करते हैं।

पिछले पांच दशकों में तकरीबन सभी वित्त आयोगों की अनुशंसाएं केंद्र सरकार ने स्वीकार की हैं। इसी प्रकार आयोगों ने निरंतर राज्य सरकारों की वित्तीय परेशानियों को समझते हुए राज्यों का हिस्सा बढ़ने की ओर ध्यान रखा है। सभी आयोगों ने आयकर,उत्पाद शुल्क के वितरण, राज्यों की सहायता अनुदान तथा केंद्रीय ऋणों के क्रम में उदारतापूर्वक सुझाव दिए हैं। वित्त आयोग के कार्य की उपादेयता इस बात में है कि वह संघात्मक शासन पद्धति की वित्त व्यवस्था को स्थिर बनाने में निष्पक्ष एवं तटस्थ दृष्टिकोण अपनाता है। भारत में वित्त वितरण के प्रश्न को संघ तथा राज्य के मध्य अन्य राजनीतिक विवादों से दूर रखने का श्रेय इसी को प्राप्त है। दूसरी ओर आवश्यकता वाले राज्यों को भरसक सहायता प्रदान करने के लिए संघ को विवश करता है। इसका कार्य विशेष रूप से संघ सरकार से राज्यों को राजस्व के असंतुलनों को कम करने की दृष्टि से वित्तीय हस्तांतरण की सिफारिशें करना है। भारत में योजनागत कार्यों के व्यय के लिए वित्तीय संसाधनों का बंटवारा करने में योजना आयोग की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। वित्त आयोग और योजना आयोग के कार्यों का स्वरूप लगभग समान है। राज्यों को केंद्र से मिलने वाली सहायता के लिए दोनों ही आयोग केंद्र सरकार को अपनी संस्तुति प्रदान करते हैं। बहुधा ऐसा आरोप लगता रहा है कि योजना आयोग, वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र में अनावश्यक अतिक्रमण करता रहा है जबकि योजना आयोग एक गैर-संवैधानिक संस्था है।

वस्तुतः वित्त आयोग का कार्य तथा सिफारिशें ऐसी होनी चाहिए कि विभिन्न राज्यों में असंतोष न हो, उनके विकास में असंतुलन न हो, उन्हें आवश्यकता एवं परिस्थितियों के अनुसार सहायता मिले तथा संघ-राज्यों के बीच सौहार्द बना रहे। केंद्रीय नियोजन के साथ-साथ वित्त की,केंद्रीय देख-रेख अत्यंत आवश्यक है अन्यथा विकास की गति मंद पड़ सकती है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी कहा कि योजना आयोग एवं वित्त आयोग के मध्य अधिक समन्वय करने हेतु योजना आयोग के एक सदस्य को वित्त आयोग का सदस्य भी नामित किया जाना चाहिए।

14वें वित्त आयोग का गठन रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर वाई.वी. रेड्डी की अध्यक्षता में किया गया। पांच सदस्यीय पैनल अपनी रिपोर्ट 31 अक्टूबर, 2014 तक सौंपेगा। अन्य बातों में, आयोग जनोपयोगी सेवाओं जैसे पेयजल, सिंचाई, शक्ति एवं सार्वजानिक परिवहन के कीमत निर्धारण को सांविधिक उपबंधों द्वारा नीति उच्चावचों से पृथक करने की अवश्यकता पर भी गौर करेगा। इसके अतिरिक्त, आयोग एकसमान वृद्धि की निरंतरता के साथ एक स्थायी एवं सतत माहौल बनाए रखने के उपायों का सुझाव देगा।

चौदहवां वित्त आयोग
चौदहवें वित्त आयोग ने अपने विषयों से संबंधित मुदों पर आम जनता, संस्थाओं और संगठनो से भी सुझाव मांगे है।भारत के संविधान के अनुच्छेद 280 के उपबंधों का अनुपालन करते हुए राष्ट्रपति द्वारा चौदहवें वित्त आयोग का गठन दिनांक 2 जनवरी, 2013 की अधिसूचना के अधीन डा. वाई. वी. रेड्डी की अध्यक्षता में किया गया है। यह आयोग 1 अप्रैल, 2015 से शुरू पांच वर्षों की अवधि के लिए निम्नलिखित विषयों पर सिफारिशों करेगा।

  1. संघ और राज्यों के बीच करों के शुद्ध आगमों का, जो संविधान के भाग 12 के अध्याय 1, अधीन उनमें विभाजित किए जाने हैं या किए जाएं, वितरण और राज्यों के बीच ऐसे आगमों के तत्संबंधी भाग का आबंटन,
  2. भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान को शासित करने वाले सिद्धांत और उन राज्यों को, जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 275 के अधीन उनके राजस्वों में सहायता अनुदान के रूप में उस अनुच्छेद के खंड (1) के परंतुक में विनिर्दिष्ट प्रयोजनों से भिन्न प्रयोजनों के लिए सहायता की आवश्यकता है, संदत्त की जाने वाली धनराशियां, और
  3. राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य में पंचायतों और नगरपालिकाओं के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए किसी राज्य की संचित निधि के संवर्धन के लिए आवश्यक अध्युपाय।

आयोग, विशेष रूप से, तेरहवें वित्त आयोग द्वारा सिफारिश की गई राजवित्तीय समेकन रूपरेखा को ध्यान में रखते हुए, संघ और राज्यों की वित्तीय स्थिति, घाटे और ऋण स्तरों का पुनर्विलोकन और वर्तमान में प्रवृत्त राजवित्तीय उत्तरदायित्व बजट प्रबंध अधिनियमों में संशोधन के सुझावों सहित समान वृद्धि से संगत स्थिर और पोषणीय राजवित्तीय वातावरण बनाए रखने के लिए उपायों का सुझाव देगा और ऐसा करते समय, आयोग, घाटे के संबंध में पूंजी आस्तियों के सृजन हेतु अनुदानों के रूप में प्राप्तियों और व्यय के प्रभाव पर विचार कर सकेगा; और आयोग, राजवित्तीय उत्तरदायित्व बजट प्रबध अधिनियमों में अधिकथित बाध्यताओं का पालन करने हेतु राज्यों के लिए प्रोत्साहनों और हतोत्साहनों पर भी विचार करेगा और उनकी सिफारिश भी करेगा।

आयोग अपनी सिफारिशों करते समय, अन्य बातों के साथ, निम्नलिखित को ध्यान में रखेगा-

  1. वर्ष 2014-15 के दौरान पूरा किए जाने वाले कराधान और गैर-कर राजस्वों के संभावित स्तरों के आधार पर, 1 अप्रैल, 2015 को आरंभ होने वाले पांच वर्षों के लिए केंद्रीय सरकार के संसाघन;
  2. केंद्रीय सरकार के संसाधनों, विशेष रूप से सिविल प्रशासन, रक्षा, आंतरिक और सीमा सुरक्षा, ऋण सेवा और अन्य प्रतिबद्ध व्यय तथा दायित्वों संबंधी मांग;
  3. वर्ष 2014-15 के दौरान पूरा किए जाने वाले कराधान और गैर-कर राजस्वों के संभावित स्तरों के आधार पर, 1 अप्रैल, 2015 को आरंभ होने वाले पांच वषाँ के लिए, राज्य सरकारों के संसाधन और विभिन्न शीर्षों के अधीन ऐसे संसाधनों पर मांग जिसके अंतर्गत ऋण प्रतिबलित राज्यों में उपलब्ध संसाधन पर ऋण स्तरों का समाघात भी है;
  4. सभी राज्यों और संघ के राजस्व खाते पर प्राप्तियों और व्यय को न केवल संतुलित करने, अपितु पूंजी निवेश के लिए अधिशेष उदभूत करने का भी उद्धेश्य;
  5. केंद्रीय सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार के कराधान संबंधी प्रयास और संघ की दशा में कर-सकल घरेलू उत्पाद अनुपात और राज्यों की दशा में कर-सकल राज्य घरेलू उत्पाद अनुपात में सुधार करने के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने की क्षमता;
  6. पोषणीय और समावेशित विकास, और केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों के बीच साहयिकियों के समान विभाजन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, अपेक्षित साहयिकियों का स्तर,
  7. पूंजीगत आस्तियों के रख-रखाव और अनुरक्षण के गैर-वेतन घटक संबंधी व्यय और 31 मार्च, 2015 तक पूरी की जाने वाली आयोजना स्कीमों पर गैर-मजूदरी संबंधी रख-रखाव व्यय तथा ऐसे मानदण्ड, जिनके आधार पर पूंजीगत आस्तियों के रख-रखाव के लिए विनिर्दिष्ट धनराशियों की सिफारिश की जाती है, तथा ऐसे व्यय को मानीटर करने की रीति;
  8. पेयजल, सिंचाई, विद्युत और सार्वजनिक परिवहन जैसी जनोपयोगी सेवाओं के मूल्यनिर्धारण को क़ानूनी उपबंधों के मार्फ़त नीतिगत उतर चढ़ावों से अलग रखने की आवश्यकता;
  9. पब्लिक सेक्टर उद्यमों को प्रतिस्पर्धी और बाजारोन्मुखी बनाने, सूचीबढ और विनिवेश और गैर-प्राथमिकता वाले उद्यमों को छोड़ने की आवश्यकता;
  10. सतत आर्थिक विकास के अनुरूप पारिस्थितिकी, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के संतुलित प्रबंध की आवश्यकता; और
  11. केंद्र और राज्यों के वित्तीय-साधनों पर प्रस्तावित माल और सेवा कर का प्रभाव और किसी राजस्व हनी की दशा में क्षतिपूर्ति के लिए तंत्र

आयोग, विभिन्न विषयों पर अपनी सिफारिशें करते समय, उन सभी मामलों में, जहां करों और शुल्कों तथा सहायता अनुदानों के अंतरण को अवधारित करने के लिए जनसंख्या एक कारक है, वर्ष 1971 की जनसंख्या के आंकड़ों को, सामान्यतया, आधार के रूप में लेगा; तथापि, आयोग, उन जनसोख्यिकीय बदलवों को भी ध्यान में रख सकेगा जो 1971 के बाद में हुए है।

आयोग, बजटीय और लेखाकरण मानकों तथा पंरपराओं सहित, विद्यमान में लागू लोक व्यय प्रबंध प्रणालियों, प्राप्तियों और व्यय के वर्गीकरण की विद्यमान प्रणाली; परिव्ययों को उत्पादन और परिणाम से जोड़ने, देश में और विदेशों में प्रचलित सर्वोत्तम परंपराओं का पुनर्विलोकन कर सकेगा और उनके संबंध में उपयुक्त सिफारिशें कर सकेगा।

आयोग, आपदा प्रबंध अधिनियम, 2005 [2005 का 53] के अधीन गठित निधियों के प्रतिनिर्देश से आपदा प्रबंध के वित्तपोषण के संबंध में विद्यमान व्यवस्थाओं का पुनर्विलोकन कर सकेगा और उनके संबंध में उपयुक्त सिफारिशें कर सकेगा।

आयोग उन आधारों को बताएगा, जिनके आधार पर वह अपने निष्कर्षों पर पहुंचा है और प्राप्तियों और व्यय के राज्य-वार अनुमान उपलब्ध कराएगा।

कर राजस्व का वितरण

कर अधिरोपित करने हेतु कानून निर्माण की विधायी शक्ति संघ एवं राज्यों के मध्य सातवीं अनुसूची में अंकित संघ एवं राज्य की विधायी सूचियों में विनिर्दिष्ट प्रविष्टियों के माध्यम से विभाजित की गई है।

उदाहरण के लिए राज्य विधान मण्डल को कृषि के सम्बन्ध में सम्पदा-शुल्क लगाने की शक्ति है, जबकि गैर-कृषि भूमि के सम्बन्ध में सम्पदा-शुल्क लगाने की शक्ति संसद को है। इसी प्रकार, राज्य का विधानमण्डल कृषि आय पर कर उद्ग्रहण करने हेतु सक्षम है, जबकि संसद को कृषि आय से भिन्न समस्त आय पर आय-कर अधिरोपित करने की शक्ति प्राप्त है।

संविघान (80वां संशोधन) अधिनियम, 2000

यह अधिनियम भूतलक्षी रूप से 1 अप्रैल, 1996 से लागू किया गया। इससे संघ और राज्य के बीच राजस्व के वितरण में अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया। इस संशोधन से पूर्व आय पर कर (कृषि आय से भिन्न) और उत्पाद शुल्क संघ द्वारा अधिरोपित और संगृहीत किए जाते थे। किंतु उस पर संघ और राज्य दोनों को हिस्सा मिलता था। हिस्सा क्या होगा यह वित आयोग की सिफारिश करने पर राष्ट्रपति द्वारा अवधारित किया जाता था। 80वें संशोधन के पश्चात् संघ सूची में निर्दिष्ट सभी कर और शुल्कों का विभाजन संघ और राज्यों के बीच होगा। इसके अपवाद हैं कर या शुल्क पर अधिभार या विशेष प्रयोजन के लिए लगाया गया उपकर। सीमा-शुल्क और निगम कर आदि भी विभाज्य हो गए हैं। पहले वे केवल संघ के खाते में जाते थे। यह 10वें वित्त आयोग की सिफारिश पर आधारित हैं। 80वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद-269, 270 और 271 में परिवर्तन किए गए जबकि अनुच्छेद 272 को निरसित कर दिया गया।

अनुच्छेद-270 में यह अधिकथित है कि संघ सूची में निर्दिष्ट सभी कर और शुल्क जो संघ सरकार द्वारा उद्गृहीत और संगृहीत किए जाते हैं संघ और राज्यों के बीच वितरणीय होंगे। इसके अपवादस्वरूप वे कर और शुल्क हैं जो अनुच्छेद-268, 268क और 269 में उल्लिखित हैं। करों का आगम किस प्रकार बांटा जाएगा यह वित्त आयोग की सिफारिश करने के पश्चात् निकाले गए राष्ट्रपति आदेश में इंगित होगा। यह नया अनुच्छेद-270 सन् 2000 में अंतः स्थापित किया गया। इसे 1996 से भूतलक्षी प्रभाव दिया गया। इसके कारण राज्यों के वित्तीय स्रोतों में वृद्धि हुई है।

अनुच्छेद-271 शुल्कों और करों पर अधिभार उद्गृहीत करने का प्रबंध करता है। ऐसे अधिभारों के आगम अनन्य रूप से संघ को जाते हैं। समय-समय पर सरकार आय कर, निगम कर आदि पर अधिभार अधिरोपित करती है। सरकार ने सीमा-शुल्क और उत्पाद शुल्क पर संघ के प्रयाजनों के लिए अधिभार और अतिरिक्त अधिभार उद्ग्रिहित किए जाते हैं। राज्यों को अधिभार में से कोई अंश नहीं मिलता।

कराधान के सम्बन्ध में (साधारण विधान के सम्बन्ध में भी) अवशिष्ट शक्ति संसद की प्राप्त है। उपहार-कर एवं व्यय-कर भी अवशिष्ट शक्तियों के अंतर्गत ही आते हैं। कर सम्बन्धी विधान के विषय में कोई समवर्ती क्षेत्र नहीं है। संक्षेप में, संघ तथा राज्यों के बीच कर राजस्व का वितरण निम्नलिखित प्रकार से होता है-

  • संघ के अधिकार में कर राजस्व:
  1. सीमा शुल्क
  2. निगम कर
  3. व्यक्तियों तथा कर्मचारियों की सम्पत्तियों के पूंजी मूल्य पर कर
  4. आय कर पर अधिभार आदि
  5. संघ-सूची के विषयों से संबंधित फीस (संघ-सूची)
  • राज्यों के अधिकार में कर राजस्व:
  1. भू-राजस्व
  2. संघ-सूची में सम्मिलित दस्तावेजों को छोड़कर अन्य दस्तावेजों पर स्टाम्प शुल्क
  3. उत्तराधिकार शुल्क, संविदा शुल्क और कृषि भूमि पर आय-कर
  4. अंतर्देशीय जल मार्गों द्वारा ले जाए जाने वाले माल और यात्रियों पर कर
  5. भूमि और भवनों पर कर, खनिज अधिकारों पर कर
  6. जीव-जंतु और नौकाओं पर कर, वाहनों पर कर, विज्ञापनों पर कर, विद्युत के उपभोग पर कर, विलास वस्तुओं और मनोरंजन पर कर आदि
  7. स्थानीय क्षेत्रों में माल के प्रवेश पर कर
  8. विक्रय कर
  9. पथ-कर
  10. राज्य-सूची के विषयों की बाबत फीस
  11. वृति, व्यापार आदि पर कर जो 2,500 रुपए प्रतिवर्ष से अधिक नहीं होगा (राज्य-सूची)। संपति शुल्क, चुंगी कर एवं सीमा कर स्थानीय संस्थाओं के राजस्व के मुख्य साधन हैं।
  • संघ द्वारा लगाए गए शुल्क जो राज्यों द्वारा संगृहीत और विनियोजित किए जाते हैं: विनिमय-पत्रों पर स्टाम्प शुल्क आदि, औषधीय और प्रशासन पर उत्पाद-शुल्क, यद्यपि ये संघ-सूची में सम्मिलित हैं और संघ द्वारा लगाये जाते हैं, इनका संग्रहण राज्यों द्वारा अपने-अपने राज्यक्षेत्र में किया जाता है और वे उन राज्यों की निधि के भाग होते हैं जो संग्रहण करते हैं (अनुच्छेद 268)।
  • संघ द्वारा आरोपित तथा संघ व राज्यों द्वारा संगृहीत व विनियोजित सेवा कर: 88वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा अनुच्छेद 268क जोड़ा गया है। इसमें यह व्यवस्था दी गई है कि सेवाओं पर करों का आरोपण भारत सरकार द्वारा किया जाएगा तथा इसका संग्रहण व विनियोजन भारत सरकार व राज्य सरकारों दोनों द्वारा किया जाएगा। यह कार्य संसद द्वारा संग्रहण व विनियोजन संबंधी निर्मित नियमों के अनुसार किया जाएगा।
  • संघ द्वारा लगाए गए कर जो संगृहीत कर राज्य को दिए जाते हैं:
  1. कृषि भूमि से भिन्न सम्पति के उत्तराधिकार के संबंध में शुल्क
  2. कृषि भूमि से भिन्न सम्पति के संबंध में संपदा शुल्क,
  3. रेल, समुद्र या वायु मार्ग द्वारा ले जाए जाने वाले माल या यात्रियों पर सीमा कर,
  4. रेल भाड़ों और माल भाड़ों पर कर,
  5. स्टॉक एक्सचेंजों तथा वायदा बाजारों के व्यवहारों पर स्टाम्प शुल्क से भिन्न कर
  6. समाचार-पत्रों के क्रय या विक्रय पर और उनमें प्रकाशित विज्ञापनों पर कर,
  7. समाचार-पत्रों से भिन्न माल के क्रय या विक्रय पर उस दशा में कर, जिसमें ऐसा क्रय या विक्रय अंतरराज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान होता है,
  8. माल के अंतरराज्यीय पारेषण पर कर (अनुच्छेद-269)।
  • संघ द्वारा आरोपित तथा संगृहीत किए जाने और संघ एवं राज्यों के बीच वितरित किए जाने वाले कर: कुछ कर संघ को एक निश्चित अनुपात में वितरित किया जाता है। ये हैं-
  1. संविधान के अनुच्छेद 270 के अनुसार कृषि आय से भिन्न आय पर कर
  2. अनुच्छेद 272 के अनुसार संघ-सूची में सम्मिलित उत्पाद शुल्क, यदि संसद विधि द्वारा वितरण के लिए प्रावधान करे। औषधीय और प्रसाधन उत्पादन पर उत्पाद शुल्क इसके अंतर्गत नहीं है।
  • संघ को कर भिन्न राजस्व से प्राप्तियों के मुख्य स्रोत: रेल, डाक और तार, प्रसारण, अफीम, करेंसी और टकसाल, केन्द्रीय सरकार के ऐसे औद्योगिक और वाणिज्यिक उपक्रम, जो संघ के अधिकार क्षेत्र के अधीन आने वाले विषयों से संबंधित हैं। केंद्रीय विषयों से संबंधित औद्योगिक और वाणिज्यिक उपक्रमों में से कुछ प्रमुख उपक्रम हैं- औद्योगिक वित्त निगम, एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस, वे उद्योग जिनमें भारत सरकार ने पूंजी लगाई है,जैसे- स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड, हुन्दुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड, इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड।
  • राज्यों की प्राप्त प्राप्तियां: वन, सिंचाई और वाणिज्यिक उपक्रम (जैसे- विद्युत, सड़क परिवहन), औद्योगिक उपक्रम (जैसे-कर्नाटक में साबुन, चंदन की लकड़ी, लौह और इस्पात; मध्य प्रदेश में कागज; मुंबई में दुग्ध प्रदाय; पश्चिम बंगाल में गहरे समुद्र में मछली पकड़ना और रेशम)।

अनुदान और ऋण

संघ, राज्यों को एक निश्चित अनुपात के अतिरिक्त भी दो रूप में अनुदान तथा ऋण प्रदान करती है-

  1. राज्यों को सहायता अनुदान तथा अन्य अनुदान
  2. राज्यों को ऋण

संविधान ने संघ तथा राज्य दोनों को ही अनुदान देने की शक्ति प्रदान की है। परंतु वास्तविक अर्थों में संघ इस संबंध में अधिक शक्तिशाली है। संघ अपने वैधानिक क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त भी सहायता अनुदान राज्यों को दे सकती है तथा इसी प्रावधान के अनुसार राष्ट्रीय विकास कार्यक्रम के तहत बड़ी पूंजी वाला सहायता अनुदान दिया जाता है। सहायता अनुदान राज्यों को बजट घाटे को पूरा करने के लिए भी दिया जाता है।

संघ सरकार को उधार लेने की असीमित शक्ति है तथा यह उधार देश के अंदर या बाहर दोनों से लिया जा सकता है, परंतु संविधान के भाग-12 के अध्याय 2 के अनुच्छेद 292 के अंतर्गत संसद द्वारा इसकी स्वीकृति आवश्यक है। साथ ही अनुच्छेद 293 के अंतर्गत संविधान ने

  • भारतीय संविधान के अंतर्गत संघ एवं राज्यों के मध्य तीन प्रकार के सम्बन्धों- विधायी, प्रशासनिक एवं वित्तीय- की व्यवस्था की गई है।
  • संघ एवं राज्यों के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों के माध्यम से किया गया है; ये सूचियां हैं-
  1. संघ सूची, इसमें राष्ट्रीय महत्व वाले कुल 97 विषय हैं;
  2. राज्य सूची, इसमें प्रांतीय महत्व वाले 66 विषय हैं, तथा;
  3. समवतीं सूची, इसमें 47 विषय हैं, जिन पर संघीय संसद एवं राज्य विधानमंडल दोनों ही कानून बना सकते हैं (अनुच्छेद-245-254)।
  • अवशिष्ट शक्तियां कनाडा की भांति संघ को प्रदान की गई हैं।
  • प्रशासनिक शक्तियों के संदर्भ में राज्यों की अपेक्षा संघ अधिक शक्तिशाली है तथा राष्ट्रीय हितों को दृष्टिगत रखते हुए राज्य सरकारों के प्रशासन पर संघ सरकार का पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया गया है (अनुच्छेद-256-263)।
  • संघ एवं राज्यों के मध्य वित्तीय शक्ति का विभाजन 1935 के अधिनियम पर आधारित है।
  • 1951 में गठित प्रथम वित्त आयोग के अध्यक्ष के.सी. नियोगी थे।

उधार लेने के संबंध में राज्यों के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित की हैं-

  1. राज्य भारत के बाहर सेऋण प्राप्त नहीं कर सकता,
  2. राज्य कार्यपालिका भारत के अंदर से ऋण प्राप्त कर सकती है परंतु उसे इसके लिए कुछ सिक्योरिटी पेपर जमा करने पड़ते हैं। इसके लिए शर्ते हैं- (a) राज्य विधान मंडल द्वारा सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं; (b) यदि संघ का राज्यों पर बकाया ऋण है तो राज्य विधानमंडल संघ की अनुमति के बिना ऋण के लिए आवेदन नहीं कर सकता है, तथा; (C) संविधान के अनुसार भारत सरकार स्वयं अपनी मर्जी से राज्यों को ऋण प्रदान कर सकती है बशर्ते कि राज्यों पर ऋण बकाया न ही अन्यथा नये ऋण के लिए आवेदन नहीं किया जा सकता है।

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