प्रान्तीय राजवंश: मेवाड़ Provincial Dynasty: Mewar

कुछ राजपूत राज्यों में तुर्क-अफगान-साम्राज्य के खंडित होने पर पुनरुत्थान का भाव जाग्रत हो चला था। इनमें सबसे प्रमुख मेवाड़ का गुहिल राज्य था। यहाँ राजपूत प्रतिभा अत्यंत चमक तीव्रता के साथ प्रस्फुटित हुई। पीढ़ियों तक इसने लगातार साहसी सेनापति, वीर नेता, बुद्धिमान् शासक तथा कुछ प्रसिद्ध कवि उत्पन्न किये। सातवीं सदी में ही गुहिलवंश के साहसी और शूरवीर राजपूतों ने इस प्रदेश में अपनी शक्ति स्थापित कर ली थी। हम पहले ही यह कह चुके हैं कि किस प्रकार अलाउद्दीन खल्जी ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर घेरा डाल कर उसे जीत लिया तथा किस प्रकार हमीर अथवा उसके पुत्र ने इसे मुसलमानों के हाथों से मुक्त कर अपनी जाति के खोये हुए सम्मान को पुनः प्राप्त कर लिया। हमीर पूरी आयु का होकर सम्भवः 1364 ई. में मर गया। अपने पीछे वह एक ऐसा नाम छोड़ गया, जो आज भी मेवाड में उसके एक अत्याधिक बुद्धिमान् एवं परम वीर राजा के रूप में सम्मानित होता है। अपने पुत्र क्षेत्र सिंह को वह सुस्थापित एवं विस्तृत शक्ति दे गया। क्षेत्र सिंह 1382 ई. में या उसी के लगभग एक पारिवारिक झगड़े में मारा गया। उसके बाद उसका पुत्र लाखा आया। 1418 ई. के बाद लाखा की मृत्यु होने पर उसका पुत्र मोंकल मेवाड़ की गद्दी पर बैठा; पर 1431 ई. में या उसी के लगभग उसके दो चाचाओं ने उसकी हत्या कर दी। मेवाड़ का अगला शासक राणा कुम्भा था, जो भारत के इतिहास के सबसे विख्यात शासकों में है। उसके राज्य के इतिहास में उसका शासन-काल एक महत्वपूर्ण युग था। टॉड इस प्रकार उसके कार्यों की प्रशंसा करता है- काकेशस के किनारे एवं औक्सस के तट पर जमा होने वाले झंझावार के विरुद्ध, जो उसके पौत्र साँगा के सिर पर अचानक आने वाला था, उसके (मेवाड़ के) साधनों के बढ़ाने में जो सारा अभाव था, उसे कुम्भा ने पूरा किया। उसने हमीर की स्फूर्ति, लाखा की कलारुचि तथा विस्तृत और उतनी ही अथवा अधिक सौभाग्यपूर्ण प्रतिभा के साथ अपने सभी कार्यों में सफलता प्राप्त की तथा पुन: एक बार मेवाड़ के लाल झंडे को घग्घर नदी के किनारे, जहाँ समरसी की पराजय हुई थी, खड़ा किया।  कुम्भा ने मालवा एवं गुजरात के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध युद्ध किया। यद्यपि उसे अपने सभी साहसपूर्ण कायाँ में सफलता नहीं मिली, फिर भी वह अपने महत्त्वाकांक्षी पड़ोसियों के विरुद्ध अपनी स्थिति को बचाये रख सका।

वह एक महान् निर्माता भी था। मेवाड़ अपने कुछ अत्यन्त सुन्दर स्मारकों के लिए उसका आभारी है। मेवाड़ की रक्षा के लिऐ बनाये गये 54 दुर्गों में 36 कुम्भा के द्वारा निर्मित हुए थे। उसकी सैनिक एवं रचनात्मक प्रतिभा का सबसे अधिक देदीप्यमान स्मारक कुम्भलगढ़ का दुर्ग है जो सामरिक महत्त्व अथवा ऐतिहासिक ख्याति में किसी से घटकर नहीं है। कुम्भा का जयस्तम्भ, जिसे कीर्तिस्तम्भ भी कहा जाता है, उसकी प्रतिभा का एक दूसरा स्मारक है। राणा कवि, विद्वान् एवं निपुण संगीतज्ञ था। उसने एक ग्रन्थ एकलिंग महात्म्य की रचना की। उसके पुत्र उदयकरण ने सम्भवत: 1469 ई. में उसकी हत्या कर दी। उदय की इस निष्ठुरता ने सरदारों को थर्रा दिया। उन्होंने उसके अनुज रायमल्ल को राणा स्वीकार किया। रायमल्ल के पुत्र उत्तराधिकार के लिए आपस में लड़ने लगे। अंत में उनमें से एक संग्राम अथवा साँगा, जिस नाम से वह प्रायः पुकारा जाता था, मेवाड़ की गद्दी पर 1509 ई. में अथवा उसके लगभग बैठा। साँगा विलक्षण सैनिक पराक्रम से सम्पन्न था। उस वीर ने एक सौ युद्ध लडे थे। एक आँख से अंधे होने तथा एक पैर से लँगडे होने के अतिरिक्त उसके शरीर में अस्सी जख्मों के दाग थे। उसने मालवा, दिल्ली तथा गुजरात के विरुद्ध सफल युद्ध किया। दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद मेवाड़ की प्रभुता स्थापित करने के ध्येय से उसने उसके (मेवाड़ के) वित्तीय साधनों एवं सैनिक बल को संगठित किया। इस प्रकार उसके तथा किसी अन्य शक्ति के बीच, जो उस समय उत्तरी भारत में प्रभुता स्थापित करने की कोशिश कर रही थी, संघर्ष अनिवार्य था। खानवा का युद्ध, इसी बात का न्यायसंगत परिणाम था।

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