उत्तर वैदिक काल Post Vedic period

सभ्यता के काल का विभाजन अत्यन्त कठिन है। ऋग्वैदिक काल की सभ्यता, आर्यों के भारत प्रवेश से लेकर ऋग्वेद की रचना और उसके बहुत पश्चात् तक की सभ्यता है। ऋग्वेद के बाद जब कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थों की रचना हो जाती है, तब इस काल की सभ्यता को ऋग्वैदिक काल की सभ्यता से पृथक करने की समस्या उठ खड़ी होती है। ऋग्वैदिक काल के बाद उस काल को जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थों, अरण्यकों एवं उपनिषदों की रचना हुई, उत्तर वैदिक काल के नाम से जाना जाता है। उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं यथा, पुरातात्विक एवं साहित्यिक।

पुरातात्विक साक्ष्य

उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए चित्रित धूसर मृदभांड और लोहे के उपकरण महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य हैं। साथ ही, स्थायी निवास स्थापित होने के कारण अब वह भी एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य हो गया। जब चित्रित धूसर मृदभांडों के साथ लौह उपकरण भी संबद्ध हो गए तब उनकी पहचान उत्तरवैदिक स्थल के रूप में की गई। लगभग 1000 ई.पू. में भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों लोहे के उपकरणों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। अब तक लगभग 750 चित्रित धूसर मृदभांडों के साथ लौह उपकरण नहीं अपितु ताँबे तथा काँसे के उपकरण मिले हैं। उदाहरण के लिए, भगवान पुरा दधेरी, नागर एंव कटपालन। इस आधार पर यह स्थापित किया गया है कि चित्रित धूसर मृदभांड में भी दो चरण रहे- (1) पूर्व लौह चरण तथा (2) लौह चरण।

साहित्यिक स्रोत

इस काल को जानने के लिए महत्त्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, अरण्यक और कुछ उपनिषद् हैं। अधिकतर उत्तर वैदिक ग्रंथ पश्चिमी गंगा घाटी कुरू-पांचाल क्षेत्र से संबद्ध रहे हैं परन्तु शतपथ ब्राह्मण उत्तरी बिहार के क्षेत्र से भी संबद्ध प्रतीत होता है।

विस्तार

वैदिक सभ्यता का प्रसार जितना उत्साही राजकुमारों के प्रयास उतना ही पुरोहितों द्वारा अग्नि को नये प्रदेश का स्वाद चखाने 1000 ई.पू. में जब लोहे के उपकरण बनने लगे तो गंगा यमुना को साफ करना अधिक सुगम हो गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आर्यों का सामना उन लोगों से हुआ जो तांबे के औजार एवं गेरूए मृदभांड का इस्तेमाल करते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी बिहार में उनका सामना ऐसे लोगों से हुआ जो तांबे के औजार व काले एवं लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग करते थे। यह कहना मुश्किल है कि उनका मुकाबला उत्तर हड़प्पाई लोगों से हुआ या मिश्रित नस्लों के लोगों से। विस्तार के दूसरे दौर में वे इसलिए सफल हुए कि उनके पास लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ थे।


पंजाब से आर्यजन गंगा यमुना दोआब के अंतर्गत संपूर्ण उत्तर प्रदेश में फैल गए। दो प्रमुख कबीले भरत और पुरू एक होकर कुरू के नाम से प्रख्यात हुए। आरंभ में वे लोग दोआब के ठीक छोर पर सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों के प्रदेश में बसे और प्रारंभ में उनकी राजधानी असन्दीवात थी। शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली एवं ऊपरी दोआब पर अधिकार कर लिया और यही कुरूक्षेत्र कहलाने लगा। उनकी राजधानी हस्तिनापुर हो गई। बल्हिक, प्रतिपीय, राजा परीक्षित, जन्मेजय आदि इसी राजवंश के प्रमुख राजा हुए। परीक्षित का नाम अथर्ववेद में मिलता है। जन्मेजय के बारे में ऐसा माना जाता है कि उसने सर्पसत्र एवं दो अवश्मेध यज्ञ किए। कुरू वंश का अन्तिम शासक निचक्षु था। वह हस्तिनापुर से राजधानी कौशांबी ले आया क्योंकि हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो चुका था। कुरू कुल के इतिहास से ही महाभारत का युद्ध भी जुड़ा है। यह युद्ध 950 ई.पू. कौरवों और पांडवों के बीच हुआ। यद्यपि दोनों कुरू कुल के ही थे।

पांचाल- मध्य दोआब में क्रीवी एवं तुर्वस आर्य शाखाओं ने मिलकर पांचाल राजवंश की स्थापना की। इसका क्षेत्र आधुनिक बरेली, बदायूँ एवं फरूखाबाद है। इसके महत्त्वपूर्ण शासक प्रवाहण जैवलि थे, जो विद्वानों के संरक्षक थे। पांचाल दार्शनिक राजाओं के लिए जाना जाता है। आरूणि श्वेतकेतु इसी क्षेत्र से जुड़े हुए थे। उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का केंद्र मध्य देश था। यह सरस्वती से गंगा के दोआब तक फैला हुआ था। गंगा यमुना दोआब क्षेत्र से आर्यों का विस्तार सरयू नदी तक हुआ और सरयू नदी के किनारे कौशल राज्य की स्थापना हुई, जो रामकथा से जुड़ा हुआ है। फिर आर्यों का विस्तार वरणवति के किनारे हुआ और काशी राज्य की स्थापना हुई। तत्पश्चात सदानीरा नदी (गंडक) के किनारे विदेह राज्य की स्थापना हुई। माना जाता है कि विदेह माधव ने अपने गुरु राहुलगण की सहायता से अग्नि के द्वारा इस क्षेत्र को शुद्ध किया था। इसकी सूचना हमें शतपथ ब्राह्मण से मिलती है।

अजातशत्रु को एक दार्शनिक राजा माना जाता था। वह बनारस से संबद्ध था। सिंधु नदी के दोनों तटों पर गांधार जनपद था। गांधार और व्यास नदी के बीच कैकेय का देश अवस्थित था। इस वंश का दार्शनिक राजा अश्वपति कैकेय था। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार उसने दावा किया था कि- मेरे राज्य में न चोर है न मद्यप, न क्रियाहीन और न व्याभिचारी और न अविद्वान्।  मध्य पंजाब में सियालकोट और उसके आस-पास मद्र देश था। राजस्थान के जयपुर, अलवर और भरतपुर में मत्स्य राज्य की स्थापना हुई। मध्य प्रदेश में कुशीनगर की स्थापना हुई। आयाँ ने विंध्यांचल के क्षेत्र तक प्रसार किया। गंगा-यमुना दोआब एवं उसके नजदीक का देश ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। हिमालय एवं विध्यांचल के बीच का क्षेत्र मध्यदेश कहलाता था। उत्तर वैदिक ग्रंथों में ऋग्वैदिक ग्रंथों की तुलना भौगोलिक जानकारी बेहतर प्रतीत होती है। इनमें दो समृद्ध अरब सागर एंव हिन्द महासागर का वर्णन है। इसमें हिमालय पर्वत की कई चोटियों की भी चर्चा है। उसी प्रकार उनमें विंध्य पर्वत का भी अप्रत्यक्ष रूप में जिक्र किया गया है। दक्षिण में आर्य सभ्यता के बाहर पुलिंद (दक्षिण), शबर (मध्य प्रांत एवं उड़ीसा), व्रात्य (मगध) और निषाद् आदि निवास करते थे। जैसे-जैसे आर्य पूरब की ओर बढ़ते गए, वे पश्चिम का क्षेत्र भूलते गए। क्योंकि उत्तरवैदिक ग्रंथों में पंजाब का जिक्र नहीं के बराबर मिलता है और अगर समिति रूप में इसका जिक्र हुआ भी है तो इसे अशुद्ध क्षेत्र माना गया जहाँ वैदिक यज्ञ संपन्न नहीं किया जा सकता।

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