पादप ऊतक Plant Tissue

समान उत्पत्ति तथा समान कार्यों को सम्पादित करने वाली कोशिकाओं के समूह को ऊतक (Tissues) कहते हैं। ऊतक का अध्ययन जीव विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे औतिकी (Histology) कहते हैं। इस शाखा की स्थापना इटली के वैज्ञानिक मारसैली मैल्पीघी (Marcello Malpighi) ने की थी। इस शाखा का Histology नामकरण मायर (1819 ई.) नामक वैज्ञानिक के द्वारा किया गया। ऊतक शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम बिचट (1771-1802 ई०) ने किया था।

पौधों के शरीर में प्रत्येक ऊतक का एक विशिष्ट कार्य होता है। सभी ऊतक शीर्षस्थ कोशिकाओं के समूह में विभाजन से उत्पन्न होते हैं तथा धीरे-धीरे अपने कार्यों के अनुरूप अनुकूलित हो जाते हैं।

पादप ऊतक के प्रकार: ऊतक के कोशिकाओं की विभाजन क्षमता के आधार पर पादप ऊतक दो प्रकार के होते हैं-

  1. विभाज्योतिकी ऊतक (Meristematic tissue)
  2. स्थायी ऊतक (Permanent tissue)
  3. विभाज्योतिकी ऊतक (Meristematic tissues): यह ऊतक ऐसी कोशिकाओं का समूह होता है, जिनमें बार-बार सूत्री विभाजन (Mitosis division) करने की क्षमता होती है। यह ऊतक अवयस्क (Immature) जीवित कोशिकाओं का बना होता है। इस ऊतक की कोशिकाएँ छोटी, अंडाकार या बहुभुजी होती हैं और इसकी भिति सैल्यूलोज की बनी होती है। प्रत्येक कोशिका घने, कणयुक्त कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) से भरी रहती है। इन कोशिकाओं में प्रायः रसधानी अनुपस्थित रहती है। इसमें एक बड़ा केन्द्रक होता है तथा कोशिकाओं के बीच अंतरकोशिकीय स्थान (Inter cellular space) नहीं पाया जाता है।

यह ऊतक स्थिति (Position) के आधार पर निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है-

(a) शीर्षस्थ विभाज्योतिकी ऊतक (Apical meristem)

(b) पार्श्वस्थ विभाज्योतिकी ऊतक (Lateral meristern) तथा

(c) अन्तर्वेशी विभाज्योतिकी ऊतक (Intercalary meristem)


(a) शीर्षस्थ विभाज्योतिकी ऊतक: यह ऊतक जड़ एवं तने के शीर्ष भाग में उपस्थित होता है तथा लम्बाई में वृद्धि करता है। यह ऊतक प्राथमिक विभाज्योतिकी से बनता है। इससे कोशिकाएँ विभाजित एवं विभेदित (differentiated) होकर स्थायी (Permanent tissue) ऊतक बनाते हैं। इससे पौधों में प्राथमिक वृद्धि होती है।

(b) पार्श्वस्थ विभाज्योतिकी ऊतक: यह ऊतक जड़ तथा तने के पार्श्व भाग में होता है एवं द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth) करता है। इससे संवहन ऊतक (Vscular tissues) बनते हैं, जो भोजन संवहन का कार्य करते हैं एवं संवहन ऊतकों के कारण तने की चौड़ाई में वृद्धि होती है। संवहन ऊतक में अवस्थित कैम्बियम (Cambium) एवं वृक्ष के छाल के नीचे का कैम्बियम पार्श्वस्थ विभाज्योतिकी का उदाहरण है। पार्श्वस्थ विभाज्योतिकी ऊतक ही द्वितीयक विभाज्योतिकी है।

(c) अंतर्वेशी या अंतर्विष्ट विभाज्योतिकी ऊतक: यह ऊतक स्थायी ऊतक के बीच-बीच में पाया जाता है। ये पत्तियों के आधार में या टहनी के पर्व (Internode) के दोनों ओर पाए जाते हैं। यह वृद्धि करके स्थायी ऊतकों में परिवर्तित हो जाते हैं।

  1. स्थायी ऊतक (Permanent tissue): विभाज्योतकी ऊतक (अस्थायी ऊतक) की वृद्धि के फलस्वरूप स्थायी ऊतक (Permanent tissue) का निर्माण होता है जिसमें विभाजन की क्षमता नहीं होती है लेकिन कोशिका का रूप एवं आकार निश्चित रहता है। ये मृत या सजीव होते हैं। कोशिकाभित्ति पतली या मोटी होती है। कोशा द्रव्य में बड़ी रसधानी रहती है। उत्पत्ति के आधार पर स्थायी ऊतक दो प्रकार के होते हैं-
  2. प्राथमिक (Primary) तथा 2. द्वितीयक (secondary)।

प्राथमिक स्थायी ऊतक शीर्षस्थ एवं अन्तर्वेशी विभाज्योतक से तथा द्वितीयक स्थायी ऊतक पार्श्वस्थ विभाज्योतक या कैम्बियम कोशिकाओं से बनता है। संरचना के आधार पर स्थायी ऊतक दो प्रकार के होते हैं-

  1. सरल ऊतक (Simple tissue) तथा 2. जटिल ऊतक (Complex tissue)
  2. सरल स्थायी ऊतक (simple permanent tissue): यह ऊतक समरूप कोशिकाओं का बना होता है। यह निम्नलिखित प्रकार का होता है- (i) मृदुतक (Parenchyma), (ii) स्थूलकोण ऊतक (Collenchyma), (iii) दृढ़ ऊतक (Sclerenchyma)।

(1) मृदुतक (Parenchyma):  यह अत्यन्त सरल प्रकार का स्थायी ऊतक होता है। इस ऊतक की कोशिकाएँ जीवित, गोलाकार, अंडाकार, बहुभुजी या अनियमित आकार की होती हैं। इस ऊतक की कोशिका में सघन कोशाद्रव्य एवं एक केन्द्रक पाया जाता है। इनकी कोशिका-भित्ति पतली एवं सेल्यूलोज की बनी होती है। इस प्रकार की कोशिकाओं के बीच अंतर कोशिकीय स्थान रहता है। कोशिका के मध्य में एक बड़ी रसधानी (vacuole) रहती है। यह नए तने, जड़ एवं पतियों के एपिडर्मिस (Epidermis) और कॉर्टेक्स (Cortex) में पाया जाता है। कुछ मृदुतक में क्लोरोफिल पाया जाता है जिसके कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। इन ऊतकों की हरित ऊतक या क्लोरेनकाइमा (Chlorenchyma) कहते हैं। जलीय पौधों में तैरने के लिए गुहिकाएँ (Cavities) रहती हैं, जो मृदुतक के बीच पायी जाती है। इस प्रकार के मृदुतक की वायुतक या ऐरेनकाइमा (Aerenchyma) कहते हैं।

कार्य (Function):

(a) यह एपिडर्मिस के रूप में पौधों का संरक्षण करता है।

(b) पौधे के हरे भागों में, खासकर पत्तियों में यह भोजन का निर्माण करता है।

(c) यह ऊतक संचित क्षेत्र (Storage region) में भोजन का संचय करता है। यह उत्सर्जित पदार्थों, जैसे- गोंद, रेजिन, टेनिन आदि को भी संचित करता है।

(d) यह ऊतक भोजन के पार्श्व चालन में सहायक होता है।

(e) इनमें पाए जाने वाले अंतरकोशिकीय स्थान गैसीय विनिमय में सहायक होते हैं।

(ii) स्थूलकोण ऊतक (Cullenchyma): इस ऊतक की कोशिकाएँ केन्द्रकयुक्त, लम्बी या अण्डाकार या बहुभुजी, जीवित तथा रसधानीयुक्त होती हैं। इनमें हरितलवक होता है एवं भित्ति में किनारों पर सेल्यूलोज होने से स्थूलन होता है। इनमें अंतर कोशिकीय स्थान बहुत कम होता है। यह ऊतक पौधे के नए भागों पर पाया जाता है। यह विशेषकर तने के एपिडर्मिस के नीचे, पर्णवृन्त (Leaf Petiole), पुष्पवृन्त (Pedicel) और पुश्पावली वृन्त (Peduncle) पर पाया जाता है लेकिन जड़ों में नहीं पाया जाता है।

कार्य (Function):

  1. यह पौधों को यांत्रिक सहायता प्रदान करता है।
  2. जब इनमें हरितलवक पाया जाता है, तब यह भोजन का निर्माण करता है।

(iii) दृढ़ ऊतक (sclerenchyma): इस ऊतक की कोशिकाएँ मृत, लम्बी, संकरी तथा दोनों सिरों पर नुकीली होती हैं। इनमें जीवद्रव्य नहीं होता है एवं इनकी भिति लिग्निन (Lignin) के जमाव के कारण मोटी हो जाती है। ये भित्तियाँ इतनी मोटी होती हैं कि कोशिका के भीतर कोई आन्तरिक स्थान नहीं रहता है। यह कॉर्टेक्स (Cortex), पेरिसाइकिल (Pericycle), संवहन बण्डल में पाया जाता है। दृढ़ ऊतक पौधों के तना, पत्तियों के शिरा (vein), फलों तथा बीजों के बीजावरण तथा नारियल के बाहरी रेशेदार छिलके में पाए जाते हैं। जिन पौधों से रेशा (Fibre) उत्पन्न होता है, उनमें यह ऊतक प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

कार्य (Function):

(a) यह पौधों को यांत्रिक सहारा प्रदान करता है।

(b) यह पौधों के आन्तरिक भागों की रक्षा करता है।

(c) पौधों के बाह्य परतों में यह रक्षात्मक ऊतक के रूप में कार्य करता है।

(d) यह पौधों को सामथ्र्य, दृढ़ता एवं लचीलापन (Flexibility) प्रदान करता है।

  1. जटिल ऊतक (Complex tissue): दो या दो से अधिक प्रकार की कोशिकाओं से बने ऊतक जटिल स्थायी ऊतक (Complex permanent tissue) कहलाते हैं। ये एक इकाई के रूप में एक साथ कार्य करती हैं। ये जल, खनिज लवणों तथा खाद्य पदार्थ को पौधे के विभिन्न अंगों तक पहुँचाते हैं।

ये दो प्रकार के होते हैं-

(i) जाइलम (xylem) या दारु तथा

(ii) फ्लोएम (Phloem) या बास्ट

जाइलम एवं फ्लोएम मिलकर संवहन बण्डल का निर्माण करते हैं। अत: इन दोनों को संवहन ऊतक (Vascular tissue) भि कहते हैं।

(i) जाइलम (Xylem): यह ऊतक पौधों के जड़, तना एवं पत्तियों में पाया जाता है। इसे चालन ऊतक (Conducting tissue) भी कहते हैं। यह चार विभिन्न प्रकार के तत्वों से बना होता है। ये हैं-

(a) वहिनिकाएं (Tracheids), (b) वाहिकाएं (vessels), (c) जाइलम तंतु (Xylem fibres) तथा (d) जाइलम ऊतक (Xylem parenchyma)।

(a) वाहिनिकाएँ (Tracheids): इनकी कोशिका लम्बी, जीवद्रव्य विहीन, दोनों सिरों पर नुकीली तथा मृत होती है। इनकी कोशिकाभिति मोटी एवं स्थूलित होती है। वाहिनिकाएँ संवहनी पौधों की प्राथमिक एवं द्वितीयक जाइलम दोनों में पायी जाती हैं। ये पौधों को यांत्रिक सहारा प्रदान करती हैं तथा जल को तने द्वारा जड़ से पत्ती तक पहुँचाती हैं।

(b) वाहिकाएँ (vessels): इनकी कोशिकाएँ मृत एवं लम्बी नली के समान होती हैं। कभी-कभी स्थूलित भितियाँ विभिन्न तरह से मोटी होकर वलयाकार, सर्पिलाकार, सीढ़ीनुमा, गर्ती (Pitted), जालिकारूपी (Reticulate) वाहिकाएँ बनाती हैं। ये वाहिकाएँ आवृत्तबीजी (Angiosperm) पौधों के प्राथमिक एवं द्वितीयक जाइलम में पायी जाती है। ये पौधों की जड़ से जल एवं खनिज-लवण को पत्ती तक पहुँचाते हैं।

(c) जाइलम तन्तु (xylem fibres): ये लम्बे, शंकु रूप तथा स्थूलित भित्ति वाले मृत कोशिका होती हैं। ये प्रायः काष्ठीय द्विबीजपत्री पौधों में पाये जाते हैं। ये मुख्यतः पौधों को यांत्रिक सहारा प्रदान करते हैं।

(d) जाइलम मृदुतक (Xylem parenchyma): इनकी कोशिकाएँ प्रायः पेरेनकाइमेट्स एवं जीवित होती हैं। यह भोजन संग्रह का कार्य करता है। यह किनारे की ओर पानी के पाशवीय संवहन में मदद करता है।

(ii) फ्लोएम (Phloem): जाइलम की भाँति फलोएम भी पौधों की जड़, तना एवं पतियों में पाया जाता है। यह पत्तियों द्वारा तैयार भोज्य पदार्थ को पौधों के विभिन्न भागों तक पहुँचाता है। यह एक संचयक ऊतक है जो पौधों को यांत्रिक संचयन प्रदान करता है। फ्लोएम निम्नलिखित चार तत्वों का बना होता है- (a) चालनी नलिकाएँ (sieve tubes), (b) सहकोशिकाएँ (Companion cells) (c) फ्लोएम तंतु (Phloem fibres) तथा (d) फ्लोएम मृदुतक (Phloem parenchyma)।

(a) चालनी नलिकाएँ (Sieve tubes): ये लम्बी, बेलनाकार तथा छिद्रित भित्ति वाली कोशिकाएँ होती हैं। ये एक दूसरे पर परत सदृश सजी रहती हैं। दो कोशिकाओं की विभाजनभिति छिद्रयुक्त होती है, जिसे चालनी पट्टी (sieve Plate) कहते हैं। चालनी नलिका की वयस्क अवस्था में केन्द्रक अनुपस्थित होता है। एक चालनी नलिका का कोशिकाद्रव्य चालनी पट्टिका के छिद्र द्वारा ऊपर और नीचे के चालनी नलिकाओं से सम्बद्ध रहते हैं। चालनी नलिकाएँ संवहनी पौधों के फ्लोएम में पाये जाते हैं। इस नलिका द्वारा तैयार भोजन पत्तियों से संचय अंग और संचय अंग से पौधे के वृद्धिक्षेत्र में जाता है।

(b) सहकोशिकाएँ (Companion Cells): ये चालनी नलिकाओं के पार्श्व भाग में स्थित रहती हैं। प्रत्येक सहकोशिका लम्बी एवं जीवित होती है जिसमें केन्द्रक एवं जीवद्रव्य होता है। ये केवल एन्जियोस्पर्म के फ्लोएम में पायी जाती है। यह चालनी नलिकाओं में भोज्य पदार्थ के संवहन में सहायता करता है।

(c) फ्लोएम तन्तु (Phloem fibres): ये लम्बी, दृढ़ एवं स्केलरनकाइमेटस कोशिकाओं की बनी होती हैं। यह फ्लोएम ऊतक को यांत्रिक सहारा प्रदान करता है।

(a) फ्लोएम मुदुतक (Phloemparenchyma): ये जीवित, लम्बी एवं केन्द्रकयुक्त कोशिकाएँ होती हैं जो सहकोशिकाओं के निकट स्थित रहती हैं। ये भोज्य पदार्थ के संवहन में सहायक होती हैं।

वार्षिक वलय (Annual rings): किसी स्थान पर वर्ष की विभिन्न ऋतुओं में जलवायु के क्रमिक परिवर्तन के कारण कैम्बियम की सक्रियता परिवर्तित होती रहती है। बसन्त ऋतु (spring season) में रस के संवहन की अधिक जरूरत होती है जबकि शरद ऋतु में पौधे की सक्रियता कम रहती है। इसी कारण बसन्त ऋतु में मोटी वाहिकाएँ तथा शरद ऋतु में पतली वाहिकाएँ बनती हैं। इसके परिणामस्वरूप स्पष्ट वार्षिक वलय बनते हैं। ये वार्षिक वलय एक वर्ष की वृद्धि को प्रदर्शित करते हैं। इसके द्वारा वृक्ष में उपस्थित वार्षिक वलयों की गणना कर वृक्ष की अवस्था की सही जानकारी प्राप्त की जा सकती है। वार्षिक वलय का अध्ययन डेन्डोक्रोनोलॉजी (Dendrochronology) कहलाता है।

कॉर्क (Cork): कॉर्क कैम्बियम द्वारा बाहर की ओर कॉर्क का निर्माण होता है। परिपक्व होने पर यह मृत हो जाती है तथा इनमें वायु भर जाती है। कॉर्क सुबेरिन (suberin) नामक रासायनिक पदार्थ से बनती है। बोतलों में लगाया जाने वाला कॉर्क इसका उत्तम उदाहरण है जो क्यूर्कस सुबर (Quercus suber) नमक पौधे से प्राप्त होता है।

द्वितीयक वृद्धि (secondary growth): अधिकांश द्विबीजपत्रियों में स्तम्भ (तना) एवं जड़ों में मोटाई में वृद्धि होती है। यह वृद्धि एधा (Cambium) तथा कॉर्क कैम्बियम (Corkcambium) की क्रियाशीलता के कारण होती है। अतः एधा (Cambium) एवं कॉर्क  कैम्बियम (Cork cambium) की क्रियाशीलता के कारण स्तम्भ या जड़ के रंभीय (stelar) एवं एक्स्ट्रा स्टीलर (Extrastelar) भागों में हुई मोटाई में वृद्धि, द्वितीयक वृद्धि कहलाती है। कुछ एक बीज पत्री पौधे जैसे ड्रेसिना (Dracena), एलो, युक्का (Yucca) आदि में भी द्वितीयक वृद्धि देखने को मिलती है। लम्बाई एवं भार में बढ़ते हुए तनों तथा इसकी शाखाओं की दृढ़ता के लिए द्वितीयक वृद्धि आवश्यक है। द्वितीयक वृद्धि प्रायः द्विबीज पत्री पौधों में ही होती है। द्वितीयक वृद्धि के दौरान संवहनी ऊतकों का निर्माण संवहन एधा (vascular cambium) द्वारा होता है। इन ऊतकों की द्वितीयक संवहनी ऊतक (Secondary vascular tissue) कहते हैं। कॉर्टेक्स (Cortex) में भी एक विभाज्योतक कॉर्क एधा द्वारा द्वितीयक कॉर्टेक्स तथा कॉर्क बनते हैं। ये आन्तरिक ऊतकों के घेरे में वृद्धि होने के कारण फट जाते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि रंभी (stelar) तथा आरंभी (Extra stelar) क्षेत्रों में क्रमशः संवहन एधा व कॉर्क  एधा की सक्रियता से निर्मित ऊतकों के कारण तने के घेरे में वृद्धि ही द्वितीयक वृद्धि होती है।

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