बंगाल के पाल: 800-1200 ई. Pal of Bengal: 800-1200 AD.

आठवीं शती के मध्य में उत्तरी भारत में अन्य महत्त्वपूर्ण जिस साम्राज्य की स्थापना हुई उसका संस्थापन बंगाल के पालों द्वारा हुआ था।

इस वंश का इतिहास हमें निम्नलिखित साहित्य और उनके अभिलेखों से ज्ञात होता है। प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं:

1. धर्मपाल का खालिमपुर अभिलेख

2. देवपाल का मुंगेर अभिलेख

3. नारायणपाल का बादल स्तंभ लेख

4. महिपाल प्रथम का वाणगढ़ तथा मुजफ्फरपुर से प्राप्त अभिलेख इसके अतिरिक्त संध्याकर नदी के रामपालचरित से पाल वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

पहले बंगाल का प्रान्त मगध राज्य में सम्मिलित था। नन्दों के समय में भी बंगाल मगध साम्राज्य के अन्तर्गत था। मगध के राजसिंहासन पर बैठनेवाला सम्राट् बंगाल का भी स्वामी होता था। छठी शताब्दी के उत्तराद्ध में गौड़ अथवा बंगाल स्वतन्त्र हो गया और गुप्त-साम्राज्य से पृथक् हो गया। शशांक के समय में, जो हर्ष का समकालीन था, बंगाल की शक्ति काफी बढ़ गई। यद्यपि सम्राट् हर्ष और आसाम के भास्करवर्मन ने गौड़ाधिपति की शक्ति को रोकने का बहुत प्रयास किया और उसको युद्ध में पराजित करने की भी चेष्टा की तथापि उसके जीवन-काल में न तो वे उसकी शक्ति ही कम कर सके और न उसको कुछ क्षति ही पहुंचा सके। परन्तु शशांक की मृत्यु के बाद, बंगाल की राजनैतिक एकता और सार्वभौमिकता विनष्ट हो गई। अब सम्राट् हर्षवर्द्धन और कामरूपाधिपति भास्करवर्मन दोनों को अवसर प्राप्त हो गया और उन्होंने बंगाल पर आक्रमण करके इसकी सम्भवत: दो भागों में विभक्त कर दिया, जिनको उन्होंने आपस में बांट लिया। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शैल वंश के एक राजा ने पोण्ड या उत्तरी बंगाल पर अधिकार कर लिया। कश्मीर-नरेश ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज-नरेश यशोवर्मन ने भी बंगाल पर आक्रमण किया था। मगध के अनुवर्ती गुप्त नरेश का बंगाल पर अधिकार था किन्तु यह अधिकार नाममात्र को ही था। किन्तु इस नरेश के हट जाने पर यह नाममात्र का अधिकार भी नहीं रह गया। कामरूप-नरेश हर्षदेव ने अवसर पाकर बंगाल को विजित कर लिया। एक दृढ़ शासन-शक्ति के अभाव में बंगाल अव्यवस्था और अराजकता का केन्द्र हो। गया। आक्रमणों के इस तांते ने बंगाल में चारों ओर अशान्ति एवं गड़बड़ी फैला दी जिससे ऊबकर सारे सरदारों और जनता ने मिलकर गोपाल नामक व्यक्ति को अपना राजा चुन लिया। गोपाल को सम्पूर्ण बंगाल का शासक स्वीकार कर लिया गया।


गोपाल- आठवीं शताब्दी के प्रथमाद्ध में गोपाल ने बंगाल का शासन संभाला। गोपाल ने बंगाल में हिमालय से लेकर समुद्र-तट तक सम्पूर्ण राज्य को सुसंगठित किया और विगत डेढ़ शताब्दियों की अराजकता और अव्यवस्था का अन्त करके समस्त बंगाल में शान्ति स्थापित की। उसने नालन्दा के निकट ओदन्तपुरी नामक स्थान पर एक विश्वविद्यालय की स्थापना कराई। गोपाल ने अपनी मृत्यु (770 ई.) के समय अपने उत्तराधिकारी के लिए एक समृद्ध और सुशासित राज्य छोड़ा। उसके उत्तराधिकारियों ने बंगाल को राजनैतिक उत्कर्ष और सांस्कृतिक गौरव की उस पराकाष्ठा पर पहुँचाया जिसकी उसने पहले कभी स्वप्न में भी कल्पना न की होगी। धर्मपाल के खालिमपुर अभिलेख में कहा गया है कि मत्स्य न्याय से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों (सामान्य जनता) ने गोपाल को लक्ष्मी की बाँह ग्रहण करवायी। गोपाल के बाद धर्मपाल बंगाल का राजा हुआ।

धर्मपाल- धर्मपाल पाल वंश की वास्तविक महत्ता का संस्थापक था। धर्मपाल एक सुयोग्य और कर्मनिष्ठ शासक था जिसने अपने राज्य की सीमा सोन नदी के पश्चिम तक बढ़ा दी। धर्मपाल धार्मिक मनोवृत्ति का था और अपने पिता की भांति बौद्ध था, फिर भी राजनैतिक दृष्टि से वह भी महत्वाकांक्षी था। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने लिखा है कि धर्मपाल के राज्य का विस्तार पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में जालंधर और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक था। सम्भव है कि तारानाथ का यह कथन अत्युक्तिपूर्ण हो परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि समस्त उत्तरी भारत में धर्मपाल की शक्ति का प्रभाव जमा हुआ था। 11वीं सदी के गुजराती कवि सोड्डल ने धर्मपाल को उत्तरापथस्वामी कहा है। उसने महाराजाधिराज, परमेश्वर और परम भट्टारक की उपाधियाँ धारण की। वह एक उत्साही बौद्ध था और उसे परमसौगत कहा गया है।

धर्मपाल ने लगभग 46 वर्षों तक राज्य किया। उसने विक्रमशिला और सोमपुर में बौद्ध विहारों का निर्माण कराया। विक्रमशिला में एक विश्वविद्यालय की स्थापना भी उसने कराई थी। विक्रमशिला में भी नालन्दा की भांति विद्या का एक बहुत बडा केन्द्र स्थापित हो गया था। धर्मपाल ने अपने राज्य में अन्य कई मन्दिरों और बौद्ध विहारों का निर्माण भी कराया था। उसकी राज्यसभा में प्रसिद्ध बौद्ध लेखक हरिभद्र रहता था। उसके समय प्रसिद्ध यात्री सुलेमान आया था। उसके समय में धीमन और विटपाल ने एक नए कला संप्रदाय का प्रवर्त्तन किया। धर्मपाल का 810 ई. में शरीरान्त हो गया।

देवपाल- पाल वंश का देवपाल तृतीय राजा था। अपने वंश का यह एक शक्तिशाली राजा था। उसने अड्तालीस वर्षों तक राज्य किया और कदाचित् मुद्गगिरि (मुंगेर) को अपनी राजधानी बनाया। उसके सेनापति लवसेन ने आसाम और उड़ीसा पर विजय प्राप्त की। देवपाल ने अपने पिता की प्रसार-नीति को जारी रखा। अपने अभिलेखों में वह एक साम्राज्यवादी के रूप में मुखरित हुआ है। यह सम्भव है कि देवपाल ने राष्ट्रकूट-नरेश गोविन्द-तृतीय की मृत्यु से लाभ उठाया। गोविन्द-तृतीय के देहावसान से राष्ट्रकूट राज्य में गड़बड़ फैल गई जिससे देवपाल को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया। उसके अभिलेखों में उसकी सुदूरव्यापिनी विजयों का उल्लेख किया गया है। एक अभिलेख में कहा गया है कि वह हिमालय और विन्ध्याचल के मध्यवर्ती सम्पूर्ण प्रदेश का स्वामी था और दक्षिण में उसने सेतुबन्ध रामेश्वरम् तक विजय प्राप्त की। परन्तु स्पष्ट है कि अभिलेख का यह कथन केवल प्रशस्तिवादन है और ऐतिहासिक तथ्य से नितान्त दूर है। एक अन्य स्तम्भ-लेख में यह उल्लेख मिलता है कि अपने मन्त्रियों दर्भपाणि तथा केदार मिश्र की नीतियुक्त मंत्रणा से प्रेरित होकर देवपाल ने उत्कल जाति को मिटा दिया, हूण का दर्प चूर कर दिया और द्रविड़ तथा गुर्जर के राजाओं का गर्व धूलधुसरित कर दिया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी का मत है कि- बादल स्तम्भ-लेख का यह कथन सम्भवतः सही है। देवपाल के पिता धर्मपाल ने केवल थोडे ही दिनों तक सम्राट् के रूप में शासन किया, किन्तु देवपाल ने कुछ अधिक काल तक अपनी सम्राटोचित सत्ता प्रमाणित की। उड़ीसा और आसाम पर उसका अधिकार हो जाने से उसका राज्य काफी विस्तृत हो गया। समकालीन नरेशों के बीच देवपाल की प्रतिष्ठा काफी जम गई, किन्तु प्रतिहार-नरेश मिहिरभोज के राज्यारोहण से गुर्जरों की साम्राज्यवादिता का उदय हुआ जो महेन्द्रपाल की मृत्यु तक बनी रही। इस प्रबल साम्राज्यवादिता के सामने बंगाल के पालों की कुछ न चल सकी और उनको अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षायें त्यागनी पड़ीं। कुछ विद्वानों का मत है कि बादल स्तम्भ-लेख में गुर्जर के राजा का गर्व चूर्ण करने का जो उल्लेख प्राप्त है, वह सम्भवत: गुर्जर नरेश मिहिरभोज के लिए है। यदि यह मत ठीक हो तो यह मानना पड़ेगा कि देवपाल के समय में पालों की शक्ति का ह्रास नहीं हुआ था किन्तु उसके उत्तराधिकारियों के शासन-काल में उसके वंश की राजनैतिक शक्ति निस्सन्देह घटने लगी थी। देवपाल का सुमात्रा और जावा के नरेश के साथ दौत्य सम्बन्ध (Diplomatic Relation) था। देवपाल के समय में बंगाल निश्चय ही एक शक्तिशाली राज्य था।

अपने पिता की भाँति देवपाल भी एक उत्साही बौद्ध था। उसे भी परमसौगत कहा गया है। नालन्दा ताम्रपत्रों से विदित होता है कि शैलेन्द्र वंश के शासक बापुत्रदेव के अनुरोध पर देवपाल ने राजगृह-विषय में चार और गया-विषय में एक गांव धर्मार्थ दान दिये थे। उसने सुमात्रा के नरेश बलपुत्रदेव को नालन्दा के समीप एक बौद्ध विहार बनवाने की अनुमति प्रदान कर दी थी और स्वयं भी इस कार्य के लिए प्रचुर धन दान किया था। देवपाल के लम्बे शासन-काल से बंगाल में एक विशिष्ट संस्कृति के विकास को संरक्षण मिला। देवपाल ने मगध की बौद्ध प्रतिमाओं का पुनर्निर्माण कराया और उसके राज-आश्रय ने वास्तु तथा अन्य कलाओं को पनपने का अवसर प्रदान किया। बोधिगया अथवा महाबोधि के मन्दिर के निर्माण में भी देवपाल का योग था। वह विद्या का उदार संरक्षक था और उसकी राजसभा बौद्ध विद्वानों के लिए एक आश्रय-स्थल के रूप में हो गई। बौद्ध कवि दत्त उसकी राजसभा में रहता था और उसने लोकेश्वर शतक नामक सुप्रसिद्ध काव्य की रचना की थी, जिसमें लोकेश्वर का विस्तारपूर्वक  वर्णन हुआ है और लोकेश्वर अथवा अवलोकेश्वर के प्रेम और क्षमा आदि गुणों की स्तुति है। उसने नगरहार के प्रसिद्ध विद्वान् वीरदेव को सम्मान दिया और उसे नालंदा विहार का अध्यक्ष बनवाया। देवपाल की राजसभा में मलाया के, शैलेन्द्र वंशीय शासक बालपुत्र देव ने अपना एक दूत भेजा था। देवपाल के समय वास्तुकला की अच्छी उन्नति हुई। डॉ. मजूमदार के शब्दों में धर्मपाल और देवपाल का शासन-काल बंगाल के इतिहास में एक उत्कृष्ट अध्याय था।

नारायण पाल- देवपाल के बाद बंगाल के राज्य पर कई छोटे-छोटे राजाओं ने राज्य किया परन्तु उनके शासन की अवधि बहुत अल्प थी। नारायण पाल अपने वंश का एक शक्तिशाली नरेश था, जिसने कम से कम 54 वर्ष राज्य किया। अपने पूर्वजों के विपरीत नारायण पाल शैव धर्म का अनुयायी था और उसने बाहर से शैव संन्यासियों को अपने राज्य में आमन्त्रित किया था। अपने शासन-काल के प्रारम्भिक वर्षों में नारायण पाल ने शिव के एक हजार मन्दिरों का निर्माण कराया और उनका प्रबन्ध उसने इन पाशुपत आचार्यों के सुपुर्द कर दिया। इन आचार्यों को उसने दान में गांव भी दिये। पहले कुछ दिनों तक नारायण पाल का मगध पर अधिकार बना रहा किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में मगध प्रतिहारों के राज्य में चला गया। 900 ई. में नारायण पाल का शरीरान्त हो गया।

महीपाल-प्रथम- नारायण पाल के बाद उसका पुत्र राज्यपाल शासनाधिकारी हुआ किन्तु उसके समय में गुर्जर-पाल-संघर्ष में पालों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। गोपाल-द्वितीय और विग्रहपाल-द्वितीय (935-992) के समय में पालों की शक्ति कुछ अंशों में बढ़ गई। राज्यपाल के समय में काम्बोज नामक पर्वतीय लोगों ने बंगाल के कुछ भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था किन्तु महीपाल (990-1030) ने काम्बोजों को निकाल बाहर किया। महीपाल-प्रथम ने पर्याप्त अंशों तक अपनी विचलितकुललक्ष्मी का स्तम्भन किया। अपने राज्यारोहण के ही वर्ष उसने सम्पूर्ण मगध, तीरभुक्ति और पूर्वीय बंगाल को विजित किया। महीपाल-प्रथम के राज्य-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी चोलों का आक्रमण। राजेन्द्र चोल के एक सेनानायक ने उड़ीसा के मार्ग से होकर बंगाल पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण का महीपाल-प्रथम ने सामना किया, परन्तु चोल सेना ने उसे पराजित कर दिया। फिर भी पाल नरेश ने उसे गंगापार न बढ़ने दिया। इस पराजय के द्वारा पाल साम्राज्य को क्षति अवश्य ही पहुंची होगी। इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं कि महीपाल प्रथम के शासन-काल के उत्तराद्ध में उसके राज्य की सीमायें संकुचित हो गई थीं।

बंगाल के शासकों में महीपाल काफी प्रसिद्ध है। आज भी उसकी प्रशंसा में गीत गाये जाते हैं और उल्लेखनीय बात तो यह है कि ये गीत लोकप्रिय भी हैं। उसके राजस्व-काल में बंगाल का राज्य समृद्ध था। कला की उन्नति हुई तथा इसका रूप सुधर गया। मूर्ति-कला को एक अभिनव भंगिमा तथा मुद्रा प्राप्त हो। गई। नालन्दा के विशाल बुद्ध-मन्दिर का पुनर्निर्माण महीपाल-प्रथम के शासन के 11वें वर्ष में कराया गया था। बनारस के बौद्ध मन्दिरों की, उसके सम्बन्धियों, स्थिरपाल और बसन्तपाल ने मरम्मत कराई थी। महीपाल-प्रथम के ही समग्र शासन में मगध से धर्मपाल तथा अन्य धर्माचार्यों ने आमंत्रण मिलने पर तिब्बत की यात्रा की थी और वहाँ पर उन्होंने बौद्ध धर्म को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का प्रयत्न किया। अपनी उपलब्धियों के कारण महिपाल प्रथम, पाल साम्राज्य का दूसरा संस्थापक माना जाता है। महीपाल के सुदीर्घ-कालीन शासन के उपरान्त नयपाल पाल वंश के राज्य का स्वामी हुआ।

नयपाल- बहुत थोड़े ही समय तक नयपाल को राज्य करने का अवसर में हिन्दुओं का तीर्थस्थान गया एक भव्य और शानदार नगर के रूप में हो गया। गया जिले के शासक विश्वरूप ने नयपाल के शासन के पन्द्रहवें वर्ष में विष्णु के पदचिन्हों के निकट कई मंदिर बनवाए। नेपाल के शासन के अंतिम दिनों में मगध पर विख्यात चेदी नरेश कर्ण ने आक्रमण कर दिया।

नायपाल के बाद 1055 ईं में उसका पुत्र विग्रहपाल-तृतीय राजा हुआ। विग्रहपाल-तृतीय यद्यपि एक बौद्ध श्रद्धालु था तथापि उसने सूर्यग्रहण अठाव चंद्रग्रहण के अवसर पे एक बार गंगा में स्नान किया और सामवेद के पंडित ब्राह्मण को एक ग्राम दान में दिया। इसी नरेश के समय में चालुक्य राजा

विक्रमादित्य ने बंगाल और आसाम पर चढ़ाई की। विग्रहपाल-तृतीय के समय में पाल साम्राज्य हासोन्मुख हो चला था। उसकी मृत्यु ने उसके राज्य की स्थिति को और अधिक जटिल कर दिया।

विग्रहपाल-तृतीय के उत्तराधिकारी- विग्रहपाल-तृतीय की मृत्यु के बाद बंगाल में गृहयुद्ध छिड़ गया। उसके तीन पुत्र थे, महीपाल-द्वितीय, सूरपाल और रामपाल। महीपाल-द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ और उसने अपने भाइयों सूरपाल तथा रामपाल को बन्दी बना लिया। कैवर्त नामक एक कबीले ने महीपाल के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया और उसे निकाल बाहर कर दिया। विद्रोहियों के साथ लड़ते हुए महीपाल रणभूमि में मारा गया। अब सूरपाल सिंहासन का अधिकारी हुआ, किन्तु उसके समय में भी अनेक सामन्तों ने विद्रोह कर दिया। अपने भाइयों में रामपाल सबसे अधिक पराक्रमी और योग्य निकला। रामपाल ने अपने वश के समर्थकों की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर लिया और कैवर्त नामक विद्रोही कबीले को पराजित किया। अपनी विजय-स्मृति को स्थायी बनाने के लिए रामपाल ने रामवती नामक नगरी की स्थापना की।

रामपाल को इस बात का श्रेय प्रदान किया गया है कि उसने आसाम तथा अन्य राज्यों पर भी विजय प्राप्त की। सान्ध्यक कारनन्दी ने रामपालचरित् नामक ग्रन्थ में रामपाल के जीवन-चरित का वर्णन किया है। रामपाल ने उत्तरी बंगाल पर भी विजय प्राप्त की और कलिंग पर आक्रमण किया। इन विजयों से पाल साम्राज्य की स्थिति कुछ सुधर गई परन्तु शीघ्र ही फिर साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया वेगवती हो गयी। लगभग 1120 ई. में रामपाल का देहान्त हो गया। अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त कुमारपाल सिंहासन पर बैठा। इसके उपरान्त क्रमशः गोपाल तृतीय, मदन लाल तथा गोविन्दपाल सिंहासन पर बैठे। गोविन्दपाल पाल राजवंश का अन्तिम शासक था। उसकी मृत्यु के साथ पाल राजवंश का अन्त हो गया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के शब्दों में- इस प्रकार भाग्य के उलट-फेर के साथ बिहार और बंगाल पर 400 वर्षों तक शासन करने के उपरान्त पाल नरेश ऐतिहासिक मंच से अलग हो गए।

पाल साम्राज्य का पतन- पाल साम्राज्य की स्थिति रामपाल के बाद और अधिक डावांडोल हो गई। उसके पुत्र कुमारपाल के समय में आसाम स्वतन्त्र हो गया। उसका पुत्र गोपाल-तृतीय मदनपाल के द्वारा मार डाला गया। मदनपाल का अधिकार दक्षिणी बिहार-पटना और मुंगेर तक विस्तृत था। उसके पश्चात् गोविन्दपाल शासक हुआ जिसका अधिकार केवल गया तक सीमित रह गया। गोविन्दपाल गहड़वालों और सेनों के बीच घिर गया। दोनों ओर से घिर जाने पर पाल साम्राज्य की स्थिति बड़ी ही शोचनीय हो गई। पाल नरेश नाममात्र को ही राजा रह गये। सेन वंश के उत्कर्ष, सामन्तों के विद्रोह और परवर्ती पाल नरेशों की अयोग्यता के कारण पालों के साम्राज्य का पतन हो गया।

पाल शासन का महत्त्व- भारत के उन राजवंशों के इतिहास में पाल वंश का शासन-काल काफी महत्त्वपूर्ण है जिन्होंने सबसे अधिक दिनों तक राज्य किया। पाल नरेशों ने चार शताब्दियों तक बंगाल के राज्य पर शासन किया। धर्मपाल और देवपाल के शासन-काल का समय एक शताब्दी से अधिक था। उन्होंने इस सुदीर्घकालीन शान में बंगाल को उत्तर भारत के सबसे अधिक शक्तिशाली राज्यों में से एक बना दिया। साम्राज्य सत्ता के लिए उत्तर भारत में जिन तीन राजनैतिक शक्तियों के बीच संघर्ष हुआ उसमें से एक शक्ति पालों की भी थी। धर्मपाल और देवपाल के उत्तराधिकारियों के समय में यद्यपि पालों की शक्ति वैसी नहीं रही तथापि उनका राज्य इस समय भी उपेक्षित नहीं था। जिस समय पाल-साम्राज्य अपने उत्कर्ष की स्थिति में नहीं था उस समय भी इसका प्रभाव दूर-दूर तक के प्रान्तों के अधीन रहा।

पर पालों का शासन राजनैतिक दृष्टिकोण की अपेक्षा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रोफेसर एन.एन. घोष के शब्दों में- पाल शासन के अन्तर्गत न केवल बंगाल की गणना सबसे बढ़ी-चढ़ी शक्तियों में की जाने लगी, अपितु वह बौद्धिक और कला-सम्बन्धी क्षेत्रों में उत्कृष्ट हो गया। प्रसिद्ध चित्रकार, शिल्पी एवं कांस्य की प्रतिमा गढ़ने वाले धीमान् और वित्पाल पाल साम्राज्य में ही राज्याश्रय पाकर अपनी कला के निर्माण में संलग्न रहे।

कला के क्षेत्र में पाल नरेशों का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान था। उनके शासन-काल में विकसित होने वाली कला-परम्परा की जीवनी-शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इसका प्रभाव भारत के बाहर दक्षिण-पूर्वी देशों में भी पहुंचा। नवीं शताब्दी में धीमान् और उसके पुत्र वित्पाल ने चित्रकला की जिस परम्परा को जन्म दिया, वह ग्यारहवीं शताब्दी में भी जारी रही। यद्यपि पाल युग की बौद्ध कला में ह्रास के कुछ लक्षण अवश्य विद्यमान हैं तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय बौद्ध धर्म की अन्तिम छ: शताब्दियां कलात्मक बन्ध्यापन का युग प्रस्तुत करती हैं। सारे बंगाल और बिहार में पाल नरेशों ने चैत्यों, बिहारों, मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण कराया। अभाग्यवश उस काल की इमारत कोई बची न रह सकी परन्तु सरों और नहरों की एक बृहत् संख्या आज भी सुरक्षित है जिससे पाल राजाओं की निर्माण-सक्रियता का पता चलता है।

पालों की शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण देन थी। ओदन्तपुरी और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों की स्थापना पाल-नरेशों ने ही की थी। नालन्दा की भाँति इन विश्वविद्यालयों का यश भी देश के दूरवर्ती भागों तक फैला हुआ था और दूर-दूर के विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहां आया करते थे। शिक्षा के संरक्षण और प्रसार में इन बौद्ध विश्वविद्यालयों का काफी महत्त्वपूर्ण योगदान था। दो-एक नरेशों को छोड़कर शेष सभी पाल नृपति बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने बौद्ध धर्म को उस समय राज्याश्रय प्रदान किया जिस समय देश के अधिकांश क्षेत्रों में यह पतनोन्मुख था। पाल नरेशों ने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार का पूरा प्रयत्न किया परन्तु उनका धार्मिक दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। वे ब्राह्मणों को भी दान-दक्षिणा देकर सम्मानित करते थे। बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अतीश नामक प्रसिद्ध दार्शनिक भिक्षु ने तिब्बत की यात्रा की थी। पालों के शासन-काल में साहित्य की उन्नति उतनी अधिक तो नहीं हुई जितनी की कला की किन्तु सन्ध्याकार नन्दी का रामपालचरित् नामक श्लेषात्मक महाकाव्य इसी समय लिखा गया। लोकेश्वर-शतक नामक काव्य की रचना बौद्ध कवि वज्रदत ने देवपाल के समय में की थी। इस प्रकार हम देखते है कि संस्कृत के संरक्षण और विकास की दृष्टि से पालों का शासन-काल काफी महत्त्वपूर्ण था। परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि पालों के ही शासन-काल में बौद्ध धर्म के उस विकृत रूप का विकास हुआ जिसने भारतवर्ष में बौद्ध धर्म के लोप को अवश्यम्भावी बना दिया। बौद्ध विहारों में वज्रयान और तान्त्रिक अभिचारादि के रूप में व्यभिचार, विलासिता तथा सुरा-सेवन आदि दुर्गुण प्रविष्ट हो गये। धर्मपाल और अतिस दीपांकर जैसे विद्वान भी इसी काल में हुए।

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