पेट्रोलियम निर्यातक राष्ट्र संगठन Organization of the Petroleum Exporting Countries – OPEC

यह संगठन विश्व के अधिकांश तेल निर्यातक देशों को एकजुट करता है जिसका उद्देश्य इन देशों की पेट्रोलियम नीतियों में समन्वय स्थापित करना तथा उन्हें तकनीकी और आर्थिक सहायता प्रदान करना है।

मुख्यालय: विएना (ऑस्ट्रिया)।

सदस्यता: अल्जीरिया, अंगोला, इक्वेडोर, ईरान, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया, क़तर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और वेनेजुएला।

[इक्वेडोर, जिसकी सदस्यता वर्ष 1992 में निलम्बित कर दी गई थी, को 2007 में पुनः शामिल कर लिया गया। इंडोनेशिया सदस्य था लेकिन वर्ष 2008 में इसे निलम्बित कर दिया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका इराक के औपचारिक गठन के दौरान इसका सदस्य था।]

आधिकारिक भाषा: अंग्रेजी।

उद्भव एवं विकास

पेट्रोलियम निर्यातक राष्ट्र संगठन (Organisation of the Petroleum Exporting Countries–OPEC) की स्थापना में 1960 में बगदाद (इराक) में हुई तथा 1961 में ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब और वेनेजुएला के द्वारा इसका औपचारिक गठन हुआ। उसके बाद कतर (1961), इंडोनेशिया औरै लीबिया (1962), अबू धाबी (1967-1974 में इसकी सदस्यता संयुक्त अरब अमीरात को स्थानान्तरित कर दी गई); अल्जीरिया (1969), नाइजीरिया (1971); इक्वाडोर (1973), तथा; गैबन (1975); तथा 2007 में अंगोला ओपेक के सदस्य बने। 1965 में ओपेक के मुख्यालय को जेनेवा से स्थानान्तरित करके विएना कर दिया गया।


दिसंबर 1992 से अक्टूबर 2007 तक इक्वेडोर ने अपनी सदस्यता निलम्बित रखी। लेकिन 2007 में पुनः स्वीकार कर ली। 1995 गैबन और जनवरी 2009 में इंडोनेशिया ने इस संगठन की सदस्यता त्याग दी। इस प्रकार अब (2014 तक) इसके मात्र 12 सदस्य हैं। इसकी सदस्यता उन राष्ट्रों के लिए है, जो पर्याप्त मात्रा में अशोधित तेल निर्यात करते हैं तथा जिनके हित इन देशों के हितों से मिलते-जुलते हैं। समान हितों वाला कोई भी देश ओपेक का पूर्ण सदस्य बन सकता है बशर्ते कि कुल प्रभावी सदस्य संख्या का 3/4 इसका समर्थन करे तथा समर्थन करने वालों में पांचों संस्थापक देश भी हो।

वर्तमान में ओपेक विश्व के एक-तिहाई तेल के उत्पादन के लिए उत्तरदायी है (1973 और 1980 में यह क्रमशः 55 प्रतिशत और 45 प्रतिशत तेल उत्पादन के लिये जिम्मेदार था) तथा विश्व के कुल तेल भण्डारों का तीन-चौथाई ओपेक देशों में है।

उद्देश्य

ओपेक के प्रमुख उद्देश्य हैं-सदस्य देशों की पेट्रोलियम नीतियों में समन्वय स्थापित करना तथा एकीकरण लाना; आतंरिक तेल मूल्यों के स्थिरीकरण के लिए युक्ति ढूंढना ताकि हानिकारक और अनावश्यक मूल्यों और आपूर्ति में उतार-चढ़ाव समाप्त हो सके।

संरचना

ओपेक अपने सम्मलेन, गवर्नर बोर्ड, आर्थिक योग बोर्ड, तथा सचिवालय के माध्यम से कार्य-निष्पादन करता है।

सम्मेलन संगठन का सर्वोच्च अंग होता है। यह सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधियों (समान्यतया तेल मंत्री) से बना होता है। प्रत्येक प्रतिनिधि को एक मत प्राप्त रहता है। सम्मेलन की प्रत्येक वर्ष एक बैठक होती है, जिसमे नीति निर्धारण, बजट अनुमोदन तथा गवर्नर बोर्ड की अनुशंसाओं पर विचार होता है। सभी निर्णय (कार्य प्रणाली से संबंधित निर्णयों को छोड़कर) सर्वसम्मति से लिये जाते हैं। सम्मेलन का प्रस्ताव उस बैठक की समाप्ति के 30 दिनों के बाद प्रभावी हो जाता है, जिस बैठक में उसे अपनाया गया है तथा जब तक कि एक या अधिक सदस्यों ने इस प्रस्ताव के विरोध में सचिवालय में आवेदन नहीं किया है। गवर्नर बोर्ड, जिसका प्रधान अध्यक्ष कहलाता है, सम्मेलन के समक्ष वार्षिक बजट, रिपोटें और सिफारिशें प्रस्तुत करता है। इसकी वर्ष में कम-से-कम दो बार बैठक होती है, जिसमें सभी निर्णय उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत के आधार पर लिये जाते हैं। गवर्नर, जो सदस्य देशों द्वारा मनोनीत तथा सम्मेलन द्वारा अनुमोदित होते हैं, का कार्यकाल दो वर्षों का होता है। संगठन के अधिशासी कार्यों के लिये सचिवालय उत्तरदायी होता है। सचिवालय का प्रधान अधिकारी महासचिव कहलाता है। सचिवालय के अन्दर विशिष्ट कार्यों के लिये विभागों तथा मंडलों का गठन किया गया है। 31 जनवरी 2014 से महासचिव का पद मक्का, सउदी अरब के पास है।

गतिविधियां

आरम्भ में ओपेक सदस्यों ने प्रमुख औद्योगिक देशों (विशेषकर पश्चिमी यूरोप और जापान, जो तेल के आयात पर बहुत अधिक निर्भर थे) के संबंध में संसक्तिशील (cohesive) नीति का अनुसरण किया। लेकिन चूंकि सदस्य देशों की तेल सम्पति और आर्थिक तथा राजनीतिक हित अलग-अलग हैं इसलिए तेल उत्पादन, निर्यात क्षमता, एकल मूल्य स्तर और रॉयल्टी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गये हैं। चार सदस्यों-कुवैत, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के पास उनकी जनसंख्या की तुलना में तेल के बहुत बड़े भण्डार हैं। आर्थिक रूप से मजबूत होने के कारण ये देश अपने हितों की रक्षा करने के लिये अपने तेल उत्पादन के समायोजन में दृढ़ और लचीला, दोनों होने की स्थिति में हैं। ओपेक और गैर-ओपेक देशों के मध्य प्रभावकारी समन्वय न होने के कारण विश्व तेल बाजार में काफी तनाव उत्पन्न हो गये हैं।

फिर भी, ओपेक के निर्णयों का विश्व तेल बाजार पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। संगठन ने अक्टूबर 1973 में तेल की कीमतों में 70 प्रतिशत वृद्धि कर दी थी। इस मूल्य वृद्धि का उपयोग पश्चिमी देशों के विरुद्ध एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में किया गया क्योंकि 1973 के अरब-इजरायल युद्ध में इन देशों ने इजरायल का समर्थन किया था। दिसम्बर 1973 में ओपेक ने तेल की कीमतों में पुनः 130 प्रतिशत की वृद्धि कर दी तथा साथ ही, संयुक्त राज्य अमेरिका और नीदरलैंड के तेल लदान (shipment) पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद 1975, 1977, 1979 और 1980 में तेल के मूल्यों में वृद्धि की गई (1973 में एक बैरल तेल की कीमत 8 डॉलर थी, जो 1980 में बढ़कर 30 डॉलर हो गई)।

तेल की कीमतों में वृद्धि से सदस्य देशों के सरकारी राजस्व में वृद्धि हुई। 1976 में विकासशील देशों को सहायता पहुंचाने के लिये ओपेक अंतरराष्ट्रीय विकास निधि का गठन किया गया। औद्योगिक देशों में बहुत बड़े स्तर पर धन का निवेश हुआ तथा विकसित और विकासशील देशों को ऋण प्रदान किए गए।

1980 के दशक में ओपेक के प्रभाव से तेल की कीमतों में कमी आई। इसका कारण यह था कि पश्चिमी देशों ने कोयला और नाभिकीय ऊर्जा जैसे तेल के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग करना शुरू कर दिया। साथ ही, इन देशों ने अपने तेल संसाधनों का दोहन करना तथा तेल की घरेलू मांग को कम करने के लिये तेल संरक्षण कार्यक्रमों का अनुसरण करना शुरू कर दिया। इन सबने मिलकर ओपेक देशों को अपने तेल उत्पादन और मूल्यों में कमी लाने के लिए विवश कर दिया, जिसने आपेक की एकजुटता को गहरा आघात पहुंचाया। कुछ सदस्यों ने उत्पादन-सीमा का अनुसरण करने से इनकार कर दिया तथा निर्धारित कोटे से अधिक तेल का उत्पादन करना जारी रखा। 1986 में तेल की कीमतों में 50 प्रतिशत की गिरावट आई, जो 1978 के बाद तेल की कीमत में सबसे बड़ी गिरावट थी।

1990 के दशक के आरम्भ में हुये खाड़ी युद्ध तथा उसके परिणामस्वरूप इराक और कुवैत से तेल के आयात पर लगे प्रतिबंध की दृष्टिगत रखते हुए ओपेक ने तेल की आपूर्ति में संभावित कमी से बचने के लिये तेल उत्पादक देशों को कोटे से अधिक उत्पादन करने के लिये अधिकृत कर दिया। 1992 में सदस्य पुनः व्यक्तिगत उत्पादन कोटा अपनाने के लिये सहमत हुये। मूल्यों में गिरावट जारी रही तथा सदस्यों ने 1993 में उत्पादन-सीमा (ceiling) को बनाये रखने का निर्णय लिया। इस उत्पादन-सीमा का विरोध शुरू हो गया क्योंकि गैर-ओपेक तेल उत्पादक देशों ने अपने उत्पादन में वृद्धि को जारी रखा। 1990 के दशक में विश्व के तेल निर्यात में ओपेक का योगदान घटकर 40 प्रतिशत रह गया।

तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक (ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिग कंट्रीज) का तीसरा शिखर सम्मेलन सऊदी अरब की राजधानी रियाद में 17-18 नवम्बर, 2008 को हुआ। इसका प्रथम शिखर सम्मेलन 1975 में अल्जीयर्स दूसरा शिखर सम्मेलन सन् 2000 में कराकस में संपन्न हुआ था।

तीसरे शिखर सम्मेलन में स्वीकार किए गए रियाद घोषणा-पत्र में संगठन व इसके सदस्य राष्ट्रों की आर्थिक व ऊर्जा संबंधी पहलों के लिए तीन सिद्धांत स्वीकार किए गए। विश्व ऊर्जा बाजारों में स्थिरता, टिकाऊ विकास के लिए ऊर्जा, तथा ऊर्जा एवं पर्यावरण इनमें शामिल हैं। अल्जीयर्स व कराकस में हुए पहले दोनों शिखर सम्मेलनों में स्वीकार किए गए सिद्धांतों एवं उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता रियाद घोषणा-पत्र में व्यक्त की गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल आपूर्ति पर्याप्त, कुशल एवं समय से बनाए रखने की प्रतिबद्धता भी सदस्य देशों ने रियाद सम्मेलन में व्यक्त की है। ईरान एवं वेनेजुएला ने अमरीकी नीतियों की कड़ी आलोचना इस सम्मेलन में की।

तेल भण्डारों एवं निवेश में कमी के चलते इण्डोनेशिया ने तेल निर्यातक देशों के संगठन- ओपेक की सदस्यता मई 2008 में त्याग दी थी। इण्डोनेशिया ओपेक में एकमात्र दक्षिण-पूर्व एशियाई देश था। इराक पहले ही इस संगठन से बाहर चल रहा था। इराक व इंडोनेशिया के स्थान पर अब अंगोला वं इक्वेडोर को ओपेक में शामिल किया गया।

घटते हुए तेल मूल्यों पर इस बैठक में भारी चिंता व्यक्त की गई तथा मूल्यों में मजबूती लाने के लिए सभी सदस्य देशों के उत्पादन कोटे में कटौती की गई। गौरतलब है कि ओपेक देशों के पास विश्व का लगभग 75 प्रतिशत पेट्रोल जमा है तथा विश्व का लगभग 55 प्रतिशत पेट्रोल उत्पादन ओपेक देशों में होता है।

वर्ष 2013 में यह बात स्पष्ट हुई कि, 1982 से, सदस्य देश अपने कोटे का अधिकतर समय दुरुपयोग करते हैं। ओपेक की सामूहिक रूप से कीमतें तय करने की क्षमता को व्यापक तौर पर एकतरफा करने का प्रयास करते हैं।

ओपेक के तेल क्षेत्रों की धारणीयता को लेकर भी स्पष्ट रुख नहीं है। तेल क्षेत्रों के जीवन चक्र पर अनुसंधान करने वाले माइकेल हुक के अनुसार, तकनीकी उन्नयन के बावजूद जितनी तेल के कुओं की उत्पादकता में वृद्धि हुई है, तेल कुओं के समाप्त होने की दर अंततः समय के साथ-साथ बढ़ती जाएगी। ओपेक देश के साथ-साथ अन्य कई संस्थाएं भयानक तरीके से 2030 तक भविष्य की तेल मांग का बेहद कम अनुमान लगा रही हैं और यह 25 प्रतिशत तक कम है जबकि मांग-पूर्ति का अंतर 28 मिलियन बैरल प्रतिदिन का आ रहा है।

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