गुट-निरपेक्ष आॉदोलन Non-Aligned Movement – NAM

यह आंदोलन विकसित देशों के हितों की तुलना में तृतीय विश्व के देशों की सामूहिक राजनीतिक और आर्थिक चिन्ताओं की अभिव्यक्ति के लिये एक मंच का कार्य करता है।

सदस्यता: अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अंगोला, बहामा, बहरीन, बांग्लादेश, बारबाडोस, बेलारूस, बेलीज़, बेनिन, भूटान, बोलिविया, बोत्सवाना, ब्रूनेई, दारएस्सलाम, बुर्किना फासो, बुरुंडी, कंबोडिया, कैमरून, केप वर्दे, मध्य अफ़्रीकी गणतंत्र,  चाड, चिली, कोलम्बिया, कोमोरोस, कांगो, आईवरी कोस्ट, क्यूबा, कोरिया लोकतांत्रिक जनवादी गणराज्य, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, जिबूती, डोमिनिकन गणराज्य, इक्वाडोर, मिस्र, भूमध्यवर्ती गिनी, इरिट्रिया, इथियोपिया, गैबॉन, गाम्बिया, घाना, ग्रेनेडा, ग्वाटेमाला, गिनी, गिनी-बिसाऊ, गुयाना, होंडुरास, भारत, इंडोनेशिया, ईरान, (इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ), इराक, जमाइका, जोर्डन, कीनिया, कुवैत, लाओ पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक, लेबनान, लेसोथो, लाइबेरिया, लीबिया का अरब जमहिरिया, मेडागास्कर, मलावी, मलेशिया, मालदीव, माली, मॉरिटानिया, मॉरीशस, मंगोलिया, मोरक्को, मोजाम्बिक, म्यांमार, नामीबिया, नेपाल, निकारागुआ, नाइजर, नाइजीरिया, ओमान, पाकिस्तान, फिलिस्तीन, पनामा, पापुआ न्यू गिनी, पेरू, फिलीपिंस, कतर, रवांडा, सेंट लूसिया, सेंट विंसेंट और ग्रेनेडाइंस, साओ टोमे और प्रिंसिपे, सऊदी अरब, सेनेगल, सेशल्स, सियरा लिओन, सिंगापुर, सोमालिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, सूडान, सूरीनाम, स्वाजीलैंड, सीरियाई अरब गणराज्य, थाईलैंड, तिमोर-लेस्ते, टोगो, त्रिनिदाद और टोबैगो, ट्यूनीशिया, तुर्कमेनिस्तान, युगांडा, संयुक्त अरब अमीरात, तंजानिया संयुक्त गणराज्य, उज्बेकिस्तान, वानुअतु, वेनेजुएला, वियतनाम, यमन, जाम्बिया, ज़िम्बाब्वे। [यूगोस्लाविया को 1992 में निलम्बित कर दिया गया। साइप्रस और माल्टा ने 2004 में सदस्यता छोड़ दी।] पर्यवेक्षक सदस्यः अर्मीनिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, ब्राजील, चीन, कोस्टा रिका, क्रोएशिया, अल साल्वाडोर, मेक्सिको, कजाखस्तान, मोंटेनीग्रो, पराग्वे, सर्बिया, ताजीकिस्तान, यूक्रेन एवं उरूग्वे।

उद्भव एवं विकास

गुट निरपेक्ष आन्दोलन (Non-Aligned Movement–NAM) का विकास 20वीं सदी के मध्य में छोटे राज्यों, विशेषकर नये स्वतंत्र राज्यों, के व्यक्तिगत प्रयास से हुआ। ये राज्य अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये किसी भी महाशक्ति में सम्मिलित नहीं होना चाहते थे। महाशक्ति की अवधारणा तथा नव-साम्राज्यवाद के वर्चस्व के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा खोलने और द्वितीय विश्वयुद्ध (1945) के बाद शीतयुद्ध क्षेत्रों के इर्द-गिर्द विकसित प्रतियोगी समूहों की व्यवस्था को अस्वीकार करने के लिये 1950 के दशक में नये देशों के व्यक्तिगत प्रयासों को समन्वित करने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस उद्देश्य से 1955 में बांडुग (इंडोनेशिया) में अफ्रीकी-एशियाई सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें छह अफ्रीकी देशों सहित 29 देशों ने भाग लिया। यह सम्मेलन बहुत सफल साबित नहीं हुआ क्योंकि अनेक देश अपनी विदेश नीतियों की साम्राज्यवाद-विरोधी बैनर तले संचालित करने के लिये तैयार नहीं थे। लेकिन इसने नये स्वतंत्र राज्यों के समक्ष उपस्थित राजनीतिक और आर्थिक असुरक्षा के भय को उजागर किया। 1950 के दशक के अंत में युगोस्लाविया ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में गुट-निरपेक्ष राजनीतिक पहचान की स्थापना में रुचि प्रदर्शित की। ये प्रयास 1961 में बेलग्रेड (युगोस्लाविया) में 25 गुट-निरपेक्ष देशों के राज्याध्यक्षों के प्रथम सम्मेलन होने तक जारी रहे। यह सम्मेलन युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप टीटो की पहल पर आयोजित हुआ, जिन्होंने शस्त्रों की बढ़ती होड़ से तत्कालीन सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य युद्ध छिड़ सकने की आशंका व्यक्त की थी। बेलग्रेड सम्मेलन में भाग लेने वाले अधिकतर देश एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के थे।

सम्मेलन आयोजित करने में सक्रिय अन्य नेताओं में मिस्र के गमाल अब्दुल नसीर, भारत के जवाहरलाल नेहरू और इण्डोनेशिया के सुकर्णो प्रमुख थे।

नाम का दूसरा सम्मेलन काहिरा (मिस्र) में 1964 में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में पश्चिमी उपनिवेशवाद और विदेशी सैनिक प्रतिष्ठानों के अवधारण (retention) की भर्त्सना की गई। लेकिन, 1960 के दशक की शेष अवधि में आन्दोलन ने एक अस्थायी और आकस्मिक संगठन का रूप ले लिया। गुट-निरपेक्ष देशों के कार्यों को सही दिशा में ले जाने के लिये कोई संस्थागत संरचना मौजूद नहीं थी। नाम का तृतीय सम्मेलन 1970 में लुसाका में हुआ, जिसमें नियमित रूप से गुट-निरपेक्ष राज्यों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया गया। 1973 में अल्जीयर्स में आयोजित चतुर्थ सम्मेलन में दो सम्मेलनों के बीच में गुट-निरपेक्ष राज्यों की सभी गतिविधियों में समन्वय स्थापित करने के लिये समन्वक ब्यूरो का औपचारिक रूप से गठन किया गया।

उद्देश्य


बेलग्रेड शिखर सम्मेलन, 1989 द्वारा घोषित नाम के प्रमुख उद्देश्य निम्नांकित हैं-

  1. वर्चस्व की भावना पर आधारित पुरानी विश्व-व्यवस्था के स्थान पर स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय और सर्व-कल्याण के सिद्धान्तों पर आधारित नई विश्व-व्यवस्था की स्थापना करना;
  2. शांतिपूर्ण साधनों के माध्यम से शांति, निरस्त्रीकरण और विवाद समाधान के प्रयासों की जारी रखना;
  3. विश्व की आर्थिक समस्याओं, विशेषकर असंतुलित आर्थिक विकास, का प्रभावशाली और स्वीकार्य समाधान ढूंढना;
  4. औपनिवेशिक या विदेशी वर्चस्व तथा विदेशी अधिग्रहण के अधीन रहने वाले सभी लोगों के लिये आत्मनिर्णय के अधिकार और स्वतंत्रता का समर्थन करना;
  5. स्थायी और पर्यावरण की दृष्टि से ठोस विकास सुनिश्चित करना;
  6. मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रोत्साहन देना, और;
  7. संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका और प्रभाव में मजबूती लाने के लिये सहयोग देना।

संरचना

नाम के संगठनात्मक ढांचे में राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन, विदेश मंत्रियों की बैठक और समन्वय ब्यूरो सम्मिलित हैं। राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन में सभी सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष सम्मिलित होते हैं तथा यह सम्मेलन प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर आयोजित होता है। सम्मेलन आयोजित करने वाले नवीनतम मेजबान देश के मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी नाम के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन में लिये गये निर्णयों के क्रियान्वन के लिये सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की प्रत्येक वर्ष बैठक होती है। 1973 में स्थापित समन्वय ब्यूरो नाम के एक मुख्य अंग के रूप में विकसित हुआ है। इसके 36 सदस्य हैं, जो क्षेत्रीय आधार पर मनोनीत होते हैं-अफ्रीका, 17; एशिया, 12; लैटिन अमेरिका, 5; यूरोप, 1; और एक सीट पर यूरोप और अफ्रीका की भागीदारी होती है। सम्मेलन आयोजित करने और प्रशासनिक कार्य करने के लिये ब्यूरो की मंत्री और अधिकारी स्तरीय बैठक होती है।

संयुक्त समन्वय समिति (जेसीसी) और जी-77 का संयुक्त संचालन होता है तथा इसमें दो समूहों की गतिविधियों, विशेषकर उत्तर-दक्षिण और दक्षिण-दक्षिण विषयों पर उनके अपने-अपने दृष्टिकोण, में समन्वय स्थापित करने पर विचार होता है।

गतिविधियां

नाम के प्रमुख राजनीतिक लक्ष्य इस प्रकार हैं-    विश्व शांति को सुरक्षित रखना, निरस्त्रीकरण को प्रोत्साहित करना तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करना। इन लक्ष्यों का अनुसरण करते हुये बेलग्रेड सम्मेलन, 1961 ने एक 27 सूत्री घोषणा को अपनाया, जिसमें उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों की भर्त्सना की गई। 1964 में आयोजित काहिरा सम्मेलन में एक घोषणा-शांति और अंतरराष्ट्रीय सहयोग कार्यक्रम, को अपनाया गया। इस घोषणा में इस बात पर बल दिया गया कि शांति की स्थापना तभी संभव है जब सार्वजनिक स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धान्तों का पालन होगा और साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद का अंत होगा।

1970 के दशक में नाम की सदस्यता में काफी वृद्धि हुई, लेकिन जहां एक ओर इसके मूल सदस्य वास्तव में गुट-निरपेक्ष थे (अपनी नीतियों और सहानुभूतियों में), वहीं दूसरी ओर अनेक नये सदस्य मात्र सिद्धान्त में गुट-निरपेक्ष थे और गुप्त रूप से पश्चिमी और साम्यवादी देशों के साथ सहानुभूति रखते थे। वास्तव में, अनेक समाजवादी विकासशील देशों के दबाव में नाम कई अंतरराष्ट्रीय विषयों पर गुट-निरपेक्ष न रहकर प्रायः सोवियत रूस और उनके सहयोगियों के पक्ष में ही जाता था।

इस स्थिति से निबटने के लिये हवाना सम्मेलन, 1979 में आन्दोलन के गुट-विरोधी तथा आधिपत्य (अनुमानित सोवियत महत्वाकांक्षाओं के लिये प्रयुक्त शब्द) विरोधी प्रकृतियों को और सभी प्रकार के साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद  के विरोध को दोहराया गया।

पुनः बेलग्रेड शिखर सम्मेलन, 1989 में सदस्यों ने नाम का निष्पक्षता की मूल प्रकृति में वापसी का समर्थन किया। साथ ही, उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर एक वास्तविक, दूरदर्शी और सृजनात्मक रुख विकसित करने पर बल दिया। सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि इन मुद्दों पर विरोध के स्थान पर सामंजस्य को प्राथमिकता दी जायेगी।

सभी लोगों के लिये आत्म-निर्णय के अधिकार और जातीय समानता के क्षेत्रों में भी नाम की भूमिका उल्लेखनीय रही है। 1961 और 1963 के सम्मेलनों में तत्कालीन राष्ट्रीय आन्दोलनों को नाम का नैतिक, राजनीतिक और आर्थिक समर्थन देने की प्रतिज्ञा की गई। 1986 के शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीकी सरकार की बलात् पृथक्करण की नीति की निंदा की गई। नामीबिया के स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन दिया गया। वियतनाम में वियतनामी लोगों की अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था विकसित करने के अधिकार का अनुमोदन किया गया। क्यूबा में दमनकारी स्थानीय शासन के विरुद्ध उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलनों का समर्थन किया गया। नाम पश्चिम एशिया में फिलीस्तीनी लोगों की अपनी मातृभूमि के अधिकार को स्वीकार करता है तथा इजरायल द्वारा पश्चिमी शक्तियों के गुप्त समर्थन से स्थानीय निवासियों के विस्थापन और भौतिक विध्वंस की निंदा करता है। 1997 में नाम ने इजरायल द्वारा अधिकृत क्षेत्रों और पूर्वी जेरूसेलम में यहूदी बस्तियों की निंदा की, फिलिस्तीन के लिए अधिक सहायता की मांग की और सदस्यों से आग्रह किया कि वे तब तक इजरायल से संबंध सुधारने का प्रयास न करें जब तक कि इजरायल की सरकार का शांति प्रक्रिया में सकारात्मक प्रभाव स्थापित नहीं होता।

नाम परमाणु अस्त्रों के उपयोग पर प्रतिबंध और व्यापक परमाणु अस्त्र निषेध संधि की

लगातार मांग करता रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को विकासशील देशों की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने के लिये इन संस्थाओं में सुधार के प्रस्ताव पारित हुये हैं।

1991 में युगोस्लाविया, तत्कालीन नाम अध्यक्ष, के विखंडन ने नाम के भविष्य को दांव पर रख दिया। नाम की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लग गया तथा इसे समाप्त घोषित कर देने के सुझाव आने लगे। लेकिन इंडोनेशिया की अध्यक्षता में 1992 में नाम में नई जान फूकी गई। नाम ने स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की मुख्य धारा के एक जिवंत, सकारात्मक और वास्तविक अर्थ में स्वतंत्र घटक के रूप में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया।

नाम का एक अन्य प्रमुख सिद्धान्त है-आर्थिक समानता की स्थापना। नाम की आर्थिक समस्याओं पर केन्द्रित होने की प्रक्रिया 1978 में शुरू हुई, जब अल्जीयर्स शिखर सम्मेलन में गरीब देशों द्वारा औद्योगिक विश्व के विरुद्ध संयुक्त कार्यवाही करने की अपील की गयी। यह अपील संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर नवीन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order-NIEO) पर चर्चा का आधार बनी। नाम उत्तर और दक्षिण के चिरकालिक आर्थिक विभाजन की चर्चा को केन्द्र में लाया है। 1992 के शिखर सम्मेलन में नाम ने विकसित देशों को एक अधिक न्यायसंगत विश्व आर्थिक व्यवस्था की स्थापना, विकासशील देशों को वस्तुओं के कम मूल्य की समस्या के निदान में सहायता तथा ऋण-भार की समाप्ति को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की अपील की। साथ ही, सदस्यों से आग्रह किया गया कि वे जनसंख्या नियंत्रण और खाद्य आपूर्ति जैसे क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता लाने के प्रति समर्पित हों। सदस्यों से दक्षिण-दक्षिण व्यापार एवं निवेश सहयोग के प्रति समर्पित होने की अपील की गयी, ताकि आर्थिक क्षेत्रों में विकासशील देशों के प्रभाव में वृद्धि हो तथा दक्षिण की उत्तर पर निर्भरता कम हो। नाम ने औद्योगिक देशों से अधिक न्यायसंगत विश्व व्यापार व्यवस्था अपनाने की भी मांग की है। डरबन शिखर सम्मेलन, 1998 ने आईएमएफ, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की विकासशील देशों में भूमिका की समीक्षा के लिये एक संवाद स्थापित करने की मांग की। हाल के वर्षों में भूमण्डलीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव नाम में चर्चा के प्रमुख विषय रहे हैं।

जैसाकि बांडुग सम्मेलन को गुटनिरपेक्ष सम्मेलन की आधारशिला कहा जाता है। इस सम्मेलन की 50वीं वर्षगांठ भी 2005 में उसी शहर में मनायी गयी। इस सम्मेलन में निर्धारित गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख सिद्धांत हैं- राष्ट्रों की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखण्डता व संप्रभुता में विश्वास, आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति, विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा आदि। इन सिद्धांतों और  गुटनिरपेक्षता की नीति का समर्थन करने वाले राष्ट्रों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयास करने की दृष्टि से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत की। इसके प्रथम सम्मेलन में केवल 25 सदस्य देश थे, लेकिन वर्तमान में (2014 तक) यह संख्या बढ़कर 120 हो गई है।

वर्तमान संदर्भ में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का औचित्य
गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अपने 50 वर्षों से अधिक के कार्यकाल में अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं। इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद की समाप्ति है, जिसके परिणामस्वरूप एशिया व अफ्रीका के तमाम देश स्वतंत्रता प्राप्त कर सके। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति की समाप्ति में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान है। इसके अतिरिक्त इसने नवोदित राष्ट्रों के मध्य एकता व सहयोग बढ़ाने, विश्व मंच पर उनके दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने, गुटों से दूर रहकर संघर्ष के क्षेत्र को कम करने तथा विश्व शांति को प्रोत्साहित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है।

1991 में सोवियत संघ के विघटन एवं शीत युद्ध की समाप्ति के उपरांत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे। वस्तुतः सच्चाई यह है कि गुटनिरपेक्ष का तात्पर्य विदेश नीति की स्वतंत्रता से है तथा इसका उद्देश्य संप्रभु राष्ट्रों की समानता व उनकी संप्रभुता व अखण्डता को सुरक्षित रखना है। इस संदर्भ में इसका औचित्य स्वयंसिद्ध हो जाता है।

विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समस्याओं व चुनौतियों-मानवाधिकार, विश्व व्यापार वार्ताएं, जलवायु परिवर्तन वार्ताएं अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधार-के संदर्भ में विकासशील देशों का दृष्टिकोण प्रस्तुत करने हेतु एक प्रभावी मंच की आवश्यकता है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन इसी मंच के रूप में कार्य करता है।

यद्यपि सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् शीतयुद्ध की समाप्ति हो गयी है तथा द्विध्रुवीय व्यवस्था भी समाप्त हो गई है, लेकिन गरीब व कमजोर राष्ट्रों की सुरक्षा व संप्रभुता की चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। अमेरिका के नेतृत्व में एकध्रुवीय व्यवस्था के लक्षण पनप रहे हैं। पश्चिमी देशों का सैनिक गुट नाटो और अधिक मजबूत हुआ है। अफगानिस्तान व इराक में अमेरिका की एकपक्षीय कार्यवाही भले ही आतंकवाद की दृष्टि से उचित हो, लेकिन राष्ट्रों की सुरक्षा व संप्रभुता की दृष्टि से इसे उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सामूहिक प्रयास सार्थक हो सकते हैं।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों के मध्य सहयोग और एकता के मंच के रूप में कार्य किया है। आज भी इन देशों के मध्य आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सहयोग की आवश्यकता है। इस सहयोग को दक्षिण-दक्षिण सहयोग के नाम से जाना जाता है। अतः गुटनिरपेक्ष आंदोलन दक्षिण-दक्षिण सहयोग का एक मंच प्रस्तुत करता है।

गुटनिरपेक्ष देशों के 16 शिखर सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं। नवीनतम सोलहवां शिखर सम्मेलन 30-31 अगस्त, 2012 को ईरान की राजधानी तेहरान में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने पुनः एक बार राष्ट्रों की संप्रभुता तथा उनके विदेश नीति की स्वतंत्रता के मुद्दे को उठाया है। यह सम्मेलन ईरान द्वारा अपना परमाणु कार्यक्रम चलाए जाने तथा उस पर संयुक्त राष्ट्र संघ व अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की पृष्ठभूमि में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन के अंत में तेहरान घोषणा-पत्र जारी किया गया।

इस घोषणा-पत्र में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के निरंतर औचित्य पर प्रकाश डालते हुए बांडुंग सम्मेलन 1955 तथा प्रथम गुटनिरपेक्ष सम्मेलन बेलग्रेड 1961 द्वारा निर्धारित इस आंदोलन के उद्देश्यों को रेखांकित किया गया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की विश्व की मुख्य चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रभावी बनाने पर जोर दिया गया। इस घोषणा-पत्र में मांग की गई कि विश्व स्तर पर एक ऐसी सुशासित व्यवस्था का विकास किया जाए जो न्याय, खुलापन तथा समता की भावना से प्रेरित हो तथा जिसमें सभी राज्यों की समान भागीदारी हो तथा जो विश्व की प्रमुख चुनौतियों जैसे-सुरक्षा के खतरे, पर्यावरण प्रदूषण, स्वास्थ्य समस्याएं आदि का प्रभावी ढंग से सामना कर सकें।

विश्व व्यवस्था के अनेक अभिकरण ऐसे हैं, जिनके निर्णय निर्माण में विकासशील देशों की पर्याप्त भूमिका नहीं है, अतः विश्व की विभिन्न संस्थाओं में विकासशील देशों को अधिक प्रभावी प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता है। इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं पर विशेष रूप से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त आतंकवाद के प्रत्येक स्वरूप को समाप्त करने तथा उस संबंध में राष्ट्रों द्वारा अपने दायित्वों के निर्वहन करने का निर्णय भी लिया गया। सम्मेलन में दृढ़ निश्चय किया गया कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियों तथा धार्मिक समूहों के मध्य निरंतर आदान-प्रदान की जरूरत है, जिससे उनके मध्य गतिरोध को समाप्त किया जा सके। प्रत्येक देश की संस्कृति और अन्य विभिन्नताओं का सम्मान किया जाना चाहिए। विश्व पर एक प्रकार के सांस्कृतिक प्रतिमान अथवा सामाजिक या राजनीतिक व्यवस्था थोपे जाने के सभी प्रयासों का विरोध किया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव का संबंध अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका के सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभुत्व के विरुद्ध गुटनिरपेक्ष देशों के विरोध से है।

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