मुगलों की शासन व्यवस्था Mughal Administration

मुगलों के राजत्व की अवधारणा तुर्की मंगोल परंपरा पर आधारित थी। तुर्की मंगोल परंपरा में शक्तिशाली राजतंत्र की अवधारणा थी। मंगोल खलीफा की सत्ता को नहीं मानते थे। चंगेज खाँ के पौत्र हलाकू खाँ ने बगदाद के खलीफा की हत्या कर दी। मुगलों ने भी मंगोलों के प्रभाव में खलीफा की सत्ता को नकार दिया। मुगल शासकों ने अपने को खलीफा घोषित किया। अपनी विदेश नीति की बाध्यता के कारण भी मुगलों ने अपने को खलीफा घोषित किया।

बादशाह और सुल्तान में अंतर- सुल्तान अपने से ऊपर खलीफा की सत्ता को मानते थे, जबकि बादशाह अपने को खलीफा मानते थे। बाबर ने अपने को बादशाह या पादशाह घोषित किया था।

अकबर के समय राजत्व का भारतीयकरण भी हुआ। अकबर अपने सम्मुख चक्रवर्ती सम्राट् की अवधारणा रखता था। वह अवधारणा भारतीय परंपरा पर आधारित थी। अबुल फजल ने राजत्व को फर्र-ए-इज्दी (दैवी प्रकाश) कहा है जो देवता से निकलता है और सीधे राजा पर पड़ता है। जहाँगीर ने अकबर के सुलह-ए-कुल की नीति को बनाये रखा और शाहजहाँ ने भी कुछ हद तक इसका अनुशरण किया किन्तु औरंगजेब ने इसे उलट दिया। औरंगजेब का घोषित उद्देश्य दर-उल-हर्ब (मूर्ति पूजक का देश) को दर-उल-इस्लाम (इस्लाम का देश) बनाना था। औरंगजेब विचार, व्यवहार और कार्य में अकबर के विपरीत था।

मुगल शासन का स्वरूप- दिल्ली के सुलतानों के विचारों एवं सिद्धान्तों से भिन्न विचारों और सिद्धांतों पर मुगल शासन की स्थापना मुख्यत: अकबर का कार्य था। उसके दो पूर्वाधिकारियों- बाबर तथा हुमायूँ- में असैनिक सरकार की पद्धति को रूपायित करने के लिए बाबर को न तो समय था और न अवसर ही तथा हुमायूँ का न तो झुकाव था और न योग्यता ही। यद्यपि अकबर उच्च श्रेणी की राजनैतिक प्रतिभा से सम्पन्न था तथापि कुछ बातों में वह सूरों के शासन सम्बन्धी संगठन का ऋणी था। मुगल सरकार भारतीय तथा गैर-भारतीय तत्वों का सम्मिश्रण थी। कह सकते हैं कि यह भारतीय वातावरण में पारसी-अरबी प्रणाली थी। यह स्वरूप में मुख्यतया सैनिक भी थी तथा मुगल राज्य के प्रत्येक अफसर को सेना की सूची में नाम लिखना पड़ता था। यह आवश्यक रूप में एक केन्द्रीकृत एकतंत्री शासन था तथा बादशाह की शक्ति असीम थी। उसका शब्द कानून था तथा उसकी इच्छा का कोई विरोध नहीं कर सकता था। वह राज्य में सर्वोच्च अधिकारी, शासन का प्रधान, राज्य की सेनाओं का अध्यक्ष, न्याय का स्रोत तथा प्रधान कानून-स्रष्टा था। वह अल्लाह का खलीफा था तथा (इस्लामी) धर्मग्रंथों एवं इस्लामी परम्पराओं का पालन करना उसका कर्त्तव्य था। परन्तु व्यवहारिक रूप में यदि कोई प्रबल बादशाह चाहता, तो वह धार्मिक कानून (इस्लामी कानून) के विरुद्ध कार्य कर सकता था। आधुनिक मंत्रिमंडल जैसी कोई वस्तु नहीं थी। मंत्री परामर्श देने के अधिकार का दावा नहीं कर सकते थे। उनके परामर्श को स्वीकार करना अथवा नहीं करना बिलकुल बादशाह की खुशी पर था। वास्तव में बहुत-कुछ बादशाह तथा उसके मत्रियों के व्यक्तिगत व्यक्तित्व पर निर्भर था। शाहजहाँ जैसा विवेकी शासक सदैव एक सादुल्ला खाँ से सलाह लेना चाहता था, जबकि हुसैन अली खाँ जैसे मंत्री को अपने द्वारा गद्दी पर बैठाये गये कठपुतलों की कोई परवाह न थी, बल्कि उनके प्रति खुल्लमखुल्ला घृणा तक थी। फिर भी भारत के पहले छः मुगल बादशाहों की प्रबल सामान्य-बुद्धि थी। अत: उनका एकतंत्री शासन भ्रष्ट होकर ऐसे असहनीय निरंकुश शासन में परिवर्तित नहीं हो गया, जो लोगों के अधिकारों तथा रीतियों को पैरों तले कुचलता चले। परोपकारी स्वेच्छाचारियों की प्रवृत्ति से सम्पन्न रहने के कारण ये बादशाह, एक या दूसरे तरीके से, अपनी प्रजा की भलाई के लिए कठिन परिश्रम करते थे-विशेष रूप से केन्द्रीय राजधानी के चारों ओर के क्षेत्रों तथा प्रान्तों में राजप्रतिनिधियों की सरकारों के स्थान पर। परन्तु उन दिनों राज्य कोई समाजवादी कार्य नहीं करता था और न तब तक ग्रामवासियों के जीवन में हस्तक्षेप ही करता था जब तक उस इलाके में कोई हिसात्मक अपराध अथवा राजा की प्रभुता का विरोध न हो। एक दृष्टिकोण से मुगल बादशाहों की विशाल शक्ति अत्यन्त सीमित थी। उनके आदेश साम्राज्य के सुदूरवर्ती कोनों में सदैव आसानी से लागू नहीं किये जा सकते थे-छोटा नागपुर तथा संथाल परगने के कुछ पहाड़ी इलाकों का तो कुछ कहना ही नहीं था, जिन्होंने संभवत: उनके आधिपत्य को कभी माना ही नहीं। जब हम लगभग प्रत्येक बादशाह को अपने राज्यकाल के प्रथम वर्ष में एक ही प्रकार के करों और चुगियों के उठाने की आज्ञा देते हुए पाते हैं, तब हमें यह विश्वास करना पड़ता है कि इनके उठाने के पिछले प्रयत्न निष्फल और अकार्यकारी हुए। भारत के अंग्रेजी कारखानों (फैक्ट्रियों) के कागजात में यह दिखलाने के लिए प्रचुर संकेत हैं कि शाहजहाँ तथा औरंगजेब के जमाने तक में (उनके दुर्बल उत्तराधिकारियों के राज्यकालों का तो कुछ कहना ही नहीं) सूबेदार, प्रान्तीय दीवान एवं चुंगी-अफसर कभी-कभी केन्द्रीय सरकार की आज्ञा के विरुद्ध काम किया करते थे और अधिकतर स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से ही ऐसा होता था।

सरदार वर्ग- कई कारणों से सरदार-वर्ग विभिन्न तत्वों की मिश्रित संस्था थी- जैसे तुर्क, तार्तार, पारसी तथा भारतीय मुसलमान और हिन्दू। अत: यह एक शक्तिशाली सरदार-वर्ग के रूप में अपना संगठन नहीं कर सका। कुछ यूरोपियनों को भी सरदारों की उपाधियाँ मिलीं। सिद्धान्त रूप में सरदार- वर्ग पुश्तैनी न होकर बिलकुल अधिकारी वर्ग था। सरदार को जागीर केवल जीवन भर के लिए मिलती थी तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् बादशाह की हो जाती थी तथा उपाधियाँ और वेतन सामान्यतः पिता से पुत्र को नहीं दिये जा सकते थे। उत्तराधिकारी के अभाव में जायदाद की बादशाह द्वारा जब्ती की प्रथा का परिणाम अत्यन्त हानिकारक हुआ। सरदार अतिव्ययी जीवन व्यतीत करने लगे। वे अपनी जीवन-काल में ही अपनी सारी संपत्ति अनुत्पादक विलास में नष्ट कर देते थे। इससे भारत को एक स्वतंत्र पैतृक कुलीनवर्ग के रूप में जनता की स्वतंत्रता का एक प्रबल रक्षक तथा राजा की निरंकुशता पर एक प्रबल प्रतिबन्ध नहीं मिल सका। इस स्वतंत्र पैतृक कुलीन वर्ग की स्थिति तथा सम्पत्ति प्रत्येक पीढ़ी में राजा की कृपा पर निर्भर नहीं रहती थी और इस कारण वह राजा के सनकीपन की आलोचना तथा राजा की निरंकुशता का विरोध करने का साहस कर सकता था।

नौकरशाही- साम्राज्य की सैनिक शक्ति बनाये रखने के लिए मुगलों को बड़ी संख्या में विदेशी साहसिकों को नियुक्त करना आवश्यक हो गया। यद्यपि अकबर ने भारत भारतीयों के लिए की नीति आरम्भ की तथा हिन्दुओं के लिए सरकारी पद खोल दिया, फिर भी मुगल लोक-सेवा (सरकारी नौकरियों) में विदेशी तत्वों की प्रधानता रही। लोक-सेवाओं का सामान्य स्वरूप जहाँगीर तथा शाहजहाँ के राज्यकालों में अपरिवर्तित रहा। परन्तु उनकी कार्यक्षमता में जहाँगीर के राज्यकाल से ही हास आरम्भ हो गया, उसके पुत्र के राज्यकाल में यह हास ध्यान आकृष्ट करने लायक हो गया, औरंगजेब के राज्यकाल में उससे भी अधिक ध्यान आकृष्ट करने लायक हो गया।

राज्य के प्रत्येक अफसर को एक मनसब मिला हुआ था। यह श्रेणी एवं लाभ से युक्त सरकारी नियुक्ति होती थी। अतएव सिद्धान्त रूप में प्रत्येक मनसब-प्राप्त अफसर को राज्य की सैनिक सेवा के लिए कुछ सिपाही भेजना आवश्यक था। इस प्रकार मनसबदार देश के अधिकतर सरदार थे तथा यह प्रबन्ध सेना, कुलीन वर्ग और असैनिक शासन सब-कुछ मिलकर एक था। अकबर ने पदाधिकारियों को तेंतीस वगों में बाँटा, जिनमें दस के सेनापति से लेकर दस हजार के सेनापति तक थे।


अकबर के राज्यकाल के मध्य तक एक साधारण अफसर जो ऊँचे-से-ऊँचा पद पा सकता था वह पाँच हजार के सेनापति का पद था। सात हजार से दस हजार तक के सेनापतियों के उच्चतर पद राजपरिवार के सदस्यों के लिए सुरक्षित थे परन्तु उसके राज्य-काल के अन्त में यह बन्धन ढीला कर दिया गया तथा उसे उत्तराधिकारियों के अधीन अफसर काफी उच्चतर पदों तक पहुँच गये। मनसबदारों को बादशाह सीधे नियुक्त करते, प्रोन्नति देते, मुअत्तल करते अथवा पदच्युत करते थे। प्रत्येक वर्ग के लिए वेतन की एक निश्चित दर थी। इस वर्ग के अधिकारी से इसी रकम में से घोड़ों, हाथियों, बोझ ढोने वाले पशुओं तथा गाड़ियों के रखने का खर्च निकालने की आशा की जाती थी। परन्तु मनसबदार इस शर्त को शायद ही कभी पूरा करते थे। (सेना का) संग्रह करने तथा (घोड़ों के) दागने (के नियमों) के बावजूद हम असंदिग्ध रूप से यह मान सकते हैं कि बहुत कम मनसबदार घुड़सवारों का भी पूरा भाग रखते थे, जिसके लिए वेतन पाते थे। मनसबदारी का पद पैतृक नहीं था। राज्य की किसी खास सेवा के बराबर अधिकारी उसी सेवा में रहकर विशेषज्ञता प्राप्त करें ऐसी बात नहीं थी और किसी भी क्षण किसी अफसर को बिलकुल नया कार्य दिया जा सकता था। अकबर की उचित व्यक्ति के उचित पद के लिए चुनने की अद्भुत योग्यता ने इस प्रणाली के दोषों को रोक रखा, किन्तु आगे चलकर शासकों के व्यक्तित्व के बदलने के साथ ह्रास प्रारम्भ हो गया।

मुगल सरकार के अफसर अपना वेतन दो प्रकार से पाते थे या तो वे राज्य से नकद रूप में पाते थे अथवा कभी-कभी उन्हें कुछ समय के लिए जागीरें दे दी जाती थीं। परन्तु उन्हें अपनी जागीरों में भूमि पर किसी प्रकार का अधिकार नहीं दिया जाता था। वे केवल निर्दिष्ट इलाकों से अपने वेतन के बराबर भूमि-राजस्व वसूल कर उसका उपभोग कर सकते थे।

कुछ भी अधिक वसूलना न केवल कृषकों के प्रति अन्यायपूर्ण था, बल्कि यह राज्य के विरुद्ध फरेब भी था। प्राय: जागीरें एक मनसबदार से लेकर दूसरे को दे दी जाती थीं। फिर भी जागीर-प्रथा से जागीरदारों को कुछ अनुचित शक्ति तथा स्वतंत्रता मिल गयी। अतएव अकबर ने उचित ही, शेरशाह की तरह, यथासंभव अपने अफसरों को नगद वेतन देने तथा जागीर की भूमि को खालसा भूमि में परिवर्तित करने का प्रयत्न किया। चाहे मुगल लोक-सेवकों का वेतन नकद दिया जाता हो अथवा जागीरों के रूप में किन्तु जैसा कि हमें आईने-अकबरी से मालूम होता है, उनके वेतन अत्यन्त अधिक थे। इससे पश्चिमी एवं मध्य एशिया के बहुत-से साहसिक अफसर आकृष्ट होकर आये थे। औरंगजेब के राज्यकाल के पहले नहीं तो बाद में मुगल लोक-सेवा में बहुत बुराइयाँ प्रवेश कर गई।

शासन के प्रमुख अधिकारी- यद्यपि मुगल बादशाहों को पूर्ण अधिकार थे, किन्तु सरकार के विभिन्न विभागों में विविध सरकारी मामलों के प्रबन्ध के लिए वे बहुत-से अफसर नियुक्त कर देते थे। राज्य के प्रमुख विभाग थे-

  1. खान-ए-सामान के अधीन शाही परिवार,
  2. दीवान के अधीन कोष,
  3. मीर बख्शी के अधीन सैनिक वेतन तथा लेखा-जोखा कार्यालय,
  4. प्रधान काजी के अधीन न्याय विभाग,
  5. प्रमुख सदर अथवा सदरेसदूर के अधीन धार्मिक धन समर्पण तथा दान तथा
  6. मोहतासिब के अधीन प्रजा के चरित्र एवं व्यवहार की देख-भाल।

दीवान-ए-आला अथवा वजीर प्रायः राज्य का सर्वोच्च अफसर हुआ करता था क्योंकि वह राजस्व एवं वित्त का प्रधान अधिकारी रहता था। बख्शी कई प्रकार के कार्य करता था। राज्य के उन सभी अफसरों का, जो सिद्धान्त रूप में सैनिक विभाग के थे, वेतनदाता अफसर होने के अतिरिक्त वह सेना में भर्ती भी किया करता तथा मनसबदारों एवं अन्य उच्चाधिकारियों की सूचियाँ रखता था। युद्ध की तैयारी करते समय वह बादशाह के समक्ष सेना की सम्पूर्ण नामावली उपस्थित करता था। खाने-सामान बड़ी तथा छोटी दोनों वस्तुओं के सम्बन्ध में सम्पूर्ण राजकीय परिवार का अधिकार था। मोहतासिब पैगम्बर की आज्ञाओं तथा सदाचार के नियमों के पालन की देखभाल करते थे।

1. वकील या वजीर- वजारत की संस्था जिसे वकालत के नाम से भी जाना जाता था खलीफाओं के समय से ही प्रचलित थी। भारत में वजीर शब्द के बदले वकील शब्द प्रचलित हो गया। वकील संपूर्ण प्रशासन का पर्यवेक्षण करता था और बादशाह वकील के माध्यम से ही अन्य अधिकारियों से संपर्क स्थापित करता था। बाबर का वजीर निजामुद्दीन अहमद और हुमायूँ का वजीर हिन्दू बेग था। अकबर के समय बैरम खाँ ने उस पद को और भी शक्तिशाली बना दिया। बैरम खाँ के विद्रोह के बाद इस पद का महत्त्व घटने लगा और यह पद औपचारिक रूप से तो बना रहा परंतु व्यवहारिक रूप में शक्तियों से वचित हो गया। उस पद पर कुछ बुजुर्ग उमरा को नियुक्त किया जाता था। कभी-कभी यह पद वर्षों तक खाली रहता था, उदाहरण के लिए मुनीम खाँ के बाद यह पद वर्षों तक खाली रहा।

2. दीवान-ए-आला या दीवान-ए-कुल- आगे चलकर वजीर या वकील की वित्तीय शक्तियाँ दीवान को दे दी गई। इसे राजस्व एवं वित्त का अधिभार दे दिया गया। यह भू-राजस्व का आकलन एवं उसकी वसूली का निरीक्षण करता था। वह उससे संबंधित हिसाब की जाँच भी करता था। उसके कायों के सहायता करने के लिए उसके अंतर्गत बहुत से अधिकारी थे उदाहरण के लिए-

  • दीवान-ए-खालसा – खालसा भूमि का निरीक्षण
  • दीवान-ए-तन – नगद वेतन से संबंधित
  • दीवान-ए-जागीर – जागीर भूमि का निरीक्षण
  • दीवान-ए-वयुतत – राजकीय कारखानों का निरीक्षण
  • शाहीद-ए-तौजिन – सैनिक लेख का प्रभारी
  • मुशरिफ-ए-खजाना – खजांची

दीवान के पद के महत्त्व को कम करने के लिए एक से अधिक दीवानों की भी नियुक्ति की जाती थी। कभी-कभी तो दीवानों की संख्या 10 तक पहुँच जाती थी।

1. मीर बख्शी- सल्तनत काल के दीवान-ए-आरिज के बदले मुगल काल में बख्शी का पद आया। यह साम्राज्य का सर्वोच्च भुगतान अधिकारी होता था चूंकि मुगल काल में मनसबदारी पद्धति थी और सैनिक एवं असैनिक सेवाओं में एकीकरण किया गया था इसलिए यह साम्राज्य के सभी अधिकारियों को भुगतान करता था। यह मनसबदारों की नियुक्ति के लिए सिफारिश तथा उसके लिए जागीर की अनुशंसा करता था। जागीर देने का काम दीवान-ए-आला करता था। इस तरह रोक और संतुलन के द्वारा दोनों पद एक दूसरे को नियंत्रित करते थे। मीर बख्शी एक महत्त्वपूर्ण पद था और मुगल काल में अमीरों का नेता दीवान न होकर मीर बख्शी होता था।

2. दीवान-ए-समाँ या खान-ए-समा- यह राजकीय कारखानों का निरीक्षण करता था। यह राजकीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कारखानों में उनका उत्पादन करता था। उस पद पर रोक और संतुलन बनाने के लिए राजकीय कारखानों के आय व्यय की जाँच का अधिकार दीवान-ए-आला को दिया गया था। आगे चलकर यह पद बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो गया और कालांतर में इस पद ने मीर बख्शी के पद को भी आच्छादित कर दिया। अकबर के समय भारमल को उस पद पर नियुक्त किया गया था और जहाँगीर के समय आसफ खाँ को। दीवान-ए-आला के पद पर सर्वप्रथम मुज्जफर खाँ को नियुक्त किया गया था। बाद में टोडरमल को नियुक्त किया गया।

3. सद्र-उस-सुद्र (सदर-ए-सदूर)- यह बादशाह का मुख्य धार्मिक परामर्शदाता होता था। यह धार्मिक अनुदानों को नियंत्रित करता था। साथ ही यह धार्मिक मामलों से सम्बन्धित मुकदमें भी देखता था। अब्दुल नबी के समय इस पद की मर्यादा गिर गई क्योंकि अकबर के मुख्य सद्र अब्दुल नबी ने धार्मिक अनुदानों में भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित किया। अत: अकबर भविष्य में इस प्रकार के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक प्रस्ताव लाया। उसके अनुसार 15 एकड़ से अधिक भूमि के अनुदान में बादशाह का अनुमोदन आवश्यक था। शाहजहाँ के शासनकाल में काजी एवं मुख्य सद्र के पद एक ही व्यक्ति को दिए जाते थे। किंतु औरंगजेब के शासन-काल में मुख्य काजी एवं मुख्य सद्र के पद को अलग-अलग कर दिया गया। अत: मुख्य सद्र की शक्ति में कमी आई।

4. मुख्य काजी– यह न्याय विभाग का प्रधान होता था। परन्तु प्रायः काजी एवं सद्र का पद एक ही व्यक्ति को दिया जाता था। उदाहरण के लिए अब्दुल नबी मुख्य काजी एवं मुख्य सद्र दोनों था।

5. मोहतासिब- यह जनता के नैतिक आचरणों का निरीक्षण करता था और यह देखता था कि शरीयत के मुताबिक कार्य हो रहा है या नहीं। साथ ही वह माप-तौल का निरीक्षण भी करता था। अकबर के समय इसका धर्म निरपेक्ष कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण था। इस समय उसके धार्मिक कार्यों में कटौती हो गयी थी।

इनके अतिरिक्त कुछ छोटे-छोटे पद भी थे जो निम्नलिखित थे-

  • मीर-ए-आतिश या दरोगा-ए-तोपखाना तोपखाना विभाग से संबंधित
  • दरोगा-ए-डाक चौकी
  • मीर माल – टकसाल का प्रधान
  • मीर बहरी – जल सेना का प्रधान
  • मीर बर्र – वन अधीक्षक
  • बाकया-ए-नवीश समाचार प्रेषक
  • मीर अर्ज बादशाह के पास भेजी गई अर्जियों का अधिकारी।

प्रांतीय प्रशासन- बाबर ने अपने साम्राज्य का विभाजन जागीरों में कर दिया था। इसके समय किसी भी प्रकार की प्रांतीय व्यवस्था विकसित नहीं हो सकी। हुमायूँ के पास समय का अभाव रहा था। इसलिए उसने कोई कदम नहीं उठाया। शेरशाह ने स्थानीय प्रशासन की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाया था किंतु जैसा कि इतिहासकारों का मानना है उसके समय सुसंगठित प्रांतीय व्यवस्था विकसित नहीं हुई थी।

सबसे पहले एकरूप प्रांतों का निर्माण अकबर के समय हुआ। 1580 ई. में उसने अपने साम्राज्य का विभाजन 12 प्रांतों में किया। ये थे-

1. आगरा, 2. दिल्ली, 3. इलाहाबाद, 4. अवध, 5. अजमेर, 6. अहमदाबाद, 7. बिहार, 8. बंगाल, 9. काबुल, 10. लाहौर, 11. मुल्तान, 12. मालवा।

उसके शासन काल के अंत में प्रांतों की संख्या 15 हो गई अर्थात् बरार, खानदेश, अहमदनगर क्षेत्र जुड़ गए। जहाँगीर के समय प्रांतों की संख्या 17 थी और औरंगजेब के समय प्रांतों की संख्या 21 थी।

अकबर की प्रशासनिक नीति दी बातों पर अधारित थी-

  1. प्रशासनिक एकरूपता,
  2. रोक एवं संतुलन

प्रांतीय प्रशासन केन्द्रीय प्रशासन का ही प्रतिरूप था। प्रांतीय प्रशासन का प्रमुख नजीब, सूबेदार या सरसुबा होता था। वह सूबे का सर्वोच्च अधिकारी होता था। उसकी नियुक्ति बादशाह करता था। सूबेदार का कार्यकाल आमतौर पर तीन वर्ष का होता था।

केन्द्रीय दीवान की अनुशंसा पर बादशाह प्रांतीय दीवान की नियुक्ति करता था। प्रांतीय दीवान नजीम के बराबर का अधिकारी होता था और कभी-कभी श्रेष्ठ अमीरों को भी दीवान का पद दे दिया जाता था। उसी तरह केन्द्रीय बख्शी की अनुशंसा पर प्रांतीय बख्शी की नियुक्ति होती थी और प्रांतीय बख्शी सुरक्षा से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण बातें नजमी को बताये बिना केन्द्रीय बख्शी तक प्रेषित कर सकता था। प्राय: प्रांतीय बख्शी ही बरीद-ए-मुमालिक के पद को सुशोभित करता था। अकबर ने केन्द्रीय सद्र की शक्ति को कम करने के लिए प्रांतीय सद्र को नियुक्त करना प्रारंभ किया। अब प्रांतीय सद्र के परामर्श पर भी धार्मिक बातों का निर्णय किया जाता था।

सरकार- प्रान्तों का विभाजन सरकारों में होता था। सरकार के जुड़े हुए निम्न अधिकारी थे- फौजदार, अमालगुजार, खजानदार, वितिक्ची।

  1. फौजदार शांति व्यवस्था की देखरेख करता था और अमालगुजार को, भू-राजस्व को प्रशासन में सहयोग करता था।
  2. अमालगुजार भू-राजस्व प्रशासन से जुड़ा हुआ अधिकारी था। कभी-कभी एक सरकार में कई-कई फौजदार होते थे तो कभी-कभी दो सरकारों पर एक फौजदार भी होता था।
  3. खजानदार सरकार के खजाने का संरक्षक होता था।
  4. बितिक्ची एक फारसी शब्द है, जिसका अर्थ होता है लेखक।

शाहजहाँ के शासनकाल में प्रशासनिक ईकाई के रूप में चकला का संगठन हुआ। चकला कई परगनों से मिलकर बनता था।

परगना- सरकार का विभाजन परगनों में होता था। परगनों से जुड़े हुए निम्नलिखित अधिकारी थे-शिकदार, शांति व्यवस्था का संरक्षक था तथा भू-राजस्व संग्रह में आमिल की सहायता करता था। आमिल भू-राजस्व प्रशासन से जुड़ा हुआ था। पोतदार खजांची को कहा जाता था। कानूनगो गाँव के पटवारियों का मुखिया एवं स्वयं कृष्य भूमि का पर्यवेक्षक होता था।

सबसे नीचे ग्राम होता था। इससे जुड़े हुए अधिकारी मुकद्दम और पटवारी थे। मुगल काल में ग्राम पंचायत की व्यवस्था थी। इस विभाजन के अतिरिक्त नगरों में कानून व्यवस्था की देखरेख के लिए कोतवाल की नियुक्ति होती थी। अबुल फजल के आइन-ए-अकबरी में कोतवाल के कार्यों का विवरण दिया गया है। उसी तरह प्रत्येक किले पर किलेदार की नियुक्ति होती थी।

बंदरगाह प्रशासन- यह प्रांतीय अधिकारी से स्वतंत्र होता था। बंदरगाह के गवर्नरों को मुतसद्दी कहा जाता था। ये सीधे सम्राट् के द्वारा नियुक्त होते थे। कभी-कभी इस पद की नीलामी होती थी। इसके अन्तर्गत एक अधीनस्थ अधिकारी होता था। जिसे शाह बदर भी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार जिनमें इरफ़ान हबीब एवं अतहर अली प्रमुख है, मुग़ल प्रशासनिक ढांचा को अतिकेंद्रित मानते हैं।

मनसबदारी पद्धति

मनसब फारसी शब्द है जिसका अर्थ होता है प्रतिष्ठा का स्तर पद। मनसबदारी व्यवस्था अकबर ने अपने शासन के 19वें वर्ष अर्थात् 1575 ई. में प्रारंभ किया। बाबर के समय प्रशासनिक अधिकारियों को वजहदार कहा जाता था और अकबर के समय उसे मनसबदार कहा जाने लगा।

अकबर की मनसबदारी व्यवस्था मंगोलो की दशमलव प्रणाली पर आधारित थी। यह मंगोलो की सैनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। किन्तु प्रेरणा भले ही मंगोल पद्धति से मिली परंतु अकबर ने अपनी प्रतिभा के अनुकूल इसे एक मौलिक पद्धति बना दिया। मनसबदारी व्यवस्था वह व्यवस्था थी जिसमें अमीर वर्ग, सेना और सिविल अधिकारी तीनों का एकीकरण किया गया। प्रत्येक मनसबदार का रैक दो अंकों में व्यक्त होता था। प्रथम अंक-जात रैक, द्वितीय अंक सवार रैक का बोधक होता था। जात शब्द से किसी भी अधिकारी की श्रेणी, अधिकारियों के बीच उसका स्थान और उसका वेतन निर्धारित होता था। और सवार रैंक से यह निर्धारित होता था कि संबंधित अधिकारी के अंतर्गत कितनी सेना रखी गयी है।

मनसबदारों की तीन श्रेणियाँ होती थीं-

  1. सवार रैक जात रैंक के बराबर
  2. सवार रैंक जात रैंक से आधा या आधे से अधिक
  3. सवार रैंक जात रैंक के आधे से कम

किसी भी स्थिति में सवार रैंक जात रैंक से अधिक नहीं हो सकता था अबुल फजल के आइने-ए-अकबरी से ज्ञात होता है कि मनसबदारों की 6 श्रेणियाँ थी पर उनमें 33 श्रेणियाँ प्रचलित थी। अपवाद है राजा मान सिंह एवं मिजा अजीज कोका। राजकुमारों को कभी-कभी बड़ी मनसबदारी भी दी जाती थी। उदाहरण के लिए, दाराशिकोह को 60 हजार रैंक की मनसबदारी दी गयी थी।

  1. 10 से 500 जात तक – मनसबदार
  2. 500 से 2500 जात तक – अमीर
  3. 2500 से अधिक जात – अमीर-उल-उमदा

प्रत्येक सवार पर दो घोडे रखे जाते थे और उसे दह बिशती (10:20) प्रणाली कहा जाता था। जिस सवार के पास एक घोड़ा होता था उसे आधा सवार या नीम सवार कहा जाता था।

मनसबदारों की नियुक्ति में मीर बख्शी बादशाह के सामने प्रत्याशियों को प्रस्तुत करता था। बादशाह मनसबदारों को नियुक्त करता था। नियुक्ति में खानजादों को प्राथमिकता दी जाती थी। इस व्यवस्था में प्रतिभा के लिए गुंजाइश थी। अधिकारियों की पदोन्नति एवं अवनति की जा सकती थी। मुगल मनसब का आकर्षण इतना तीव्र था कि 1636 ई. में बीजापुर के शासक इब्राहिम आदिलशाह ने शाहजहाँ से बीजापुर के अमीरों को मनसब नहीं देने का अनुरोध किया था।

जागीर प्रथा- अकबर मनसबदारों का वेतन नगद में देना चाहता था परन्तु उस समय के कुलीन वर्ग को भू संपत्ति से जबरदस्त आकर्षण था इसलिए कुछ अधिकारियों को जागीर में वेतन दिया जाता था। कुछ मनसबदारों को नगद में वेतन दिया जाता था और कुछ अन्य को जागीर में और कुछ को नगद एवं जागीर दोनों में वेतन दिया जाता था। जागीरों में अनुमानित आय को जमादामी कहा जाता था क्योंकि इसका आकलन दाम के रूप में होता था। उस काल में एक रुपया 40 दाम के बराबर होता था।

जमा में भूराजस्व, अंतर्देशीय पारगमन शुल्क सीमा शुल्क, और शायद जेहाद नामक अन्य कर भी शामिल होता था। निर्धारित वेतन में कटौती का भी प्रावधान था। सबसे अधिक कटौती दक्खिनियों से की जाती थी। जिनके वेतन का 1/4 हिस्सा काट लिया जाता था इसके अतिरिक्त सम्राट् के मवेशियों के चारे के खर्च के लिए खुराक दब्बाव नामक कटौती की जाती थी। नकद वेतन प्राप्त करने वाले में से एक रुपये में दो दाम काट लिया जाता था।

कुलीनों की संपत्ति का अधिग्रहण, राज्य की माँग के अनुसार समायोजन तथा कुलीन और इसके उत्तराधिकारियों के बीच इसके बँटवारे का काम खान-ए-समाँ नामक अधिकारी करता था। कभी-कभी सम्राट् इस्लामी उत्तराधिकार कानून की परवाह न करके अमीर की संपत्ति का बँटवारा इसके उत्तराधिकारियों के बीच कर देता था। 1666 ई. में औरंगजेब ने फरमान जारी किया कि उत्तराधिकारीहीन कुलीन की मृत्यु के बाद सारी संपत्ति राजकोष की हो जायेगी। 1691 ई. के फरमान में इन कुलीनों की संपत्ति नष्ट न करने का आदेश दिया गया जिनके उत्तराधिकारी राज्य सेवा में कार्यरत थे।

इक्ता और जागीर में अंतर- इक्तादारी में संबंधित इक्तादार इक्ता के प्रशासन से भी जुड़े हुए थे किंतु जागीर में प्रशासन का काम सरकारी अधिकारियों के हाथ में था और जागीरदार केवल भूराजस्व से संबंध रखते थे। दूसरी बात, इक्तादारी व्यवस्था में फवाजिल की गुंजाइश होती थी। फवाजिल (अतिरिक्त रकम) को केन्द्रीय खजाने में भेज दिया जाता था। जागीर में फवाजिल की गुंजाइश नहीं थी। संबंधित मनसबदार को उतनी ही जागीर दी जाती थी जितना उनका वेतन होता था। जागीर निम्नलिखित प्रकार की थे-

  1. जागीर-ए-तनख्वाह- वेतन के रूप में दी गई जागीर।
  2. मसरूत- किसी व्यक्ति को दी गई सशर्त्त जागीर।
  3. इनाम जागीर- यह पद एवं कार्य रहित होती थी और राज्य इसे किसी विशेष सेवा के बदले देता था।
  4. वतन जागीर- यह जागीर राजपूतों को दी जाती थी अर्थात् उनका अपना क्षेत्र उन्हें जागीर के रूप में दे दिया जाता था।

तनख्वाह जागीर वंशानुगत नहीं था और जागीरदारों को एक जागीर पर लगभग 3 वर्षों के लिए नियुक्त किया जाता था किन्तु वतन जागीर वंशानुगत थी और वह हस्तांतरणीय नहीं थी।

इसके अतिरिक्त जहाँगीर ने अलतम्मागा जागीर लागू की। यह जागीर मुस्लिमों को उसी प्रकार दी जाती थी। जिस प्रकार वतन जागीर हिन्दुओं को। जहाँगीर ने मनसबदारी पद्धति में एक नई बात जोड़ी जिसे दो अस्पा-सी अस्पा के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार, किसी भी मनसबदार के जात रैक में वृद्धि किए बिना उसके अंतर्गत सवारों की संख्या बढ़ाई जा सकती थी।

शाहजहाँ ने उसमें एक नई बात जोड़ी जो महाना वेतन पद्धति नाम से जानी जाती है। अब मनसबदारों को वेतन पूरे वर्ष का न देकर 10, 8, 6 महीने और 5 महीने के लिए दिए जाने लगे और अनुसार मनसबदारों के अधीन रखी गई सेनाओं की संख्या कम कर दी जाती थी। बहुत सारे इतिहासकारों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि ऐसा जागीरदारी संकट के कारण हुआ।

जागीरदारी संकट के कारण जमा दामी और हासिल दामी में अंतर आने लगा और यह संभवत: भूमि उत्पादकता में ह्रास के कारण हुआ। किंतु सतीश चन्द्र का मानना है कि वस्तुतः शाहजहाँ ने महाना वेतन, जमा दामी और हासिल दामी में अंतर के कारण नहीं निर्धारित किया क्योंकि जैसा कि हम मानते हैं कि शाहजहाँ के शासन-काल में जागीरों की आमदनी में कमी नहीं हुई थी। 17वीं सदी में ही पहली बार नकदी खेती को प्रोत्साहन मिला था। दूसरे महाना वेतन इन मनसबदारों पर भी लागू किया गया जिन्हें जागीर में वेतन न देकर नकद में वेतन दिया जाता था।

जागीरदारी संकट- यह एक आर्थिक समस्या न होकर प्रशासनिक समस्या थी। उत्तर भारत में जब प्रशासनिक ढाँचा कमजोर हो गया तो धीरे-धीरे जमींदारों ने शक्ति संचय कर लिया। जागीरों में जमींदार मनसबदारों को भू-राजस्व संग्रह में अवरोध उत्पन्न करने लगे और ऐसी जागीरें जोरतलब जागीर कहलाती थी। दूसरी तरफ कुछ जागीरें ऐसी थी जिनमें आसानी से भू-राजस्व संग्रह किया जा सकता था और ऐसी जागीरों को सैर हासिल जागीर कहा जाता था। स्वाभाविक रूप से मुगल दरबार में सैरहासिल जागीरों के लिए मनसबदारों में प्रतिस्पर्धा होने लगी। इसने गुटबंदी को प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप मुगल प्रशासनिक ढाँचा और भी चरमरा गया गया। औरंगजेब ने बहुत सारी जागीर भूमि और पैबाकी भूमि गया (ऐसी भूमि जो खालसा भूमि से अलग हो किंतु अभी तक किसी को जागीर के रूप में नहीं दिया हो) को खालसा भूमि में तब्दील कर दिया। साथ ही उसने मनसबदारों की संख्या में भी वृद्धि कर दी। अत: कभी-कभी एक ही जागीर कई मनसबदारों के बीच बँट जाती थी। इसने एक प्रकार की प्रशासनिक अव्यवस्था को उत्पन्न किया।

जहाँ तक गाँवों का सम्बन्ध था, मुगलों ने अपराधों के रोकने तथा पकड़ने का कोई नया प्रबन्ध नहीं किया। यह, जैसा चिर काल से होता आ रहा था, गाँव के मुखिया तथा उसके अधीन पहरेदारों की देखरेख में रहा। यह प्रबन्ध, जिसके द्वारा कभी-कभी अव्यवस्था के समय की गड़बड़ियों को छोड़कर स्थानीय इलाकों में काफी अंशों में सुरक्षा रहती थी, उन्नीसवीं सदी के आरम्भ तक चला। शहरों में सभी पुलिस कार्य, जिनमें सार्वजनिक व्यवस्था तथा शिष्टता बनाये रखने का कार्य भी शामिल था, कोतवालों को दे दिये गये। आईने-अकबरी के अनुसार कर्त्तव्य इस प्रकार थे- (1) चोरों को पकड़ना, (2) चीजों के मूल्य का निर्धारण करना था माप-तौल की जाँच करना, (3) रात में पहरा देना तथा शहर में चक्कर लगाना, (4) घरों, चालू सड़कों तथा नागरिकों की फेहरिस्त रखना तथा नवागन्तुकों की चालढाल पर नजर रखना, (5) घुमक्कड़ों में से भेदिये नियुक्त करना, निकटवर्ती गाँवों के मामलों तथा विभिन्न वर्गों के लोगों की आय और व्यय के विषय में सूचना एकत्रित करना, (6) उत्तराधिकारी-विहीन मृत अथवा खोये हुए व्यक्तियों की जायदाद की सूची तैयार करना तथा उसे अपने अधिकार में रखना (7) बैलों, भैसों, घोड़े अथवा ऊँटों की हत्या को रोकना तथा (8) स्त्रियों को अपनी इच्छा के विरुद्ध जलने से तथा बारह वर्षों से कम उम्र में सुन्नत करने से रोकना। डाक्टर यदुनाथ सरकार का विश्वास है कि आईने में कोतवाल के कर्त्तव्यों की यह लम्बी सूची केवल कोतवाल के आदर्श की न कि वास्तविक दशा की परिचायक है। परन्तु मनूची भी अपने व्यक्तिगत निरीक्षण से कोतवाल के कर्त्तव्यों का पूर्ण विवरण देता है। फिर भी यह निश्चित है कि कोतवाल का प्रमुख काम था शहरी इलाकों में शान्ति एवं सार्वजनिक सुरक्षा बनाये रखना। जिलों अथवा सरकारों में नियम और व्यवस्था प्राय: फौजदार-जैसे अफसर बनाये रखते थे। फौजदार, जैसा कि उसके नाम से पता चलता है, केवल देश में स्थित फौज का कमानदार होता था। उसे मामूली बलवों को कुचलना, डकैतों के दलों को भंग करना या कैद करना, सभी हिंसापूर्ण अपराधों की जानकारी रखना तथा राजस्व अधिकारियों, फौजदारी के न्यायाधीश अथवा दोष निरीक्षक के विरोधियों को डराने के लिए शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता था। पुलिस के प्रबन्ध कुछ बातों में कार्यसाधक थे, यद्यपि सार्वजनिक सुरक्षा की दशा स्थानों तथा समय के अनुसार बहुत बदलती रहती थी।

न्याय- मुगल युग में आज की तरह कानून बनाने की विधि अथवा लिखित नियम-व्यवस्था कुछ भी नहीं थी। इसके प्रसिद्ध अपवाद केवल ये थे-जहाँगीर की बारह आज्ञाएँ तथा फतवा-ए-आलमगीरी, जो औरंगजेब की देखरेख में बनी हुई मुसलमानी कानून की एक संक्षिप्त पुस्तक (डाइजेस्ट) थी। न्यायाधीश मुख्यत: कुरान के आदेशों या उपदेशों, प्रसिद्ध कानूनविदों के फतवाओं (पवित्र कानून अर्थात् कुरान की पिछली व्याख्याओं) तथा बादशाहों के मानूनों (आज्ञाओं) का अनुसरण करते थे। वे साधारणत: प्रचलित कानूनों की उपेक्षा नहीं करते थे तथा कभी-कभी न्यायपरता के सिद्धान्तों का अनुसरण करते थे। विशेषकर बादशाह की व्याख्याओं की ही महत्ता रहती थी, यदि वे पवित्र कानून (कुरान) के विरुद्ध नहीं होती थीं।

मुस्लिम कानूनों का आधार निम्नलिखित था-(शरियत और जबाबित या उर्फ) मुस्लिम शरीयत के निम्नलिखित आधार थे-

  1. कुरान मुहम्मद साहब ने जो सुना था।
  2. हदीस सुनी हुई बातों का अर्थ निकाला गया।
  3. इज्म विभिन्न विद्वानों की व्याख्या।
  4. कयास मिलती जुलती बातों के आधार पर निर्णय लेने की पद्धति।

जब कोई शासक देश काल की परिस्थिति के अनुसार प्रशासनिक सुविधाओं के लिए कानून बनाता था तो वह जबाबित या उर्पु कहलाता था। दीवानी मुकदमों का निर्णय मुस्लिमों के परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम कानूनों के अनुसार लिया जाता था और हिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में हिन्दू कानून के अनुसार लिया जाता था। किन्तु अगर एक पक्ष हिन्दू और दूसरा पक्ष मुस्लिम हो तो निर्णय मुस्लिम कानूनों के अनुसार लिया जाता था। फौजदारी मुकदमों में मुस्लिम कानून ही लागू होते थे।

काजी-उल-कुजात (प्रधान काजी) साम्राज्य में प्रधान न्यायाधीश था। वह प्रत्येक प्रान्तीय राजधानी में काजियों की नियुक्ति करता था। काजी हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के दीवानी एवं फौजदारी मुकद्दमों की पड़ताल एवं फैसले करते थे, मुफ्ती मुसलमानी कानून की व्याख्या करते थे तथा मीर अद्ल फैसलों का मजमून बनाते तथा पढ़कर सुनाते थे। काजियों से न्यायपरायण, ईमानदार एवं पक्षपातरहित होने, दोनों दलों की उपस्थिति तथा न्यायालय एवं राजधानी में मुकद्दमों जानने, जहाँ वे कार्य करते थे वहां के लोगों से कोई उपहार स्वीकार नहीं करने और न ही जैसे-तैसे के यहाँ उत्सवों  में जाने की आशा की जाती थी। उनके विषय में कहा जाता था की वे निर्धनता में ही अपने गौरव समझें परन्तु व्यवहार में वे अपने अधिकार का दुरूपयोग करते थे तथा जैसा डॉ. यदुनाथ सरकार कहते हैं, मुगलों के समय में काजी का विभाग निंदाजनक कहावत हो गया। काजियों के न्यायालयों के नीचे कोई प्रारंभिक न्यायालय नहीं थे। गंव्वालोनेवं छोटे नगरों के निवासियों के ऊपर काजी नहीं होते थे। अतत वे अपने झगड़ों का निर्णय अपने ही यहाँ जातिसभाओं अथवा पंचायतों में अपील करके या किसी निष्पक्ष निर्णयकर्ता (सालिस) के फैसले के द्वारा अथवा शक्ति के प्रयोग के द्वारा कर लेते थे। सदरुस्सुदूर (प्रधान सदर) बादशाहों या शाहजादों के द्वारा धार्मिक व्यक्तियों, विद्वानों तथा महंथों को दी गयी भूमि की देखभाल करता था और इनसे सम्बन्ध रखने वाले मुकद्दमों का फैसला करता था। उससे नीचे प्रत्येक प्रान्त में एक स्थानीय सदर हुआ करता था।

नगरों तथा प्रान्तों के न्यायालयों के ऊपर स्वयं बादशाह था, जो उस युग के खलीफा के रूप में न्याय का स्रोत तथा अपील का अन्तिम न्यायालय था। कभी-कभी वह मुकद्दमों का प्रारम्भिक न्यायालय भी होता था। बादशाह से बिना पूछे ही न्यायालय जुर्माना कर सकते थे तथा अंग-भंग, अंगछेद और कोडे लगाने के कठोर दण्ड भी दे सकते थे। परन्तु फाँसी की सजा देने में बादशाह की स्वीकृति आवश्यक थी। कारावासों की नियमित व्यवस्था नहीं थी, किन्तु कैदियों को किलों में बन्द रखा जाता था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *