मौर्य साम्राज्य Mauryan Empire

जिस समय देश के सीमांत प्रदेशों पर यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर अपना तूफानी आक्रमण कर रहा था उसी समय मगध में एक नवयुवक अपनी राजनैतिक शक्ति का संचय कर रहा था। उसकी महत्त्वकांक्षाएँ केवल कल्पना मात्र नहीं थीं वरन् उसने नन्दों को समूल नष्ट करके सचमुच भारतीय इतिहास में एक नए युग का निर्माण किया। मौर्य काल के साथ भारतीय इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात होता है। पहली बार इस युग में भारत को राजनैतिक दृष्टि से एकछत्र राज्य के अन्तर्गत अखण्ड एकता प्राप्त हुई। चन्द्रगुप्त मौर्य प्रथम भारतीय सम्राट् था जिसने वृहत्तर भारत पर अपना शासन स्थापित किया। ब्रिटिशकालीन भारत से वह भारत बड़ा था। वृहत्तर भारत की सीमाएँ आधुनिक भारत की सीमाओं से बहुत आगे तक ईरान की सीमाओं से मिली हुई थीं। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त भारत का प्रथम शासक था जिसने अपनी विजयों द्वारा सिन्धु घाटी तथा पांच नदियों के देश को, गंगा तथा यमुना की पूर्वी घाटियों के साथ मिलाकर एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की, जो एरिया (हेरात) से पाटलिपुत्र तक फैला हुआ था। वही पहला भारतीय राजा है जिसने उत्तरी भारत को राजनैतिक रूप से एकबद्ध करने के बाद, विंध्याचल की सीमा से आगे अपने राज्य का विस्तार किया, और इस प्रकार वह उत्तर तथा दक्षिण को एक ही सार्वभौम शासक की छत्रछाया में ले आया। इससे पहले, वह पहला भारतीय शासक था जिसे अपने देश पर एक यूरोपीय तथा विदेशी-आक्रमण के निराशाजनक दुष्परिणामों का सामना करना पड़ा, उस समय देश राष्ट्रीय पराभव तथा असंगठन का शिकार था। उसे यूनानी शासन से अपने देश को पुन: स्वतंत्र कराने का अभूतपूर्व श्रेय प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त मौर्य साम्राज्य की अन्य विशेषता उसकी सुव्यवस्थित शासन-पद्धति थी जो अपनी व्यवहारिकता एवं सरलता के कारण आधुनिक विचारकों को आश्चर्यचकित कर देती है। इस युग के प्रणेता और महान् विजेता सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य तथा प्रगाढ़ कूटनीतिज्ञ एवं विद्वान् मंत्री कौटिल्य (चाणक्य) थे जिन्होंने राष्ट्रीय एकता की नींव रखी।

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मौर्य इतिहास के स्रोत

भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य का विशिष्ट महत्त्व है क्योंकि इसकी स्थापना के साथ ही हम इतिहास के सुदृढ़ आधार पर खड़े होते हैं। इसके पूर्व का भारतीय इतिहास का ज्ञान किसी निश्चित तिथि के अभाव में अस्पष्ट रहा है। मौर्य काल से प्राय: एक निश्चित तिथिक्रम का प्रारम्भ होता है। मौर्य सम्राटों ने अन्य विदेशी राष्ट्रों के साथ कुटनीतिक संबंध स्थापित किए और भारतीय इतिहास की घटनाओं का कालक्रम अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के साथ जुड़ने लगा। मौर्य इतिहास के स्त्रोतों को मुख्यत: हम दो भागों में बाँट सकते हैं- पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक।

पुरातात्विक स्रोत

अशोक के अभिलेख मौर्य साम्राज्य के अध्ययन के प्रामाणिक स्रोत हैं। इनमें स्तभ अभिलख, वृहत शिलालेख, लघु शिलालेख और अन्य प्रकार के अभिलेख शामिल हैं। अशोक के अभिलेख राज्यादेश के रूप में जारी किए गए हैं। वह पहला ऐसा शासक था जिसने अभिलेखों के द्वारा जनता को संबोधित किया। अशोक के अभिलेख 457 स्थानों पर पाए गए हैं और कुल अभिलेखों की संख्या 150 है। ये 182 पाठान्तर में मिलते हैं। लगभग सभी अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में मिलते हैं। लेकिन उत्तर-पश्चिम के अभिलेख में खरोष्ठी एवं अरामाइक लिपि का प्रयोग किया गया है और अफगानिस्तान में इसकी भाषा अरामाइक और यूनानी दोनों हैं। ये अभिलेख सामान्यत: प्राचीन राजमार्गों के किनारे स्थापित हैं। इनसे अशोक के जीवन-वृत, आंतरिक एवं विदेश नीति और उसके राज्य के विस्तार के विवरण मिलते हैं। उसके शिलालेखों में उसके राज्याभिषेक के 8वें और 21वें वर्ष की घटना वर्णित है। अभिलेखों के अनुक्रम में पहले चौदह दीर्घ शिलालेख, लघुशिला लेख तथा स्तम्भ अभिलेख। येर्रागुडी एकमात्र स्थल है जहाँ से वृहत् और लघु दोनों शिलालेख मिले हैं।

वृहत शिलालेख- ये संख्या में 14 हैं जो आठ अलग-अलग स्थानों में मिले हैं। इन्हें पढ़ने में सर्वप्रथम सफलता 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप को मिली।


अशोक के 14 वृहत शिलालेख कालसी, शहबाजगढ़ी, मनसेहरा, (मानसेरा) सोपारा, धौली, जौगढ़, गिरनार, येरागुड्डी आदि स्थानों पर पाए गए हैं।

लघु शिलालेख- ये रूपनाथ, बैराट (राजस्थान), सहसराम, मस्की, गुर्जरा, ब्रह्मगिरी, सिद्धपुर, जतिंग रामेश्वर, गवीमठ (आंध्र से कर्नाटक तक) एर्रागुड्डी, राजुलमण्डगिरी, अहरोरा और दिल्ली में स्थापित अभी हाल में अन्य कई स्थानों से लघु शिलालेख प्रकाश में आए हैं। ये स्थान हैं- सारो मारो (मध्य प्रदेश), पनगुडरिया (मध्य प्रदेश), निट्टर और उडेगोलम (बेलारी, कर्नाटक), सन्नाती (गुलबर्गा, कर्नाटक)।

स्तंभ अभिलेख- लौरिया-अरेराज, लौरिया-नन्दनगढ़, टोपरा-दिल्ली, मेरठ-दिल्ली, इलाहाबाद, रामपुरवा, इलाहाबाद के अशोक स्तंभ अभिलेख पर समुद्रगुप्त और जहाँगीर के अभिलेख भी मिलते हैं।

अन्य अभिलेख- बाराबर की गुफा, अरेराज, इलाहाबाद, सासाराम, रूम्मिनदेई और निगालीसागर, सांची, वैराट आदि स्थानों पर भी अशोक के शिलालेख मिले हैं।

कर्नाटक के गुलबर्गा जिलों के सन्नाती गाँव से तीन शिलालेख मिले हैं। इसकी खोज 1989 में हुई है। इससे यह साबित होता है कि अशोक ने तीसरी सदी पूर्व उत्तरी कर्नाटक और आस-पास के आंध्र प्रदेश का क्षेत्र जीता था।

1750 ई. में टील पैन्थर नामक विद्वान् ने अशोक की लिपि का पता लगाया। 1837 ई. में जेम्स प्रिसेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़ा। उसने पियदस्सी की पहचान श्रीलंका के एक शासक के साथ की। 1915 ई. के मास्की अभिलेख से अशोक की पहचान पियदस्सी के साथ हो गई। इसी वर्ष महावंश (5वीं सदी) के अध्ययन से पता चला कि पियदस्सी से तात्पर्य सम्राट् अशोक से है। कुछ अभिलेख अपने मूल स्थान से हटाकर अन्य स्थानों पर ले जाये गये हैं। उदाहरण के लिए फिरोजशाह के समय मेरठ और टोपरा के स्तंभ शिलालेख दिल्ली ले आये गए। उसी तरह इलाहाबाद के स्तंभ शिलालेख पहले कौशांबी में थे। उसी तरह वैराट अभिलेख को कनिंघम महोदय कलकत्ता (कोलकाता) ले आये। ह्वेनसांग राजगृह और श्रीवस्ती में अशोक के अभिलेखों की चर्चा करता है जो अभी तक प्राप्त नहीं हुए है। उसी तरह फाहियान सकिसा नामक स्थान पर सिंह की आकृतियुक्त एक अभिलेख की चर्चा करता है, साथ ही वह पाटलिपुत्र में भी एक अभिलेख की चर्चा करता है जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है।

कुछ ऐसे भी अभिलेख हैं जो प्रत्यक्षत: अशोक से जुड़े हुए नहीं हैं परन्तु उनसे मौर्य प्रशासन पर प्रकाश पड़ता है, उदाहरण के लिए तक्षशिला का पियदस्सी अभिलेख। उसी तरह लमगान से प्राप्त एक अभिलेख, जो एक अधिकारी रोमेडेटी के सम्मान में अंकित है, अरामाइक लिपि में हैं। संभवत: वह चंद्रगुप्त मौर्य से संबंधित है। सोहगौरा और महास्थान अभिलेख भी संभवत: चन्द्रगुप्त मौर्य से संबंधित है। सोहगोरा और महास्थान अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि मौर्य काल में अकाल पड़ते थे। दशरथ का नागार्जुनी गुफा अभिलेख और रुद्रदमन के जूनागढ़ अभिलेख से भी मौर्य साम्राज्य पर प्रकाश पड़ता है।

मौर्य साम्राज्य के बारे में अधिक जानकारी के लिए कई स्थानों पर खुदाई भी कराई गई है। प्रो. बी.बी. लाल ने हस्तिनापुर की खुदाई करवायी। जॉन मार्शल के निर्देशन में तक्षशिला में खुदाई हुई। इसके अतिरिक्त राजगृह और पाटलिपुत्र में भी खुदाई करायी गई। प्रो. जी.आर. शर्मा ने कौशांबी में स्थित घोषिताराम बौद्ध संघ का पता लगाया। ए.एस. अल्तंकर ने कुम्हरार की खुदाई करवायी।

वृहत शिलालेख की घोषणाएँ

प्रथम वृहत शिलालेख- इसमें पशु हत्या एवं समारोह पर प्रतिबंध लगाया गया हैं।

दूसरा शिलालेख- इसमें समाज कल्याण से संबंधित कार्य बताये गए हैं और इसे धर्म का अंत्र बनाया गया है। इसमें मनुष्यों एवं पशुओं के लिए चिकित्सा, मार्ग निर्माण, कुआ खोदना एवं वृक्षारोपण का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा गया है कि संपूर्ण साम्राज्य में देवानार्मपियदस्सी ने चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवायी। इतना तक कि सीमावर्ती क्षेत्रो अर्थात् चोल, पाण्डय, सतियपुत्र और केरलपुत्र की भूमि श्रीलंका एवं यूनानी राजा ऐन्टियोकस और उसकी पड़ोसी भूमि पर भी चिकित्सा-सुविधा उपलब्ध करवाने की बात कही गई।

तीसरा अभिलेख- इसमें वर्णित है कि लोगों को धर्म की शिक्षा देने के लिए युक्त रज्जुक और प्रादेशिक जैसे अधिकारी पाँच वर्षों में दौरा करते थे। इसमें ब्राह्मणों तथा श्रमणों के प्रति उदारता को विशेष गुण बताया गया है। साथ ही माता-पिता का सम्मान करना, सोच समझकर धन खर्च करना और बचाना भी महत्त्वपूर्ण गुण है।

चौथा अभिलेख- इसमें धम्म नीति से संबंधित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए गए हैं। इसमें भी ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति आदर दिखाया गया है। पशु-हत्या को बहुत हद तक रोके जाने का दावा है।

पांचवां अभिलेख- इसके अनुसार अशोक के शासन के तेरहवें वर्ष धम्म महामात्र नामक अधिकारी की नियुक्ति की गई। वह अधिकारी लोगों को धम्म (धर्म) में प्रवृत्त करता था और जो धर्म के प्रति समर्पित हो जाते थे, उनके कल्याण के लिए कार्य करता था। वह यूनानियों, कंबोज वासियों, गांधार क्षेत्र के लोगों, रिष्टिका के लोगों, पितनिको के लोगों और पश्चिम के अन्य लोगों के कल्याण के लिए कार्य करता था।

छठा अभिलेख- इसमें धम्म महामात्र के लिए आदेश जारी किया गया है। वह राजा के पास किसी भी समय सूचना ला सकता था। इस शिलालेख के दूसरे भाग में सजग एवं सक्रिय प्रशासन तथा व्यवस्थित एवं सुचारू व्यापार का उल्लेख है।

सातवां अभिलेख- इसमें सभी संप्रदायों के लिए सहिष्णुता की बात की गई है।

आठवां अभिलेख- इसमें कहा गया है कि सम्राट् धर्मयात्राएँ आयोजित करता है और उसने अब आखेटन गतिविधियाँ त्याग दी हैं।

नवम अभिलेख- इस शिलालेख में अशोक जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आयोजित समारोह की निंदा करता है। वह ऐसे समारोहों पर रोक लगाने की बात करता है। इनके स्थान पर अशोक धम्म पर बल देता है।

दशम शिलालेख- इसमें ख्याति एवं गौरव की निंदा की गयी है, तथा धम्म नीति की श्रेष्ठता पर बल दिया गया है।

ग्यारहवाँ शिलालेख- इसमें धम्म नीति की व्याख्या की गई है। इसमें बड़ों का आदर, पशु हत्या न करने तथा मित्रों की उदारता पर बल दिया गया है।

बारहवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में पुनः संप्रदायों के बीच सहिष्णुता पर बल दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राजा विभिन्न संप्रदायों के बीच टकराहट से चिन्तित था और सौहार्दता का निवेदन करता था।

तेरहवाँ शिलालेख- इसमें कलिंग विजय की चर्चा है। इसमें युद्ध विजय के बदले धम्म विजय पर बल दिया गया है। इसमें भी ब्राह्मण और श्रमण का नाम आता है। इसमें भी पडोसी राष्ट्रों की चर्चा है। कहा गया है कि देवानामपिय्य ने अपने समस्त सीमावतीं राज्यों पर विजय पायी जो लगभग 600 योजन तक का क्षेत्र है। इसमें निम्नलिखित शासकों की चर्चा है-

यूनान का शासक एन्टियोकस और उसके चार पड़ोसी शासक टॉलेमी, ऐन्टिगोनस, मगस और एलेक्जेन्डर और दक्षिण में चोल, पाण्ड्य और श्रीलंका पितनिकों के साथ आध्र वासियों, परिण्डावासियों आदि की चर्चा है। इनके बारे में कहा गया है कि वे धम्म का पालन करते थे।

प्रथम कोटि के अन्तर्गत अशोक अपने 13वें शिलालेख में उन लोगों का उल्लेख करता है जो उसके विजित राज्य में रहते थे तथा जहाँ उसने धर्म-प्रचार किया- (1) यवन, (2) कबोज, (3) नाभाक नामपंक्ति, (4) भोज, (5) गांधार, (6) आटविक राज्य, (7) पितनीक, (8) आध्र, (9) परिन्द एवं (10) अपरांत।

चौदहवां शिलालेख- यह अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण है। इसमें कहा गया है कि लेखक की गलतियों के कारण इनमें कुछ अशुद्धियाँ हो सकती हैं।

प्रथम अतिरिक्त शिलालेख (धौली)- इसमें तोशली/सम्पा क्षेत्र के अधिकारियों को संबोधित करते हुए अशोक के द्वारा यह घोषणा की गई है कि सारी प्रजा मेरी सन्तान है

द्वितीय अतिरिक्त शिलालेख (जोगड़)- इसमें सीमान्तवासियों में धर्म-प्रचार की चिंता व्यक्त की गई है।

लघु शिलालेख

ये मुख्यत: अशोक के व्यक्तिगत जीवन (धर्म) से संबंधित हैं।

सुवर्णागिरि लघु शिलालेख- इसमें रज्जुक नामक अधिकारी की चर्चा है। यह चपड द्वारा लिखित है।

रानी लघु शिलालेख- इसमें स्त्री अध्यक्ष महामात्र की चर्चा की गई है। इसमें अशोक की पत्नी कारूवाकी की चर्चा है, जो उसके पुत्र तीबा की माता है। यह इलाहाबाद स्तंभ पर अंकित है।

बाराबर गुफा अभिलेख- इसमें सूचना मिलती है कि अशोक ने बाराबर की गुफा आजीवकों को दान में दी। अशोक ने अपने राज्यारोहण के बारहवें वर्ष में खलातिका पर्वत की गुफा आजीविकों को दे दी। इससे यह भी ज्ञात होता है कि सम्राट् प्रियदर्शी के राज्यारोहण के उन्नीस वर्ष हो गए थे।

कंधार द्विभाषी शिलालेख- इसमें सूचना मिलती है कि मछुआरे और आखेटक शिकार खेलना छोड़ चुके थे।

भब्रु अभिलेख- इसमें अशोक ने बुद्ध, धम्म और संघ के प्रति आस्था व्यक्त की, यह अभिलेख सामान्य जन और कर्मचारियों के लिए न होकर पुरोहितों के लिए था। इस अभिलेख में अशोक ने अपने आप को मगधाधिराज कहा है। यह अभिलेख संघ को संबोधित है तथा इसमें अशोक ने राहुलोवाद सुत्त के आधार पर भिक्षु, भिक्षुणिओं और उपासक उपासिकाओं को शिक्षा तथा उपदेश दिया है।

निगलीसागर स्तंभ अभिलेख- इसमें यह वर्णित है कि दवनामपिटय ने अपने शासन के 14वें वर्ष में इस क्षेत्र का दौरा किया और वहाँ उसने कनक मुनि के स्तूप को दुगना बड़ा किया।

रूम्मनदेई स्तंभ अभिलेख- यह अशोक के राज्यकाल के 20वें वर्ष का है। इससे यह ज्ञात होता है कि अशोक शाक्य मुनि की जन्म भूमि पर आया था और वहाँ उसने एक प्रस्तर अभिलेख स्थापित किया था। वहाँ उसने भाग की राशि, कुल उत्पादन का 1/8 भाग कर दी और बलि को समाप्त कर दिया।

विच्छेद अभिलेख- इस अभिलेख में देवनामपिय ने कौशांबी/पाटलिपुत्र के अधिकारियों को आदेश जारी किया है। इस आदेश के द्वारा बौद्ध संघ को कुतूशासित करने की कोशिश की गयी है। यह सारनाथ और साँची से प्राप्त हुआ है।

स्तंभ-अभिलेख

प्रथम स्तंभ- अभिलेख में अशोक ने यह घोषणा की है कि मेरा सिद्धांत है कि धम्म के द्वारा रक्षा, प्रशासन का संचालन, लोगों का संतोष और साम्राज्य की सुरक्षा है। इसमें धम्म को ऐहलौकिक और पारलौकिक सुख का माध्यम बतलाया गया है अत: महामात्र का उल्लेख मिलता है।

दूसरा और तीसरा स्तंभ- दूसरे स्तंभ अभिलेख में धम्म की परिभाषा दी गई है तथा तीसरे स्तंभ अभिलख में आत्मनिरीक्षण पर जोर मिलता है! पाँचवें स्तंभ अभिलेख में जीवहत्या पर प्रतिबंध का उल्लेख मिलता है, जबकि छठे स्तंभ अभिलख में धम्म महामात्रों को ब्राह्मणों और आजीवकों के साथ लगे रहने का निर्देश दिया गया है। सातवाँ स्तंभ अभिलेख केवल दिल्ली और टोपरा के स्तंभ पर पाया गया है। स्तंभ अभिलेख धम्म से संबंधित था।

चौथा स्तंभ अभिलेख- रज्जुक नामक अधिकारियों की शक्तियों का उल्लेख है। वे न्याय करने और दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं। साथ ही इस बात का भी उल्लेख है कि जिसको मृत्युदंड दिया जाता था उसे तीन दिन की मुहलत दी जाती थी। दण्ड समता और व्यवहार समता का उल्लेख मिलता है।

पंचम स्तम्भ लेख- उस स्तम्भ लेख में अशोक ने यह घोषणा की है कि पशु-पक्षी अबध्य हैं। इसमें कहा गया है कि शिकार के लिए जंगल न जलाए जायें। एक जानवर को दूसरे जानवर से न लड़ाया जाये।

षष्ट्म स्तम्भ लेख- यह अशोक के राज्यारोहण के बारहवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया। इसमें लोक मंगल के धम्म के पालन का सन्देश है। इसमें कहा गया है कि जो कोई इसका पालन करता है, वह अनेक प्रकार से इसका विकास कर सकता है। इसी में अशोक ने यह कहा है कि मैं सभी सम्प्रदायों का सम्मान करता हूँ।

सातवां स्तंभ अभिलेख- इसमें भी रज्जुक नामक अधिकारी की चर्चा और अशोक की यह घोषणा भी निहित है कि उसने धर्म प्रसार के लिए व्यापक कार्य किए, वृक्ष लगवाए और कुए खुदवाये आदि।

साहित्यिक स्रोत

बौद्ध साहित्य- इनसे समकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था पर प्रकाश पड़ता है। दीर्घ निकाय से राजस्व के सिद्धांत पर प्रकाश पड़ता है तथा चक्रवर्ती शासक की संकल्पना यहीं से ली गई है। दीपवश और महावश से श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार एवं अशोक की भूमिका पर प्रकाश पड़ता है। दशवीं सदी में महाव पर एक शत्थपकासिनी नामक टीका लिखी गई, इससे भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। उसी तरह दिव्यावदान भी एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जो चीनी एवं तिब्बत के बौद्ध विद्वानों के द्वारा संकलित है। अशोकावदान, आर्यमजूश्री मूलकल्प, मिलिन्दपन्हो, लामा तारानाथ द्वारा लिखित तिब्बत का इतिहास सभी मौर्य साम्राज्य पर प्रकाश डालते हैं।

जैन साहित्य- जैन ग्रन्थों में भद्रबाहु के कल्पसूत्र एवं हेमचंद्र के परिशिष्टपवन् से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इसमें चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन की घटनाएँ वर्णित हैं। परिशिपर्वन् में चंद्रगुप्त के जैन होने तथा मगध के बारह वर्षीय अकाल का उल्लेख मिलता है।

ब्राह्मण साहित्य- पुराणों से मौर्य वंशावलियाँ स्पष्ट होती हैं। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस से चाणक्य के षडयंत्र पर प्रकाश पड़ता है। ढुंढीराज ने इस पर 9वीं शताब्दी में टीका लिखी है। सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमेन्द्र की वृहत कथा मंजरी से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। पतञ्जलि के महाभास्य में चन्द्रगुप्त सभा का वर्णन है।

तमिल साहित्य- मामूलनार और परणार की रचनाओं से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। मामूलनार द्वारा मौर्यो के तमिल अभियान का उल्लेख किया गया ह।

धर्मनिरपेक्ष साहित्य- कौटिल्य का अर्थशास्त्र- इसकी प्रथम हस्तलिपि आर. शर्मा शास्त्री ने 1904 में खोज निकाली। यह 15 (अधिकरण) और 180 प्रकरणों में विभाजित है, इसमें लगभग 16000 श्लोक हैं। यह गद्य एवं पद्य दोनों शैली में लिखी हुई है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें पाटलिपुत्र, चंद्रगुप्त या किसी भी मौर्य शासक की चर्चा नहीं की गई है। इसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि यह कृति उस लेखक के द्वारा लिखित है जो उस भू-क्षेत्र में निवास को धारण करता है, जिन पर नंद शासकों का आधिपत्य है। ऐसा माना जाता है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र का संकलन अंतिम रूप में तीसरी सदी में हुआ है। इसलिए संपूर्ण रूप में यह मौर्यकाल के इतिहास का अध्ययन स्रोत नहीं माना जा सकता। किंतु यह भी सत्य है कि इसके प्रारंभिक अंश चंद्रगुप्त मौर्य के समय लिखे गए। यद्यपि बाद में इसका दुबारा लेखन एवं संपादन हुआ, फिर भी अशोक के अभिलेखों एवं अर्थशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावलियों में समानता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका एक बड़ा अंश मौर्यकाल में ही संकलित हुआ। इस पुस्तक का महत्त्व इस बात में है कि इसने तात्कालिक आर्थिक एवं राजनैतिक विचारधाराओं का बेहतर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जिस राज्य का निरुपण है वह विशाल चक्रवर्ती राज्य न होकर एक छोटा-सा राज्य है। वह एक ऐसे युग को सूचित करता है, जब भारत में छोटे-छोटे राज्य थे। अर्थशास्त्र, स्थानों के साथ वहाँ उत्पादित होने वाली मुख्य वस्तुओं की चर्चा करती है। उदाहरण कम्बोज के घोड़े, मगध के बाट बनाने वाले पत्थर प्रसिद्ध थे। यह पुस्तक राजनीतिशास्त्र पर है। प्रतिपदा पञ्चिका के रूप में भट्टस्वामी ने अर्थशास्त्र की टीका लिखी। अर्थशास्त्र राजव्यवस्था पर लिखी गई सर्वोत्कृष्ट रचना है। यह रचना न केवल मौर्य शासन-व्यवस्था पर प्रकाश डालती है प्रत्युत शासन और राजनय के सम्बन्ध ऐसे व्यावहारिक नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती है जो सर्वयुगीन और सार्वभौमिक हैं।

विदेशी साहित्य- कुछ यूनानी और रोमन विद्वानों की रचनाएँ स्रोत सामग्री के रूप में प्रयुक्त की जाती हैं।

मेगस्थनीज की इंडिका- यह सेल्यूकस निकेटर के द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा गया था और मौयों की राजधानी पाटलिपुत्र में 304-299 ई.पू. तक रहा। दुर्भाग्यवश आज उसकी रचना उपलब्ध नहीं है और हमें जो भी प्राप्त होता है वह विभिन्न व्यक्तियों द्वारा दिए वक्तव्यों से प्राप्त होता है। स्ट्रेबो और डायोडोरस (प्रथम सदी ई.पू.) एरियन (दूसरी सदी) प्लिनी (प्रथम सदी) आदि इन सभी में मेगस्थनीज की इंडिका से वक्तव्य हैं।

एरियन के एनोबेसिस नामक ग्रन्थ से सिकन्दर के जीवन-वृत पर प्रकाश पड़ता है। एरियन ने भी इंडिका नामक ग्रन्थ लिखा है। वह अपनी इंडिका में मेगस्थनीज और येरासथिज्म के विवरण का भी उल्लेख करता है। डायोडोरस, जस्टिन और प्लुटार्क के विवरणों में न केवल सिकन्दर के भारतीय अभियानों पर प्रकाश पड़ता है वरन् चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन वृत पर भी प्रकाश पड़ता है। स्ट्रेबो ने भारत की भौगोलिक स्थिति पर अपना विवरण प्रस्तुत किया है। स्ट्रबो, एरियन और जस्टिन ने चन्द्रगुप्त को  सेड्राकोट्स कहा है और एपियॉनस और प्लुटार्क ने उसे एण्ड्रोकोट्स के नाम से पुकारा है। सर्वप्रथम सर विलयम जोन्स ने 1793 ई. में इन नामों का समीकरण चंद्रगुप्त के साथ किया। प्लुटार्क के विवरण से पता चलता है कि नंदों के विरुद्ध सहायता के उद्देश्य से चंद्रगुप्त पंजाब में सिकन्दर से मिला था। फाहियान और ह्वेनसांग के विवरण से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

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