मौलाना अबुल कलाम आजाद Maulana Abul Kalam Azad

भारत के पहले शिक्षा मंत्री (1947-1958) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष (1923, 1940-1946)

मोहिउद्दीन अहमद (Mohiuddin Ahmad) या अबुल कलाम ‘आज़ाद का जन्म’ 11 नवम्बर 1888 को मक्का में हुआ था। इनकी माँ एक अरब औरत थीं, जिनकी मृत्यु कोलकाता में हुई थी जब इनके पिता खैरुद्दीन देहलवी, कई वर्षों तक मक्का में रहने के बाद भारत लौटे थे। आज़ाद को अपने पिता द्वारा ही शिक्षित किया गया, जो की एक मुसलिम विद्वान और सूफी भी थे, इन्होने आज़ाद को धर्म, अरबी, फारसी और उर्दू की शिक्षा दी। आज़ाद ज्यादातर उर्दू में ही लिखते थे और उन्होंने कुरान पर अपनी टिप्पणियों का स्थायी योगदान भी दिया है।  आज़ाद की परंपरागत इस्लामी शिक्षा में अपने प्रशिक्षण से परे, ज्ञान की अन्य प्रणालियों को भी सीखने में बहुत रूचि थी। उनके विचार इस्लामी नैतिक शिक्षाओं के अनुसार, पश्चिमी ज्ञान और मूल्यों के लिए भी खुले हुए थे।

बौद्धिक रूप से आज़ाद, शेख शेख़ अहमद सरहिंदी जैसे भारतीय विद्वानों का अनुसरण करते थे, जिन्हें भारतीय इस्लाम के एक सुधारक और उदार सूफी के रूप में जाना जाता है, जिनका सूफीवाद इस्लामी कट्टरपंथियों की तुलना में हिंदू वेदांत दर्शन के करीब माना जाता है। एक अन्य सुधारक सैय्यद अहमद खान (Sayyid Ahmed Khan) की भी, आज़ाद अपने लेखनो में प्रशंसा  करते थे।

आज़ाद का राजनीति में प्रवेश तब हुआ जब 1905 में ब्रिटिश शासन ने धार्मिक अधर पर बंगाल का विभाजन कर दिया, आज़ाद ने इस विभाजन का विरोध किया और उस समय उन्हें श्री अरविन्द घोष और श्यामसुंदर चक्रवर्ती का भी समर्थन मिला।

1912 में आजाद ने अपनी साप्ताहिक पत्रिका, ‘अल-हिलाल (al-Hilal)’  और 1915 में वह ‘अल-बलघ (al-Balagh)’ का प्रकाशन शुरू किया। उनकी इन पत्रिकाओं का उद्देश्य मुस्लिमों में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना और उन्हें ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी के लिए राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित करना था। 1916 में उनके प्रेस को अंग्रेजों द्वारा बंद कर दिया गया। अपनी गतिविधियों के लिए आज़ाद को जेल भेज दिया गया और जेल में ही उन्होने अपनी आत्मकथा ‘तज़किरा (Tazkira) भी लिखी।

‘अल-बलघ’ पत्रिका द्वारा उन्होंने मुस्लिमों को एकत्रित करके, डा मुख्तार अहमद अंसारी और  हकीम अजमल खान के साथ मिलकर भारत में खिलाफत आन्दोलन (khilafat) शुरू किया, जिसके द्वारा आज़ाद ने तुर्की के उस्मानी साम्राज्य के प्रथम विश्वयुद्ध में हारने पर उन पर लगाए कर एवं जुर्माने का विरोध किया। उस समय ऑटोमन (उस्मानी तुर्क) मक्का पर काबिज़ थे और इस्लाम के खलीफ़ा वही थे। इसके कारण विश्वभर के मुस्लिमों में रोष था और भारत में यह खिलाफ़त आंन्दोलन के रूप में उभरा जिसमें उस्मानों को हराने वाले मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, फ्रांस, इटली) के साम्राज्य का विरोध हुआ था। बाद में इन तीन लोगों ने मिलकर, किसी प्रकार के ब्रिटिश समर्थन या नियंत्रण के बिना भारतीयों द्वारा पूरी तरह से कामयाब एक उच्च शिक्षा संस्था के रूप में दिल्ली में ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ की स्थापना की।

आज़ाद अपनी सक्रियता और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सदस्यता की वजह से जल्द ही महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के साथ संपर्क में आ गए। आज़ाद का सबसे पहला काम 1919 में महात्मा गाँधी के साथ खिलाफत आंदोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, रौलेट एक्ट (Rowlatt Acts,1919) के खिलाफ असहयोग आन्दोलन के साथ शुरू हुआ। आज़ाद, गाँधी और मुस्लिम समुदाय के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गए थे, इन दोनों ने मिलकर गाँधी के अहिंसक आन्दोलनों और उनके विचारों जैसे स्वदेशी और स्वराज के लिए मुस्लिमों का ज्यादा से ज्यादा समर्थन माँगा। आज़ाद 1940 से 1945 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, इस दौरान गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू किया और वे भारत के सभी बड़े नेताओं के साथ 3 वर्ष तक जेल में रहे। इस बीच आजाद की, जवाहरलाल नेहरू, चित्तरंजन दास और सुभाष चंद्र बोस जैसे साथी राष्ट्रवादियों के साथ निकटता बढ़ गयी। बाद में आजाद के करीबी दोस्त चित्तरंजन दास ने गांधी के नेतृत्व से अलग, स्वराज पार्टी की सह-स्थापना की।


उन्होंने दृढ़ता से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और मुस्लिम लीग से मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच कांग्रेस के सतत संदेह की आलोचना की। आज़ाद ने जिन्ना के अलग मुसलिम लीग की स्थापना और बाद में पाकिस्तान की मांग का कड़ा विरोध भी किया।

आज़ाद 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने। बाद में वे इस पद के लिए दुबारा निर्वाचित हुए और इस पद पर 1940 से 1946 तक अपनी सेवाएं दी।  अपने जीवन में 1921 से 1923 तक दूसरी बार कारावास के दौरान उन्होंने क़ुरान पर टिकाये लिखीं, जो बाद में 1931 में लाहौर से तर्जुमन-अल-क़ुरान (Tarjuman al-Quran) के नाम से प्रकाशित हुआ। यह टीकाएँ अधूरी थी, परन्तु इसे इसके प्रथम अध्याय जो ‘अल-फ़ातिहा (alFatiha)’ के लिए समर्पित है, लिए जाना जाता है। आज़ाद ने कई लेख लिखे जिसमे उनकी आत्मकथाओं सहित, भारत की स्वतंत्रता जीत (India Wins Freedom) भी शामिल है। यह एक पूरी पाण्डुलिपि की तरह है, जिसे उन्होंने राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा कराया था, जो की उनकी मौत के 30 वर्ष बाद प्रकाशित हुआ और 1988 में इसका बहुप्रतीक्षित पूर्ण संस्करण प्रकाशित हुआ। आज़ाद ने गुबारे-ए-खातिर, हिज्र-ओ-वसल, खतबात-ल-आज़ाद, हमारी आज़ादी और तजकरा जैसी किताबे भी लिखीं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) औपचारिक रूप से 28 दिसम्बर 1953 को मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा जब वे भारत के  शिक्षा, प्राकृतिक संसाधन और वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री थे, ने उद्घाटन किया था। आज़ाद के समय में ही संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954), ललित कला अकादमी (1954), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, खड़गपुर (1951) और स्कूल ऑफ प्लानिंग और वास्तुकला विद्यालय की स्थापना दिल्ली (1955) की स्थापना हुई। इन सभी संस्थानों की स्थापना में आज़ाद का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

जवाहर लाल नेहरू उन्हें ‘मीर-ए-कांरवा’ और गाँधी उन्हें ‘सीखने का सम्राट (The Emperor of learning)’ कहा करते थे।

22 फ़रवरी सन् 1958 में आज़ाद का भारत के पहले शिक्षा मंत्री के पद पर रहते हुए निधन हो गया था। उनकी कब्र लाल किले के सामने, जामा मस्जिद के पास पुरानी दिल्ली में है।

उनके जन्मदिन, 11 नवम्बर को भारत में राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्हें 1992 में मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

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