मौखरि व उत्तर गुप्त Maukhari and Uttargupta

मौखरि व उत्तर गुप्त

मौखरि व उत्तरगुप्त, गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद स्वतंत्रता प्राप्त करने वालों में उल्लेखनीय हैं। दोनों राजवंशों की स्वतंत्रता का एक ही काल है। दोनों का इतिहास लगभग एक समय से ही प्रारंभ होता है, दोनों लगभग 550 ई. तक गुप्तों के सामंत थे।

ऐतिहासिक स्रोत- हमें अभिलेखीय व साहित्यिक दोनों स्रोतों से मौखरियों का बोध हो जाता है। इस राजवंश का प्रमुख लेख हरहा का है जो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में है। यह वि.सं. 6112 (554 ई.) का है जिसे ईशानवर्मा के पुत्र सूर्यवर्मा ने उत्कीर्ण कराया था। इस अभिलेख में मौखरि शासकों की उपलब्धियों का चित्रण है। दूसरा लेख जौनपुर का है, जिसमें मौखरि शासकों का वर्णन है। जौनपुर अभिलेख की भाषा संस्कृत है। इसमें तिथि का अभाव है। मौखरियों के अन्य उल्लेखनीय अभिलेख हैं- असीरगढ़, नालंदा, अफसढ़ (बिहार के गया जिले में स्थित) देववर्णाक, नागार्जुनी तथा बाराबरी के लेख। कुछ मौखरि लेख बड़वा (कोटा) से भी प्राप्त हुए हैं।

अन्य तत्कालीन राजवंशों के अभिलेखों से भी मौखरियों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। पिछले दशकों में अनेक अभिलेखों (जैसे-शर्ववर्मा का समोली-अभिलेख, तोरमाण के संजेली दानपत्र, प्रकाश धर्मा औलिकर का रिस्थल अभिलेख आदि) के प्रकाश में आने से भी मौखरियों के इतिहास को जानने में मदद मिली है। मौखरियों की बहुत सी मुद्राएँ भितौरा (उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले) से प्राप्त हुई हैं।

कलात्मक दृष्टि से मौखरियों के सिक्के अत्यंत साधारण हैं। भितौरा ग्राम से एक बर्तन में से एक सोने का सिक्का, 8 ताँबे के सिक्के तथा 522 चाँदी के सिक्के मिले थे। इनमें मौखरि नरेश ईशानवर्मा, शर्ववर्मा और अवन्तिवर्मा आदि के सिक्के हैं। इन पर तिथियाँ अंकित हैं लेकिन बहुत ही अस्पष्ट हैं। लिखावट भी अच्छी नहीं है। यही कारण है कि इतिहासकार मात्र सिक्कों के आधार पर मौखरियों के इतिहास निर्माण को उचित नहीं समझते। मौखरि इतिहास के विषय में साहित्यिक साक्ष्य कहीं अधिक प्रचुर हैं। मौखरियों की साहित्यिक जानकारी के स्रोत है- हर्षचरित व मंजूश्रीमूलकल्प। यद्यपि हर्षचरित सातवीं शताब्दी का ग्रन्थ है लेकिन इसमें मौखरि शासकों का उल्लेख है। इससे मौखरि पुष्यभूति राजनैतिक संबंधों पर प्रकाश पड़ता है।

मौखरि शासक- मौखरि वंश का संस्थापक हरिवर्मा था। इसकी तिथि उपलब्ध नहीं है, फिर भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने 500 ई. के लगभग शासन किया होगा। वह एक शक्तिशाली शासक था, उसने महाराज की उपाधि धारण की थी। असीरगढ़ के मुहरलेख में कहा गया है कि उसका यश चारों समुद्रों के पार तक फैला हुआ था। इसमें हरिवर्मा की पत्नी का नाम जयस्वामिनी आया है। हरिवर्मा को वर्णाश्रम व्यवस्था को बनाये रखने में चक्रधर के समान रत बताया गया है। अपनी शक्ति और सहानुभूति से उसने बहुत से राजाओं को अपने वश में कर रखा था। वह प्रजा के दु:ख को दूर करने वाला था। हरहा के अभिलेख से भी इसकी पुष्टि होती है। इसमें कहा गया है कि उसने पृथ्वी की समृद्धि के लिए शत्रुओं का दमन किया और उसका यश चारों ओर फैल गया। युद्ध में क्रोधावेशयुक्त उसके लाल मुख को देखकर शत्रु भयभीत रहते थे। संपूर्ण लोक में वह ज्वालामुख नाम से प्रसिद्ध हो गया था। हरिवर्मा का उत्तराधिकारी आदित्यवर्मा था। हरहा अभिलेख मे आदित्यवर्मा द्वारा करवाये गये यज्ञों की प्रशंसा की गयी है। उसे समुद्र से उत्पन्न चन्द्रमा के समान कहा गया है।

उत्तरगुप्त राजा हर्षगुप्त आदित्यवर्मा का समकालीन था। उसकी बहिन हर्षगुप्ता का विवाह आदित्यवर्मा से होना यह सिद्ध करता है कि आदित्यवर्मा के समय में उत्तरगुप्त और मौखरि वंशों के अच्छे संबंध थे। आदित्यवर्मा का उत्तराधिकारी ईश्वरवर्मा था। जौनपुर अभिलेख में जिस शासक की उपलब्धियों का वर्णन है वह आदित्यवर्मा ही है। आदित्यवर्मा व ईश्वरवर्मा दोनों ने महाराज की उपाधि धारण कर रखी थी। इससे मौखरियों की साम्राज्यवादी भावना का बोध होता है। ईश्वरवर्मा हर्षगुप्ता से उत्पन्न था, हरहा अभिलेख में उसे अधिपति कहा गया है। अपने पूर्वजों की भाँति ईश्वरवर्मा भी ब्राह्मण धर्मावलम्बी था, उसने भी बहुत से यज्ञों का संपादन किया। कई इतिहासकार जौनपुर अभिलेख में उल्लिखित सफलताओं का संबंध ईश्वरवर्मा से जोड़ते हैं। उसने अपने शासनकाल में कई युद्ध लड़े थे। ईश्वरवर्मा के शासनकाल में मौखरियों का युद्ध आन्ध्रों से हुआ था।


ईशानवर्मा- ईशानवर्मा ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की, जिससे स्पष्ट है कि इस वंश की सत्ता व प्रतिष्ठा बढ़ गयी थी। ईश्वरवर्मा का उत्तराधिकारी ईशानवर्मा था, वह रानी भट्टारिका देवी उपगुप्ता के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ईशानवर्मा इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। हरहा अभिलेख में इसकी तिथि 554 ई. थी। इसमें कहा गया है कि उसने कलिरूपी मारूत के थपेड़ों के परिणामस्वरूप रसातल की ओर जा रही पृथ्वी रूपी नौका को अपने सैकड़ों गुणों के बन्धन द्वारा, सब ओर से बाँधकर बलपूर्वक रोक दिया था। ईशानवर्मा ने मौखरियों की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित किया। आन्ध्र, शूलिक, गौड मौखरियों के शत्रु बताए गये हैं। जिन्हें ईशानवर्मा ने पराजित किया था। हरहा अभिलेख में वर्णन है कि उसने आन्ध्रपति को जिसके पास हजारों हाथी थे, जीतकर उन शूलिकों को जिनके पास असंख्य अश्वों की सेना थी पराजित करके और गौडों को उनके अपने ही राज्य में रहने के लिए विवश करके सिंहासन को अधिकृत किया था। आन्ध्रों, शूलिकों और गौड़ों के विरुद्ध सफलताओं से मौखरियों की सत्ता व प्रतिष्ठा में निश्चय ही वृद्धि हुई। ईशानवर्मा भी धार्मिक प्रवृत्ति का नरेश था। हरहा अभिलेख के अनुसार उसके शासन काल में तीनों वेद पुन: जागरुक हो उठे। उसने भी वर्णाश्रम व्यवस्था बनाये रखने के प्रयास किये।

उत्तर गुप्तों से भी ईशानवर्मा ने युद्ध किया (प्रथम बार)। इसमें ईशानवर्मा की पराजय हुई। बाद में शर्ववर्मा ने इस पराजय का बदला लिया। इस युद्ध में दामोदर गुप्त मारा गया। युद्ध के परिणामस्वरूप मगध मौखरियों के अधिकार में आ गया था। उत्तरगुप्तों का राज्य केवल मालवा तक सीमित रह गया था। ईशानवर्मा के बाद मौखरियों के इतिहास की बहुत कम जानकारी मिलती है। ईसा की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में मौखरि राजा काफी शक्तिशाली रहे होंगे। ऐसा इस बात से ही स्पष्ट नहीं होता कि इन दोनों राजाओं ने भी महाराजाधिराज की पदवियाँ धारण की थीं।

मौखरि साम्राज्य का अधिपति ईशानवर्मा के बाद उसका पुत्र शर्ववर्मा बना। कई इतिहासकारों के अनुसार शर्ववर्मा व सूर्यवर्मा में उत्तराधिकार हेतु संघर्ष हुआ था। सूर्यवर्मा के स्वतंत्र सिक्के व अभिलेख प्राप्त नहीं हुए हैं। इस बात से स्पष्ट है कि उसने स्वतंत्र शासक के रूप में शासन नहीं किया था। शर्ववर्मा के अभिलेख व सिक्के तो प्राप्त हुए हैं। लेकिन उसकी तिथि विवादास्पद है। कई अभिलेखों में उसके नाम के आगे मौखरि मिलता है। यही प्रथम शासक है जिसके साथ यह उल्लेख मिलता है। संभवतः शर्ववर्मा ने हूणों से युद्ध किया था और उन्हें हराया था। वास्तव में शर्ववर्मा व उसका पुत्र अवन्तिवर्मा दोनों ही शक्तिशाली राजा थे। उनके साम्राज्य का विस्तार का एक व्यापक क्षेत्र था।

अवन्तिवर्मा को हर्षचरित में इस वंश का तिलक कहा गया है। शर्ववर्मा व अवन्तिवर्मा की सीमाएँ वर्तमान उत्तरप्रदेश की सीमाओं से मेल खाती थीं। उसमें मगध के भी कुछ हिस्से थे। अवन्तिवर्मा के उत्तराधिकारी के बारे में कुछ अनिश्चितता है। विवरण से यह स्पष्ट होता है कि अवन्तिवर्मा के बाद ज्येष्ठ पुत्र ग्रहवर्मा शासक बना। इसने राज्यश्री से विवाह करने से पहले ही सन् 606 ई. या उससे पहले राजगद्दी संभाली होगी। ग्रहवर्मा और राज्यश्री के विवाह की घटना मौखरियों के इतिहास की उल्लेखनीय घटना है। बाण ने हर्षचरित में इसका चित्रात्मक विवरण दिया है। इस विवाह का प्रमुख कारण राजनैतिक नजर आता है। जिससे पुष्यभूति और मौखरि जैसी दो महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ एक हो गयीं।

देवगुप्त (उत्तरगुप्तवंशी शासक) ने बंगाल के शासक शशांक के साथ मिलकर 606 ई. में उसकी हत्या कर दी। कालांतर में हर्षवर्धन ने थानेश्वर के साथ कान्यकुब्ज का भी शासन संभाल लिया। परिणामतः एक साम्राज्यिक शक्ति के रूप में मौखरि वंश का अंत हो गया।

उत्तर गुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन छठी शताब्दी ईसवी के प्रारंभ में होने लगा था। परिणामत: कई नवीन शक्तियों का उदय हुआ। कन्नौज के मौखरियों के साथ-साथ मगध में उत्तरगुप्तों का उदय हुआ। इस राजवंश के इतिहास के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण साधन अफसढ़ का शिलालेख है। इस अभिलेख के अभाव में उत्तर गुप्तों के बारे में हमारा ज्ञान अधूरा ही रहता। इसमें प्रथम उत्तरगुप्त नरेश आदित्यसेन के काल की घटनाओं का रोचक विवरण उपलब्ध होता है। इस लेख में उत्तरगुप्त शासकों की एक श्रृंखला प्राप्त होती है। कृष्णगुप्त, हर्षगुप्त, जीवितगुप्त प्रथम, कुमारगुप्त, दामोदरगुप्त, महासेनगुप्त, माधवगुप्त तथा आदित्यसेन। अफसढ् के लेख के अलावा भी कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं। शाहपुर का लेख, भंगराव का लेख, देववनार्क का लेख आदि। वैद्यनाथ धाम के मदिर का लेख भी उल्लेखनीय है, इसमें आदित्यसेन को समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का शासक कहा गया है। इसमें उसे अश्वमेघ यज्ञ का संपादनकर्ता बताया है।

इन शासकों के नाम के पीछे गुप्त होने से यह भ्रम पैदा हो जाता है कि कहीं ये गुप्तवंश से तो सम्बद्ध नहीं थे। लेकिन इनका राजवंश गुप्तों से पृथक् था। गुप्तों के सामंत इनके प्रारंभिक शासक अवश्य रहे थे। कृष्णगुप्त, हर्षगुप्त तथा जीवित गुप्त प्रथम लगभग 500 ई. से 550 ई. तक गुप्तों के सामंत रहे। प्राचीन भारत में शासकों की वंश परम्परा का उल्लेख किया जाता था। यदि इनका संबंध गुप्तों से होता तो इसका उल्लेख फिर इनके अभिलेखों में अवश्य मिलता। अभिलेखों की शैली भी गुप्तकालीन अभिलेखों से पृथक् थी। यही मानना उपयुक्त है कि ये शासक गुप्तों से पृथक थे। इस राजवंश ने मगध के शक्तिशाली राज्य पर करीब एक शताब्दी तक राज्य किया।

कृष्णगुप्त- कृष्णगुप्त के समय से उत्तरगुप्त वंश का इतिहास प्रारंभ होता है। अफसढ़ के अभिलेख में इसकी बहुत प्रशंसा की गयी है। इसकी उपाधि नृप कही गयी है। इस प्रकार की उपाधियाँ सामंत भी ग्रहण करते थे। कृष्णगुप्त मौखरि नरेश हरिवर्मा का समकालीन था। संभवतः कृष्णगुप्त ने यशोधर्मन को पराजित किया था।

हर्षगुप्त- यह कृष्णगुप्त का उत्तराधिकारी था, जिसके बारे में अफसढ़ के लेख में अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण उपलब्ध होता है। उसे युद्धों का विजेता कहा गया जिसकी छाती पर शस्त्रों के प्रहार के चिह्न थे। हर्षगुप्त नरसिंहगुप्त के अधीन था, संभव है कि उसने नरसिंहगुप्त के अधीन युद्ध लड़े हों। हर्षगुप्त ने अपनी बहन हर्षगुप्त का विवाह मौखरि वंश के आदित्यवर्मा के साथ किया था। हर्षगुप्त ने लगभग 505 ई. से लेकर 525 ई. तक शासन किया।

जीवितगुप्त प्रथम- जीवितगुप्त लगभग 525 ई. से 545 ई. तक शासक रहा। अफसढ़ के लेख में जीवितगुप्त के लिए क्षितिश चूड़ामणि, नृप आदि उपाधियाँ मिलती हैं। इसने भी अपनी बहन उपगुप्ता का विवाह मौखरि नरेश ईश्वरवर्मा के साथ किया था। इस समय तक निश्चय ही मौखरियों व उत्तरगुप्तों के संबंध मधुर थे।

कुमारगुप्त- उत्तरगुप्तों का चौथा शासक कुमारगुप्त था। इस समय तक उत्तरगुप्त गुप्तों की अधीनता से पूरी तरह मुक्त हो चुका था। उधर मौखिरियों ने भी ईशानवर्मा के नेतृत्व में स्वाधीनता प्राप्त कर ली थी। कुमारगुप्त व ईशानवर्मा दोनों ही साम्राज्यवादी शासक थे। दोनों की महत्त्वाकांक्षाओं में टकराव स्वाभाविक था। अफसढ़ के लेख के अनुसार दोनों में युद्ध हुआ जिसमें ईशानवर्मा की पराजय हुई।

दामोदरगुप्त- यह कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी था। अफसढ़ के लख में इसे शत्रुओं का संहार करने वाला कहा गया है। दामोदरगुप्त का मौखरि नरेश शर्ववर्मा से युद्ध हुआ और वह इस युद्ध में मारा गया।

महासेनगुप्त- महासेनगुप्त, दामोदरगुप्त का उत्तराधिकारी था। अफसढ़ के लख में इसकी प्रशंसा की गयी है। मौखरियों ने इसके पिता से मगध छीन लिया था और इसका राज्य केवल मालव तक ही सीमित रह गया।

माधवगुप्त- यह महासेनगुप्त का उत्तराधिकारी था। हर्षचरित तथा अफसढ़ के लेख के अनुसार माधवगुप्त हर्ष का प्रगाढ़ मित्र था।

आदित्यसेन- इसकी जानकारी का प्रमुख स्रोत का लेख है। यह माधवगुप्त का उत्तराधिकारी था। देववर्नाक के लेख में उसे परमभागवत कहा गया है।

देवगुप्त- आदित्यसेन से उत्तराधिकारी देवगुप्त था। यह देवगुप्त हर्षचरित के देवगुप्त से पृथक है। इसने परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसके लिए परममाहेश्वर का प्रयोग भी मिलता है।

विष्णुगुप्त- यह देवगुप्त का पुत्र था। भगराव के लेख के अनुसार उसने कई शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। इसका शासन काल लगभग 695 ई. से 715 ई. के मध्य था।

जीवितगुप्त द्वितीय- उत्तरगुप्त वंश का यह अंतिम नरेश था। इसके समय में ही देववर्नाक के लेख का निर्माण हुआ।

नर्मदा नदी के दक्षिण का क्षेत्र दक्षिणा पथ या दक्षिण भारत कहलाता है। सामान्य बोल-चाल की भाषा में दक्षिणापथ से तात्पर्य सम्पूर्ण दक्षिण भारत से लिया जाता है किन्तु विशिष्ट अर्थों में दक्षिणापथ से महाराष्ट्र, कन्नड़ प्रदेश तथा आन्ध्र प्रदेश से लिया जाता है। प्रो. अमलानन्द घोष के अनुसार; रामायण में वर्णित दक्षिणा पथ में राम का कथानक समवतः एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता है जो उस प्रदेश में आयों के राजनैतिक विस्तार का सूचक है। महाकाव्य की एक और पूरी परम्परा के अनुसार महर्षि आगस्त्य पहले ऋषि थे जिन्होंने विन्ध्यगिरि के पर्वतीय प्रदेश व आर्य धर्म और संस्कृति का प्रकाश फैलाया और एक उपनिवेश बसाया। गुप्त राजवंश के पतन के उपरान्त दक्षिण भारत में भीविकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया बलवती हो गई। फलत: अनेक राजवंशों की स्थापना हुई। इनमें वातापी (बादामी) का चालुक्य वंश अत्यन्त प्रभावशाली था।

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