मानव निर्मित पदार्थ Man Made Products

प्राचीन काल में निर्मित पदार्थ

लगभग 8000 ई.पू. जब मानव ने गुफाओं को छोड़कर कृषि समुदायों में रहना प्रारम्भ किया, तब आश्रय उसकी प्रथम आवश्यकता थी। उसने मिट्टी, पत्थर और लकड़ी का उपयोग अपने नये आश्रय को बनाने के लिये किया। यही सामग्री आज भी भवन निर्माण कार्यों में उपयोग की जाती है। उसने लकड़ी तथा पौधों से प्राप्त अन्य पदार्थों का उपयोग फनीचर बनाने, हल जीतने एवं संग्राहकों के निर्माण में किया।

मिट्टी को सांचों में ढालकर दैनिक जीवन के लिए उपयोगी विभिन्न प्रकार के बर्तन तथा अन्य वस्तुओं का निर्माण करना पदार्थों के उपयोग के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नई पद्धति थी। कुम्हार का चाक लगभग 4000 वर्ष पुराना है। चाक के अविष्कार ने नये उत्पादों के निर्माण में असंख्य प्रयोगों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। संसार के प्रत्येक क्षेत्र ने मिट्टी के बर्तन बनाने की एक विशेष कला एवं शैली विकसित की। वास्तव में, पुरातत्ववेत्ता इन्हीं विशेषताओं के आधार पर ही खुदाई में प्राप्त मिट्टी के बर्तनों से उनके क्षेत्र एवं काल का निर्धारण करते हैं।

मानव अपने विभिन्न कार्यों में जन्तु उत्पादों जैसे खाल, चमड़ा, सींग तथा हड्डियों का उपयोग करता था। परन्तु, मानव ने सभ्यता के क्षेत्र में एक महान उपलब्धि तब प्राप्त की, जब उसने अयस्कों को गलाकर धातुओं जैसे तांबा, जिंक और बाद में लोहे को प्राप्त करने की विधि खोजी। धातुओं में प्रबलता एवं टिकाऊपन के असाधारण गुण थे। उन्हें अन्य धातुओं के साथ किसी निश्चित अनुपात में मिलाकर ऐसी अन्य नई धातुएं बनाई जा सकती थीं, जिनमें मूल धातुओं से भिन्न गुण होते थे। उन्हें ढालकर अथवा पीट-पीट कर वांछित आकृति प्रदान की जा सकती थी। धातुओं के प्रयोग ने मानव-निर्मित धातुओं की श्रेणी को काफी विस्तृत बना दिया।

प्राकृतिक पत्थर

जहाँ-जहाँ प्राकृतिक पत्थर उपलब्ध होते हैं, वहाँ उनका उपयोग भवन निर्माण की तैयार वस्तु के रूप में किया जाता है। कुछ पत्थर जैसे ग्रेनाइट अत्यन्त कठोर तथा अनेक वर्षों तक चलने वाले होते हैं इसलिये, इन्हें बड़े-बड़े निर्माण कार्यों जैसे बांधों तथा अन्य सार्वजनिक भवनों के निर्माण के लिये विशेष योग्य माना जाता है। ग्रेनाइट प्रायद्वीपीय भारत के अधिकांश भाग में ऊपरी चट्टान के रूप में उपस्थित हैं और सरलता से वहां उपलब्ध भी हैं। ग्रेनाइट की प्रबलता एवं अधिक टिकाऊपन के कारण ही दक्षिण भारत में भव्य मन्दिरों का निर्माण संभव हुआ। उदाहरण के लिये, कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर बांध ग्रेनाइट पत्थर से ही बना है। यह संसार का विशालतम पत्थरों से बना चिनाई बांध है।

संगमरमर


एक अन्य प्राकृतिक पत्थर है जिसका उपयोग विशेष भवनों के निर्माण में किया जाता है। संगमरमर ग्रेनाइट की अपेक्षा अधिक कोमल होता है और इसका सरलता से अपक्षय हो जाता है। परन्तु, इस पत्थर पर कारीगरी तथा पालिश करना अधिक सरल है। ये पत्थर विशेष उतार चढ़ाव वाले विभिन्न रंगों में पाये जाते हैं और पालिश किये जाने पर बहुत ही कोमल रूप प्रदर्शित करते हैं। आगरे का प्रसिद्ध ताजमहल सफेद संगमरमर से ही बना है।

सामान्यत: निर्माण कायों में एक अन्य प्रकार के प्रत्थर का उपयोग भी किया जाता है, जिसे बलुआ पत्थर कहते हैं। यह अवसादी चट्टान होती है जो प्रकृति में रेत कणों के एक-दूसरे से संयोजित होने पर बनती है। इसकी बनावट व प्रबलता भिन्न-भिन्न होती है, जो इस बात पर निर्भर करती है कि रेत-कण एक दूसरे से कितनी सघनता से जुड़े हैं। यह कोमल, कारीगरी के लिए सरल तथा टिकाऊ होता है। दिल्ली का लाल किला और फतेहपुर सिकरी के महल बलुआ पत्थर से ही बनाए गए हैं। स्लेट चिकनी मिट्टी का कायान्तरित रूप होती है जिसका उपयोग, यह जिन क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध होती है वहां, छतों के निर्माण में किया जाता है। परन्तु, प्राकृतिक पत्थर हर स्थान पर उपलब्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिये, तुम्हें उत्तरी भारत के विस्तृत जलोढ़ मैदानों में चट्टानें कठिनाई से ही देखने को मिलेंगी। इन स्थानों पर चिकनी मिट्टी को सांचों में ढालकर और आग में पकाकर ईंटें बनाई जाती हैं। ईटों का विस्तृत उपयोग सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोगों द्वारा किया जाता था। पहले पहल ईंटों और पत्थरों को चिकनी मिट्टी द्वारा जोड़ा जाता था। इसके बाद बिटुमेन और चूने का उपयोग जोड़ने वाले पदार्थों के रूप में किया जाने लगा और यह विधि 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक तब तक चलती रही जब तक कि पोर्टलैण्ड सीमेन्ट का आविष्कार नहीं हो गया। परन्तु, भारत के कई भागों में आज भी चिकनी मिट्टी का उपयोग जोड़ने वाले पदार्थ के रूप में होता है।

सीमेन्ट

सीमेन्ट एक अत्यधिक महीन चूर्ण होता है, जो पानी के साथ मिलने पर ठोस बन जाता है और कठोर रूप धारण कर लेता है। प्रारम्भिक मिस्रवासियों ने भवन निर्माण में प्रयोग किया जाने वाला एक ऐसा पदार्थ बनाया था, जिसमें चूना, चिकनी मिट्टी या जिप्सम होता था। और जो आधुनिक सीमेन्ट जैसा ही था। रोमवासियों ने भी चूने तथा ज्वालामुखी की राख से सीमेन्ट तैयार किया, जो यूरोप में ईंटों तथा पत्थरों को जोड़ने के लिये प्रयोग किया जाता था। सन् 1824 में एक ब्रिटिश इंजीनियर जोसेफ एस्पडीन ने चूना-पत्थर तथा चिकनी मिट्टी से एक जोड़ने वाला ऐसा नया पदार्थ बनाया जो अधिक शक्तिशाली तथा जलरोधी था। उसने इसे पोर्टलैण्ड सीमेन्ट कहा, क्योंकि यह रंग में पोर्टलैण्ड के चूना-पत्थर से मिलता-जुलता था। चूना-पत्थर तथा चिकनी मिट्टी से सीमेन्ट बनाने के लिये चार मूल संघटकों- कैल्सियम कार्बोनेट, सिलिका, ऐलुनिमा तथा आयरन ऑक्साइड की आवश्यकता होती है। पोर्टलैण्ड सीमेन्ट बनाने के लिये चूना-पत्थर तथा चिकनी मिट्टी को चूर्ण के रूप में पीसा जाता है, फिर इच्छित अनुपात में उन्हें मिलाकर घूर्णी भट्टी में उच्च ताप पर गर्म किया जाता है। फिर प्राप्त उत्पाद, जिसे क्लिन्कर कहते हैं, को साधारण ताप पर ठण्डा कर लिया जाता है। अब क्लिन्कर को थोड़ी मात्रा में जिप्सम् मिलाकर पीसा जाता है। यही पाउडर सीमेन्ट होता है जिप्सम् मिला होने पर सीमेन्ट देरी से जमता है और इसका उपयोग अधिक सुविधाजनक हो जाता है। परन्तु, दरारों में भरने के अतिरिक्त सीमेन्ट अकेले बहुत ही कम प्रयोग किया जाता है। साधारणतया इसे किसी पूरक पदार्थ, जिसे एग्रीगेट कहते हैं, के साथ मिलाकर प्रयोग किया जाता है। इसे रेत के साथ मिलाकर गारा या मसाला बनाया जाता है, जिनका प्रयोग ईंटों व पत्थरों को जोड़ने तथा प्लास्टर करने में होता है। जब इसे बजरी के साथ मिलाकर जमने दिया जाता है, तो यह कन्क्रीट बनाता है, जो कठोर पर लचीला पदार्थ होता है। कन्क्रीट को सांचों में ढालकर उसमें इच्छित आकार एवं आकृतियों वाले भवनों के पूर्व संयोजित भाग, बिजली के खम्भे तथा रेल की पटरियां बनाई जाती हैं।

कभी-कभी स्टील की छड़ें, खम्भे और बांस जैसी अन्य कठोर वस्तुएं भीगी हुई कन्क्रीट में अन्तः स्थापित होती हैं। जैसे-जैसे कन्क्रीट जमना आरम्भ करती है। यह इन वस्तुओं के साथ चिपककर प्रबलिक सीमेन्ट कन्क्रीट बना देती है। यह निर्माण के लिए अत्यन्त प्रबल पदार्थ होता है जिसका उपयोग छत, खम्भे आदि बनाने में किया जाता है।

कंक्रीट को प्रबलित करने में काम आने वाली अन्य वस्तुएं ऐस्बेस्टॉस तथा कोयले की राख हैं। ऐस्बेस्टॉस-कंक्रीट का उपयोग नालीदार छतों, नालियों, पाइपों और दीवारों के निर्माण में होता है। सिन्डर कंक्रीट का उपयोग हल्की वस्तु के रूप में पुली के निर्माण में किया जाता है।

सीमेन्ट और कन्क्रीट के आविष्कार ने हमारे जीवन में नाटकीय परिवर्तन कर दिए हैं। इनके उपयोग द्वारा हर ऋतु में प्रयोग की जा सकने वाली एकसार सड़कों एवं पुलों का निर्माण सम्भव हो सकता है, जिन्होंने द्रुत एवं सुरक्षित परिवहन के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। सीमेन्ट और कन्क्रीट ने हमारे दैनिक जीवन में रहन-सहन के ढंग में भी क्रांति ला दी है, क्योंकि इनसे हमारे घरों एवं कार्यालयों की बहुमंजिली इमारतों के लिए उच्च प्रबलता की भवन निर्माण सामग्री प्राप्त होती है।

कांच

आधुनिक कांच टालेमिक काल में सिकदरिया में बनाया गया और इसके बाद प्राचीन रोम में भी इसका निर्माण हुआ। यही नहीं, मिस्र में बने कांच के मानकों का उपयोग आभूषणों में 2500 ई.पू. भी होता था। कांच को सांचों में ढालकर उसको इच्छित आकार प्रदान करने की कला इन्हीं प्रारम्भिक काल में समुन्नत हुई और कांच फूकने की कला लगभग 100 ई.पू. सीरिया में विकसित हुई।

अपने असामान्य गुणों के कारण कांच का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए होने लगा, जिसके कारण विशेष प्रकार के कांच को विकास को प्रोत्साहन मिला। निस्सन्देह, कांच का सर्वाधिक उपयोग प्रकाश के प्रति पारदर्शिता के गुण के कारण सम्भव हुआ।

स्पष्ट एवं पारदर्शी कांच के बिना सूक्ष्मदर्शी एवं दूरदर्शक जैसे प्रकाशिक यंत्रों का निर्माण सम्भव नहीं था। कांच से निर्मित प्रकाशीय लेंसों ने एक ओर तो सुदूर आकाश की ओर हमारी दृष्टि को अग्रसारित किया, तथा दूसरी ओर कोशिकाओं एवं सूक्ष्मजीवों के संसार के अध्ययन का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया। विशेष विधियों द्वारा निर्मित कांच, चमचमाती हुई वस्तुओं को बनाने के लिये काटा जा सकता है, इसकी चादरें बनाई जा सकती हैं, सांचों में ढालकर विभिन्न आकृतियों के बर्तन एवं संग्राहक बनाए जा सकते हैं एवं फूंकनी कला द्वारा नलियाँ, तार व रेशे बनाए जा सकते हैं जिस प्रकार एक निपुण कुम्हार अपने चाक पर भांति-भांति के बर्तन बना लेता है, उसी प्रकार एक निपुण कांच फूकने वाला कलाकार भी कांच से आश्चर्यजनक एवं जटिल वस्तुएं बना सकता है।

कांच मुख्यतः सिलिका, जो रेत का मुख्य संघटक है, से बनता है। संगलित सिलिका एक उत्तम कांच बनाता है। इसका ऊष्मीय प्रसार गुणांक बहुत कम होता है इसीलिए, ताप में अचानक उतार-चढ़ाव से यह अप्रभावित रहता है। यह रासायनिक अभिकर्मकों को रखने का एक अति उत्तम पदार्थ बन जाता है। परन्तु रेत का उच्च गलनांक होने के कारण इससे कांच बनाने में काफी खर्चा होता है। कांच के निर्माण व्यय को कम करने के लिये रेत में कोई उचित गलाक जैसे सोडियम ऑक्साइड मिला देते हैं, जिससे रेत का गलनांक कम हो जाता है। सोडियम ऑक्साइड सामान्य कच्ची सामग्री सोडा राख सोडियम काबोंनेट से प्राप्त किया जा सकता है। 25% सोडियम कार्बोनेट मिला देने से रेत का गलनांक घटकर 850°C रह जाता है, परन्तु यह कांच जल में विलेय होता है, जो सर्वथा वांछनीय नहीं है। संयोगवश जल-कांच विलयन क कई घरेलू उपयोग हैं।

परन्तु, चूना या इसके कच्चे पदार्थ चूना-पत्थर को मिलाने पर सोडा कांच पुन: जल में अविलेय बन जाता है। इस विधि द्वारा रेत, सोडा राख तथा चूना-पत्थर से मिलकर बने कांच सबसे सस्ते तथा साधारण कांच होते हैं। इन्हें सोडा-चूना-सिलिका कांच या केवल सोडा कांच कहते हैं और इनका विस्तृत उपयोग खिडकियों के शीशे, दर्पण और घरेलू बर्तनों के निर्माण में होता है। रंगीन कांच बनाने के लिये संगलन के समय धातु लवणों की कुछ मात्रा मिला दी जाती है। कोबाल्ट लवण बैंगनी-नीला रंग, फैरस ऑक्साइड पीला-हरा या पीला-नीला रंग और क्रोमियम लवण क्रोम हरा या पीला रंग प्रदान करता है।

साधारण कांच का सबसे बड़ा दोष यह होता है कि ये भंगुर होते हैं और सरलता से टूट जाते हैं। इन पर रासायनिक अभिकर्मकों का सरलता से प्रभाव पड़ता है और इनमें उपस्थित अशुद्धियां इनको प्रकाशित यंत्रों में उपयोग के लिये अनुपयुक्त बना देती हैं।

परन्तु, विशेष प्रकार के कांच की वस्तुओं की बढ़ती हुई मांग ने कांच के विभिन्न आकार, प्रकार एवं गुणों की उत्पत्ति को जन्म दिया है। इस प्रकार के विशेष कांचों में पारदर्शिता के मूल गुण के साथ-साथ अन्य, इच्छित गुणों जैसे चीमड़पन स्पष्टता, आघात प्रतिरोधकता का भी समावेश होता है।

पट्टिका कांच साधारण कांच से काफी मोटा होता है और इसका उपयोग दुकानों की खिड़कियों तथा दरवाजों में होता है। इसका पृष्ठ बहुत चिकना होता है। पिघली टिन धातु की पर्त पर पिघले कांच की पर्त को फैलाकर पट्टिका कांच बनाया जाता है।

सुरक्षित कांच पट्टिका कांच से ही बनाया जाता है। पट्टिका कांच को पहले गर्म करके, फिर इसके दोनों बाहरी पृष्ठों को ठण्डी वायु की धारा द्वारा ठण्डा करते हैं।

पट्टिका कांच के बाहरी पृष्ठों के अनुदिश प्रवाहित होने वाली ठण्डी वायु पट्टिका कांच के दोनों बाहरी पृष्ठों के संकुचित कर देती है, जबकि इन दोनों पृष्ठों के बीच की पतें ठण्डी होकर सिकुड़ती हैं, तब ये बाहरी पर्तों को दबाती हैं। इस प्रकार बना कांच अधिक प्रबल होता है। इसका कारण यह है कि आघात द्वारा आरोपित कोई भी खिंचाव बल पहले आघात वाले क्षेत्र को फैलाने में ही लग जाता है। इस प्रकार कांच के टूटने की संभावनाएं घट जाती हैं।

स्तरित कांच या गोली रोधी कांच सुरक्षित कांच से भी अधिक प्रबल होता है। इसे सुरक्षित कांच की कई पर्तों को किसी पारदर्शी आसंजक द्वारा एक दूसरे से जोड़कर बनाया जाता है। जिस कांच को बनाने में जितनी अधिक पर्तों का प्रयोग किया जाता है, वह कांच उतना ही अधिक प्रबल होता है। इस प्रकार के कांच के पृष्ठ पर पड़ी दरार आसंजक पर्त पर समाप्त हो जाती है और उसका फैलाव रुक जाता है। स्तरित कांच का उपयोग वायुयानों, कार के वात परिरक्षी शीशों और गोलीरोधी पर्दों के निर्माण में किया जाता है।

प्रकाशीय कांच विशेष विधियों द्वारा बनाया जाता है ताकि उसमें किसी भी प्रकार की विकृति अथवा दोष न रहे। इस प्रकार के कांच का उपयोग चश्मों, सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शक, कैमरों, प्रिज्मों तथा अन्य प्रकाशिक यंत्रों के लेन्सों के निर्माण में होता है।

तापरोधी कांच का ऊष्मीय प्रसार गुणांक कम होना चाहिये। ऐसा सोडियम ऑक्साइड गालक को बोरिक ऑक्साइड द्वारा और कुछ चुने को ऐल्युमिना द्वारा विस्थापित करके किया जाता है। इस विधि द्वारा निर्मित कांच को बोरोसिलीकट कांच कहते हैं। इसका उच्च गलनांक होता है और यह ऊष्मा सहने की क्षमता रखता है। गर्म किये जाने पर यह सोड़ा-चूना-सिलिका-कांच की अपेक्षा बहुत ही कम फैलता है। परिणामस्वरूप, पानी उबालने या भोजन पकाने पर यह टूटता नहीं है। इस प्रकार का कांच प्रयोगशालाओं, कारखानों, रसोईघरों तथा भट्टियों में प्रयोग किया जाता है।

फोटोक्रोमिक कांच एक विशेष प्रकार का कांच होता है, जो प्रकाश की उपस्थिति में अस्थायी रूप से गहरे रंग का हो जाता है। अत: धूप से बचने के लिये यह बहुत उपयोगी है। जब प्रकाश की तीव्रता कम हो जाती है, तो तुरन्त ही इसका रंग फिर पहले जैसा हल्का हो जाता है। इस प्रकार के कांच में स्वयं ही गहरा रंग हो जाने का गुण, कांच में उपस्थित सिल्वर आयोडाइड लवण के कारण होता है।

लैड क्रिस्टल कांच एक विशेष प्रकार का कांच होता है, जिसके निर्माण में लैड ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता है। लैड कांच का उच्च अपवर्तनांक होता है, जिसके कारण यह चमकता है। इसका उपयोग उत्तम कलात्मक वस्तुओं तथा कांच के महंगे उपकरणों के निर्माण में किया जाता है। लैड कांच से बनी वस्तुओं के पृष्ठों को प्रकाश का परावर्तन करने के लिए कलात्मक रूप से काटा जाता है। कर्तित कांच में असाधारण चकाचौंध और चमक होती है।

कांच रेशे Glass Fibers

यदि कांच की एक छड़ को बीच से गर्म करके और नर्म हो जाने पर इसके दोनों सिरों को दोनों ओर खीचने पर हमें पतले-पतले कांच के रेशे मिलेंगे। कांच के ये रेशे रुई के रेशों जैसे ही प्रतीत होते हैं। साथ ही इन रेशों में उस कांच के विशेष गुण भी उपस्थित होते हैं जिससे इन्हें बनाया जाता है। इस प्रकार उद्योगों में उपयोग होने वाले कई प्रकार के कांच रेशे बनाए गए हैं।

कांच की रुई भी रुई के गोले की भांति कांच के रेशों का ढीला-ढाला बन्डल प्रतीत होती है। यह अति उत्तम ऊष्मारोधी होती हैं क्योंकि यह अपने अन्दर बहुत-सी वायु समाए रखने का गुण रखती है। इसीलिए, इसे रेफ्रिजरेटर, भट्टी, कुकर तथा पानी को गर्म बनाए रखने वाली बोतलों में प्रयोग किया जाता है।

कांच के रेशों को कपड़ों के रूप में भी बुना जा सकता है। इन कपड़ों में अन्य गुणों के साथ-साथ हल्कापन, प्रबलता, मौसमसह, जलसह, अग्निसह, संक्षारणरोधी होने के अतिरिक्त गुण भी होते हैं। कांच रेशों से बने हुए इन कपड़ों की पर्तों को जब आसंजक द्वारा जोड़ा जाता है, तब एक और भी अधिक सर्वतोमुखी पदार्थ प्राप्त होता है। यह रेशा कांच पदार्थ उपरोक्त अन्य गुणों के साथ-साथ विभिन्न आकारों में भी ढाला जा सकता है। इस प्रकार, इन्हें धातुओं के स्थान पर मोटरकारों, नावों, वायुयानों तथा जल-टकियों के निर्माण में प्रयोग किया जा सकता है।

प्रकाशीय रेशे अत्यधिक पतली रेशा कांच की नलियां होती हैं। इन्हें विशेष कांच से बनाया जाता है और इन पर एक अन्य विशेष पदार्थ का लेप किया जाता है जिसके कारण ये प्रकाश पुंज को गुजरने के लिए सुरंग की भांति पथ प्रदान कर देती हैं। इनके द्वारा प्रकाश संकेत अपनी तीव्रता बनाए रखकर दूरस्थ स्थानों तक जा सकते हैं। साथ ही, चूंकि प्रकाश की तरंगदैर्ध्य कम (एक माइक्रॉन से कम) होती है, अतः प्रकाशीय रेशों से गुजरने वाले प्रकाश स्पंद प्रकाशीय रेशे की लम्बाई के अनुदिश मोड़ों से भी अप्रभावित रहते हैं। इसीलिए, प्रकाशीय रेशों को प्रकाश के प्रवाह को प्रभावित किए बिना किसी भी तरह मोड़ा अथवा ऐंठा जा सकता है। प्रकाशीय रेशों के इस गुण का उपयोग डॉक्टरों द्वारा रोगी के अन्त: भागों का परीक्षण करने के काम आने वाले अन्तदर्शी में किया जाता है। इसमें प्रकाशीय रेशों के एक गुच्छे अथवा पाइप का उपयोग टार्च द्वारा शरीर के आन्तरिक अंगों को प्रकाशित करने में होता है तथा दूसरे पाइप का उपयोग परावर्तित प्रकाश (प्रतिबिम्ब) को डॉक्टर तक लाने में होता है।

प्रकाश संकेतों को संचरित करने के असाधारण गुण के कारण प्रकाशीय रेशों ने सूचना प्रसारण के क्षेत्र में एक क्रांति ला दी है। इनके कारण विद्युत संकेतों के स्थान पर प्रकाश संकेतों का उपयोग, सूचना वाहकों के रूप में संभव हो सका है। विद्युत संकेतों में सूचना ले जाने की कम शक्ति होती है तथा इनके संरचण के लिए महंगी धातु के तार का प्रयोग करना पड़ता है, साथ-ही-साथ केबिलों के जोड़ने व बिछाने के लिये बड़े-बड़े जटिल उपाय भी करने पड़ते हैं। प्रकाश संकेतों के लिये ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता।

मृत्तिका शिल्प Ceramics Crafts

सिरेमिक्स शब्द की उत्पत्ति प्राचीन ग्रीक शब्द करामॉस से हुई है, जिसका अर्थ है-कुम्हार की मिट्टी। चिकनी मिट्टी, आग्नेय चट्टानों में पाये जाने वाले खनिज फेल्सपार के अपक्षयण से बनती है। प्रकृति में चिकनी मिट्टी बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध है और यह सभी प्रकार की मिट्टियों का एक बड़ा संघटक है। धातुओं तथा प्लास्टिक वस्तुओं के समान ही चिकनी मिट्टी को भी इच्छित आकार प्रदान किए जा सकते हैं।

चीनी मिट्टी के बर्तनों का उपयोग मानव द्वारा लगभग छ: हजार वर्षों से किया जा रहा है। चीनी मिट्टी की वस्तुएं बनाने की परम्परागत विधि में, चिकनी मिट्टी के महीन कणों को छन्नी द्वारा पहले पृथक किया जाता है, और फिर उसमें पानी मिलाकर गूंथा जाता था, फिर उसे कुछ दिन रखने के पश्चात् गूंथ-गूंथ कर एक समान बनाते थे। इस आटे के समान गूंथी हुई समांगी मिट्टी को सांचों में ढालकर, बेलकर अथवा अन्य किसी ढंग से विभिन्न आकार की वस्तुएं बनाते थे और उन्हें कई दिनों तक सुखाते थे। फिर उन्हें भट्टियों में व्यवस्थित करके धीरे-धीरे 800°C से भी अधिक ताप पर गर्म किया जाता था। इस प्रकार यह मिट्टी जलरहित हो जाती थी और इसके संघटक (सिलिका, ऐलुमिना तथा आयरन ऑक्साइड) एक स्थान पर संयुक्त होकर वस्तु को कठोर तथा सुदृढ़ बना देते थे। ईटें, घरेलू बर्तन, छतों की टाइलें, पकी हुई मिट्टी की मूर्तियां, टेराकोटा (मिट्टी के लाल रंग के बर्तन) तथा अन्य मिट्टी की वस्तुएं इसी प्रकार बनायी जाती थीं।

इस प्रकार बने चीनी मिट्टी के बर्तन कठोर परन्तु भंगुर होते हैं तथा सरन्ध्र होने के कारण जल सोखते हैं। परन्तु, अधिकांश मिट्टी के बर्तन उच्च ताप को भी सह लेते हैं। इन बर्तनों पर पतली कांच जैसी पर्त भी चढ़ाई जा सकती है, जिसे ग्लेज करना या काचित करना कहते हैं। चीनी मिट्टी की वस्तुओं को काचित करने से पहले उन पर रसायनों जैसे-टिन ऑक्साइड, लैड ऑक्साइड या चिकनी मिट्टी का लेप किया जाता है, फिर उन्हें सुखाकर आग में रखा जाता है। आग में लेप पिघलकर जलसह कांच जैसी पर्त बनाता है, जो वस्तु के पृष्ठ से चिपक जाती है। इसीलिए, काचित बर्तन द्रव पदार्थों, अचारों, अम्लों, तेलों तथा अन्य घरेलू एवं औद्योगिक रसायनों के भंडारण के लिये प्रयोग किये जाते हैं।

चीनी मिट्टी की सजावटी वस्तुओं को काचित करने से पहले उन्हें विभिन्न प्रकार के रंगीन धातु लवणों से पेन्ट करके सजाया जा सकता है। स्नानघरों में प्रयुक्त टाइलें, सिंक, वाश बेसिन, शैचालय की टकियां तथा जल निकासी के पाइप चीनी मिट्टी से ही बनाए जाते हैं।

पॉर्सिलेन को शुद्ध सफेद चिकनी मिट्टी तथा अन्य पदार्थों से बनाया जाता है। इन पदार्थों को आग में रखने पर उच्च गुणों वाली पारभासी सफेद चीनी मिट्टी बनती है। ऐसी मिट्टी सर्वप्रथम चीन में बनायी गयी थी, इसीलिए, इसे चीनी मिट्टी कहते हैं तथा इस मिट्टी से बने बर्तन बोन चाइना या चीनी के बर्तन कहे जाते हैं। यह जलरोधी होती है। इससे चाय पीने के प्याले, प्लेट्स, डोंगे तथा अन्य क्राकारी की वस्तुएं बनाई जाती हैं।

चीनी मिट्टी में कई असामान्य गुण होते हैं, जिनके कारण यह विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। चीनी मिट्टी की वस्तुएं ऊष्मा की कुचालक होती हैं। ये अत्यधिक उच्च ताप को सह सकती हैं। इस प्रकार के पदार्थ दुर्गलनीय पदार्थ कहे जाते हैं। इसीलिए, चीनी मिट्टी का उपयोग भट्टियों में भीतरी दीवारों तथा अन्तरिक्षयानों के बाहरी पृष्ठ पर पर्त लगाने में किया जाता है ताकि वे उच्च ताप को सह सकें। कुछ राकेट इंजनों पर भी चीनी मिट्टी का लेप किया जाता है। चीनी मिट्टी विद्युत की कुचालक होती है। इसीलिए, चीनी मिट्टी की वस्तुएं उच्च तनाव केबिलों व टेलीफोन लाइनों के लिए अत्यधिक श्रेष्ठ सिद्ध हुई हैं। कुछ विशेष प्रकार की चीनी मिट्टी की वस्तुएं इलेक्ट्रॉनिक उद्योग में उपयोग की जाती हैं।

कुछ विशेष प्रकार की चीनी मिट्टी की वस्तुएं इनती कठोर होती हैं कि वे काटने व पीसने के यन्त्र बनाने के काम आती हैं। सिलिकन कार्बाइड एक ऐसी ही विशेष प्रकार की चीनी मिट्टी है। चाकू तथा कैचियों पर चीनी मिट्टी की पर्त की चढ़ा देते हैं ताकि लम्बे समय तक उनकी तेज धार बनी रहे।

चीनी मिट्टी के अतिचालक Ceramic Superconductors

कुछ समय पूर्व ऐसी विशेष प्रकार की चीनी मिट्टी की वस्तुओं का निर्माण किया गया है, जो विद्युत के प्रवाह में बहुत कम प्रतिरोध उत्पन्न करती हैं। निम्न तापों, जैसे द्रव नाइट्रोजन का ताप, पर ये अतिचालक की भांति व्यवहार करने लगती हैं। परन्तु, ये आज भी विकास की अवस्था में ही हैं। यदि हम चीनी मिट्टी के अतिचालक बनाने में पूर्ण दक्षता प्राप्त कर सकें तो ये हमारे जीवन में क्रान्ति ला देंगे।

बहुलक और प्लास्टिक Polymer and Plastic

कांच मुख्यतः सिलिकन और ऑक्सीजन के परमाणुओं का एक बड़ा समूह होता है, परन्तु ये परमाणु क्रिस्टलों की भांति एक नियमित क्रम में व्यवस्थित नहीं होते। वास्तव में, कांच अति प्रशीतित द्रव के समान व्यवहार करते हैं। इनकी अणु संरचना उन द्रवों के समान, जिनसे ये बने होते हैं अव्यवस्थित-सी होती है। परन्तु, इनके प्रत्येक अणु की गति उन द्रवों की अपेक्षा बहुत धीमी होती है। इसीलिए, गर्म किये जाने पर कांच को सरलता से चादरों के रूप में बदल सकते हैं तथा खींचकर इसके रेशे भी बनाये जा सकते हैं। पदार्थ के इस गुण को सुघट्यता कहते हैं और इस गुण वाले पदार्थों को प्लैस्टिक्स कहते हैं। प्रकृति में पाया जाने वाला एक अन्य पदार्थ, जिसे सांचों में ढाला जा सकता है, चिकनी मिट्टी है।

अब ऐसे मानव निर्मित यौगिक उपलब्ध हैं जिन्हें विभिन्न प्रकार के इच्छित आकारों में ढाला जा सकता है तथा खींचकर रेशे भी बनाये जा सकते हैं। ये पदार्थ बहुलक अणुओं से बने होते हैं। बहुलक लाखों अणुओं से बनी एक लम्बी श्रृंखला होते हैं। ये सामान्यत: कार्बनिक यौगिक होते हैं। सेलुलोस, पौधों की कोशिका भित्तियों में पाया जाने वाला एक प्राकृतिक बहुलक है। सेलयुलोस पौधे की जड़ों, तने तथा अन्य भागों से प्राप्त किया जा सकता है। जूट तथा कपास, सेलुलोज के अन्य परिचित उदाहरण हैं लाखों अणुओं से निर्मित लम्बी श्रृंखला होने के कारण बहुलक कठोर तथा प्रबल होता है। प्राकृतिक बहुलक के अन्य उदाहरण रेशम तथा ऊन हैं। प्रोटीन अणुओं की लम्बी श्रृंखलाओं से बने होने के कारण ही रेशम व ऊन में विशेष गुण होते हैं।

नाइलॉन, पॉलीथीन, रेयॉन तथा टेफ्लॉन कुछ ऐसे मानव निर्मित बहुलक हैं, जिनका प्रयोग सामान्यत: किया जाता है। इनका संश्लेशण रासायनिक विधियों द्वारा बड़े-बड़े अणुओं को परस्पर जोड़कर, लम्बी श्रृंखला बनाकर किया जाता है। क्योंकि अणुओं के बीच ये परस्पर जोड़ रासायनिक आबन्ध द्वारा प्रदान किए जाते हैं, इसीलिए बहुलक अत्यधिक प्रबल होते हैं। उदाहरण के लिए पॉलीथीन या पॉलीएथिलॉन एक-एक करके लगातार जुड़ी एथीन अणुओं की एक लम्बी श्रृंखला होती हैं।

पॉलीथीन कठोर परन्तु मजबूत और लचीला होता है। इसकी पतली चादरें बनाई जा सकती हैं और इसे इच्छित आकारों में भी ढाला जा सकता है। अत: यह एक सुघट्य पदार्थ है। यह एक ताप सुघट्य पदार्थ भी है, अर्थात् यह गर्म किये जाने पर नर्म हो जाता है, पर ठण्डा होने पर अपने मूल गुणों को पुनः प्राप्त कर लेता है। इसी गुण के कारण अपनी मूल गुणवत्ता को नष्ट किये बिना, इसे किसी भी इच्छित आकृति में ढाला जा सकता है। साथ ही पैराफिर जैसा हाइड्रोकार्बन होने के कारण, पॉलीथीन रासायनिक अभिक्रिया नहीं करता और जलरोधी होता है। यह विद्युत का भी कुचालक होता है। प्राकृतिक पदार्थों की अपेक्षा प्लास्टिक पदार्थों जैसे पॉलीथीन के कुछ स्पष्ट लाभ इस प्रकार हैं-

  • यह सस्ते होते हैं और बड़े पैमाने पर बनाए जा सकते हैं।
  • यह हल्के होते हैं और सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाए जा सकते हैं।
  • यह अभंजनीय, संक्षारण मुक्त, कड़े एवं लचीले होते हैं।
  • इन्हें विभिन्न आकृतियों के सांचों में सरलता से ढाला जा सकता है।

प्लास्टिक पदार्थों के अन्य लाभों और इन पदार्थों की बनी वस्तुओं ने देश के कोने-कोने में हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित किया है, उदाहरणार्थ, पॉलीथीन की शीट पैकिंग में, पॉलीथीन के लिफाफे दूध व पेय पदार्थों के वितरण में, पॉलीथीन के पात्र एवं पाइप, जल, तेल व अन्य वस्तुओं के भंडारण एवं परिवहन में आदि-आदि। पॉलीथीन का उपयोग जलसह पदार्थ की भांति भी किया जाता है।

पॉलीविनाइल क्लोराइड एक अन्य बहुलक है जो एक सुघट्य है। यह पॉलीथीन से अधिक कठोर होता है और इसका उपयोग बोतलों, फर्श को ढकने, बरसाती कोटों (बरसातियों), जूतों के तलों, सैन्डिलों तथा चमक जैसे पदार्थों के निर्माण में होता है।

पॉलीस्टाइरीन एक प्लास्टिक है जो पॉलीथीन की अपेक्षा कहीं अधिक हल्का होता है और सरलता से सांचों में ढाला जा सकता है। इस गुण के कारण इसको बहुत बड़े झाग के रूप में फुलाया जा सकता है जिसमें हवा के बुलबुले होते हैं। इस रूप में इसको स्टाइरोफोम या थर्मोकोल कहते हैं। इसका प्रयोग कोमल एवं भंगुर वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिये, पैक करने वाली वस्तु के रूप में होता है। इसे प्रशीतलकों तथा कृलरों की खोखली दीवारों में ऊष्मारोधी के रूप में प्रयोग करते हैं।

एक्रीलिक या पर्सपेक्स एक स्पष्ट पारदर्शी प्लास्टिक है, जिसका कोमल परिस्थितियों में कांच के स्थान पर प्रयोग होता है। परन्तु, कोमल होने के कारण इस पर आसानी से खरोंच पड़ जाती हैं। यह कार्बनिक विलायकों में भी विलीन हो जाता है।

सर्वोत्तम प्लास्टिक बहुलकों में से एक बहुलक टेफ्लॉन भी होता है जिसका पूरा नाम पॉलीटेट्राफ्लूओरो-ऐथोलीन है, जिसे (-CF-CF2)n द्वारा दर्शाते हैं और इसमें CF2 अणुओं की लम्बी श्रृंखला होती है। इसका अत्यधिक उच्च गलनांक होता है। इसका घर्षण बहुत कम (न चिपकने वाला) होता है और यह काफी निष्क्रिय भी होता है। इन्हीं गुणों के कारण यह इंजीनियरिंग के लिए एक श्रेष्ठ पदार्थ माना जाता है। परन्तु, अत्यधिक महंगा होने के कारण इसका उपयोग कम ही हो पाता है।

कुछ प्लास्टिक ताप दृढ़ भी होते हैं। इन्हें थर्मोसेट्स कहते हैं। परन्तु जब ये किसी भी आकार के बन जाते हैं गर्म करने पर भी ये कोमल नहीं होते और जिस आकृति में इन्हें आरम्भ में ढाल दिया जाता है, उसी आकृति को ही बनाए रखते हैं। ताप सुघट्य पदार्थों की अपेक्षा ये अधिक कठोर एवं दृढ़ होते हैं। बेकलाइट ताप दृढ़ पदार्थों का एक सामान्य उदाहरण है। यह विद्युत प्लग, स्विच, टेलीफोन उपकरण के बाहरी ढांचे तथा अन्य वस्तुएं बनाने में किया जाता है। फॉर्माइका तथा मेलामाइन जिनका उपयोग सामान्यत: मेजों की ऊपरी सतह पर प्याले व क्रॉकरी के निर्माण में किया जाता है, ताप दृढ़ प्लैस्टिक ही हैं। इनके पृष्ठ कठोर एवं चिकने होते हैं।

संश्लिष्ट तन्तु Synthetic Fiber

संश्लिष्ट तन्तु बहुलक पदार्थों के ही उदाहरण हैं। इनका उपयोग प्राकृतिक रेशों, जैसे-ऊन और रेशम के स्थान पर किया जाता है। ऊन और रेशम आपूर्ति कम हो पाने के कारण महंगे हैं। संश्लिष्ट तन्तु प्राय: ऊन व रेशम से मिलते-जुलते ही बनाए जाते हैं और ऊन व रेशम की अपेक्षा सस्ते होते हैं।

रेयॉन एक ऐसा रेशा या तन्तु होता है, जिसे रुई या लकड़ी के गूदे को किसी रासायनिक विलायक में घोलने पर प्राप्त पदार्थ से बनाया जाता है। रेयॉन में रेशम जैसी विभा होती है, परन्तु वैसे यह सूती रेशे जैसा ही होता है।

नाइलॉन पॉलीएमाइड श्रृंखलाओं से बना एक बहुलक पदार्थ है। इसका विकास द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् हुआ। चूंकि सर्वप्रथम इसे न्यूयार्क तथा लन्दन के बाजारों में बेचा गया, इसलिए, इसका नाम नाइलॉन पड़ा। विविध प्रयोजनों में उपयोग होने के कारण नाइलॉन एक अत्यधिक विख्यात पदार्थ बन गया। रासायनिक दृष्टि से नाइलॉन रेशे, रेशम के रेशों, जो कि प्रोटीन के प्राकृतिक बहुलक होते है, से मिलते-जुलते हैं। नाइलॉन के रेशे कठोर, प्रबल तथा जल-प्रतिरोधी होते हैं। इनका उपयोग पहनने के कपड़े, मछली पकड़ने की जाली तथा रस्सियाँ बनाने में किया जाता है। नाइलॉन का उपयोग ब्रुश, कंघे, हुक, जिप चिपकाने तथा मशीनों के पुजों के निर्माण में भी होता है।

पॉलिएस्टर रेशे, जैसे-टेरीलीन, डेक्रॉन तथा टेरीन, पेट्रोलियम पदार्थों से बनाए जाते हैं। इसका विस्तृत उपयोग वस्त्र उद्योगों में कमीज, पैन्ट, साड़ी, पर्दे तथा अन्य वस्त्रों के निर्माण में होता है। एक्रिलिक रेशे, जो ऊन जैसे प्रतीत होते हैं, स्वेटर, शाल एवं कम्बल बनाने में काम आते हैं।

संश्लिष्ट तन्तु अपने गुणों के कारण बहुत ही लोकप्रिय हो। गये हैं। ये सरलता से प्रयोग में आने वाले, अपेक्षाकृत कम खर्चीले तथा कम देखभाल चाहने वाले होते हैं। ये धोने पर नहीं सिकुड़ते तथा इन पर प्रेस करने की प्राय: आवश्यकता नहीं होती। प्रेस करने की कोई आवश्यकता न होने के कारण ही संश्लिष्ट तन्तुओं को धोओ तथा पहनो पदार्थ कहते हैं। इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि ये चलते भी बहुत दिनों तक हैं।

संश्लिष्ट तन्तुओं में कुछ दुर्गुण भी हैं। ये प्राकृतिक रेशों की भांति जल तथा पसीने का अवशोषण नहीं कर पाते। इसीलिए, गर्मियों के दिनों में संश्लेषित कपड़े शरीर में चिपक जाते हैं और शरीर में चिपचिपाहट लगने लगती है तथा इन्हें पहने रखना असहनीय हो जाता है। साथ ही, कुछ संशिष्ट रेशे सूती अथवा ऊनी रेशों की तुलना में कहीं शीघ्र आग पकड़ लेते हैं।

परन्तु प्राकृतिक एवं संश्लिष्ट रेशों को मिलाकर बनाए गए वस्त्रों में इनमें से कुछ कमियां दूर हो जाती हैं। टेरीकॉट (पॉलिएस्टर एवं सूती रेशों के मेल से बना) वस्त्र इसी प्रकार के वस्त्रों के उदाहरण हैं। विभिन्न प्रकार के रेशों की पहचान उनको जलाकर और जलने के उपरान्त उनके व्यवहार का प्रेक्षण करके की जा सकती है।

साबुन तथा अपमार्जक Soaps and Detergents

तेल या वसा से ही सोडियम हाइड्रॉक्साइड से रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप साबुन प्राप्त होता है।

तेल या वसा + सोडियम हाइड्रॉक्साइड → साबुन + ग्लिसरीन

साबुन का अणु दो सिरों वाला होता है, जिसमें एक सिरे की बंधुता जल के साथ होती है, जबकि दूसरा सिरा जलविरागी अर्थात् जल को प्रतिकर्षित करने वाला होता है। जब साबुन को किसी मैले पृष्ठ पर लगाया जाता है, तो उसके अणुओं के जलविरागी सिरे धूल एवं चिकनाई के कणों से जुड़कर उन्हें पृष्ठ से हटा देते हैं, जिन्हें फिर धोकर अलग कर दिया जाता है। जब जल कठोर होता है, तब साबुन उसमें घुले कैल्सियम और मैग्नीशियम लवणों से अभिक्रिया करके अविलेय पदार्थ बना देता है, जिनके कारण साबुन झाग उत्पन्न नहीं कर पाता। इस समस्या को जल में सोडियम काबोंनेट मिलाकर हल कर लिया जाता है। सोडियम कार्बोनेट मिलाने पर जल में कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के कार्बोनेट अवक्षेपित हो जाते हैं जिन्हें अविलेय होने के कारण छानकर अलग कर लिया जाता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् साबुन की मांग कई कारणों से अत्यधिक बढ़ गई। विकसित देशों में जीवन स्तर अच्छा हो जाने के कारण ऐसा हुआ। विकासशील देशों में साबुन की मांग जनसंख्या में वृद्धि तथा स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति अधिक जागरूकता के कारण बढ़ी। अत:, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बनों द्वारा साबुन जैसे पदार्थों के निर्माण के प्रयास किए जाने लगे। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप एक नये पदार्थ अपमार्जक का निर्माण हुआ।

अपमार्जक पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन से प्राप्त मानव-निर्मित रसायन होते हैं। इनमें भी दो सिरों वाले अणु होते हैं, जिनमें से एक जलरागी तथा दूसरा जलविरागी होता है। कपड़े तथा अधिकांश अन्य वस्तुएं अपमार्जकों द्वारा धोयी जाती है। ये कठोर जल द्वारा भी अच्छी सफाई कर सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये कैल्सियम तथा मैग्नीशियम लवणों के साथ अविलेय पदार्थ नहीं बनाते। अपमार्जकों की धोवन-शक्ति बढ़ाने के लिए उनमें बहुत से अन्य रासायनिक पदार्थ भी मिलाए जाते हैं। अधिकांश घरेलू अपमार्जक क्षारीय होते हैं और ये लाल लिटमस को नीला कर देते हैं।

उर्वरक Fertilizer

प्रोटीन,  नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन तथा ऑक्सीजन के अणुओं से मिलकर बनते हैं। प्रोटीन-प्रचुर पादप जैसे दालें अपनी नाइट्रोजन की आवश्यकता मिट्टी से पूरी करते हैं। मिट्टी में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण वर्षा के जल तथा कुछ पौधों की जड़ों में रहने वाले नाइट्रोकारी जीवाणुओं के द्वारा होता है। परन्तु, किसी खेत में एक, हर वर्ष, गहन उपज के लिए उस खेत की मिट्टी को नाइट्रोजनकारी तथा अन्य उर्वरको द्वारा कृत्रिम पोषण की आवश्यकता होती है।

अमोनिया, यूरिया, अमोनियम, सल्फेट, अमोनियम नाइट्रेट तथा अमोनियम फॉस्फेट ऐसे उर्वरक हैं, जिनमें नाइट्रोजन होती है। उर्वरकों का उपयोग किए बिना हम अपने देशवासियों के लिए पर्याप्त अन्न का उत्पादन नहीं कर सकते। नाइट्रोजनी उर्वरकों के निर्माण में उपयोग होने वाला मूल पदार्थ अमोनिया है। हमारे देश में अब इसका बड़ा पैमाने पर उत्पादन 20 से भी अधिक रासायनिक संयंत्रों में किया जा रहा है। अमोनिया का निर्माण नाइट्रोजन के साथ हाइड्रोजन की रासायनिक अभिक्रिया द्वारा किया जाता है। इसके उत्पादन के लिए इस शताब्दी के आरम्भ में विकसित एक विख्यात विधि, जिसे हेबर विधि कहते हैं, का उपयोग किया जाता है।

स्वस्थ फसल के लिए फॉस्फोरस भी जैविक आवश्यकता है। प्रकृति में पाई जाने वाली फॉस्फेटयुक्त चट्टानों से फॉस्फोरस के यौगिक प्राप्त किए जाते हैं। चट्टानों को पीसकर उनका चूर्ण बनाया जाता है, फिर इस चूर्ण को सल्फ्यूरिक अम्ल द्वारा उपचारित करके फॉस्फोरिक अम्ल बनाए जाते हैं। फॉस्फोरिक अम्ल को चट्टानों से प्राप्त कैल्सियम लवणों के साथ मिलाकर सीधे ही मिट्टी में मिला देते हैं, जिनसे मिट्टी में फॉस्फोरस की मात्रा बढ़ जाती है।

फसलों को भी अपनी उत्तम वृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए पोटैशियम लवणों की आवश्यकता होती है। इन्हें पोटैशियम प्रचुर चट्टानों का खनन करके अथवा समुद्री जल से प्राप्त किया जाता है। इन्हें समुद्र जल से सामान्य लवण प्राप्त करने के पश्चात् बचे अवशिष्ट पदार्थों के प्रभाजी क्रिस्टलीकरण द्वारा भी प्राप्त किया जाता है।

रासायनिक उर्वरकों ने हमारे देश में विशाल स्तर पर भुखमरी को टालने में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे देश की जनसंख्या हर 28 वर्ष या इतने ही समय में दोगुनी हो जाती है। सन् 1960 में हमारे देश की अन्न की कुल उपज लगभग 6 करोड़ टन तथा जनसंख्या अब (1990 ई.) से आधी थी। इसीलिए, हमें तब अपने देशवासियों का पेट भरने के लिए गेहूं का आयात करना पड़ता था। आज हमारे देश में अन्न का कुल उत्पादन तब से लगभग 21-22 गुना हो गया है और वर्तमान समय में हम अन्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हैं। यह केवल रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग और आधुनिक कृषि प्रणालियों द्वारा ही संभव हो सका है।

पीड़कनाशी Pesticides

मानव ने पौधों की रोग उत्पन्न करने वाले जीवों, जैसे-विषाणु, जीवाणु, कवक तथा कीटों से सुरक्षा के लिए भी कुछ रसायनों का निर्माण किया है। DDT, BHC, मैथिल पैराथिओन, हेप्टाक्लोर, डाईऐल्ड्रिन और क्लोरोडेन जैसे रसायनों को पीड़कनाशी कहते हैं। कुछ रासायनिक पदार्थ अवांछनीय पौधों, जिन्हें खर-पतवार कहते हैं, नष्ट करने में भी प्रभावी होते हैं। इनमें से कुछ रसायन चूहों व टिड्डयों जैसे पीड़कों को नष्ट कर देते हैं। भारत में लगभग 100000 टन पीड़कनाशी प्रति वर्ष उपयोग किए जाते हैं।

यद्यपि पीड़कनाशियों के उपयोग ने अन्न उत्पादन में बढ़ोतरी की है, परन्तु इनके अत्यधिक मात्रा में निरन्तर उपयोग से कुछ अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हुई हैं। ये विषैले रसायन होते हैं। ये पौधों द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं और जब मनुष्यों अथवा अन्य जन्तु इन पौधों को खाते हैं, तो ये खाद्य-श्रृंखला में प्रवेश कर जाते हैं। मानव शरीर में इनका धीरे-धीरे संचित होना स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर समस्या उत्पन्न कर सकता है। साथ ही, पीड़कनाशी पीड़कों के प्राकृतिक शत्रुओं को भी मार देते हैं, जिससे पीड़कों की संख्या में वृद्धि होती है तथा पीड़कों को अपने शरीर में इन रसायनों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के अवसर भी मिल जाते हैं। इसीलिए, पीड़कनाशियों के अधाधुन्ध उपयोग से न केवल रोग उत्पन्न होते हैं, बल्कि ये पीड़कों को अपने प्रति असंक्राम्य बना देते हैं। कई देशों में तो कुछ पीड़कनाशियों जैसे- DDT और BHC के उपयोग पर रोक लगा दी गई है।

मानव-निर्मित पदार्थों के साथ एक बड़ी समस्या, प्रयोग के पश्चात् इन पदार्थों को विसर्जित करना है। जब हम इन पदार्थों को कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं, तब क्या होता है? यदि इन्हें भूमि में दबा दिया जाए, तो क्या क्षय होकर ये पदार्थ मिट्टी के लिए उपयोगी सरल पदार्थों में परिवर्तित हो जाएंगे? क्या ये मिट्टी में उपस्थित जीवाणुओं व कृमियों द्वारा निम्नीकृत अथवा टूट कर पोषक ह्यूमस में परिवर्तित हो जाएंगे? दुर्भाग्यवश, बहुत से पदार्थों के लिए इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक अर्थात् नहीं हैं। ये पदार्थ जैव निम्नकरणीय नहीं हैं, अर्थात् इनका अपघट्न सूक्ष्म जीवों एवं कृमियों द्वारा नहीं होता।

DDT अत्यधिक प्रयोग किया जाने वाला पीड़कनाशी है और इसका सरलता से निम्नीकरण नहीं होता। यद्यपि यह फसल खाने वाले ऐफिड और केटरपिलर को नष्ट करने में अत्यन्त प्रभावी होता है, परन्तु जो पक्षी उन कीटों का भक्षण करते हैं जिनके शरीर में DDT पहुंच चुका है, तो वे भी इस विष को खाने से मर जाते हैं। साथ ही, पौधे DDT को अवशोषित कर लेते हैं और जब मनुष्य एवं जन्तु इन पौधों का खाते हैं तो यह DDT उनके शरीर में अवशोषित होती है। भारत के बहुत से शहरों में मनुष्य के शरीर एवं दूध में DDT की मात्रा काफी अधिक पाई गई है। दुर्भाग्यवश, यह सब कुछ निर्बाध गति से चल रहा है और हम अभी तक भी मानव शरीर पर इन रसायनों के दूरगामी प्रभावों को भली भाँति नहीं समझ सके हैं।

सोना
लैटिन नाम औरम
संकेत Au
परमाणु संख्या 77
रंग पीला, चमकीला
गलनांक 1063°C
क्वथनांक 2660°C
घनत्व पानी से 19.3 गुना भारी

सोना या स्वर्ण एक ऐसी आकर्षण धातु है, जिसके विषय में नवीन पाषाण युग से भी पहले से मानव को पता था। प्राचीन सभ्यताओं के अवशेषों से ज्ञात होता है कि सबसे पहली धातु जो मनुष्य के हाथ लगी थी, वह शायद सोना ही थी। मिस्र के फराह तूतेनखामेन की कब्र से, जो शुद्ध सोने से बने जेवरात ओर अनमोल वस्तुएं मिली हैं, वे ईसा से 14वीं शताब्दी पूर्व की हैं। इनमें सोने के ताबूत का वजन 110 किग्रा. है। असीरिया की महारानी ने सेमीरामिस देवता की 12 मीटर ऊँची एक मूर्ति शुद्ध सोने की बनवाई थी, जिसका वजन लगभग 30 टन था। देवी रिहा की एक विशाल सोने की मूर्ति का वजन 250 टन था। प्राचीन इंका सभ्यता का विनाश सोने की लूट के कारण ही हुआ था। फ्रांसिस्को पिजारों ने वहां की प्राचीन स्वर्ण कलाकृतियों को लूटकर सोने की सिल्लियों में बदल दिया। सोने के लालच में अनेक युद्ध भी हुए। अन्वेषकों ने सोने की खातिर बड़े-बड़े खतरे उठाए। जहां सोना मिल गया, वहां पर लोग दूर-दूर से आकर बस गए।

मिस्र के बाद मेसोपोटामिया, चीन और भारत में ईसा से लगभग 10वीं शताब्दी पहले सोने के विषय में ज्ञान प्राप्त हो चुका था। मध्य युग में कीमियागरों ने सस्ती धातुओं से रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा सोना बनाने के अनेक प्रयास किए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। रॉबर्ट बॉयल ने यह सिद्ध कर दिया कि सोना एक तत्व है और उसे अन्य पदार्थों से नहीं बनाया जा सकता, लेकिन आज के वैज्ञानिकों ने नाभिकीय क्रियाओं द्वारा पारे और सीसा जैसी धातुओं पर न्यूट्रॉनों की बमबारी करके सोना बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। सोने का सबसे बड़ा और शुद्ध नगेट होल्टरमान मोलियागन विक्टोरिया ऑस्ट्रेलिया में मिला था, जिसका वजन 214.32 किग्रा था, इससे 70.92 किग्राम शुद्ध सोना प्राप्त हुआ था।

सिक्कों का चलन सबसे पहले एशिया माइनर (अब तुर्की) के लीडिया राज्य में 690-650 ईसा पूर्व हुआ। ये सिक्के इलेक्ट्रम (सोने और चांदी की एक मिश्रधातु) के थे। मुगल बादशाह शाहजहां (1628-57) ने सन् 1654 में 200 सोने की मुहरों का एक सिक्का चलाया था। अभी तक ढाले गए सभी सिक्कों का सबसे बड़ा भंडार सन् 1814 में माडेन (इटली) के पास ब्रेस्केलों में जमीन के अंदर मिला था। ये सिक्के 37 वर्ष ईसा पूर्व जमीन में गाड़े गए थे। इनमें रोमन साम्राज्य में प्रचलित ओरीअस नामक सोने के लगभग 80,000 सिक्के थे।

बैंकॉक (थाइलैंड) स्थित बात त्रिमित्र मंदिर में 15वीं शताब्दी की बुद्ध की एक 3.04 मीटर (10 फुट) ऊँची सोने की मूर्ति है। इसका अनुमानित भार साढ़े पांच टन है। आज इसके सोने की कीमत लगभग 51.3 करोड़ रूपये से भी अधिक है।

सोना समस्त विश्व में पाया जाता है। यह काफी गहरी खानों से प्राप्त होता है। आम तौर पर ठोस चट्टानों की दरारों में शुद्ध सोना मिला जाता है। कुछ जगहों की रेत में भी पर्याप्त मात्रा में सोना है। समुद्रों के पानी में भी सोना मौजूद है। पांच टन समुद्री जल में एक मिलीग्राम सोना होता है। विश्व में दक्षिणी अफ्रीका, रूस, कनाडा और अमेरिका में सबसे अधिक सोना मिलता है। भारत में सोने की खानें कर्नाटक में है।

सोने का इस्तेमाल सबसे पहले जेवरात और मूर्तियां बनाने में किया गया था, क्योंकि यह धातु आकर्षक और चमकीली होती है। सोना न तो जल्दी घिसता है और न ही इसकी चमक नष्ट होती है। शुद्ध सोना 24 कैरट का होता है। 22 कैरट के सोने का अर्थ है-24 हिस्सों में से 22 हिस्सा शुद्ध सोना है। 22 कैरट में 87.7 प्रतिशत शुद्ध सोना होता है। 22 कैरट सोने के आजकल जेवर बनाए जाते हैं।

सोने पर पानी, हवा या धूप का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह किसी एक अम्ल में नहीं घुलता, केवल अम्लराज में घुलता है, जो सांद्र हाइड्रोक्लोरिक एसिड का मिश्रण है। सोना भारी होने के बावजूद बहुत नर्म होता है। थोड़े से सोने से काफी पतले वर्क (एक मिलीमीटर का दस हजारवां भाग) और काफी लंबे तार खींचे जा सकते है।

सोने का उपयोग केवल जेवरात और मूर्तियों में ही नहीं होता, बल्कि औद्योगिक कार्यों में भी होता है। यह विद्युत का उत्तम चालक है। सोना चढ़ी धातुएं संक्षरण से सुरक्षित रहती हैं। इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं में सोने का उपयोग बढ़ गया है। ट्रांजिस्टरों, डायोडों तथा माइक्रोचिपों में सोने का उपयोग किया जाता है। कृत्रिम उपग्रहों में भी सोने का उपयोग किया जाने लगा है। विभिन्न देशों में व्यापार के लिए सोना मुद्रा के रूप में प्रयुक्त होता है। प्रत्येक देश में सोने के अपने भंडार है, जो सोने की ईंटों के रूप में सुरक्षित रखे जाते हैं। पूजा स्थलों में सोने की मूर्तियां तथा पतले पत्र प्रयोग किये जाते हैं। किसी देश की संपन्नता वहां के स्वर्ण भंडारों में मापी जाती है।


चाँदी
लैटिन नाम अर्जेन्टम
संकेत Ag
परमाणु संख्या 47
रंग चमकदार सफेद
गलनांक 96.1°C
क्वथनांक 2180°C
घनत्व पानी से 10.5 गुना भारी

शुद्ध चांदी सफेद और चमकीली होती है। यह एक दुर्लभ और महंगी धातु है। मानव को इस धातु का ज्ञान अत्यंत प्राचीन काल से ही है। कीमियागर चांदी के लिए आधे चांद का संकेत बनाते थे। सुमेरियन सभ्यता के अवशेषों से ज्ञात होता है कि वे लोग सीसा से चांदी अलग करना जानते थे। मिस्रवासियों के भी चांदी के जेवरात और बर्तन मिले हैं। अर्जेन्टीना देश का नाम चांदी के लैटिन नाम (अर्जेन्टम) के आधार पर ही रखा गया, क्योंकि वहीं चांदी के विशाल भंडार थे। 327 ईसा पूर्व सिकंदर महान जब भारत आया, तो कुछ ही दिनों में उसके सिपाही पेट की एक भयंकर बीमारी के शिकार होने लगे, लेकिन अधिकारियों को यह रोग नहीं हुआ। इसका कारण लगभग 2000 वर्ष बाद पता चला। वैज्ञानिकों ने बताया कि सिपाही पानी पीने के लिए टिन के प्याले इस्तेमाल करते थे, जिससे यह रोग हो गया था, जबकि अधिकारी चांदी के बर्तनों में पानी पीते थे। चांदी का एक विशिष्ट गुण है- पानी को शुद्ध करना। चांदी में लगभग 650 तरह के रोग फैलाने वाले जीवाणुओं को मारने की क्षमता है। एक ग्राम चांदी का एक करोड़वां भाग एक लीटर पानी को शुद्ध करने के लिए काफी है। ईसा से 500 वर्ष पूर्व फारस का बादशाह साइरस यात्रा करते समय पीने का पानी चांदी के बर्तनों में रखा करता था। ये पवित्र चांदी के बर्तन कहलाते थे।

पुराने समय से ही चांदी का इस्तेमाल मुद्रा के रूप में होता है। रोमनों ने ईसा से 269 वर्ष पूर्व चांदी के सिक्के चलाए थे। प्रकृति में चांदी पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है। चांदी मुक्त रूप तथा संयुक्तावस्था दोनों में पाई जाती है। सन् 1860 में चांदी का एक नगेट स्पेन में मिला था, जिसका वजन आठ टन था। इसके मुख्य अयस्क हैं-

  • सिल्वर ग्लांस या आरजेंटाइट।
  • हॉर्न सिल्वर या क्लोरार्जिराइट।
  • रूबी सिल्वर या पाइरार्जिराइट।
  • सिल्वर कॉपर ग्लान्स या स्ट्रोमेईराइट।
  • स्टेफोनाइट।
  • प्रोस्टाइट।

मैक्सिको में सबसे अधिक चांदी मिलती है। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, ऑस्ट्रलिया, कनाडा, जापान आदि देशों में भारी मात्रा में चांदी के अयस्क खानों से प्राप्त करके इस धातु को निकाला जाता है। चांदी को साइनाइड प्रक्रम द्वारा निकाला जाता है। इस प्रकार प्राप्त चांदी को विद्युत अपघटन विधि द्वारा शुद्ध किया जाता है।

यद्यपि चांदी कम क्रियाशील है तथापि वायु के संपर्क में अधिक समय तक रहने पर यह हल्की काली पड़ जाती है। चांदी, अम्लों के साथ क्रिया करके विभिन्न लवण बनाती है।

चांदी का उपयोग बर्तन, जेवरात, मूर्तियां, सिक्के आदि बनाने में किया जाता है। चांदी, विद्युत और ताप की उत्तम सुचालक है इसलिए इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों में विद्युत संपर्क बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। चांदी, नाइट्रिक एसिड में घुल जाती है। चांदी के यौगिक प्रकाश किरणों में प्रभावित होते हैं, इसलिए सिल्वर क्लोराइड, सिल्वर ब्रोमाइड और सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल फोटोग्राफी में किया जाता है। चिकित्सा में भी चांदी का विशेष महत्व है। चांदी का प्रयोग दर्पणों पर परावर्तक तह चढ़ाने के लिए भी किया जाता है। अंतरिक्ष यानों में चांदी और जस्ते से बनी बैटरियां काम में लाई जाती है। चांदी एक मुलायम धातु है। इसलिए इसके बहुत पतले वर्क और तार बनाए जा सकते हैं। ढाई ग्राम चांदी से पांच किमी. लंबा तार बनाया जा सकता है। पुराने जमाने से आज तक दवाइयों में चांदी का उपयोग हो रहा है। चांदी का उपयोग खाद्य उद्योगों में भी किया जाता है। चांदी के पदक और सिक्के आज भी चलन में है। चांदी का उपयोग विद्युत लेपन में भी किया जाता है। चांदी लेपित पीतल के बर्तन पंचतारा होटलों में प्रयोग किए जाते हैं। आज भी चांदी की ईटों को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में मुद्रा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।


लोहा
लेटिन नाम फेरम
संकेत Fe
परमाणु संख्या 26
रंग भूरा कालापन लिए
गलनांक 1539°C
क्वथनांक 2800°C
घनत्व पानी से 7.9 गुना भारी

लोहे की जानकारी मानव को प्रागैतिहासिक काल से है। आज यह एक सस्ती धातु है लेकिन आज से 5000 वर्ष पूर्व मिस्रनिवासी काफी सोना देकर थोड़ा सा लोहा खरीद पाते थे। उस जमाने में लोहा, सोने से भी कहीं अधिक महंगा था। अवशेषों से पता लगता है कि ईसा से 1500 वर्ष पूर्व दक्षिण-पूर्वी एशिया के लोग इसके एक अयस्क को गर्म करके लोहा निकलते थे। सबसे पहले जो लोहा मनुष्य के हाथ लगा, वह उल्कापिंडों का था। भारतवासी बहुत पुराने समय से अच्छी किस्म का लोहा तैयार करना जानते थे। इसका प्रमाण दिल्ली में कुतुबमीनार में पास बना एक लोहे का स्तंभ है, जो लगभग 800 वर्ष से बिना जंग खाए खड़ा है। सिकंदर महान को पोरस ने जो कीमती उपहार दिया था, वह सोना या हीरा नहीं बल्कि 15 किग्रा. उच्चकोटि का लोहा था। दमिश्क अच्छी किस्म के लोहे के लिए प्रसिद्ध था। वहां की तलवारें दुनिया भर में इस्तेमाल की जाती थीं। लोहा खानों से लौह-अयस्क के रूप में प्राप्त किया जाता है। लोहे के मुख्य खनिज निम्नलिखित हैं-

  • आँक्साइड आयस्क: मैग्नेटाइट
  • Fe2O3 लाल हेमेटाइट Fe2O3
  • जलयुक्त ऑक्साइड आयस्क: भूरा हेमेटाइट या लिमोनाइट 2 Fe2O3.3H2O
  • स्पैथिक लोहा अयस्क: FeCO3
  • सल्फाइड अयस्क: लौह पाइराइट FeS2

आधुनिक मशीन युग का आधार लोहा ही है। लोहे और इस्पात के बड़े उत्पाद देश ही आज संसार के समृद्ध, शक्तिशाली और औद्योगीकृत राष्ट्र हैं।

लोहे का 90 प्रतिशत उत्पादन संसार के 11 देशों- रूस, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, लाइबेरिया और वेनेजुएला में होता है। भारत में लौह अयस्क के बड़े-बड़े भंडार बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गोवा में है।

आज लोहा अयस्कों से लोहा निकालने के लिए विशाल वात्य भट्ठियाँ प्रयोग में लाई जाती है। वात्य भट्ठी में लौह अयस्क (हेमेटाइट) को कोक और लाइमस्टोन के साथ गर्म किया जाता है। इससे अयस्क के अधिकांश हिस्से जल जाते हैं और काफी शुद्ध लोहा प्राप्त हो जाता है।

लोहे की किस्में

लोहा आमतौर पर चार रूपों से प्राप्त होता है- ढलवां लोहा, पिग आइरन, इस्पात और पिटवां लोहा। ये चारों रूप लोहे में मौजूद कार्बन की मात्रा पर निर्भर है। ढलवां लोहे में कार्बन की मात्रा 0. 2 प्रतिशत रहती है। यह साधारण लोहा कहलाता है। इस्पात में कार्बन की मात्रा सबसे कम रहती है। पिटवां लोहा सबसे उत्तम माना जाता है। ढलवां लोहा भी दो प्रकार का होता है। सफेद ढलवां लोहा, जिसमें कार्बन का अधिकांश भाग संयुक्त अवस्था में रहता है। भूरे ढलवां लोहे के कार्बन का अधिकांश भाग ग्रेफाइट के सूक्ष्म क्रिस्टलों के रूप में रहता है।

स्टेनलैस स्टील में 73 प्रतिशत लोहा, 18 प्रतिशत क्रोमियम, 8 प्रतिशत निकिल और 10 प्रतिशत कार्बन होता है। इनवार, लोहा और निकिल की मिश्रधातु है। एलनिको लोहा, एल्युमिनियम, निकिल और कोबाल्ट की मिश्र धातु है।

लोहा दो प्रकार के यौगिक बनाता है, फेरस और फेरिक। फेरस यौगिकों में इसकी संयोजकता 2 और फेरिक में 3 होती है। लोहे के यौगिक मुख्य रूप से रंग और स्याहियों के निर्माण के काम आते हैं। हमारे रक्त में भी लोहा होता है। लोहा एक चुंबकीय धातु है। इस गुण के कारण इसे विद्युत मशीनों में प्रयुक्त किया जाता है। मैग्नेटिक टेप आयरन ऑक्साइड का प्रयोग में लेकर बनाई जाती है। लोहा, भवन निर्माण के ऊंचे पैमाने पर प्रयुक्त होता है।


तांबा
लैटिन नाम क्यूप्रम
संकेत Cu
परमाणु संख्या 29
परमाणु द्रव्यमान 63.55
गलनांक 1083°C
क्वथनांक 256.7°C
घनत्व पानी से 8.93 गुना भारी

लगभग 10,000 वर्षों से मानव तांबे का इस्तेमाल करता आ रहा है। प्रारंभ में प्राकृतिक रूप से मिलने वाली धातुओं में सोने और चांदी के साथ तांबा भी था। ईसा से 5,000-3000 वर्ष पूर्व के दौर को ताम्र युग कहा जाता है। उस जमाने में यही ऐसी धातु थी, जिससे औजार और हथियार बनाए जाते थे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन मिस्र के पिरामिडों के निर्माण में तांबे के औजारों का प्रयोग किया गया था। हड़प्पा की खुदाई से जो वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, उनमें तांबे के औजार और हथियार भी हैं। सुमेरियन अपने सैनिकों के कवच तांबे के बनाते थे। प्राचीन स्थलों की खुदाई में तांबे की मूर्तियां, जेवरात, बर्तन और सिक्के मिले हैं। रोमन काल में साइप्रस द्वीप तांबे का मुख्य प्राप्ति स्थान था। इसलिए साइप्रस के नाम पर इसका नाम क्यूप्रम रखा गया। अंग्रेजी शब्द कापर की भी उत्पत्ति इसी शब्द से हुई है।

तांबे को साथ-साथ प्राचीन मानव को टिन पत्थर भी मिला। उसने उसमें से टिन निकाल लिया। फिर टिन और तांबे को एक साथ गला कर कांसा बना लिया तथा तांबे और जस्ते को गलाया तो पीतल बन गया। इस प्रकार तांबे से कई मिश्र धातुएं बन गई।

तांबे के भंडार दक्षिण अमेरिका, रूस, कनाडा, स्वीडन, जांबिया, चिली, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों में हैं। भारत में तांबा बहुत कम पाया जाता है। बिहार, राजस्थान तथा आंध्रप्रदेश में तांबे के कुछ भंडार हैं। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 70 लाख मीट्रिक टन तांबा निकाला जाता है। तांबा निकालने की कई विधियां हैं। विद्युत अपघटन द्वारा अशुद्ध तांबे से शुद्ध तांबा प्राप्त किया जाता है। तांबे के मुख्य अयस्क निम्नलिखित हैं-

  • सल्फाइड अयस्क: कॉपर पाइराइट Cu FeS2
  • बोर्नाइट Cu3FeS2, कॉपर ग्लांस Cu2S
  • ऑक्साइड आयस्क मैलेकाइट CuCo3 Cu(OH)2, एजुराइट- 2CuCO3Cu(OH)2,

तांबा सामान्यत: कॉपर पाइराइट से निकाला जाता है। इसे बेसीमर कनवर्टर से प्राप्त किया जाता है। अंत में विद्युत अपघटन से शुद्ध किया जाता है। तांबे से पीतल, कांसा, बैलमैटल, गनमैटल, जर्मन सिलवर आदि मिश्र धातुएं बनाई जाती हैं।

चांदी के बाद तांबा, बिजली का सबसे अच्छा सुचालक है। तांबा, ऊष्मा का भी उत्तम सुचालक है। संसार का लगभग दो तिहाई तांबा विद्युत उद्योग में तथा विद्युत संबंधी वस्तुओं के निर्माण में काम आता है। शेष तांबा मिश्र धातुओं तथा बर्तनों के निर्माण में इस्तेमाल किया जाता है।

तांबा वायु के प्रभाव में लाल भूरे रंग का हो जाता है। तांबा यौगिक जीव जगत के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इन्हें कीटनाशक के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है। कुछ यौगिक पेंट उद्योग में भी प्रयुक्त किए जाते हैं।


मैंगनीज
लैटिन नाम मैंगनीज
संकेत Mn
परमाणु संख्या 25
परमाणु द्रव्यमान 54.938
रंग स्लेटी
गलनांक 1244°C
क्वथनांक 1962°C
घनत्व पानी से 7.2 गुना भारी

मैंगनीज की खोज सन् 1744 में स्विस रसायन शास्त्री जोहान्नगाहन ने की थी। अधिकांश मैंगनीज खनिज, पाइरोलुसाइट या मैंगनीज डाइऑक्साइड से प्राप्त किया जाता है। इस खनिज को एल्युमिनियम के साथ गर्म किया जाता है। इस क्रिया में मैंगनीज प्राप्त हो जाता है।

यह तत्व प्रकृति में उपलब्ध कई खनिजों में पाया जाता है, जैसे- पाइरोलुसाइट, मैंगेनाइट, ब्राउनाइट, हाँसमैंनाइट और आयरन अयस्क। इनके अलावा मानव, जीव-जंतुओं और पेड़ पौधों में भी इसकी सूक्ष्म मात्रा पाई जाती है।

दुनिया में मैंगनीज के अधिकांश अयस्क रूस, भारत, ब्राजील, घाना और दक्षिणी अफ्रीका में मिलते हैं। मैंगनीज का सबसे अधिक इस्तेमाल लौह मिश्रधातु के रूप में होता है। आमतौर पर लोहे और इस्पात उत्पादन में मैंगनीज का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि यह इनमें से ऑक्साइड तथा गंधक के यौगिकों को बाहर निकालने का काम करता है। मैंगनीज डाइऑक्साइड का इस्तेमाल शुष्क सेल बैटरियों, सेरेमिकों और रंगों में किया जाता है। यह यौगिक उद्योगों में उत्प्रेरक और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। मैंगनीज सल्फेट पेंट, वार्निश और उर्वरक निर्माण में भी काम आता है। पोटैशियम परमेंगेनेट एक तीव्र ऑक्सीकारक और विसंक्रामक है। यह जल को कीटाणुरहित करने के काम आता है। इसे कुओं की लाल दवा के नाम से जाना जाता है। इस पदार्थ का बहुत हल्का घोल सब्जियां धोने के काम आता है।


टिन
लैटिन नाम स्टेनम
संकेत Sn
परमाणु संख्या 50
परमाणु द्रव्यमान 118.69
रंग चांदी जैसा सफेद
गलनांक 233°C
क्वथनांक
घनत्व पानी से 7.3 गुना भारी

प्राचीन काल में लगभग छह हजार वर्ष पहले लोगों को टिन का ज्ञान था। मिस्र में एक कब्र से ईसा से 1580-1350 वर्ष पहले की टिन की एक अंगूठी और बोतल मिली है। ये टिन की वस्तुओं में सबसे पुरानी है। ईसा से 1200 वर्ष पहले का टिन से बना एक गुलदस्ता भी मिस्र में ही मिला है। रोम निवासी टिन का प्रयोग दर्पण बनाने में करते थे।

टिन का मुख्य अयस्क कैसीटेराइट है। सबसे अधिक टिन मलेशिया में मिलता है। बोलिविया, इंडोनेशिया, कांगो, थाईलैंड और नाइजीरिया में भी टिन के भंडार हैं। टिन के समस्त उत्पादन का आधा से अधिक भाग सिर्फ अमेरिका में इस्तेमाल किया जाता है।

टिन, चांदी जैसी सफेद और कोमल धातु है। इस पर जंग नहीं लगता। टिन का सबसे अधिक इस्तेमाल डिब्बे बनाने में किया जाता है। लोहे पर टिन की बहुत पतली परत चढ़ाई जाती है। यह परत खाने-पीने की वस्तुओं को खराब नहीं होने देती।

टिन से मिश्र धातुएं भी बनाई जाती हैं। सोल्डर, जो टिन और सीसा की मिश्रधातु है, विद्युत परिपथों में टांका लगाने के काम आती है। कांसा भी टिन की मिश्रधातु है। इसका यौगिक स्टेनिक क्लोराइड कपड़े रंगने में और फ्लोराइड टूथपेस्टों के निर्माण में प्रयुक्त किया जाता है। टिन के यौगिकों को शीशे की प्लेटों पर स्प्रे करके विद्युत सुचालक परत जमाई जाती है।

पारा
लेटिन नाम हाइड्रेर्जिरम
संकेत Hg
परमाणु संख्या 80
परमाणु द्रव्यमान 200.59
रंग चमकदार सफेद तरल
गलनांक 39°C
क्वथनांक 359°C
घनत्व जल से 13.5 गुना भारी

पारा एकमात्र ऐसा धात्विक तत्व है, जो साधारण तापमान पर द्रव अवस्था में रहता है। प्राचीन रोमवासियों ने इस धातु को मरकरी देवता का नाम दे रखा था। कीमियागारों के लिए पारा सबसे महत्वपूर्ण धातु थी। इसके द्वारा वे अन्य सस्ती धातुओं से सोना बनाने का प्रयास करते रहें। ईसा से लगभग 1500 वर्ष पूर्व के मिस्री पिरामिडों में पारा मिला है।

एक चमकीले लाल खनिज सिनेबार को गर्म करके इसकी वाष्प को संघनित करके पारा प्राप्त किया जाता है। सिनेबार, पारे और गंधक का यौगिक है। इसे मरक्यूरिक सल्फाइड कहते हैं। पारे का सबसे बड़ा भंडार अल्मेडन (स्पेन) में है।

पारा तापमान बढ़ने पर फैलता है और कम होने पर सिकुड़ता है। यह -38.87°C से +356.58°C पर द्रव अवस्था में रहता है। -39°C तापमान पर यह जमकर ठोस हो जाता है। पारे में कुछ धातुओं को अपने में घोलने की क्षमता होती है। इसे अमलगम कहा जाता है। अमलगम का इस्तेमाल धातुओं पर सोने की परत चढ़ाने में किया जाता है। इसके अलावा दांतों के छेदों को भरने में, दर्पण बनाने तथा प्रयोगशालाओं में इसका प्रयोग किया जाता है। थर्मामीटर, बैरोमीटर, मैनोमीटर, विसरण, निर्वात पंप आदि में भी पारा प्रयुक्त होता है। मर्करी वाष्प लैंपों और क्वार्टज़ मकरी लैपों में पारे की वाष्प भरी जाती है। बैटरियों, स्विचों और विद्युत अपघटन सेल में भी पारे का उपयोग किया जाता है। पारे के कुछ यौगिक चिकित्सा में भी काम आते हैं। पारा और इसकी वाष्प जहरीली होती है। इससे मस्तिष्क संबंधी रोग हो जाते हैं। पारे के यौगिक विषैले होते हैं। अत: इसका उपयोग सावधानी से करना पड़ता है। पारे से भरे थर्मामीटर तापमान मापने में प्रयुक्त किये जाते हैं। इसका रेंज 40°C से 350°C तक होता है। फार्टिन बैरोमीटर में पारे द्वारा वायुदाब मापा जाता है। पारा हमारे लिए बहुत उपयोगी है।

एल्युमिनियम
नाम एल्युमिनियम
संकेत Al
परमाणु संख्या 13
परमाणु द्रव्यमान 26.90
  रंग चांदी जैसा सफेद
गलनांक 660°C
क्वथनांक 246.7°C
घनत्व जल से 2.7 गुना भारी

प्रकृति में एल्युमिनियम धातु स्वतंत्र अवस्था में नहीं पाई जाती, इसलिए मनुष्य को इनका ज्ञान काफी देर से हुआ। एल्युमिनियम की खोज सन् 1827 में जर्मन रसायनज्ञ, फ्रीडरिक व्होलर ने की थी। उन्होंने सर्वप्रथम एल्युमिनियम क्लोराइड को पोटेशियम के साथ गर्म करके एल्युमिनियम धातु प्राप्त की। लगभग 60 वर्षों तक यह एक महंगी धातु रही। सन् 1886 में इस धातु को प्राप्त करने की सस्ती विधि विकसित की गई।

पृथ्वी की पपड़ी में लगभग 8.0 प्रतिशत एल्युमिनियम है, जो विभिन्न खनिजों के रूप में मिलता है। एल्युमिनियम के मुख्य खनिज निम्नलिखित है-

  • ऑक्साइड : बॉक्साइड Al2O3.2HO2
  • सिलिकेट : फेलस्पार K2O , Al2O6.6SiO2
  • अकरख K23Al2O.6SiO2.2H2O
  • फ्लोराइड : क्रोयोलाइट AIF3
  • काओलीन Аl2O3.2SiO2.2H2O
  • सल्फेट : एल्युनाइट K2SO4. Al2(SO4)3Al(OH)3
  • फॉस्फेट अयस्क : टरकीस AlPO4AI(OH)2. H2O

अधिकांश एल्युमिनियम, बॉक्साइट से प्राप्त किया जाता है। बॉक्साइट अयस्क से पहले एलुमिना और फिर विद्युत अपघटन क्रिया द्वारा एल्युमिनियम धातु प्राप्त की जाती है। एल्युमिनियम बेयर प्रक्रम, हॉल प्रक्रम और सरपैक प्रक्रम द्वारा प्राप्त की जाती है। इन प्रक्रमों में एल्युमिनियम टैंकों की तली में जमा हो जाता है। एल्युमिनियम की मिश्रधातुएं खाना पकाने के बर्तन और प्रेशर कुकर उच्च मात्रा में बनाए जाते हैं। विज्ञान संबंधी अनेक उपकरण इस धातु से बनाये जाते हैं।

आजकल एल्युमिनियम धातु का इस्तेमाल इतना बढ़ गया है कि इसे धातुओं का चैंपियन कहा जाने लगा है। यह एक हलकी और मजबूत धातु है। इस पर जंग नहीं लगता। इसकी मिश्र धातु, डुरालुमिन हवाई जहाज बनाने के काम आती है। एल्युमिनियम से बिजली के तार बनाए जाते हैं। इसकी पतली चादरों को पैकिंग में प्रयुक्त किया जाता है। इस धातु से दरवाजों और खिड़कियों के फ्रेम तथा हैंडल बनाए जाते हैं।


लीथियम
नाम लीथियम (ग्रीक शब्द लीथीस जिसका अर्थ है पत्थर)
संकेत Li
परमाणु संख्या 3
परमाणु द्रव्यमान 6.941
रंग चांदी जैसा सफेद
गलनांक 180°C
क्वथनांक 1347°C
घनत्व सबसे हल्की धातु (0.53)

स्वीडन के रसायन विज्ञानी जोहन आगस्ट आर्फवेडसन ने सन् 1817 में पेटेलाइट खनिज से एक नए धात्विक तत्व लीथियम की खोज की थी। लगभग 38 वर्ष वर्ष बाद विद्युत अपघटन द्वारा बड़े पैमाने पर शुद्ध लीथियम का उत्पादन शुरू हुआ।

पृथ्वी की पपड़ी में लीथियम की मात्रा बहुत कम (0.0065 प्रतिशत) है। 20 ऐसे खनिज हैं, जिनमें लीथियम पाया जाता है। लेपिडोलाइट स्पोडुमीन और एपलीगोनाइट इसके प्रमुख खनिज हैं। ग्रेनाइट में भी लीथियम की कुछ मात्रा होती है। एक घन किलोमीटर ग्रेनाइट से 1,12,000 टन लीथियम निकाला जा सकता है।

लीथियम चांदी जैसी एक सफेद मुलायम धातु है। यह क्षारीय धातुओं की श्रेणी में आती है। लीथियम सबसे हल्की धातु है। इस धातु में हाइड्रोजन से संयुक्त होने की अत्यधिक क्षमता है। 250 ग्राम लीथियम हाइड्राइट में 700 लीटर हाइड्रोजन होती है। यह एक बहुत ही क्रियाशील तत्व है। यह वायु में सफेद ज्वाला के साथ जलती है।

लीथियम का उपयोग मिश्र धातुएं बनाने में किया जाता है। रॉकेट के ईंधन के रूप में भी इसका इस्तेमाल होता है। रॉकेट के नोजल और दहनकक्ष पर लीथियम की कोटिंग की जाती है, ताकि उच्च तापमान के कारण वे पिघल न पाएं बैटरियों और सेलों में लीथियम के उपयोग से उनकी शक्ति तीन गुनी बढ़ जाती है। परमाणु ऊर्जा पैदा करने वाले रिएक्टरों में भी लीथियम का उपयोग किया जाता है। लीथियम द्वारा बना कांच अधिक ताप को सह सकता है, इसलिए टीवी की पिक्चर ट्यूब इसी कांच से बनाई जाती है। लेंस, इनेमल पेंट, पोर्सलेन तथा टेक्सटाइल उद्योग में भी लीथियम का उपयोग किया जाता है। लीथियम कार्बोनेट से बनी औषधियों का सेवन मानसिक रोगों में किया जाता है।


बेरिलियम
लैटिन नाम बेरिलयम (बेरिल खनिज के नाम पर)
संकेत Be
परमाणु संकेत 4
परमाणु द्रव्यमान 9.012
रंग सफेद स्लेटी
गलनांक 1280°C
क्वथनांक 2970°C
घनत्व पानी से 1.8 गुना भारी

फ्रांस के रसायन विज्ञानी, निकोलस लुइस बॉकुलिन ने सन् 1798 में एक नए धात्विक तत्व की खोज की, जिसे उन्होंने ग्लुसिनम नाम दिया। क्लाप्रोथ ने इसका नाम बेरिलियम रखा। इस तत्व की खोज तो हो गई, लेकिन शुद्ध बेरिलियम धातु सन् 1828 में जर्मनी के फ्रेडरिक व्होलर और फ्रांस के ए.ए. बुसी ने बेरिलियम क्लोराइड से प्राप्त की। कई खनिजों में बेरिलियम की थोड़ी मात्रा पाई जाती है, लेकिन मुख्य रूप से बेरिल और पन्ना से ही यह धातु प्राप्त की जाती है। बेरिल के विशाल क्रिस्टल प्रकृति में पाए जाते हैं। ब्राजील और अर्जेंटीना में बेरिल की अनेक खाने हैं। लीथियम के बाद बेरिलियम सब से अधिक हल्की धातु होती है। हल्का होने के साथ-साथ मजबूती का भी गुण इस धातु में है। यह स्टील से कहीं अधिक मजबूत होता है। एल्युमिनियम की तुलना में यह छह गुना अधिक भार सहन कर सकता है। उत्तम ऊष्मा सुचालकता, उच्च ऊष्मा धारिता और ऊष्मा प्रतिरोधकता इस धातु के विशेष गुण हैं। इन्हीं गुणों ने इसे अंतरिक्ष युग की धातु बना दिया है। विमानों, रॉकेटों, कृत्रिम उपग्रहों और अंतरिक्ष यानों में इसी धातु का उपयोग किया जाता है। बेरिलियम और तांबे की मिश्रधातु से विमानों के सैकड़ों पुर्जे बनाये जाते हैं क्योंकि ये हल्के और मजबूत होते हैं। अंतरिक्ष यानों के भी कई महत्वपूर्ण पुजें इसी धातु से निर्मित किये जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर अंतरिक्ष यानों में ईधन के रूप में भी यह प्रयुक्त होता है। बेरिलियम के यौगिक विषैले होते हैं, अत: इसका प्रयोग सावधानी से करना पड़ता है।

सीसा
लेटिन नाम प्लबम
संकेत Pb
परमाणु संख्या 82
परमाणु द्रव्यमान 207. 19
रंग स्लेटी
गलनांक 327.3°C
क्वथनांक 1750°C
घनत्व पानी से 11.3 गुना भारी

सीसा (लेड) एक मुलायम, भारी,नीले-भूरे रंग का धात्विक तत्व है। प्राचीन मिस्र की एक सीसे की मूर्ति प्राप्त हुई है,जो 6,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। पिरामिडों में भी सीसे की बनी कुछ वस्तुए मिली हैं। इन वस्तुओं को देखकर अनुमान लगाया गया है कि सीसे की खोज मिस्रवासियों ने की थी।

आज से 3000 वर्ष पूर्व सीसे का काफी इस्तेमाल किया जाता था। प्राचीन रोमनों ने सीसे का उपयोग सबसे अधिक किया था। वहां पानी के नल, बर्तन, घरेलू साज-सामान की वस्तुयें और मुद्राएं सीसे से बनाई जाती थीं। जहां सीसे ने रोमन सभ्यता के विकास में योगदान दिया, वहीं यह उसके पतन का कारण भी बनी। चूंकि सीसे के अधिक प्रयोग से शरीर में इसका जहर फैल जाता है, अत: रोम के लोगों की हड्डियों में सीसे की मात्रा बढ़ गई और उन्हें मानसिक रोगों ने आ घेरा। आजकल पेट्रोल में टेट्राएथिल लेड मिलाया जाता है। इसके धुएं में सीसा मिला रहता है, जो वायु प्रदूषण बढ़ाता है, लेकिन कुछ वर्षों से सीसारहित पेट्रोल बिक रहा है। सीसे के घातक प्रभाव मनुष्य पर ही नहीं, बल्कि पेड़-पौधों और जानवरों पर भी पड़ते हैं।

अधिकांश सीसा, गैलेना (लेड सल्फाइड) सेरूसाइट (लेड कार्बोनेट), और मैसी कोट (लैड ऑक्साइड) अयस्कों से ही निकाला जाता है। आस्ट्रेलिया और रूस में इन अयस्कों के विशाल भंडार हैं। इन अयस्कों को भट्ठियों में गर्म करके धातु प्राप्त की जाती है। इसका मुख्य अयस्क गैलेना है। इसे विद्युत अपघटन द्वारा शुद्ध किया जाता है।

सीसे का अधिक इस्तेमाल बंदूक के छर्रे, बिजली के केबल और लेड बैटरियां बनाने में किया जाता है। इसके अलावा कांच तैयार करने में, रंग और पेंट्स बनाने में तथा गंधकाम्ल बनाने में भी सीसा काम आता है। सीसा रेडियाऐक्टिव पदाथों से निकलने वाली खतरनाक किरणों और एक्स किरणों को अवशोषित कर लेता है। इसलिए नाभिकीय भट्ठियों की दीवारों में भी सीसा लगाया जाता है। टांका बनाने में टिन के साथ सीसे का प्रयोग किया जाता है।

सीसा कई यौगिक बनाता है। लेड ऑक्साइड बैटरियों में और लेड हाइड्राऑक्साइड पेंटों में प्रयोग किया जाता है। सीसे के यौगिक विषैले होते हैं, इसलिए इसका प्रयोग सावधानी से करना पड़ता है।


मैग्नेशियम
नाम मैग्नियम
संकेत Mg
परमाणु संख्या 12
परमाणु द्रव्यमान 24.305
रंग चाँदी जैसा सफेद
गलनांक 649.3°C
क्वथनांक 1090°C
घनत्व पानी से 1.7 गुना भारी

ब्रिटिश वैज्ञानिक सर हम्फ्री डेवी (सन् 1778-1829) ने सफेद मैग्नेशिया के चूर्ण से सन 1808 में एक नया धात्विक तत्व प्राप्त किया था। इस तत्व का नाम उन्होंने मैग्नियम रखा, जो बाद में मैग्नेशियम के नाम से जाना गया।

प्रकृति में मैग्नेशियम की प्रचुर मात्रा मौजूद है। झीलों और सागरों के पानी में यह धातु पाई जाती है। लगभग 200 खनिज ऐसे हैं, जिनमें मैग्नीशियम पाया जाता है। डोलोमाइट और मैग्नेसाइट, इसके दो मुख्य खनिज हैं। यह धातु मैग्नेशियम क्लोराइड में विद्युत धारा प्रवाहित करके प्राप्त की जाती है। पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं में भी यह तत्व मौजूद रहता है। पेड़-पौधे, जो हमारे जीवन के आधार हैं, उनका हरा रंग क्लोरोफिल के कारण होता है और क्लोरोफिल में मैग्नीशियम रहता है।

मैग्नीशियम की पतली पत्ती जलने पर तेज चमकीली रोशनी पैदा करती है। इसका चूर्ण आतिशबाजी में इस्तेमाल किया जाता है। इसके चूर्ण से बड़ी चमकीली सफेद रोशनी पैदा होती है। जीनॉन फ्लैश लाइट के विकास के पहले फोटोग्राफर रोशनी के लिए मैग्नेशियम का चूर्ण जलाते थे। मैग्नीशियम से महत्वपूर्ण मिश्र धातुएं बनाई जाती हैं। इसकी मिश्र धातु एल्युमिनियम से ज्यादा मजबूत और हल्की होती हैं। विमानों के पुर्जे, रॉकेट, अंतरिक्ष यानों आदि के निर्माण में इसका प्रयोग किया जाता है। मैग्नीशियम यौगिकों का उपयोग रंग, कपड़ा, रबड़, सीमेंट, और अग्निसह ईंटों के निर्माण में किया जाता है।

मैग्नीशियम ऑक्साइड, भट्ठियों में लाइनिंग के लिए प्रयुक्त किया जाता है। मैग्नीशियम सल्फेट और मैग्नीशियम हाइड्रॉक्साइड औषधि निर्माण में प्रयुक्त किए जाते हैं।

प्लैटिनम का वास्तविक ज्ञान तो लोगों को सोलहवीं शताब्दी में हुआ, लेकिन प्राचीन एजटेक सभ्यता के लोग बहुत पहले से प्लैटिनम के दर्पण बनाना जानते थे। उन दर्पणों में कांच नहीं होता था, बल्कि ये प्लैटिनम की समतल और पॉलिश की हुई शीटें होती थीं। अभी तक यह एक रहस्य ही है कि उन्होंने इस धातु को शीट का रूप देने के लिए इतना अधिक तापमान कैसे पैदा किया होगा। एजटेक के शासक मॉन्टेजुमा ने इस किस्म के कई दर्पण स्पेन के सम्राट के पास भेजे थे।

स्पेनवासी सोने के लालची थे। उन्होंने मैक्सिको और दक्षिण अमेरिका के बहुत से भागों को जीतकर वहां के सोने के खजाने लूट लिए थे। उन्हें पता चला कि अमेरिकी नदियों की रेत में सोना मिला हुआ है, जिसे छानकर निकाला जा सकता है।

स्पेनी सेना को कोलंबिया की नदी, प्लेटिनों डेल पिंटो के किनारे रेत के कणों से चांदी जैसी चमकीली एक अन्य धातु के कण भी मिले। सैनिकों ने उस धातु को बेकार समझकर फेंक दिया। वे लोग इसे प्लेटिनों कहते थे, जिसका अर्थ है घटिया चांदी। उन्हें क्या पता था कि यह धातु कभी सोने से भी अधिक महंगी हो जाएगी।


प्लैटिनम
नाम प्लेटिनो-डेन पिंटो (नदी के नाम पर)
संकेत Pt
परमाणु भार 78
परमाणु द्रव्यमान 195.09
रंग चांदी की तरह सफेद
गलनांक 1772°C
क्वथनांक 3800°C
घनत्व पानी से 21.5 गुना भारी

डॉन अंतोनिया डे अलोआ और डब्ल्यू. ब्राउनरिंग ने सन् 1748 में प्लैटिनम की खोज की थी। सन् 1803-04 में प्लैटिनम धातु में अन्य मिश्रित धातुओं का पता लगा। अंग्रेज रसायन विज्ञानी, विलियम हाइड वोलेस्टन ने रेडियम और पैलेडियम को सन् 1803 में एक-दूसरे से अलग किया। ओस्मियम और इरीडियम की खोज स्मिथसन टेनेन्ट ने सन् 1804 में की थी। रूसी वैज्ञानिक, काल कालोविच क्लॉस ने सन् 1845 में रूथेनियम की खोज की थी।

प्रकृति में प्लेटिनम धातु की मात्रा बहुत कम है। कनाडा और रूस से यह धातु सबसे अधिक मिलती है। दक्षिण अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका में भी प्लैटिनम पाया जाता है। यह कणों या नगेट के रूप में मिलती है।

प्लैटिनम सफेद रंग की बहुत ही चमकीली कीमती धातु है। यह सोने से भी कई गुना कीमती होती है। इसमें कभी जंग नहीं लगता। इस पर अम्लों का भी कोई प्रभाव नहीं होता। ताप सहन करने की भी इसमें बहुत अधिक क्षमता होती है। पॉलिश करने पर यह बहुत चमकदार बन जाती है।

प्लेटिनम के जेवरात बनाए जाते हैं। इस धातु का इस्तेमाल हवाई जहाज, रेडियो, टेलीविजन, मिसाइल, जेट इंजनों तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को बनाने में किया जाता है। उत्तल लेंसों के निर्माण में भी इस धातु का उपयोग किया जाता है। इस धातु के इलेक्ट्रोड भी बनाए जाते हैं। प्लैटिनम और चांदी की मिश्र धातुएं दांत भरने में प्रयुक्त होती हैं।

विज्ञान प्रयोगशालाओं में प्लैटिनम रेजिस्टेंस थर्मामीटर बनाये जाते हैं। आजकल प्लैटिनम से हीरे के जेवरात बनाए जाते हैं। प्लैटिनम आज की दुनिया में अत्यंत महंगी धातु है।


यूरेनियम
लैटिन नाम यूरेनियम (यूरेनस ग्रह के नाम पर)
संकेत Ս
परमाणु संख्या 92
परमाणु द्रव्यमान 238.03
रंग चांदी जैसा सफेद
समस्थानिक यूरेनियम 238, 232, 235
गलनांक 1132°C
क्वथनांक 3818°C
घनत्व पानी से 19 गुना भारी

यूरेनियम, एक रेडियाधर्मी धातु है। परमाणु ऊर्जा के उपयोग से पहले यह एक साधारण धातु थी। यूरोप के अनेक कांच निर्माता कांच और चीनी मिट्टी के बर्तनों के रंगने के लिए इसके यौगिकों का प्रयोग करते थे, लेकिन आज यूरेनियम एक महत्वपूर्ण तत्व है 4.5 किग्रा. यूरेनियम 235, की कीमत 200,000 डॉलर से भी अधिक है।

मार्टिन क्लाप्रोथ ने सन् 1789 में पिच ब्लेंड नामक अयस्क से यूरेनियम तत्व प्राप्त किया था और यूरेनस ग्रह के नाम पर इसका नाम यूरेनियम रखा था। फ्रांसीसी रसायन विज्ञानी, यूजीन पेलीगॉट ने सन् 1841 में शुद्ध यूरेनियम तत्व प्राप्त किया था।

यूरेनियम पृथ्वी की संपूर्ण ऊपरी सतह पर मौजूद है। इसका प्रमुख अयस्क पिच ब्लेंड है, जिसे यूरेनिनाइट भी कहा जाता है। यह अयस्क अफ्रीका, कांगो तथा कनाडा से अधिक मिलता है। इसके अलावा यह अयस्क ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, पूर्वी अफ्रीका और रूस में भी मिलता है।

यह एक सफेद रंग की धातु है। इसके लवणों के विलयनों को प्रकाश में रखने पर प्रतिदीप्ति दिखाई देती है। यह एक रेडियो एक्टिव तत्व है और विखंडन उत्पादों की एक श्रेणी देता है। यह एक ऐसा तत्व है, जो रेडियो क्षरण द्वारा धीरे-धीरे करोड़ों वर्षों में सीसे (लेड) में बदल जाता है। इस प्रक्रिया में रेडियम की तरह यूरेनियम से भी किरणे निकलती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, एक तत्व का एक परमाणु उसके बाकी परमाणुओं जैसा होना चाहिए, लेकिन रेडियोऐक्टिव तत्व यूरेनियम में ऐसा नहीं है। यह एक ऐसा तत्व है, जिसकी कई किस्में या समस्थानिक मौजूद हैं, जैसे-यूरेनियम-235 और यूरेनियम-238।

यूरेनियम-235 नाभिकीय ईधन है, जिससे नाभिकीय विखंडन में काफी अधिक ऊर्जा मुक्त होती है। नाभिकीय अस्त्रों और अधिकांश नाभिकीय रिएक्टरों में इसका प्रयोग किया जाता है। यूरेनियम-238 नाभिकीय श्रृंखला अभिक्रिया को दबा देता है, इसलिए इसका इस्तेमाल ब्रीडर रिएक्टरों में किया जाता है। इससे पैदा ऊष्मा से पानी गर्म करके और भाप बनाकर टरबाइनें चलाई जाती हैं तथा विद्युत पैदा की जाती है। यूरेनियम एक महत्वपूर्ण परमाणु ईंधन है। इसका उपयोग पानी की भाप बनाकर जनरेटरों को चलाने में किया जाता है। विश्व के बड़े-बड़े देशों में परमाणु विद्युत केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जिनमें विद्युत उत्पादन करके कोयले और पेट्रोल की बचत की जा रही है। एक ग्राम यूरेनियम से जितनी ऊर्जा मिलती है, उतनी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए लगभग 12,250 टन कोयले की जरूरत होती है। यूरेनियम को नाभिकीय रिएक्टरों में प्रयोग करने योग्य बनाने की तकनीक कुछ ही देशों के पास ही है। इसे यूरेनियम एनरिचमेंट कहा जाता है। इस तत्व ने दुनिया में तहलका मचा दिया है। यूरेनियम से परमाणु बम बनाए जाते हैं। यूरेनियम के तीन समस्थानिक हैं।

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