प्रकाश Light

प्रकाश ऊर्जा का वह रूप है, जो हमें वस्तुओं को देखने में मदद करता है। प्रकाश के बिना पेड़-पौधे जीवित नहीं रह सकते और पेड़-पौधों के बिना पृथ्वी पर जीवन असंभव है। प्रकाश एक प्रकार की विकिरण ऊर्जा है, जो अन्य ऊर्जाओं की तरह नजर नहीं आती।

अत: हम केवल उन वस्तुओं को ही देख पाते हैं, जिन पर प्रकाश ऊर्जा पड़ती है। आरंभ से ही प्रकाश मानव के लिए एक रहस्य रहा है। विभिन्न दार्शनिकों के वस्तुओं के दिखाई देने के संबंध में विभिन्न विचार रहे हैं। ईसा से छह शताब्दी पहले पाइथागोरस ने कहा था कि वस्तुओं से अनेक छोटी-छोटी कणिकाएं निकलती हैं और जब

प्रकाश के गमन की खोज

यदि प्रकाश के पथ में रखी अपारदर्शी वस्तु अत्यंत छोटी हो तो प्रकाश सरल रेखा में चलने की बजाय इसके किनारों पर मुड़ने की प्रवृत्ति दर्शाता है- इस प्रभाव को प्रकाश का विवर्तन कहते हैं। तब वह प्रकाशिकी, जिसमें सरल रेखीय व्यवहार के आधार पर किरणों का उपयोग करते हैं असफल होने लगती है। विवर्तन जैसी परिघटनाओं की व्याख्या करने के लिए प्रकाश को तरंग के रूप में माना जाता है। पुन, 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह स्पष्ट हो गया कि प्रकाश की द्रव्य क साथ अन्योन्यक्रिया के विवेचन में प्रकाश का तरंग सिद्धांत अपर्याप्त है तथा प्रकाश प्रायः कणों के प्रवाह की भाँति व्यवहार करता है। प्रकाश की सही प्रकृति के बारे में यह उलझन कुछ वर्षों तक चलती रही, जब तक कि प्रकाश का आधुनिक क्वांटम सिद्धांत उभर कर सामने नहीं आया, जिसमें प्रकाश को न तो तरंग माना गया न ही कण। इस नए सिद्धांत ने प्रकाश के संबंधी गुणों तथा तरंग प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित किया।

वे आंखों पर पड़ती हैं, तो वस्तुएं हमें दिखाई देने लगती हैं। एम्पीडोक्लीज के अनुसार आखों से छोटे-छोटे निकले कणों से ही वस्तु देखने योग्य बनती है। प्लेटो ने बताया कि आंखों से दिव्य किरणे निकलती हैं, जोकि सूर्य की किरणों से मिलकर वस्तु पर पड़ती हैं और तभी हमें वस्तु दिखाई देती है। अरस्तू को प्रकाश के सीधी रेखाओं में चलने तथा उसके परावर्तन के नियमों की जानकारी थी।

इसके बाद 1000 वर्ष तक प्रकाशिकी के विषय में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। लगभग 11वीं शताब्दी में प्रसिद्ध अरबी दार्शनिक अलहाजेन ने आंखों की सरंचना का अध्ययन किया और आख के कार्यों की व्याख्या की। उन्हें अपवर्तन के नियम अच्छी तरह ज्ञात थे। कहते हैं कि 13वीं शताब्दी में रोजर बेकर ने लेंसों के संयोग से दूरदर्शी और सूक्ष्मदर्शी बनाए।

विरल व सघन माध्यम

किसी माध्यम की प्रकाश की अपवर्तित करने की क्षमता को इसके प्रकाशिक घनत्व के द्वारा भी व्यक्त किया जा सकता है। प्रकाशिक घनत्व का एक निश्चित संपृक्तार्थ होता है। यह द्रव्यमान घनत्व के समान नहीं है। विरल माध्यम तथा सघन माध्यम शब्दों का अर्थ क्रमश: ‘प्रकाशिक विरल माध्यम’ तथा ‘प्रकाशिक सघन माध्यम’ है। हम कब कह सकते हैं कि कोई माध्यम दूसरे माध्यम की अपेक्षा प्रकाशिक सघन है, दूसरा कम अपवर्तनांक वाला माध्यम प्रकाशिक विरल माध्यम है। विरल माध्यम में प्रकाश की चाल सघन माध्यम, की अपेक्षा अधिक होती है। अत: विरल माध्यम से सघन माध्यम में गमन करने वाली प्रकाश की किरण धीमी हो जाती है तथा अभिलंब की ओर झुक जाती है। जब यह सघन माध्यम से विरल माध्यम में गमन करती हैं तो इसकी चाल बढ़ जाती है तथा यह अभिलंब से दूर हट जाती है।

16वीं शताब्दी में प्रकाश संबंधी अनेक छोटे-बड़े आविष्कार हुए, लेकिन 17वीं शताब्दी को प्रकाशिकी का महत्वपूर्ण काल कहा जा सकता है। इस युग में न्यूटन, हाइगेन्स तथा रोमर आदि वैज्ञानिकों ने प्रकाशिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण आविष्कार किए। न्यूटन ने करपस कूलर सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार प्रकाश कणों के रूप में चलता है। हाइगेन्स ने प्रकाश का तरंग सिद्धांत दिया तथा रोमर ने सन् 1675 में प्रकाश का वेग ज्ञात किया।


जेम्स क्लार्क मैक्सवैल ने सन् 1873 में बताया कि जब किसी परिपथ में चुम्बकीय अथवा विद्युतीय क्षेत्र किसी आवृत्ति में बदलता है, तो वह केवल परिपथ तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि परिपथ में हो रहे दोलनों से एक प्रकार की तरंगें पैदा होती हैं, जिन्हें विद्युत चुम्बकीय तरंगें कहते हैं, जो प्रकाश के वेग से चारों और फैलती हैं। इन तरंगों का प्रसरण विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र की आवर्त गति के कारण होता है। इन कम्पनों से विद्युत चुम्बकीय तरंगें प्रकाश की चाल से आगे फैलती जाती हैं। जब विद्युत या चुम्बकीय कम्पनों की आवृत्ति एक निश्चित सीमा में होती है, तो हमें ये कम्पन दृश्य प्रकाश के रूप में दिखाई देने लगते हैं। प्रकाश का रंग इन कम्पनों की आवृत्ति पर निर्भर करता है। हर्ट्ज ने सन् 1887 में प्रयोगशाला में विद्युत-चुम्बकीय तरंगें उत्पन्न करके यह सिद्ध कर दिया कि विद्युत चुम्बकीय तरंगों में प्रकाश के सभी गुण मौजूद होते हैं। विद्युत चुम्बकीय तरंगों के निम्नलिखित गुण हैं-

  1. ये तरंगें निर्वात में भी चल सकती हैं और निर्वात में इनका वेग, प्रकाश के वेग के बराबर होता है।
  2. विद्युत-चुम्बकीय तरंगें अनुप्रस्थ तरंगें होती हैं।

दृश्य प्रकाश के अतिरिक्त कुछ ऐसी भी तरंगें निकलती हैं, जिन्हें हम देख नहीं सकते, लेकिन उनका अनुभव कर सकते हैं। गामा किरणे, एक्स किरणे, पराबैंगनी किरणे, अवरक्त किरणे तथा रेडियो तरंगें, सभी विद्युत-चुम्बकीय तरंगें हैं।

सन 1900 ई. में मैक्स प्लांक ने ब्लैक बॉडी के विकिरण पर कार्य करते हुए देखा कि विकिरण के प्रायोगिक निष्कर्ष और प्रचलित सैद्धांतिक विवेचना में साम्यता नहीं है। उन्होंने एक नए सिद्धांत की खोज की, जिसे प्रकाश का क्वाण्टम सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा सतत रूप से नहीं बल्कि पैकटों के रूप में चलती है। ऊर्जा की इन छोटी-छोटी इकाइयों को क्वाण्टम कहते हैं। आइन्स्टाइन आदि वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत के महत्व को स्वीकार किया और यह भी मान लिया कि प्रकाश अत्यंत छोटे-छोटे कणों के रूप में चलता है, जिन्हें फोटॉन कहते हैं। प्रकृति में कुछ घटनाएं ऐसी भी हैं जिनकी व्याख्या क्वाण्टम सिद्धांत के आधार पर नहीं की जा सकती। प्रकाश की इस दोहरी प्रकृति से वैज्ञानिक बड़ी उलझन में पड़ गए, आखिर प्रकाश को वे किस रूप में मानें। अंत में इस समस्या का समाधान एक नए, नियमित और गणितीय सिद्धांत से हुआ। इस नए सिद्धांत का प्रतिपादन सन 1924 में हाइजनबर्ग और श्रोडिंगर द्वारा किया गया। फ्रांस के वैज्ञानिक, डी. ब्रोगली के अनुसार ‘इलेक्ट्रॉन को कण के रूप में या तरंग के रूप में मानने से कोई अंतर नहीं पड़ता, वह केवल एक संभावना की तरंग है और इसके आयाम का वर्ग किसी विशेष स्थान पर (प्रणाली में) उपस्थिति की संभावना को जाहिर करता है।’ आज का वैज्ञानिक यह चिंता ही नहीं करता कि प्रकाश एक तरंग है या कण।

विकिरण Radiation

यदि ऊर्जा का संचरण एक स्थान से दूसरे स्थान तक बिना किसी द्रव्यात्मक माध्यम के होता है, तो उसे विकिरण कहते हैं। विकिरण से तात्पर्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण से होता है। विद्युत चुम्बकीय तरंगों को चलने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही इन पर विद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्रों का कोई प्रभाव पड़ता है। एक्स-किरणे, अवरक्त किरणे, रेडियो तरंगें और फोटॉन आदि सभी विकिरण हैं। प्रत्येक विकिरण का अपना तरंगदैर्ध्य होता है और उसी के अनुसार उसके गुण होते हैं। दृश्य प्रकाश भी एक प्रकार का विकिरण है, जो आखों को नजर आता है। इसे दृश्य विकिरण कहते हैं। दृश्य विकिरण की तरंगदैर्ध्य लगभग 4000A° से 8000A° तक होती है। जिस विकिरण की तरंगदैर्ध्य 4000A° से कम या 8000A° से अधिक होती है, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। ऐसे विकिरणों को अदृश्य विकिरण कहते हैं, जैसे- अवरक्त किरणे, पराबैंगनी किरणे, गामा किरणे, एक्स किरणे आदि।

प्रकाशित वस्तुएं

प्रदीप्त वस्तुएं: वे जो स्वयं के प्रकाश से प्रकाशित हों, जैसे- सूर्य, विद्युत, बल्ब आदि।

अप्रदीप्त वस्तुएं: वे वस्तुएं, जिनमें स्वयं का प्रकाश नहीं होता परन्तु प्रकाश पड़ने पर दिखाई देने लगती हैं, जैसे- कुर्सी, मेज, किताब आदि।

पारदर्शक वस्तुएं: जिनसे होकर प्रकाश किरणे पार निकल जाती हैं, जैसे- शीशा।

अर्धपारदर्शक वस्तुएं: ऐसी वस्तुएँ, जिन पर प्रकाश की किरणे पड़ने पर उनका कुछ भाग अवशोषित हो जाता है तथा कुछ भाग बाहर निकल जाता है, जैसे- तेल लगा हुआ कागज।

अपारदर्शक वस्तुएं: ऐसी वस्तुएं, जिनसे प्रकाश की किरणें बाहर नहीं निकल पाती हैं, जैसे- धातुएं, लकड़ी आदि।

छाया

प्रकाश स्रोत के सामने किसी अपारदर्शक वस्तु को रखने से वस्तु के पीछे बनने वाली काली आकृति को छाया कहते हैं। यह प्रकाश स्रोत की आकृति पर निर्भर करता है। यदि स्रोत कोई बिन्दु स्रोत है तो बनने वाली छाया को प्रच्छाया और यदि वृहत् स्रोत है, तो बनने वाली छाया को उपछाया कहते हैं।

प्रकाश का संचरण

प्रकाश किरणे यद्यपि सीधी रेखा में गमन करती है फिर भी अवरोधों के किनारे पर कुछ मुड़ती अवश्य है। तरंगदैर्ध्य अत्यंत छोटी होने के कारण महसूस बहुत कम होती है। प्रकाश का अवरोधों के किनारे मुड़ने की घटना को प्रकाश का विवर्तन कहते हैं।

प्रकाश की चाल

भिन्न भिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल भिन्न भिन्न होती है। वायु तथा निर्वात में प्रकाश की चाल सर्वाधिक होती है। चाल माध्यम के अपवर्तनांक पर निर्भर करती है। जिस माध्यम का अपवर्तनाँक जितना अधिक होता है, उसमें प्रकाश की चाल उतनी ही कम होती है किसी माध्यम मे प्रकाश की चाल ज्ञात करने हेतु सूत्र -u = c/μ का प्रयोग करते हैं, जहाँ u प्रकाश की चाल, c प्रकाश की निर्वात में चाल तथा μ माध्यम का अपवर्तनांक है।

विभिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल
माध्यम प्रकाश की चाल (मी./सेकेण्ड)
निर्वात 3.00 x 108
पानी 2.25 × 108
कांच 2.00 x 108
तारपीन तेल 2.04 x 108
नाइलोन 1.96 × 108

पृथ्वी तक आने में सूर्य के प्रकाश को लगभग 500 सेकेंड या 8 मिनट लगते हैं।

सूर्यग्रहण: जब चन्द्रमा, सूर्य तथा पृथ्वी के बीच आ जाता है तो सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाता है। इस स्थिति को सूर्य ग्रहण कहते हैं। यह अमावस्या को ही हो सकता है।

चन्द्र ग्रहण: जब पृथ्वी, सूर्य तथा चन्द्रमा के बीच आ जाती है तब सूर्य से निकलने वाला प्रकाश चन्द्रमा पर नहीं पाता है। ऐसी स्थिति चन्द्रग्रहण कहलाती है। यह पूर्णिमा को ही हो सकता है।

प्रकाश का परावर्तन Reflection of Light

जब प्रकाश किसी चिकने या चमकदार पृष्ठ पर पड़ता है तो इसका अधिकांश भाग विभिन्न दिशाओं में वापस लौट जाता है। इस प्रकार किसी पृष्ठ से टकराकर प्रकाश के वापस लौटने की घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं। यदि पृष्ठ अपारदर्शक है तो इसका कुछ भाग अवशोषित हो जाता है। यदि पारदर्शक है तो कुछ भाग पृष्ठ के पार निकल जाता है। चिकने व चमकदार पॉलिश की गई सतहें अधिकांश प्रकाश को परावर्तित कर देती हैं। समतल दर्पण प्रकाश का सबसे अच्छा परावर्तक होता है। परावर्तक पृष्ठ के लम्बवत् सीधी रेखा को अभिलम्ब तथा जो किरण परावर्तक तल पर आकर गिरती है, उसे आपतित किरण एवं जो किरण परावर्तन के पश्चात् वापस लौट जाती है, उसे परावर्तित किरण कहते हैं। आपतित किरण व अभिलम्ब के बीच के कोण को आपतन कोण एवं अभिलम्ब एवं परावर्तित किरण के बीच के कोण को परावर्तन कोण कहते हैं।

प्रकाश का परावर्तन दो नियमों पर आधारित होता है:

  1. आपतित किरण, परावर्तित किरण व अभिलम्ब एक ही तल में होते हैं।
  2. आपतन कोण, परावर्तन कोण के बराबर होता है।

समतल दर्पण से किसी बिन्दु पर वस्तु का प्रतिबिम्ब, दर्पण के पीछे उतनी ही दूरी पर बनता है, जितनी दूरी पर वस्तु दर्पण के सामने रखी होती है। यह प्रतिबिम्ब आभासी होता है तथा वस्तु के बराबर होता है।

  • यदि कोई व्यक्ति n चाल से दर्पण की ओर चलता है तो उसे दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब 2n चाल से अपनी ओर आता हुआ दिखायी देगा।
  • यदि आपतित किरण को नियत रखते हुए दर्पण को q° कोण से घुमा दिया जाए तो परावर्तित किरण 2q° कोण से घूम जाती है।
  • दर्पण में यदि कोई मनुष्य अपना पूरा प्रतिबिम्ब देखना चाहता है तो दर्पण की न्यूनतम ऊंचाई, मनुष्य की ऊंचाई की आधी होनी चाहिए।
  • समतल दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब काल्पनिक, सीधा तथा latterly reversed है।

प्रकाश का अपवर्तन Refraction of Light

प्रकाश का एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करते समय, दूसरे माध्यम की सीमा पर अपने रेखीय पथ से विचलित होने की घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं।

जब प्रकाश की किरण विरल माध्यम से सघन माध्यम में प्रवेश करती है तो किरण, सघन माध्यम के पृष्ठ से अभिलम्ब की ओर मुड़ जाती है। जब किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है तो विरल माध्यम के पृष्ठ से ही अभिलम्ब से दूर हट जाती है। लेकिन जो किरण लम्बवत् किसी भी माध्यम में प्रवेश करती है, वह किसी भी तरफ न झुककर सीधे निकल जाती है।

प्रकाश को अपवर्तन का कारण भिन्न भिन्न माध्यमों में वेग का भिन्न-भिन्न होना है।

अयातित् आयतन कोण

किसी माध्यम का अपवर्तनांक भिन्न रंगों के प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न होता है। प्रकाश की तरंगदैर्ध्य बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम होता जाता है। दृश्य प्रकाश में लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैगनी रंग का सबसे अधिक होता है, कारण लाल रंग की तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक व बैगनी रंग की सबसे कम होती है। ताप बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम होता जाता है। अपवर्तन की क्रिया में प्रकाश की चाल, तरंगदैर्ध्य तथा तीव्रता बदल जाती है परन्तु आवृत्ति नहीं बदलती है। अपवर्तन के कारण ही पानी में डूबी हुई कोई लकड़ी या चम्मच, बाहर से देखने पर टेढ़ी दिखती है। रात्रि में तारों का टिमटिमाना, तालाब की गहराई कम प्रतीत होना, सूर्य का क्षितिज के नीचे होने पर भी दिखाई देना आदि अपवर्तन के कारण होते हैं। जल में किसी वस्तु की आभासी गहराई ज्ञात होने पर इसमें जल के अपवर्तनांक का गुणा कर देने से वास्तविक गहराई का पता चल जाता है।

प्रकाश के अपवर्तन की घटनाएं

  1. द्रव में अंशत: डूबी हुई सीधी छड़, अपवर्तन के कारण ही टेढ़ी दिखायी देती है।
  2. प्रकाश के अपवर्तन के कारण ही तारे टिमटिमाते हुए दिखायी देते हैं।
  3. सूर्योदय के समय सूर्य क्षितिज के नीचे ही होता है (अर्थात् सूर्योदय होने से पहले ही) तब भी वह दिखायी दे जाता है।
  4. सूर्यास्त के समय, सूर्य क्षितिज के नीचे चला जाता है अर्थात् वह वास्तव में अस्त हो गया होता है तब भी वह दिखायी देता रहता है। ऐसा प्रकाश के अपवर्तन के कारण होता है।
  5. किसी बर्तन की तली में पड़ा हुआ सिक्का (coin) ऊपर उठा हुआ दिखायी देता है, यह भी अपवर्तन का ही परिणाम है।

पूर्ण आतंरिक परावर्तन

जब प्रकाश सधन माध्यम से विरल माध्यम से प्रवेश करता है तो अपवर्तित किरण, अभिलम्ब से दूर हटती जाती है। जैसे आपतन कोण का मान बढ़ाते जाते हैं, अपवर्तित किरण अभिलम्ब से दूर हटती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है, जब आपतन कोण के लिए अपवर्तन कोण का मान 90° हो जाता है। ऐसी स्थिति जिसमें अपवर्तित कोण का मान 90° हो, वह आपतन कोण, क्रान्तिक कोण कहलाता है। जब आपतित कोण को क्रान्तिक कोण से और बड़ा कर दिया जाता है तो किरण पुन: उसी माध्यम में लौट जाती है, जिस माध्यम से चली थी। इसी घटना को प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहते हैं।

इसके बहुत से उदाहरण हैं, जैसे – हीरे का चमकना, गर्म व ठण्डे प्रदेशों में मरीचिका का दिखायी देना, टूटे कांच का अधिक चमकना, आशिक जल से भरी परखनली को जल में डुबाने पर चांदी की तरह चमकना आदि।

चिकित्सा, प्रकाशीय सिग्नल के संचरण, विद्युत सिग्नलों को भेजने व प्राप्त करने में आप्टिकल फाइबर का उपयोग होता है, जो पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर कार्य करता है, जिसके कुछ उदाहरण निम्न हैं-

  1. जल में पड़ी हुई परखनली चमकीली दिखायी देती है।
  2. कांच में आयी दरारें चमकती हैं।
  3. कालिख से पुता हुआ गोला जल में चमकता है।

मरीचिका

जब प्रकाश की कोई किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है, तो वह अभिलंब से दूर हट जाती है। आपतित कोण के बढ़ने पर अपवर्तित कोण बढ़ता जाता है। आपतित कोण के एक निश्चित मान पर अपवर्तित कोण 90° अंश का हो जाता है। आपतित कोण के इस मान को क्रांतिक कोण कहते हैं। जब आपतित कोण का मान क्रांतिक कोण से अधिक हो जाता है, तो विरल माध्यम में प्रकाश नहीं जाता, बल्कि सघन माध्यम में ही परावर्तित हो जाता है। इसे प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते हैं। पूर्ण आंतरिक परावर्तन के प्रकृति में अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। रेगिस्तान और ठंडे प्रदेशों में मरीचिका का कारण भी प्रकाश का पूर्ण आतरिक परावर्तन ही है।

रेगिस्तान की मरीचिका

आम तौर पर गर्मियों में दोपहर के समय रेगिस्तान में सफर करने वाले यात्रियों को कुछ दूरी पर पानी होने का भ्रम हो जाता है। इसी भ्रम को रेगिस्तान की मृगतृष्णा या मरीचिका कहते हैं।

रेगिस्तान की रेतीली भूमि गर्मी को कारण अधिक गर्म हो जाती है। इसलिए धरती के पास हवा की गर्म पर्ते विरल हो जाती हैं, लेकिन ऊपर की पर्तें ठंडी होने के कारण वे अपेक्षाकृत सघन होती हैं।

ऐसी अवस्था में किसी वस्तु या पेड़ की चोटी से आने वाली प्रकाश की किरणे वायु की विभिन्न पतों से अपवर्तित होकर अभिलंब से दूर हटती जाती है। एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जबकि हवा की किसी पर्त पर इन किरणों का आपतन कोण क्रमागत पतों के लिए क्रांतिक कोण से अधिक हो जाता है। इससे इन किरणों का पूर्ण आतरिक परावर्तन हो जाता है। अब ये किरणे ऊपर के माध्यम में परावर्तित होकर यात्रियों की आंखों तक पहुंच जाती हैं। इस प्रकार यात्रियों को पेड़ का उल्टा प्रतिबिंब दिखाई देता है। उल्टे प्रतिबिंब से उन्हें ऐसा लगता है, जैसे आगे पानी है।

रेगिस्तानों में यही आभास हिरण को भी होता है और वह पानी प्राप्त करने की चाह में दौड़-दौड़कर अपने प्राण गवां देता है।

ठंडे प्रदेशों में मरीचिका

रेगिस्तान की तरह ठंडे प्रदेशों में भी यह दृश्य देखने को मिलते हैं। इसे ठंडे प्रदेश की मरीचिका कहते हैं। इटली के दक्षिणी किनारे पर एक गांव ऐसा भी है, जहां के लोगों को अक्सर पास ही सिसली द्वीप में एक उलटा नगर बसा हुआ नजर आता है। यह फैटा मोरगाना कहलाता है।

ठंडे प्रदेशों में भूमि के पास की हवा ठंडी होकर सघन हो जाती है, लेकिन ऊपरी पर्तें अपेक्षाकृत गर्म होती है। इस प्रकार हवा की विभिन्न पर्तें धरातल से ऊपर की ओर विरल होती जाती है। दूर समुद्र में तैरते हुए किसी जहाज या अन्य वस्तु से आने वाली कोई किरण हवा की विभिन्न पर्तों से अपवर्तित होकर अभिलंब से दूर हटती जाती है और ये स्थिति आ जाती है, जब हवा की किसी परत पर आपतन कोण क्रांतिक कोण से अधिक हो जाता है और प्रकाश का पूर्ण परावर्तन होने लगता है। परावर्तन को कारण यह किरण हवा की विभिन्न पतों से अपवर्तित होकर अभिलंब की ओर झुकती है और हमें समुद्र में तैरता हुआ जहाज या बहुत दूर का कोई दृश्य आकाश में उलटा लटका हुआ दिखाई देता है। ऐसी मरीचिका में क्षितिज के आस-पास लगभग 120 डिग्री तक पहाड़ियां और बफीली चोटियां आदि उल्टी नजर आती हैं।

पूर्ण आंतरिक परावर्तन के और भी उदाहरण हैं, जैसे- हीरे का अलग-अलग कोणों पर काटना पूर्ण परावर्तन के कारण उसमें चमक पैदा करता है।

एक 90° अंश के प्रिज्म से प्रकाश पूर्ण आतंरिक परावर्तन के लिए दो बातें जरूरी हैं-

  • प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जानी चाहिए।
  • सघन माध्यम में आपतन कोण का मान, क्रांतिक कोण से अधिक होना चहिए।

प्रतिविम्ब Image Formation

जब कोई वस्तु दर्पण के सामने रखी जाती है तो वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणे दर्पण के तल से परावर्तित होकर दर्शक की आंखों पर पड़ती हैं, जिससे दर्शक को वस्तु की आकृति दिखाई देती है, इस आकृति को ही वस्तु का प्रतिबिम्ब कहते हैं।

किसी स्रोत से चलने वाली प्रकाश किरणे किसी तल से परावर्तन या अपवर्तन के पश्चात् जिस बिन्दु पर मिलती हैं, वह बिंदु स्रोत का वास्तविक प्रतिबिम्ब कहलाता है तथा प्रकाश किरणे परावर्तन या अपवर्तन के पश्चात् जिस बिंदु से फैलती हुई प्रतीत हों, वह बिन्दु स्रोत का आभासी प्रतिबिम्ब कहलाता है। आभासी प्रतिबिम्ब को परदे पर नहीं लिया जा सकता है, जब कि वास्तविक प्रतिबिम्ब को पर्दे पर लिया जा सकता है।

समतल दर्पण से बना वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी ही दूरी पर बनता है, जितनी दूरी पर वस्तु दर्पण के सामने रखी होती है। दर्पण में बने प्रतिबिम्ब में पार्श्व उत्क्रमण होता है, अर्थात् दर्पण के सामने खड़ा व्यक्ति यदि अपना बायां हाथ उठाता है तो प्रतिबिम्ब में उसका दायां हाथ उठता दिखेगा। दर्पण में वस्तु का सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब देखने के लिए कम-से-कम दर्पण की लम्बाई, वस्तु की आधी होनी चाहिए। दर्पण के सामने यदि कोई व्यक्ति किसी चाल से पास या दूर जाता है, तो उसे अपना प्रतिबिम्ब दुगनी चाल से पास या दूर जाता हुआ प्रतीत होगा।

 यदि किसी कोण पर झुके हुए दो समतल दर्पणों के बीच कोई वस्तु रख दें तो उस वस्तु के कई प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं। प्रतिबिम्बों की संख्या दोनों दर्पणों के बीच बने कोण पर निर्भर करती है।

यदि दो समतल दर्पण एक-दूसरे के समानान्तर रख दिये जाय तो इनके बीच शून्य अंश का कोण बनेगा और दर्पणों के बीच रखी वस्तु के अनन्त प्रतिबिम्ब बनेंगे। बहुमूर्तिदर्शी के अन्दर दो समतल दर्पण 60° पर झुके होते हैं, जिससे वस्तु के कई प्रतिबिम्ब दिखते हैं।

गोलीय दर्पण

किसी खोखले गोले के गोलीय पृष्ठ होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं- उत्तल एवं अवतल दर्पण। उभरे हुए तल वाले, जिसमें पॉलिश अन्दर की ओर की जाती है, उत्तल दर्पण तथा दूसरा जिसका तल दबा होता है, पॉलिश बाहरी सतह पर होती है, अवतल दर्पण कहते हैं। उत्तल दर्पण में प्रकाश का परावर्तन उभरे हुए बाहरी सतह से एवं अवतल दर्पण में परावर्तन दबे हुए आन्तरिक सतह से होता है।

गोलीय दर्पण (उत्तल या अवतल) के परावर्तक तल के मध्य बिंदु को दर्पण का ध्रुव कहते हैं।

दर्पण जिस गोले का भाग होता है उसके केन्द्र को दर्पण का वक्रता केन्द्र कहते हैं।

दर्पण को ध्रुव को वक्रता कोन्द्र को मिलाने वाली रेखा को दर्पण का मुख्य अक्ष कहते हैं।

दर्पण के मुख्य अक्ष के समानान्तर आने वाली किरणे, दर्पण से परावर्तन के पश्चात् जिस बिंदु पर मिलती हैं या मिलती प्रतीत होती हैं, उस बिंदु को मुख्य फोकस कहते हैं। मुख्य फोकस तथा धुव को बीच की दूरी को फोकस दूरी कहते हैं। फोकस दूरी, ध्रुव व मुख्य फोकस के ठीक बीच में पड़ती है।

  • उत्तल दर्पण हमेशा आभासी, सीधा व छोटा प्रतिबिम्ब बनाता है।
  • अवतल दर्पण आभासी, सीधा व बड़ा प्रतिबिम्ब बनाएगा कोई वस्तु अवतल दर्पण के समीप उसकी फोकस दूरी से

केवल तब जब वस्तु दर्पण के आगे P (ध्रुव) व F (फोकस) को मध्य रखी हो।

दर्पणों की पहचान

दर्पणों को दो विधियों से पहचानते हैं:

  1. स्पर्श करके: यदि परावर्तक तल एकदम समतल है तो दर्पण समतल, यदि परावर्तक तल बीच में उभरा है तो उत्तल और यदि परावर्तक तल बीच में दबा हुआ है, तो दर्पण अवतल दर्पण होगा।
  2. प्रतिबिम्ब को देख करके: यदि दर्पण में बना प्रतिबिम्ब वस्तु को दर्पण से दूर ले जाने पर छोटा होता जाता है तो दर्पण उत्तल होगा, यदि वस्तु का प्रतिबिम्ब सीधा है व वस्तु दूर ले जाने पर बढ़ता जाता है तो दर्पण अवतल होगा और यदि प्रतिबिम्ब का आकार स्थिर रहता है तो दर्पण समतल दर्पण होगा।

गोलीय दर्पणों के उपयोग

  1. अवतल दर्पण: सूर्य से आती हुई किरणे दर्पण से परावर्तित होकर फोकस दूरी पर मिलती हैं, इसका उपयोग सूर्य से प्राप्त ऊष्मा को एकत्रित करने में सोलर कुकर में किया जाता है क्योंकि इससे काफी मात्रा में ऊष्मा को एकत्रित किया जा सकता है। आकाशीय पिण्डों, तारों आदि की फोटोग्राफी करने के लिए परावर्तक दूरदर्शी में बड़े-बड़े अवतल दर्पणों का उपयोग होता है। कान, नाक व गले के आन्तरिक भागों की जाँच के लिए भी इसका उपयोग होता है क्योंकि यदि कोई वस्तु अवतल दर्पण के समीप उसकी फोकस दुरी से कम दूरी पर स्थिर की जाती है तो वस्तु का सीधा, आभासी व वस्तु के आकार से बड़ा प्रतिबिम्ब बनता है। सर्चलाइट तथा मोटरगाड़ियों की हेडलाइट में परवलयाकार अवतल दर्पण की पह प्रयुक्त होता है क्योंकि इसके समीप लगे बल्ब से निकलने वाली प्रकाश किरणे दर्पण से परावर्तित होकर तीव्रता की किरणों में परिवर्तित हो जाती हैं।
  2. उत्तल दर्पण: उत्तल दर्पण में वस्तु का प्रतिबिम्ब आभासी एवं वस्तु से छोटा एवं सीधा होता है। अर्थात् उत्तल दर्पण में काफी बड़े क्षेत्र की वस्तु का प्रतिबिम्ब छोटे क्षेत्र में बन जाता है। स्पष्ट है कि उत्तल दर्पण का दृष्टि क्षेत्र अधिक होता है। इसका उपयोग– मोटर गाडियों में चालक के बगल से पीछे के दृश्यों को देखने के लिए किया जाता है। सड़क पर लगे परावर्तक लैम्पों में भी इसका उपयोग होता है क्योंकि ये प्रकाश को अधिक क्षेत्र में फैलाते हैं।

लेंस

दो तलों से घिरा, जिसके दोनों तल दो गोलों के पारदर्शक खण्ड होते हैं, लेंस कहलाता है। इनका उपयोग सभी प्रकाशीय यन्त्रों, जैसे- कैमरा, प्रोजेक्टर्स, टेलिस्कोप एवं सूक्ष्मदर्शी आदि में किया जाता है। ये काँच (मुख्यत:) या प्लास्टिक के बने होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं- उत्तल लेंस एवं अवतल लेंस।

उत्तल लेंस: उत्तल लेंस बीच में मोटा तथा किनारों पर पतला होता है। उत्तल लेंस, अनन्त से आने वाली किरणों को सिकोड़ता है इसीलिए इसे अभिसारी भी कहते हैं। उत्तल लेंस तीन प्रकार के होते हैं – उभयोत्तल, समतल उत्तल, अवतलोत्तल लेंस।

अवतल लेंस: यह बीच में पतला एवं किनारों पर मोटा होता है। अवतल लेंस अनन्त से आने वाली किरणों को फैलाता है, इसे अपसारी लेंस भी कहते हैं। यह भी तीन प्रकार के होते हैं – उभयावत्तत, समतल अवतलत तथा उत्तलावतल लेंस।

लेंस के दोनों तलों के वक्रता कद्रों को जोड़ने वाली रेखा लेंस का मुख्य अक्ष कहलाती है। लेंसों में दो फोकस तथा दो वक्रता केन्द्र होते हैं। लेंस के द्वितीय फोकस को मुख्य फोकस भी कहते हैं। उत्तल लेंस में फोकस, वास्तविक तथा अवतल लेंस में आभासी होता है। उत्तल लेंस की फोकस दूरी धनात्मक, तथा अवतल लेंस की ऋणात्मक होती है।

लेंस के मध्य में स्थित बिन्दु को लेंस का प्राकाशिक केंद्र कहते हैं। यदि लेंस के दोनों ओर का माध्यम एक समान हो तो लेंस की दोनों फोकस दूरियाँ बराबर होती हैं।

लेन्स द्वारा प्रकाश का अपवर्तन

दो गोलीय पृष्ठों से घिरे हुए किसी अपवर्तक माध्यम को लेन्स कहा जाता है। लेन्स दो प्रकार के होते हैं- उत्तल लेन्स (Convex Lens) तथा अवतल लेन्स (Concave Lens)।

लेंस की क्षमता

उत्तल लेंस में जब प्रकाश किरणे मुख्य अक्ष के समानान्तर चलती हुई लेंस पर आपतित होती हैं तो यह लेंस अपवर्तन के पश्चात् उन किरणों को मुख्य अक्ष की ओर मोड़ देता है तथा अवतल लेंस इन किरणों को मुख्य अक्ष से दूर हटा देता है। इस प्रकार लेंस का कार्य उस पर आपतित होने वाली किरणों को मोड़ना है। इसी को लेंस की क्षमता कहते हैं। जो लेंस किरणों को जितना अधिक मोड़ता है उसकी क्षमता उतनी ही अधिक होती है। कम फोकस दूरी के लेंसों की क्षमता अधिक तथा अधिक फोकस दूरी के लेंसों की क्षमता कम होती है। लेंस की क्षमता का मात्रक डायोप्टर है। उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक, एवं अवतल लेंस की ऋणात्मक होती है। दो लेंसों को सटाकर रखने पर उनकी क्षमताएं जुड़ जाती हैं। जब समान फोकस दूरी के उत्तल व अवतल लेंसों को परस्पर मिलाया जाता है तो ये समतल काँच की भाँति व्यवहार करते हैं। इनकी क्षमता शून्य एवं फोकस दूरी अनन्त होती है।

[latex]P=\frac { 1 }{ F }[/latex] (f/ मीटर में होगा)

लेंस को किसी द्रव में डुबोने पर लेंस की फोकस दूरी व क्षमता, दोनों परिवर्तित हो जाती है।

यदि ऐसे द्रव में किसी लेंस के डुबोया जाय जिसका अपवर्तनांक लेंस के अपवर्तनांक से कम हो, तो लेंस की फोकस दूरी बढ़ती है और क्षमता घट जाती है। परन्तु लेंस की प्रकृति अपरिवर्तित रहती है।

यदि ऐसे द्रव में लेंस को डुबोया जाये, जिसका अपवर्तनांक लेंस के अपवर्तनाँक के बराबर हो तो लेंस की फोकस दूरी अनन्त व क्षमता शून्य हो जाती है और लेंस समतल प्लेट की भाँति व्यवहार करेगा व दिखाई नहीं देगा।

यदि ऐसे द्रव में किसी लेंस को डुबोया जाय कि जिसका अपवर्तनाँक लेंस के अपवर्तनांक से अधिक हो तो लेंस की प्रकृति बदल जायेगी। इसी कारण पानी में डूबा हवा का बुलबुला (उत्तल प्रकृति है) अवतल लेंस की भाँति व्यवहार करता है, क्योंकि जल का अपवर्तनाँक हवा से अधिक होता है।

उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक होती है।

अवतल लेंस की क्षमता ऋणात्मक होती है।

प्रकाश का वर्ण विक्षेपण

सूर्य का प्रकाश जब किसी प्रिज्म से गुजरता है, तब अपवर्तन के कारण प्रिज्म के आधार की ओर झुकने के साथ-साथ विभिन्न रंगों के प्रकाश में बंट जाता है। इस प्रकार प्राप्त रंगों के समूह को वर्णक्रम कहते हैं तथा प्रकाश के विभिन्न रंगों में विभक्त होने की प्रक्रिया को वर्ण विक्षेपण कहते हैं। सूर्य के प्रकाश से प्राप्त रंगों में बैगनी रंग का विक्षेपण अधिक होने के कारण सबसे नीचे तथा लाल रंग का विक्षेपण कम होने के कारण सबसे ऊपर प्राप्त होता है। नीचे से ऊपर की ओर विभिन्न रंगों का क्रम क्रमश: बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी तथा लाल है।

इसे संक्षेप में, बैजनीहपीनाला कहते हैं। लालरंग की तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक व अपवर्तनांक सबसे कम तथा वेग भी सर्वाधिक होता है। बैगनी रंग के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य सबसे कम व वेग भी कम होता है क्योंकि इसका अपवर्तनांक अधिक होता है। प्रकाश की तरंगदैर्ध्य को एंग्स्ट्राम में मापते हैं। किसी पदार्थ में जैसे-जैसे प्रकाश के रंगों का अपवर्तनांक बढ़ता जाता है, वैसे-माध्यम में उसकी चाल कम होती जाती है।

इन्द्रधनुष

इन्द्रधनुष बनने का कारण परावर्तन, पूर्ण आंतरिक परावर्तन तथा अपवर्तन है। इन्द्रधनुष हमेशा सूर्य के विपरीत दिशा में दिखायी देता है और यह प्रात: पश्चिम में एवं सायंकाल पूर्व दिशा में ही दिखायी देता है। इन्द्र धनुष दो प्रकार का होता है – प्राथमिक एवं द्वितीयक।

जब बूंदों पर आपतित सूर्य किरणों को दो बार अपर्वन तथा एक बार परावर्तन होता है तो प्राथमिक इन्द्रधनुष बनता है। इसमें लाल रंग बाहर और बैगनी रंग अन्दर की ओर होता है।

जब बूंदों पर आपतित सूर्य किरणों का दो बार अपवर्तन तथा दो बार परावर्तन हो तो द्वितीयक इन्द्रधनुष बनता है। इसमें लाल रंग अन्दर की ओर कुछ धुंधला दिखायी देता है।

इन्द्रधनुष

  • यह वर्षा के समय या वर्षा के बाद बनता है। इसका निर्माण जल की छोटी-छोटी बूंदों द्वारा वर्ण-विक्षेपण के कारण होता है।
  • सूर्य की सफेद किरण, जब जल-बूंदों पर पड़ती हैं तो उसके प्रकाश का बूंद के भीतर के अवतल तल से पूर्ण आंतरिक परावर्तन होता है।
  • जब यह बूंद से बाहर निकलने लगती है तो विक्षेपित हो जाती है और इस प्रकार विभिन्न रंग दिखाई पड़ते हैं।
  • कभी-कभी दो इंद्रधनुष दिखाई देते हैं। दूसरा इंद्रधनुष बूंदों में दो बार आतरिक परावर्तन होने के कारण बनता है।
  • दोनों का एक ही केंद्र होता है और यह सूर्य के ठीक विपरीत दिशा में होता है।
  • जब दो इंद्रधनुष बनते हैं तो एक को प्राथमिक और दूसरे को द्वितीयक इंद्रधनुष कहते हैं।

प्रकाश का प्रकीर्णन Scattering of Light

जब सूर्य का प्रकाश वायुमण्डल से गुजरता है तो प्रकाश वायुमण्डल में उपस्थित कणों द्वारा विभिन्न दिशाओं में फैल जाता है, इसी प्रक्रिया को प्रकाश का प्रकीर्णन कहते हैं। किसी रंग का प्रकीर्णन उसकी तरंगदैर्ध्य पर निर्भर करता है। जिस रंग के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य कम होती है, उसका प्रकीर्णन अधिक तथा अधिक तरंगदैर्ध्य वाले का प्रकीर्णन कम होता है। सूर्य के प्रकाश में बैगनी रंग का तरंगदैर्ध्य सबसे कम होने के कारण प्रकीर्णन सर्वाधिक तथा लाल रंग की तरंगदैर्ध्य सर्वाधिक होने के कारण प्रकीर्णन सबसे कम होता है। बैगनी रंग का प्रकीर्णन सर्वाधिक होने के कारण ही आकाश नीला दिखाई देता है। और लाल रंग के प्रकीर्णन कम होने के कारण ही डूबते व उगते समय सूर्य लाल दिखाई देता है क्योंकि अन्य रंगों का प्रकीर्णन हो जाता है। प्रकीर्णन के कारण ही समुद्र का पानी भी नीला दिखाई देता है। अन्तरिक्ष से अन्तरिक्ष यात्रियों को आकाश काला दिखाई देता है क्योंकि वहां वायुमण्डल न होने के कारण प्रकाश का प्रकीर्णन नहीं होता है। चन्द्रमा से भी आकाश काला ही दिखाई देता है।

[latex]S=\frac { 1 }{ { \lambda  }^{ 4 } }[/latex]

S → प्रकीर्णन (Scattering)

λ → तरंगदैर्ध्य

वस्तुओं का रंग

प्रकाश किरणें जब वस्तुओं पर पड़ती हैं तो वे वस्तु से परावर्तित होकर देखने वाले की आँखों में प्रवेश करती है और वस्तु दिखाई देने लगती है। वस्तुएं प्रकाश का कुछ भाग परावर्तित करती हैं तथा कुछ भाग अवशोषित करती हैं। प्रकाश का परावर्तित भाग ही वस्तुओं का रंग निर्धारित करता है। जैसे- गुलाब की पत्तियाँ हरे रंग को तथा पंखुड़ियाँ लाल प्रकाश को परावर्तित करने के कारण हरी एवं लाल दिखती हैं। शेष प्रकाश को अवशोषित कर लेती हैं। यदि गुलाब को हरे प्रकाश में देखा जाय तो पत्तियां हरी एवं पंखुड़ियां काली दिखाई देती हैं। वह उस रंग के प्रकाश को परावर्तित तथा शेष रंगों के प्रकाश को अवशोषित कर लेती हैं।

रंगों का मिश्रण

नीले, लाल एवं हरे रंगों को उपर्युक्त मात्रा में मिलाकर अन्य रंगों को प्राप्त किया जा सकता है। इन्हें प्राथमिक रंग कहते हैं। रंगीन टेलीविजन में इन्हीं का प्रयोग किया जाता है। पीला, मैजेंटा, पीकॉक – ब्लू को द्वितीयक रंग कहते हैं जिन दो रंगों को परस्पर मिलाने से सफेद प्रकाश उत्पन्न होता है, उन्हें पूरक रंग कहते हैं।

आँख

शरीर का महत्वपूर्ण अंग एक कैमरे की तरह कार्य करता है। बाहरी भाग दृढ़पटल नामक कठोर अपारदर्शी झिल्ली से ढंका रहती है। दृढ़पटल के पीछे उभरा हुआ भाग कार्निया कहलाता है। (नेत्रदान में कार्निया ही निकाली जाती है।) कार्निया के पीछे नेत्रोद नामक पारदर्शी द्रव भरा होता है। कार्निया के पीछे स्थित परदा आइरिस आँख में प्रवेश करने वाले प्रकाश को नियंत्रित करता है, जो कम प्रकाश में फैल एवं अधिक प्रकाश में सिकुड़ जाता है। इसी लिए बाहर से कम प्रकाश वाले कमरे में प्रवेश करने पर कुछ देर तक हमें कम दिखाई देता है। पुतली के पीछे स्थित लेंस द्वारा वस्तु का उल्टा, छोटा तथा वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। ऑख में स्थित पेशियाँ लेंस पर दबाव डाल कर पृष्ठ की वक्रता को घटाती बढ़ाती रहती है, जिससे फोकस दूरी भी कम ज्यादा होती रहती है। एक्टक पटल प्रकाश का अवशोषण कर लेता है और प्रकाश का परावर्तन नहीं हो पाता है। किसी वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणे, कार्निया तथा नेत्रोद से गुजरने के पश्चात् लेंस पर पड़ती हैं लेंस से अपवर्तित होकर काँचाभ द्रव से होती हुई रेटिना पर पड़ती हैं, रेटिना पर वस्तु का उल्टा एवं वास्तविक प्रतिबिम्ब बनता है। प्रतिबिम्ब बनने का संदेश दृश्य तलिकाओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है और वस्तु दर्शक को दिखायी देने लगती है।

आँख में दो प्रकार की कोशिकाएं होती हैं।

  1. शंकु (Cone Shaped) → रंग के लिए
  2. रॉड (Rod Shaped) → प्रकाश की तीव्रता के लिए

आँख की ससंजन क्षमता

स्पष्ट देखने के लिए आवश्यक है कि वस्तु से चलने वाली किरणें रेटिना पर ही केन्द्रित हो। किरणों के आगे पीछे केन्द्रित होने पर वस्तु दिखायी नहीं देगी। वस्तु को धीरे-धीरे आँख के समीप लायें व फोकस दूरी को उतनी ही रखें तो वस्तु से चलने वाली किरणें रेटिना के पीछे फोकस होने लगेंगी और वस्तु दिखायी नहीं देगी। वस्तु को ज्यों-ज्यों आँख के पास लाते हैं, पक्ष्माभिकी पेशियाँ, लेंस की फोकस दूरी को कम करके, ऐसे समायोजित कर देती हैं कि वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर ही बनता रहें। इस प्रकार आँख की पेशियों द्वारा नेत्र की फोकस दूरी के समायोजन के गुण को नेत्र की समंजन क्षमता कहते हैं।

नेत्र के सामने की वह निकटतम दूरी, जहाँ पर रखी वस्तु नेत्र को स्पष्ट दिखायी देती है, नेत्र की स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहलाती है। सामान्य ऑख के लिए यह 25 सेमी होती है। इसे आँख का निकट बिन्दु कहते हैं। निकट बिन्दु की तरह दूर बिन्दु भी होता है, सामान्य ऑख के लिए यह अनन्त होती है। मनुष्य की आँख का विस्तार 25 सेमी से लेकर अनन्त तक होता है।

दृष्टि दोष तथा उनका निवारण

निकट दृष्टि दोष: यदि नेत्र पास की वस्तु को देख लेता है किन्तु एक निश्चित दूरी से अधिक दूर की वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाता है, तो उस नेत्र में निकट दृष्टि का दोष होता है। इस स्थिति में दूर की वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर न बनकर उसके आगे बनता है।

निवारण: निकट दृष्टि दोष के निवारण के लिए उपयुक्त फोकस दूरी के अवतल लेन्स का प्रयोग किया जाता है।

दूर दृष्टि दोष: इस दोष में नेत्र को दूर की वस्तु तो स्पष्ट दिखाई देती है, किन्तु पास की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती। व्यक्ति को पुस्तक पढ़ने में कठिनाई होती है।

निवारण: इस दोष के निवारण हेतु चश्मे में एक अभिसारी (उत्तल) लेन्स के प्रयुक्त करने की आवश्यकता होती है।

अन्य दृष्टि दोष

  1. दृष्टि वैषम्य: इसमे नेत्र क्षैतिज व उर्ध्व रेखाओं को एक साथ स्पष्ट नहीं देख पाता है। इसके निवारण हेतु बेलनाकार लेन्स प्रयुक्त किया जाता है। इसे टोरिक लेन्स भी कहते हैं।
  2. वर्णाधता: नेत्र किसी रंग विशेष के लिए संवदेनहीन हो जाता है। इसका कारण है रेटिना के किसी शंकु (cone) का संवेदनहीन हो जाना।
  3. जरा-दृष्टि: वृद्धावस्था के कारण न पास की और न दूर की वस्तुएं दिखाई देती हैं। इसमें द्विफोकसी लेन्स का चश्मा लगाया जाता है।

प्रकाश का विवर्तन

प्रकाश के अवरोधों के किनारों पर मुड़ने की घटना को प्रकाश का विवर्तन कहते हैं। विवर्तन के कारण अवरोध की छाया के किनारे तीक्ष्ण नहीं होते। इसी कारण दूरदर्शी में तारों का प्रतिबिम्ब तीक्ष्ण बिन्दुओं के रुप में न दिखायी देकर अस्पष्ट धब्बों के रुप में दिखायी देता है। प्रकाश का विवर्तन अवरोध के आकार पर निर्भर करता हैं। यदि अवरोध का आकार प्रकाश की तरंगदैर्ध्य की कोटि का है तो विवर्तन स्पष्ट होता है और यदि अवरोध का आकार प्रकाश की तरंगदैर्ध्य की तुलना में बहुत बड़ा है, तो विवर्तन उपेक्षणीय होगा। विवर्तन, प्रकाश की तरंग प्रकृति की पुष्टि करता है। ध्वनि तरंगें अवरोधों से आसानी से मुड़ जाती हैं और श्रोता तक पहुँच जाती हैं।

 प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण

जब समान आवृत्ति व समान आयाम की दो प्रकाश तरंगे मूलतः एक ही प्रकाश स्रोत से एक ही दिशा में संचरित होती हैं तो माध्यम के कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम व कुछ बिन्दुओं पर तीव्रता न्यूनतम पायी जाती है। इस घटना को ही प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण कहते हैं। जिन बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम होती है, वहाँ हुए व्यतिकरण को संयोजी व्यतिकरण तथा जिन बिन्दुओं पर तीव्रता न्यूनतम होती है, वहाँ हुए व्यतिकरण को विनाशी व्यतिकरण कहते हैं। दो स्वतंत्र स्रोतों से निकले प्रकाश तरंगों में व्यतिकरण की घटना नहीं होती है। जल की सतह पर फैले मिट्टी के तेल तथा साबुन के बुलबुलों का रंगीन दिखाई देना, व्यतिकरण का उदाहरण है।

व्यतिकरण में शून्य तीव्रता वाले स्थानों की ऊर्जा नष्ट नहीं होती है, उतनी ही उर्जा अधिकतम तीव्रता वाले स्थानों पर प्रकट हो जाती है।

प्रकाश तरंगों का ध्रुवण

प्रकाश तरंगें एक प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगे हैं, जिनमें विद्युत् व चुम्बकीय क्षेत्र एक-दूसरे के लम्बत् होते हैं व तरंगों के संचरण की दिशा के लम्बत् तलों में कम्पन करते हैं। प्रकाश के संचरण के लिए विद्युत कम्पन ही मुख्य रुप में उत्तरदायी होते हैं। चूंकि प्रकाश तरंगें अनुप्रस्थ तरंगें हैं, अत: ये विद्युत कम्पन तरंग संचरण की दिशा के लम्बत् होते हैं। जब ये कम्पन तल में स्थित हर दिशा में यादृच्छ रुप से वितरित होते हैं तो ऐसी तरंग को अधुवित तरंग और यदि विद्युत कम्पन तल में सभी दिशाओं में समान रुप से वितरित न होकर एक ही दिशा में हो, तो प्रकाश तरंगों को ध्रुवित तरंगें कहते हैं।

नाइट्रो सेलुलोज तथा हरपेथाइट को मिश्रण से बनी फिल्म को काँच की दो प्लेटों के बीच रखकर पोलराइड का निर्माण कर ध्रुवित उत्पन्न किया जाता है। इसका उपयोग परावर्तित प्रकाश की चकाचौंध से बचने तथा त्रिविमीय सिनेमा को देखने के लिए भी किया जाता है।

पोलेराइड के उपयोग

  1. प्रकाश की चकाचौंध दूर करने के लिए सन ग्लासेस में।
  2. मोटर कार के विंड स्क्रीन (wind screen) तथा हेडलाइट के कवर ग्लास पर पोलेराइड लगा दिए जाते हैं। पोलेराइडों के अक्ष उर्ध्वाधर से 45° के कोण पर झुके रहते हैं।
  3. वायुयान और ट्रेन में प्रवेश करने वाले प्रकाश की तीव्रता को नियंत्रित करने में।
  4. तीन विमा वाले चित्रों को देखने में।
  5. धातुओं के प्रकाशीय गुणों के अध्ययन में।
  6. पोलेराइड फोटोग्राफी और कैमरा में।

कैमरा

कैमरे में उत्तल लेंस की सहायता से वास्तविक प्रतिबिम्ब प्राप्त किया जाता है। कैमरा, धातु का प्रकाशरोधी बक्सा होता है। आपतित किरण को अवशोषित करने के लिए अन्दर की दीवार काली कर दी जाती है। अगले भाग में लेंस तथा पिछले भाग में सिल्वर ब्रोमाइड तथा जिलेटिन की पतली पर्त चढ़ी सेलूलाइड की फिल्म लगी होती है। लेंस के ठीक पीछे जिलेटिन लगे पर्दे को डायाफ्राम कहते हैं। डायफ्राम के छेद को आवश्यकतानुसार छोटा या बड़ा कर सकते हैं। लेंस के पीछे लगा कपाट खुलने से प्रकाश (1/10 से 1/50 सेकण्ड तक) फिल्म पर डाला जाता है। फिल्म पर प्रकाश पड़ता है, उसे उद्भासन काल कहते है। यह प्रकाश की तीव्रता पर निर्भर करता है। फिल्म को जल में धोकर, धुली फिल्म को सोडियम थायोसल्फेट (हाइपो) के जलीय घोल में डाल दिया जाता है। इसे पुन: धो व सुखाकर निगेटिव प्राप्त कर कर लेते हैं, जिससे वास्तविक प्रतिबिम्ब कागज पर प्राप्त कर लेते है। निगेटिव में सफेद भाग, काले व काले भाग, सफेद दिखाई देते हैं।

दर्शन कोण

वस्तु आँख पर जितना कोण बनाती है, उसे दर्शन कोण कहते हैं। वस्तु का आकार इसी पर निर्भर करता है। दर्शन कोण बड़ा होने पर वस्तु बड़ी तथा छोटा होने पर छोटी दिखाई देगी। दूरदर्शी व सूक्ष्मदर्शी द्वारा दर्शन कोण बढ़ाकर वस्तु का आभासी आकार बढ़ाया जा सकता है।

सरल सूक्ष्मदर्शी

यह ऐसा यंत्र है, जिसकी सहायता से सूक्ष्म वस्तुओं को देख सकते हैं। इसमें छोटी फोकस दूरी का उत्तल लेंस लगा होता है। जब कोई वस्तु इसमें लगे लेंस के सामने, इसकी फोकस दूरी से कम दूरी पर रखते हैं, तब वस्तु का आभासी, सीधा व बड़ा प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। इसका उपयोग जीवाणुओं को देखने, फिगरप्रिंट की जाँच व छोटे पैमाने को पढ़ने में किया जाता है। अति सूक्ष्म कणों को देखने के लिए इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी का उपयोग होता है, जिसमें प्रकाश किरणों के स्थान पर इलेक्ट्रान पुंजों का प्रयोग होता है। यह साधारण सूक्ष्मदर्शी की अपेक्षा वस्तुओं का आकार 5000 गुना बड़ा दिखाती है।

संयुक्त सूक्ष्मदर्शी

सरल सूक्ष्मदर्शी से अधिक आवर्धक क्षमता प्राप्ति हेतु संयुक्त सूक्ष्मदर्शी का उपयोग किया जाता है। इसमें दो उत्तल लेंस लगे होते हैं। एक को अभिदृश्यक व दूसरे को नेत्रिका कहते हैं। नेत्रिका तथा अभिदृश्यक में जितनी ही कम फोकस दूरी के लेंसों का उपयोग होता है, सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता उतनी ही अधिक होती है। इसका उपयोग सूक्ष्म वनस्पतियों एवं जन्तुओं को देखने तथा खून व बलगम की जाँच में किया जाता है।

दूरदर्शी

इसका उपयोग आकाशीय पिण्डों चन्द्रमा, तारों एवं अन्य ग्रहों आदि को देखने के लिए किया जाता है। इसमें दो उत्ताल लेंस एक अभिदृश्यक पर एवं दूसरा नेत्रिका पर लगे होते हैं। अभिदृश्यक लेंस एक बेलनाकार नली के एक किनारे पर तथा नेत्रिका लेंस नली के दूसरे किनारे पर लगा होता है। बड़े लेंसों के निर्माण में कठिनाई को दृष्टिगत करके अब परावर्तक दूरदर्शी बनाया जा रहा है, जिसमें अवतल दर्पण का प्रयोग परावर्तक तल के रुप में होता है। कुछ दूरदर्शियों में परवलयाकार दर्पण का भी प्रयोग हो रहा है।

खगोलीय दूरदर्शी

दूरदर्शी या दूरबीन का आविष्कार सन् 1608 में नीदरलैंण्ड के हैंस लिपरशी ने किया था। गैलिलियों ने सन् 1909 में पहला सफल दूरदर्शी बनाकर बृहस्पति के चंद्रमाओं और शनि के छल्लों का अध्ययन किया।

खगोलीय दूरदर्शी. आकाशीय पिंडों या अत्यधिक दूरी पर स्थित वस्तुओं को देखने में काम आता है। इस यंत्र में आमतौर पर दो उत्तल लेंस होते हैं, जो एक ही उभयनिष्ट अक्ष पर एक धातु की नली में लगे रहते है। जो लेंस वस्तु की ओर रहता है उसे अभिदृश्यक और जो आंख की ओर होता है, उसे नेत्रिका कहते हैं। अभिदृश्यक का एपरचर, नेत्रिका की अपेक्षा बड़ा तथा फोकस दूरी अधिक होती है। दोनों लेंसों के बीच की दूरी को बदलने के लिए एक फोकसिंग नॉब का प्रबंध होता है। इस प्रकार के दूरदर्शी में वस्तु का उल्टा प्रतिबिंब बनता है। प्रतिबिंब को सीधा करने के लिए प्रिज्म का उपयोग किया जाता है।

परावर्तक दूरदर्शी

न्यूटन ने सन् 1668 में परावर्तक दूरदर्शी का आविष्कार किया। इससे लेंस की जगह वक्राकार दर्पण का प्रयोग किया गया था। इसके बाद एन. कैसीग्रेन ने इसी प्रकार के दूसरे दूरदर्शियों का विकास किया।

परावर्तन दूरदर्शी में अभिदृश्यक का एपरचर बड़ा होता है। इसमें वर्ण विपथन तथा गोलीय विपथन के दोष नहीं होते। परावर्तक दूरदर्शी में प्रकाश का अवशोषण बहुत कम होता है, इसलिए इससे बना प्रतिबिंब, अपवर्तक दूरदर्शी की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होता है।

विश्व का सबसे बड़ा परावर्तक दूरदर्शी, स्पेन में Gran Telescopio Canarias (GTC) है। जिसके दर्पण का व्यास 10.4 मी. है।

रेडियो दूरदर्शी

इनमें डिश के आकार का धातु का एक बड़ा एंटीना होता है, जिसे किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता है। यह खगोलीय पिंडों से आने वाली रेडियो तरंगों को प्राप्त करता है। ये रेडियो तरंगें, रिसीवर में जाती हैं। इस प्रकार तारों और ग्रहों के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है। इस किस्म का सबसे बड़ा दूरदर्शी, पोटॉरिको के आरेसिबो बंदरगाह में एक पहाड़ी पर स्थित है। इसकी डिश का व्यास 304. 80 मी. है। यह 1500 करोड़ प्रकाश वर्ष तक की दूरी से आने वाली रेड़ियों तरंगों को ग्रहण कर सकने में सक्षम है।

एक प्रकाश वर्ष वह दूरी है, जो प्रकाश एक वर्ष में तय करता है। इसका मान 9.46 x 1012 किमी. है। फ्रांस में भी एक ऐसा ही शक्तिशाली रेडियो दूरदर्शी है।

अभी कुछ वर्ष पहले वैज्ञानिकों ने स्पेस शटल की सहायता से अंतरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में हबल अंतरिक्ष दूरदर्शी स्थापित किया है, जो धरती के किसी भी दूरदर्शी से दस गुना अधिक शक्तिशाली है। इस दूरदर्शी का नाम हबल अंतरिक्ष दूरदर्शी है।

स्पेक्ट्रम

सन् 1666 में न्यूटन ने एक बंद कमरे की खिड्की के एक छेद से आते हुए सूर्य के प्रकाश को एक प्रिज्म से होकर पर्दो पर डाला, परिणामस्वरूप पर्दे पर सात रंगों की एक ऐसी पट्टी बन गई, जिसके एक सिरे पीला रंग और दूसरे पर बैंगनी रंग था। इस पट्टी में क्रमश: लाल, संतरी, पीला, हरा, नीला, आसमानी, और बैगनी सात रंग थे। न्यूटन ने इस सतरंगी पट्टी को स्पेक्ट्रम कहा। अंग्रेजी में इन रंगों के प्रथम अक्षरों से बने शब्द द्वारा इन्हें प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रयोग से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि सूर्य का प्रकाश वास्तव में सात रंगों का मिश्रण है। उनके इस प्रयोग से ही स्पेक्ट्रम-विज्ञान की शुरूआत हुई।

हमें प्रतिदिन स्पेक्ट्रम के बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं। फानूस में लगे कांच के टुकड़े, सफेद प्रकाश को प्रिज्म की तरह विभिन्न रंगों में विभाजित कर देते हैं। वर्षा के मौसम में आकाश में लटके असंख्य जल कणों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने से इंद्रधनुष का निर्माण होता है। इंद्रधनुष, सूर्य की विपरीत दिशा में दिखाई देता है। यह सुबह या शाम के समय ही बनता है, दोपहर के समय नहीं। कभी-कभी दोहरा इंद्रधनुष भी देखने को मिलता है। इनमें दूसरे इद्रधनुष के रंगों का क्रम उलट जाता है।

बहुत दिनों तक स्पेक्ट्रम पर प्रयोग होने के बाद यह पाया गया कि बैंगनी और लाल रंगों के बाद भी रश्मियां होती हैं, जिन्हें आखों से तो नहीं देखा जा सकता, लेकिन उनका प्रभाव फोटो फिल्म पर आसानी से देखा जा सकता है। इन किरणों को क्रमश: पराबैंगनी और अवरक्त किरणे कहते हैं। बाद में अनेक परीक्षणों से पता चला कि अवरक्त और पराबैंगनी विकिरणों के अतिरिक्त और भी विकिरण होते हैं। अब सैद्धांतिक गणनाओं और प्रयोगों के आधार पर यह निश्चित हो गया कि ये सभी तरंगें, यानी गामा किरणों से लेकर रेडियो तरंगों तक एक ही परिवार के अंग हैं। इनके इस परिवार को विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम कहते हैं। इसलिए विभिन्न वर्ण की तरंगों का विभाजन रंग के आधार पर न करके तरंगदैर्ध्य के आधार पर किया जाता है, क्योंकि रंग, तरंगदैर्ध्य के अनुसार ही क्रम में स्थित होते हैं। दृश्य प्रकाश का भाग, पूरे विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम की तुलना में अत्यंत छोटा है, इसलिए तरंगदैर्ध्य के अनुसार वर्णों की इस सुव्यवस्था को स्पेक्ट्रम कहते हैं।

दृश्य प्रकाश के विभिन्न भागों में प्रकाश का तरंगदैर्ध्य
रंग तरंगदैर्ध्य Å में
बैंगनी 3900– 4460
नीला 4460-4650
आसमानी 4650-5000
हरा 5000-5700
पीला 5700-5900
नारंगी 5900-6200
लाल 6200-7600

 

विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम
नाम तरंगदैर्ध्य (एंग्स्ट्राम) में
गामा किरणे 103‎Å से 0-01‎Å
एक्स किरणें 0-1Å से 100Å
पराबैंगनी किरणें 100 Å से 4000Å
दृश्य प्रकाश 4000Å से 8000Å
अवरक्त किरणे 8000Å से 107Å
सूक्ष्म तरंगें 107Å से 1011Å
रेडियो तरंगें 1011 Å

वोलेस्टन ने शुद्ध स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के प्रयास किए। फ्रॉनहोफर ने प्रिज्म की सहायता से शुद्ध स्पेक्ट्रम प्राप्त किया और समतल ग्रेटिंग का आविष्कार किया। स्पेक्ट्रम विज्ञान की प्रगति में फ्रॉनहोफर का कार्य विशिष्ट महत्व का है। सन् 1860 में किरचौफ और बुन्सन ने अनेक तत्वों के स्पेक्ट्रम लिए और उनका अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि प्रत्येक तत्व के स्पेक्ट्रम की कुछ विशेषताएं होती हैं। कोई पदार्थ उत्तेजित होने पर, जिन तरंगदैध्यों को उत्सर्जित करता है, कम ताप पर उन्हीं तरंगदैध्यों को वह अवशोषित कर सकता है।

स्पेक्ट्रम दो प्रकार के होते हैं- उत्सर्जन स्पेक्ट्रम और अवशोषण स्पेक्ट्रम

किसी वस्तु का उत्सर्जन स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए उस वस्तु के अणुओं या परमाणुओं को ऊर्जा दी जाती है। इस बाहरी ऊर्जा के कारण अणु या परमाणु उत्तेजित हो जाते हैं और उत्तेजित अवस्था से जब वे मूल अवस्था में आते हैं, तो ऊर्जा में परिवर्तन होता है, फलत: उनसे प्रकाश निकलने लगता है। यह प्रकाश दृश्य और अदृश्य, दो हो सकता है। यदि उत्सर्जित प्रकाश की तरंगदैर्ध्य, बैगनी रंग की तरंगदैर्ध्य से कम होती है, तो पराबैंगनी स्पेक्ट्रम बनता है। यदि तरंगदैर्ध्य लाल रंग के तरंगदैर्ध्य से अधिक होता है, तो अवरक्त स्पेक्ट्रम बनता है। ये दोनों ही अदृश्य विकिरण हैं। सभी चमकने वाली वस्तुओं से प्राप्त स्पेक्ट्रम, उत्सर्जन स्पेक्ट्रम कहलाता है।

किसी वस्तु से उत्सर्जित स्पेक्ट्रम यदि पुन: उसी वस्तु की वाष्प से गुजारा जाए तो वह वाष्प द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। यदि एक नली में सोडियम की वाष्प भरकर उससे सतत स्पेक्ट्रम पैदा करने वाले स्रोत का प्रकाश गुजरने दिया जाए, तो स्पेक्ट्रम के पीले भाग में दो काली अवशोषण रेखाएं नजर आती हैं। ये रेखाएं सोडियम रेखाएं होती हैं। स्पेक्ट्रम द्वारा सूर्य का स्पेक्ट्रम लेने पर, स्पेक्ट्रम में जगह-जगह काली रेखाएं दिखाई देती हैं। ये विशोषण रेखाएं होती हैं और इन्हें फ्रॉनहोफर ने ज्ञात किया था।

उत्सर्जित स्पेक्ट्रम भी दो प्रकार का होता है- रेखीय उत्सर्जित स्पेक्ट्रम और सतत उत्सर्जित स्पेक्ट्रम। अवशोषण स्पेक्ट्रम तीन प्रकार का होता है- रेखीय अवशोषण स्पेक्ट्रम, बैंड स्पेक्ट्रम और सतत अवशोषण स्पेक्ट्रम। स्पेक्ट्रम के अध्ययन के लिए प्रिज्म या ग्रोटिन्ग स्पेक्ट्रोग्राफ प्रयोग किये जाते हैं। आज-कल रिकार्डिंग स्पेक्ट्रोग्राफ प्रयोग किए जाते हैं, जिन पर स्पेक्ट्रम चार्ट पेपर पर रिकार्ड हो जाता है।

सौर स्पेक्ट्रम और विद्युत् चुम्बकीय स्पेक्ट्रम

सौर स्पेक्ट्रम को सूर्य का उत्सर्जन स्पेक्ट्रम कहते हैं। स्पेक्ट्रम सतत तथा इसमें चमकीली रेखाओं के बीच वाली काली अनेक रेखाएं होती है। इन काली रेखाओं को सन् 1802 में सबसे पहले कोलेस्टन ने ज्ञात किया था। सन् 1815 में फ्रॉनहोफर ने उन्हें फिर खोजा और उनका अध्ययन किया। इन रेखाओं को फ्रॉनहोफर रेखाएं कहते हैं। फ्रॉनहोफर ने रेखाओं का नाम अक्षरों के आधार पर किया, लेकिन इनकी उत्पत्ति के विषय में कोई भी निष्कर्ष नहीं निकल पाए।

सन् 1860 में किरचौफ और बुन्सन ने इन रेखाओं की उत्पत्ति का कारण बताया। उनके अनुसार, यदि किसी वस्तु की उत्सर्जित रेखाओं को पुन: उस वस्तु की वाष्प से होकर गुजारा जाए तो वाष्प द्वारा उत्सर्जित रेखाओं का अवशोषण हो जाता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इन रेखाओं को उत्सर्जित करने वाले तत्व सूर्य में मौजूद हैं। लगभग 20,000 फ्रॉनहोफर रेखाओं को अब तक ज्ञात किया जा चुका है। इन रेखाओं के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है। कि लगभग 36 तत्व सूर्य में मौजूद हैं, जो पृथ्वी पर भी पाए जाते हैं। कुछ ऐसे भी तत्व हैं, जिनका सर्वप्रथम अस्तित्व सूर्य में ही पाया गया। हीलियम तत्व के अस्तित्व का पता सर्वप्रथम सूर्य से ही ज्ञात हुआ और बाद में रैमसे ने इसे पृथ्वी पर क्लेवाइट से प्राप्त किया। फ्रॉनहोफर रेखाओं के अध्ययन से सूर्य की आंतरिक संरचना के बारे में हमें बहुत सी बातें ज्ञात हुई हैं। सूर्य गैसीय पदार्थों से मिलकर बना है, जिसका तापमान सभी जगह समान नहीं होता। केन्द्र का तापमान सबसे अधिक और बाहरी भाग का सबसे कम होता है।

लेन्स की क्षमता

अनेक प्रकाशिक यंत्रों में कई लेंस लगे होते हैं। उन्हें प्रतिबिंब को अधिक आवर्धित तथा सुस्पष्ट बनाने के लिए संयोजित किया जाता है। इस प्रकार संपर्क में रखे लेंसों की कुल क्षमता,उन लेंसों की पृथक-पृथक क्षमताओं का बीजगणितीय योग होती है। जैसे-

P = P1 + P2 + P3 +…….

चश्मा बनाने वालों के लिए, लेंसों की फोकस दूरी के स्थान पर क्षमताओं का उपयोग करना काफी सुविधाजनक है। आँखें टैस्ट करते समय चश्मा बनाने वाला, ज्ञात क्षमता वाले संशोधी लेंसों के अनेक अलग-अलग संयोजनों को संपर्क में रख कर, चश्मों को टेस्ट करने वाले फ्रेम के अंदर रखता है। चश्मा बनाने वाला आवश्यक लेंस की क्षमता की गणना सरल बीजगणितीय योग के द्वारा कर लेता है। उदाहरण के लिए, 2.0D तथा 0.25 D क्षमता वाले दो लेंसों का संयोजन + 2.25 D क्षमता के एकल लेंस के तुल्य है। लेंसों की क्षमताओं की योज्यता के इस गुणधर्म का उपयोग, एकल लेंस द्वारा बने प्रतिबिंबों में कुछ दोषों को कम करने में किया जा सकता है। कई लेंसों को एक-दूसरे के संपर्क में रखकर बनाए गए लेंस निकायों का उपयोग, सामान्यत: कैमरों के लेंस तथा सूक्ष्मदर्शियों एवं दूरदर्शकों के अभिदृश्यकों के डिजाइन में किया जाता है।

प्रकाश की रंग से ही हम आकाश में विभिन्न रंगों को तारों को देखकर बता सकते हैं कि किसका तापमान कम और किसका अधिक है, जैसे हल्का लाल तारा कम गर्म, गहरा लाल तारा अधिक गर्म, नारंगी लाल तारा और अधिक गर्म, पीला तारा उससे भी अधिक गर्म और सफेद तारा सबसे अधिक गर्म होता है।

विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम

रेडियो तरंगें, अवरक्त किरणें, पराबैगनी किरणें, दृश्य प्रकाश, एक्स-किरणे एवं गामा किरणे, सभी की प्रकृति विद्युत चुंबकीय होती है। अवरक्त तरंगों की सीमा लाल रंग के किनारे से शुरू होकर 4×102 सेमी तरंगदैर्ध्य तक होती है। इसके बाद सूक्ष्म तरंगों और रेडियो तरंगों का क्षेत्र आता है। दृश्य प्रकाश से कम तरंगदैर्ध्य का विकिरण पराबैंगनी कहलाता है। इसकी सीमा 1×108 मी. तरंगदैर्ध्य तक होती है। इसके पहले का क्षेत्र, एक्स किरणों का क्षेत्र कहलाता है। एक्स किरणे का क्षेत्र 1×108 से 4×1012 मी. तक होती है। इससे पहले गामा किरणों का क्षेत्र पड़ता है। किन्हीं दो क्षेत्रों के बीच में एक निश्चित रेखा नहीं खींची जा सकती, वे एक दूसरे से मिले हुए होते हैं। इन सभी क्षेत्रों का समूह विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम कहलाता है। इस समूह में दृश्य प्रकाश का क्षेत्र बहुत छोटा होता है।

पराबैंगनी स्पेक्ट्रम

रिटर ने सन् 1801 में पराबैंगनी स्पेक्ट्रम की खोज की थी। सूर्य के स्पेक्ट्रम का कुछ भाग बैंगनी भाग के नीचे फैल जाता है, जो आँख के लिए अदृश्य होते हुए भी रासायनिक क्रिया करता है। इसका विस्तार 4×107 मी. तरंगदैर्ध्य से लेकर 1×108 मी. तक होता है।

ये किरणे फोटोग्राफिक फिल्मों पर रासायनिक क्रिया करती हैं। सूर्य का तापमान बहुत अधिक होने के कारण सूर्य के प्रकाश में इनकी अधिकता होती है, लेकिन इनका अधिकांश भाग वायुमंडलीय गैसों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। वास्तव में, ये किरणे अत्यधिक ऊर्जायुक्त फोटॉन हैं। इन किरणों को कृत्रिम तरीकों से पैदा करके अनेक रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने में इनका प्रयोग किया जाता है। बहुत से रोगों के इलाज में भी ये किरणे काम आती हैं। ये किरणे कुछ पदार्थों में प्रतिदीप्ति एवं स्फुरदीप्ति पैदा करती हैं।

अवरक्त स्पेक्ट्रम

विलियम हरशैल ने सन् 1800 में अवरक्त स्पेक्ट्रम की खोज की थी। सूर्य के स्पेक्ट्रम का कुछ भाग, लाल भाग के ऊपर भी फैला हुआ है, जो आंखों को तो नजर नहीं आता, लेकिन ऊष्मीय प्रभाव उत्पन्न करता है। इसका विस्तार 7.8×107 मी. तरंगदैर्ध्य से लेकर 1×103 मी. तरंगदैर्ध्य तक होता है।

विभिन्न प्रकार के दर्द के उपचार के लिए इन किरणों से शरीर की सिकाई की जाती है। बिना प्रकाश के, अंधेरे में ही इनसे फोटोग्राफी की जा सकती है। इन्फ्रारेड दूरदर्शी से रात्रि में भी सब कुछ उसी तरह नजर आता है, जैसे दिन की रोशनी में हवाई जहाज और टैंकों में युद्ध के दौरान इन दूरदर्शियों का इस्तेमाल किया जाता है।

दृष्टि दोष क्या है?

दृष्टि तंत्र के किसी भी भाग के क्षतिग्रस्त होने अथवा कुसंक्रियाओं से दृष्टि प्रकायों में सार्थक क्षति हो सकती है। उदाहरण के लिए, प्रकाश संचरण में सम्मिलित कोई भी संरचना (जैसे- कॉर्निया,पुतली, अभिनेत्र लेंस,नेत्रोद तथा कांचाभ द्रव) अथवा रेटिना जैसी संरचना (जो प्रकाश को विद्युत सिग्नल में परिवर्तित करने के लिए उत्तरदायी हैं), या दृक् तंत्रिका (जो इन सिग्नलों को मस्तिष्क तक पहुँचाती है), भी क्षतिग्रस्त होने पर चाक्षुष-विकृति उत्पन्न करता है। आपने अनुभव किया होगा कि जब आप तीव्र प्रकाश से किसी मंद प्रकाशित कमरे में प्रवेश करते हैं, तो आरंभ में कुछ देर तक आप उस कमरे की वस्तुओं को नहीं देख पाते। तथापि, कुछ समय पश्चात् आप उसी मंद प्रकाशित कमरे की वस्तुओं को देख पाते हैं। आँख की पुतली परिवर्ती द्वारक की भाँति कार्य करती है, जिसके आकार को परितारिका की सहायता से बदल जा सकता है। जब प्रकाश अत्यधिक चमकीला होता है तो परितारिका सिकुड़ कर पुतली को छोटा बना देती है, जिससे आँख में कम प्रकाश प्रवेश कर सके। परन्तु जब प्रकाश मंद होता है तो परितालिका फैलकर पुतली को बड़ा बना देती है, जिससे आँख में अधिक प्रकाश प्रवेश कर सके। इस प्रकार मंद प्रकाश में परितारिका की शिथिलता से पुतली पूर्ण रूप से खुल जाती है।

रेडियो तरंगें

विभिन्न रेडियों तरंगों को अलग-अलग कामों के लिए प्रयोग किया जाता है। इन किरणों का मुख्य प्रयोग आधुनिक संचार व्यवस्थाओं, जैसे- रेडियो, टीवी, टेलीफोन, फैक्स आदि में किया जा रहा है। कुछ महत्वपूर्ण रेडियों तरंगें निम्नलिखित हैं-

वीएलएफ (अत्यंत लो फ्रिक्वेंसी) वैज्ञानिकों के लिए विशेष टाइम सिग्नलों में।

एलएफ (लो फ्रिक्वेंसी या दीर्घ तरंगें) जलयान संचार के लिए रेडियो सिग्नल तथा ए.एम. (आयात मौडूलित) रेडियो के लिए।

एचएफ (हाई फ्रिक्वेंसी या शॉर्टवेव) अव्यवसायी रेडियो में।

वी.एच.एफ. (वेरी हाई फ्रिक्वेंसी) एफएम (आवृत्ति मौडूलित) रेडियो श्याम-श्वेत टेलीविजन में।

एमएफ (मीडियम फ्रिक्वेंसी या मीडियम वेव) पुलिस रेडियो तथा एमएफ (आयाम मौडूलित) रेडियो के लिए।

यूएचएफ (अल्ट्राहाई फ्रिक्वेंसी) रंगीन टेलीविजन में।

एसएचएफ (सुपर हाई फ्रिक्वेंसी) अंतरिक्ष तथा संचार उपग्रहों के लिए।

समस्त विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम मानव के लिए अत्यंत उपयोगी है।

प्रतिदीप्ति और स्फुरदीप्ति

प्रतिदीप्ति: कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जिन पर जब कोई प्रकाश डाला जाता है तो उनसे भिन्न प्रकार का प्रकाश अत्यंत कम समय के लिए उत्सर्जित होता है। ऐसे पदार्थ को प्रतिदीप्तिशील पदार्थ और इस क्रिया को प्रतिदीप्ति कहते हैं।

प्रतिदीप्ति पदार्थ पर जब कम तरंगदैर्ध्य, यानी अधिक ऊर्जा का कोई प्रकाश डाला जाता है, तो वह उसका अवशोषण कर लेता है। अवशोषित ऊर्जा का कुछ भाग ऊष्मा के रूप में और शेष भाग अधिक तरंगदैर्ध्य के प्रकाश के रूप में उत्सर्जित हो जाता है। इस उत्सर्जित प्रकाश की ऊर्जा पड़ने वाले प्रकाश से कम होती है।

आजकल प्रतिदीप्ति से बहुत से व्यावहारिक उपयोग हो रहे हैं, जैसे- घरों में इस्तेमाल होने वाली ट्यूबलाइट। यह एक लंबी मोटी कांच की नली होती है। इसकी दीवारों पर मैगनेशियम, टंगस्टेट और बेरीलियम सिलीकेट की तह चढ़ाई जाती है। इसके दोनों सिरों पर टंगस्टन धातु के दो इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं। नली के अंदर की हवा निकालकर उसमें निऑन गैस भरकर पारे की दो-चार बूदें डाल देते हैं। विद्युत देने पर नली में विसर्जन होता है। पारे के विसर्जन में अल्ट्रावायलेट किरणे निकलती है। ये किरणे कांच की दीवार पर लगी वस्तु द्वारा अवशोषित कर ली जाती है और पुनः दृश्य किरणों के रूप में उत्सर्जित होती है। जब अम्लीय क्विनेन के घोल में पराबैंगनी किरणे डाली जाती हैं, तो यह घोल नीले रंग में चमकने लगता है।

स्फुरदीप्ति: आपने देखा होगा कि टेलीविजन बंद हो जाने क बाद भी उसकी स्क्रीन काफी देर तक चमकती रहती है। यदि किसी विकिरण द्वारा पदार्थ को चमकाया जाए और विकिरण के बंद करने पर भी पदार्थ चमकता ही रहे, तो ऐसे पदार्थों को स्फुरदीप्ति पदार्थ और इस क्रिया को स्फुदीप्ति कहते हैं। इसका कारण यह है कि प्रकाश को सोखने के बाद वस्तु के अणु या परमाणु उत्तेजित अवस्था में बहुत देर तक रहने के बाद अपनी मूल अवस्था में लौटते हैं। जितनी देर अणु उत्तेजित अवस्था में रहते हैं, पदार्थ चमकता ही रहता है। कुछ वस्तुएं तो ऐसी होती हैं, जो विकिरण के समाप्त होने के घंटों बाद तक चमकती रहती हैं।

कुछ विशेष प्रकार के रंगों और पेंटों में स्फुरदीप्ति पदार्थ मिले होते हैं, जैसे- फ्लोरेसीन, ईओसिन, रोडमाइन और स्टिलबाइन आदि। इनका इस्तेमाल विज्ञापन पट्ट और सड़क पर लगे संकेतों में किया जाता है। अब घड़ियों और बिजली के स्विचों में भी इनका उपयोग होने लगा है। इन पर ऐसे पदार्थों के लेप चढ़े होते हैं, जो दिन में प्रकाश अवशोषित करके रात के अंधेरे में चमकते हैं। इसी प्रकार जब कैलशियम सल्फाइड को पराबैंगनी प्रकाश में चमकाया जाता है तो अंधेरे कमरे में यह काफी देर तक चमकता है। यह स्फुरदीप्ति के कारण होता है।

दृष्टि के लिए हमारे दो नेत्र क्यों हैं, केवल एक ही क्यों नहीं?

एक नेत्र की बजाय दो नेत्र होने के हमें अनेक लाभ हैं। इससे हमारा दृष्टि-क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। मानव के एक नेत्र का क्षैतिज दृष्टि क्षेत्र लगभग 150 डिग्री होता है, जबकि दो नेत्रों द्वारा यह लगभग 180 डिग्री जाता है। वास्तव में, किसी मंद प्रकाशित वस्तु के प्रकाशन के संसूचन की सामथ्र्य एक की बजाय दो संसूचकों से बढ़ जाती है।

शिकार करने वाले जंतुओं के दो नेत्र प्राय: उनके सिर पर विपरीत दिशाओं में स्थित होते हैं, जिससे कि उन्हें अधिकतम विस्तृत दृष्टि-क्षेत्र प्राप्त हो सके। परंतु हमारे दोनों नेत्र सिर पर सामने की ओर स्थित होते हैं। इस प्रकार हमारा दृष्टि क्षेत्र तो कम हो जाता है, परंतु हमें त्रिविम चक्षुकी का लाभ मिल जाता है। एक नेत्र बंद कीजिए, आपको संसार चपटा-केवल द्विविम लगेगा। दोनों नेत्र खोलिए, आपको संसार की वस्तुओं में गहराई की तीसरी विमा दिखाई देगी। क्योंकि हमारे नेत्रों के बीच कुछ सेंटीमीटर का पृथकन होता है, इसलिए प्रत्येक नेत्र किसी वस्तु का थोड़ा-सा भिन्न प्रतिबिंब देखता है। हमारा मस्तिष्क दोनों प्रतिबिंबों का संयोजन करके एक प्रतिबिंब बना देता है। इस प्रकार अतिरिक्त सूचना का उपयोग करके हम यह बता देते हैं कि कोई वस्तु हमारे कितनी पास या दूर है।

टिंडल प्रभाव Tyndall Effect

पृथ्वी का वायुमण्डल सूक्ष्म कणों का एक विषमांगी मिश्रण है। इन कणों में धुआँ, जल की सूक्ष्म बूंदें, धूल के निलंबित कण तथा वायु के अणु सम्मलित होते हैं। जब कोई प्रकाश किरण पुंज, ऐसे महीन कणों से टकराता है तो उस किरण पुंज का मार्ग दिखाई देने लगता है। इन कणों से विसरित प्रकाश परावर्तित होकर हमारे पास तक पहुँचता है। कोलॉइडी कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन की परिघटना टिंडल प्रभाव उत्पन्न करती है, जब धुएँ से भरे किसी कमरे में किसी सूक्ष्म छिद्र से कोई पतला प्रकाश किरण पुंज प्रवेश करता है तो इस परिघटना को देखा जा सकता है। इस प्रकार, प्रकाश का प्रकीर्णन, कणों को दृश्य बनाता है। जब किसी घने जंगल के वितान से सूर्य का प्रकाश गुजरता है तो टिंडल प्रभाव को जन्म देता है।

प्रकीर्णित प्रकाश का वर्ण, प्रकीर्णन करने वाले कणों के आकार पर निर्भर करता है। अत्यंत सूक्ष्म कण मुख्य रूप से नीचे प्रकाश को प्रकीर्ण करते हैं, जबकि बड़े आकार के कण अधिक तरंगदैर्घ्य के प्रकाश का प्रकीर्णन करते हैं। यदि प्रकीर्णन करने वाले कणों का आकार बहुत अधिक है तो प्रकीर्णित प्रकाश, श्वेत भी प्रतीत हो सकता है।

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