उत्तर वैदिक धर्म Later Vedic Religion

उत्तर वैदिक धर्म

उत्तर वैदिक काल के प्रारंभ में भी धर्म का वही उद्देश्य था जो ऋग्वैदिक काल में रहा। वह था- भौतिक सुखों की प्राप्ति। परन्तु उत्तर वैदिक काल में जीवन में स्थायित्व आने से उनके चिन्तन में अभूतपूर्व दर्शन का आविर्भाव हुआ। इस युग का दार्शनिक चिन्तन उपनिषद् नामक ग्रन्थों में संग्रहित है। वेदों के अंत में निबद्ध होने के कारण उपनिषद् वेदान्त के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस काल में इन्द्र और वरूण की प्रतिष्ठा कम हो गई। प्रमुख देवता के रूप में अब प्रजापति स्थापित हो गए। प्रजापति को हिरण्य गर्भ भी कहा जाता था। विष्णु और रूद्र भी अब महत्त्वपूर्ण देवता हो गए। इस तरह गुप्ताकाल में जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की परिकल्पना विकसित हुई, इसका बीज यहीं तैयार हो गया। पूषण अब शूद्रों के देवता के रूप में स्थापित हो गए। अथर्ववेद में धर्म की चर्चा भी मिलती है, जब इंद्र को नागों एवं राक्षसों का वध करने वाला कहा गया है। अश्विन को अब कृषि की रक्षा करने वाला देवता मान लिया गया है। उसी तरह सवितृ को नए मकान बनाने वाले देवता के रूप में ख्याति मिली।

उपासना की विधि- उत्तर वैदिक काल में प्रार्थना की जगह यज्ञ महत्त्वपूर्ण हो गया। यज्ञ में बहुत बड़ी संख्या में पशुओं की बलि दी जाती थी। यजुर्वेद में 10,800 से चिड़ियों के आकार को एक वेदी बनाने का उल्लेख है। अब यज्ञ के साथ कर्मकांड की पद्धति विकसित हो गई। अब शब्दों की जादुई शक्ति पर विश्वास किया जाने लगा। इस प्रकार की अवधारणा विकसित हुई कि मंत्रोच्चारण में किसी प्रकार की अशुद्धि होने से अनिष्ट हो सकता था। चूंकि सही मंत्रोच्चारण ब्राह्मण ही जानते हैं, इसलिए ब्राह्मण महत्त्वपूर्ण हैं। इतना ही नहीं यह भी माना गया कि पृथ्वी का निर्माण भी यज्ञ की प्रक्रिया से ही हुआ है और स्वयं प्रजापति भी इसी यज्ञ के अधीन हैं। चूंकि यज्ञ की विधि केवल ब्राह्मण ही जानते हैं, अत: कुछ बातों में ब्राह्मण देवता से भी अधिक शक्तिशाली हैं।

एक तरफ कृषि संस्कृति का भी विकास हो रहा था, अत: बहुत बड़ी संख्या में पशुओं की आवश्यकता थी। आर्यों का प्रभुत्व गंगा-यमुना दोआब में स्थापित हो चुका था। अत: वैदिक यज्ञ पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हुई। इस दृष्टि से प्रथम धर्म सुधारक ऋषि दीर्घटतमस को माना जा सकता है। उन्होंने यज्ञ का विरोध किया। ब्राह्मण की परंपरा से हटकर अरण्यक ने यज्ञ के बदले तप (तपस्या) पर बल दिया। ऋग्वैदिक धर्म की आशावादिता अब लुप्त हो गई थी। और पुनर्जन्म की अवधारणा पहली बार वृहदारण्यक उपनिषद् में आई। उपनिषद् में मोक्ष की परिकल्पना रखी गई और इसके लिए ज्ञान पर बल दिया गया। ज्ञान हासिल होने के बाद आत्मा और परमात्मा का एकीकरण संभव था।

वर्ण एवं जाति

वर्ण मौलिक रूप में एक आर्थिक व्यवस्था थी या सामाजिक व्यवस्था? मौलिक रूप में यह सामाजिक व्यवस्था थी। हालाँकि यह आर्थिक कारणों से भी प्रभावित थी।

वर्ण और जाति में अन्तर- जब वर्ण का आधार जन्ममूलक हो गया, तब उसने जाति का रूप ले लिया।


आश्रम व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ) ही प्रचलित थे। बुद्ध काल (सूत्र काल) में आकर आश्रम व्यवस्था स्थापित हो गई। जैबलि उपनिषद् में चारों आश्रमों की प्रथम बार चर्चा हुई है। आश्रम व्यवस्था आर्यों की विकसित सोच को प्रकट करती है। इसके द्वारा व्यक्तिगत उद्यम एवं सामाजिक नियंत्रण के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश की गई। यह प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्ग के बीच एक प्रकार का संतुलन था। इसके उद्देश्य थे–

  1. देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण एवं मानव जाति के ऋण से मुक्त होना।
  2. जीवन के चार पुरुषार्थ अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति थे। एक आर्य का जीवन 100 वर्षों का माना जाता था। इसे चार भागों में विभाजित किया गया।

ब्रह्मचर्य- उपनयन संस्कार के बाद बालक ब्रह्मचर्य आश्रम को ग्रहण करता था। फिर विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल जाता था। अश्वलायन् के अनुसार, उपनयन संस्कार की उम्र ब्राह्मण के लिए 8 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11 वर्ष और वैश्य के लिए 12 वर्ष होती थी।

गृहस्थ आश्रम- समावर्तन संस्कार (शिक्षा की समाप्ति) के बाद बालक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था और फिर पंच महायज्ञ, हविर्यज्ञ एवं सोम यज्ञ का काम पूरा करता था। शूद्र वर्ण केवल गृहस्थ आश्रम को अपनाता था। सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम महत्त्वपूर्ण था। गौतम एवं बौधायन का मत है कि वास्तव में एक ही आश्रम है और वह है गृहस्थ आश्रम।

वानप्रस्थ आश्रम- इस आश्रम में एक आर्य अपनी बस्ती से दूर रहकर मनन और चिंतन करता था।

सन्यास आश्रम- इस आश्रम में व्यक्ति जीवन की सक्रिय गतिविधि से दूर रहता था और मृत्यु से पहले उसके लिए अपनी मनः स्थिति तैयार करता था। चारों पुरुषार्थ में सबसे महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ धर्म था।

संस्कार- माना जाता है कि संस्कार से आदमी को पूर्णता मिलती है। संस्कार विशेषत: द्विज जातियों के लिए अर्थ रखते थे। शूद्रों के कुछ संस्कार अवश्य होते थे परन्तु उनकी क्रियाएँ मंत्रहीन थीं। स्त्रियों के भी संस्कार होते थे, परन्तु वे संस्कार जातकर्म एवं चुड़ाकर्म संस्कार तक मंत्रहीन होते थे, किन्तु विवाह

संस्कार में मंत्र का उपयोग किया जाता था। सूत्रकार गौतम ने 40 संस्कार बताये  है। किन्तु अधिकांश स्मृतिकार संस्कारों की संख्या 16 बताते हैं, जो निम्नलिखित है-

  1. गर्भाधान- यह गर्भ धारण का द्योतक था।
  2. पुंसवन- पुत्र प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण।
  3. सीमन्तोन्नयन- गर्भ की रक्षा करना। तीसरे महीने से 8वें महीने के बीच इस संस्कार को पूरा किया जाता था। गर्भधारी महिला की विशेष प्रसन्नता के लिए उसे सजाया-सँवारा जाता था।
  4. जातकर्म संस्कार- इस अवसर पर पिता बच्चे को धृत और शहद देता था। जन्म के तत्काल बाद यह संस्कार होता था।
  5. नामकरण- इस संस्कार में बच्चे का नाम रखा जाता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार, जन्म के 11वें दिन यह संस्कार होता था। मनु के अनुसार, जन्म के 10वें दिन यह संस्कार पूरा किया जाता था।
  6. निष्क्रमण- बच्चे को पहली बार बाहर निकाला जाता था। यह जन्म के चौथे सप्ताह में होता था।
  7. अन्नप्राशन- यह छठे महीने में होता था। इसमें बढ़ते बच्चे को अन्न खिलाया जाता था।
  8. कर्णछेद- जन्म के छठे-सातवें महीने में यह संस्कार पूरा किया जाता था।
  9. चूड़ाकर्म- तीन वर्ष की अवस्था में बच्चे का मुंडन होता था।
  10. विद्यारम्भ संस्कार- सन्तान की अवस्था जब पाँच वर्ष की होती थी तब उसे शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती थी। इसे विद्यारम्भ कहा जाता है।
  11. उपनयन संस्कार- इसकी उम्र ब्राह्मण के लिए 8 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11 वर्ष एवं वैश्य के लिए 12 वर्ष निर्धारित की गई।
  12. वेदारम्भ संस्कार- इसमें बच्चा पहली बार गुरु के नियंत्रण में जाकर वेद का अध्ययन प्रारम्भ करता था।
  13. केशान्त-  16 वर्ष की आयु में पहली बार छात्र की दाढ़ी-मँछ बनवायी जाती थी।
  14. समावर्तन संस्कार- अध्ययन की समाप्ति के पश्चात्।
  15. विवाह संस्कार
  16. अंत्येष्टि संस्कार

पंच महायज्ञ- इसका महत्त्व देखते हुए गौतम ने इसे भी संस्कार ही माना है-

  1. ब्रह्म यज्ञ
  2. देव यज्ञ-देवताओं के प्रति कृतज्ञता
  3. पितृ यज्ञ-पितरो के प्रति तर्पण
  4. मनुष्य यज्ञ- अतिथि संस्कार
  5. भूतयज्ञ-बलि- समस्त जीवों के प्रति कृतज्ञता।

हविर्यज्ञ- इसके सात प्रकार थे-

1. अग्न्याध्येय, 2. अग्निहोत्र, 3. दर्शपौर्णमास, 4. अग्रहायन, 5. चतुर्मास्य, 6. निरूपशुबन्ध, 7. सौत्रामणि।

सोम यज्ञ- इसकी भी संख्या सात थी, जो निम्नलिखित है-

1. अग्निष्टोम, 2. ज्योतिष्टोम, 3. अत्यअग्निष्टोम, 4. उक्थ्य, 5. षाड्शित, 6. अतिरात्र, 7. आएतोरयार्म।

यज्ञ के अतिरिक्त दान भी महत्त्वपूर्ण था। दानों के भी कई प्रकार थे, यथा–

  1. सामान्य दान- सामाजिक कर्तव्य के लिए
  2. धर्म दान- धार्मिक उद्देश्य के लिए
  3. विशिष्ट दान- इनमें विशिष्ट वस्तुओं का वृहत पैमाने पर किया जाने वाला दान जैसे-गो दान, अश्व दान, भूमिदान, तुलादान आदि शामिल था
  4. महादान- इसमें स्वर्ण, घोड़ा, भूमि, सब दिए जाते थे।

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