भारतीय आम चुनाव, 1945 Indian general election, 1945

कांग्रेस का चुनाव अभियान

1946 में सर्दियों में चुनावों के आयोजन की घोषणा की गयी। इन चुनावों में अभियान के समय राष्ट्रवादी नेताओं के समक्ष यह उद्देश्य था कि वे न केवल वोट पाने का प्रयास करें अपितु लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को और सशक्त बनायें।

चुनाव अभियान में राष्ट्रवादियों ने 1942 के भारत छोड़े आंदोलन के दौरान सरकार की दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना की। कांग्रेसी नेताओं ने शहीदों की देशभक्ति एवं त्याग की प्रशंसा तथा सरकार की आलोचना करके भारतीयों में देश प्रेम की भावना को संचारित करने का प्रयत्न किया। कांग्रेस के नेताओं ने 1942 के आंदोलन में नेतृत्वविहीन जनता के साहसी प्रतिरोध की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। अनेक स्थानों पर शहीद स्मारक बनाये गये तथा पीड़ितों को सहायता पहुंचाने के लिये धन एकत्रित किया गया। सरकारी दमन की कहानियों को विस्तार से जनता के मध्य सुनाया जाता था, दमनकारी नीतियां अपनाने वाले की धमकी दी जाती थी।

कांग्रेस की रणनीति

वर्ष 1945 के समय यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका था कि उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में कांग्रेस ही सबसे प्रमुख संस्था है। जहां भी साम्राज्यवादी सत्ता को चुनौती दी गयी या सरकार विरोधी झंझावात आया, वहां कांग्रेस ही सर्वाधिक सक्रिय थी तथा उसने ही जनता की आवाज की सबसे ज्यादा मुखरित किया। चाहे आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों का मामला हो या भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध सरकारी दमन की बात, कांग्रेस ही इन मुद्दों के समर्थन या आलोचना में सबसे ज्यादा प्रखर संस्था थी। जन सामान्य में कांग्रेस की गहरी पैठ थी एवं उसे एवं उसके नेताओं को बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। अपनी निरंतर मुखरता तथा जनप्रिय नीतियों के कारण कांग्रेस ने पूरे राष्ट्र में साम्राज्यवाद विरोधी चेतना का प्रसार किया तथा अंग्रेजी शासन की नींव हिलाकर रख दी।

1945-46 की सर्दियों में जो तीन बड़े विप्लव हुये उनमें मुख्य तौर पर कांग्रेस द्वारा उत्पन्न की गयी राष्ट्रप्रेम की भावना ने ही मुख्य भूमिका निभायी थी। कांग्रेस के प्रयासों से ही तत्कालीन जनता ऊर्जावान बन सकी तथा इन तीनों विद्रोहों में उसने अपनी उपनिवेशवादी घृणा को खुलकर अभिव्यक्त किया। चाहे आई.एन.ए. के युद्धबंदियों की बात हो या रायल इंडियन नेवी के नाविकों का मसला, कहीं भी कांग्रेस पीछे नहीं रही तथा हर जगह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसने अपनी भूमिका निर्वहन किया। विद्रोहों के उपरांत किये गये सरकारी सर्वेक्षणों एवं जांचों से भी यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि इन विद्रोहों की प्रेरणादायक संस्था कांग्रेस ही थी न कि मुस्लिम लीग या कम्युनिस्ट पार्टी ये तीनों विद्रोह, उन पूर्ववर्ती राष्ट्रवादी गतिविधियों का विस्तार ही थे, जिनसे कांग्रेस अभिन्न रूप से जुड़ी हुयी थी। इन विद्रोहों में उसकी भूमिका सिर्फ समर्थक दल की ही नहीं थी बल्कि उसने रणनीति तय करने तथा कार्रवाइयों के संचालन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

इन विद्रोहों को पूर्ववर्ती घटनाओं से इस आधार पर पृथक किया जा सकता है कि इनमें विरोध प्रदर्शन का जो तरीका अपनाया गया वह पहले से भिन्न था। पूर्ववर्ती घटनाओं में राष्ट्रीय अखंडता की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति होती थी जबकि इन विद्रोहों में सत्ता को स्पष्ट एवं हिंसक चुनौती दी गयी थी।


यद्यपि अपनी रणनीति एवं समय के मद्देनजर कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर इन विद्रोहों का समर्थन नहीं किया। ‘समझौतावादी रुख’ कांग्रेस की रणनीति का अभिन्न हिस्सा था। उसके विचार में प्रतिवाद का यह रूप और उसका समय दोनों ही उपयुक्त नहीं है, अतः समझौते की रणनीति सबसे उचित है। उसका मानना था की भारतीय अभी इतने तैयार नहीं हैं की उपनिवेशवादी शासन को समूल उखाड़ फेंकें। इसीलिये उसने आंदोलनकारी जनता एवं नाविकों को सलाह दी कि वे हिंसक प्रतिवाद का रास्ता छोड़ दें तथा कांग्रेस के झंडे तले आकर उपयुक्त ढंग से संघर्ष करने में सहयोग प्रदान करें। उसने कहा कि कांग्रेस उचित समय की प्रतीक्षा में है तथा समय आने पर ही वह संघर्ष का बिगुल बजायेगी।

गांधीजी ने संघर्ष के लिये विद्रोह का तरीका अख्तियार करने की प्रक्रिया को निंदनीय कहा। उन्होंने कहा कि एक तो विद्रोह करना गलत है और यदि यह विद्रोह भारत की स्वतंत्रता के लिये किया गया तो यह दोहरी गलती है। उनका मानना था कि यदि लोगों को किसी प्रकार की शिकवा-शिकायत है तो इसके लिये उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं से सलाह करनी चाहिए तथा अपने उद्गारों की अभिव्यक्ति उचित ढंग से करनी चाहिए।

चुनाव के नतीजे

कांग्रेस का प्रदर्शन

  • उसे 91 प्रतिशत गैर-मुस्लिम मत प्राप्त हुये।
  • केंद्रीय व्यवस्थापिका (सेंट्रल एसेंबली) की 102 में से 57 सीटों पर कब्जा कर लिया।
  • प्रांतीय चुनावों में इसने बंगाल, सिंध एवं पंजाब को छोड़कर लगभग सभी अन्य प्रांतों में बहुमत प्राप्त किया। उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत तथा असम में भी कांग्रेस को बहुमत मिला, जहां कि मुस्लिम लीग यह दावा कर रही थी कि ये पाकिस्तान के हिस्से हैं।

मुस्लिम लीग का प्रदर्शन

  • इसे 86.6 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले।
  • केंद्रीय व्यवस्थापिका में इसने 30 आरक्षित स्थानों पर कब्जा कर लिया।
  • प्रांतीय चुनावों में इसने बंगाल व सिंध में बहुमत प्राप्त किया।
  • 1937 के चुनावों के विरुद्ध, इस बार मुस्लिम लीग मुसलमानों की मुख्य पार्टी बन गयी।

पंजाब यहां यूनियनवादी-कांग्रेस एवं अकाली गठबंधन ने खिज़ हयात खां के नेतृत्व में सरकार बनायी।

चुनाव के महत्वपूर्ण बिन्दुः इन चुनावों में पूर्ववर्ती विद्रोहों में परिलक्षित होने वाली सशक्त ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं के स्थान पर साम्प्रदायिक मत विभाजन का मुद्दा ज्यादा प्रभावी रहा। इसके निम्न कारण थे-

  1. पृथक निर्वाचन पद्धति।
  2. सीमित मताधिकार- प्रांतीय चुनावों में कुल जनसंख्या के केवल 10 प्रतिशत हिस्से ने ही मताधिकार का प्रयोग किया, जबकि केंद्रीय व्यवस्थापिका के लिये चुनावों में कुल जनसंख्या का केवल 1 प्रतिशत भाग ही मताधिकार के योग्य माना गया।

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