भारतीय अपवाह प्रणाली Indian drainage system

अपवाह तंत्र से अभिप्राय: वह जलमार्ग है जहां से नदियों इत्यादि का जल प्रवाहित होता है। किसी की मात्रा इत्यादि पर निर्भर करता है। एक नदी एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को अपवाह द्रोणी कहा जाता है। एक अपवाह द्रोणी को दूसरे से अलग करने वाली सीमा को जल विभाजक कहा जाता है।

भारतीय अपवाह तंत्र को विभिन्न तरीके से विभाजित किया जा सकता है। समुद्र में जल के बहाव के आधार पर, भारत के धरातल का 75 प्रतिशत जल बंगाल की खाड़ी में बहता है तथा बाकी बचा जल अरब सागर में जाता है। अरब सागर अपवाह तंत्र तथा बंगाल की खाड़ी अपवाह तंत्र को दिल्ली रिज, अरावली पर्वत श्रृंखला तथा सह्याद्रि द्वारा निर्मित जल विभाजक द्वारा पृथक् किया जाता है। गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी भारत के बड़े नदी तंत्र हैं जो बंगाल की खाड़ी में गिरती है, जबकि सिन्धु, साबरमती, नर्मदा तथा तपती का बड़ा नदी तंत्र अरब सागर में अपवाहित होता है। भारत का मात्र कुछ प्रतिशत क्षेत्र ही अंर्तभूमि अपवाह के तहत् आता है। जलक्षेत्र/बेसिन के आकार के आधार पर, भारतीय नदियों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. जो नदियां 20,000 वर्ग किमी. से अधिक जलागम या अपवाह क्षेत्र रखती हैं, विशाल नदियां हैं। ऐसी 14 नदियां हैं जिन्हें भारी वर्षा प्राप्त होती है।
  2. ऐसी नदियां जिनका जलागम या अपवाह क्षेत्र 2,000-20,000 वर्ग किमी. तक है, मध्यम नदियां हैं। इस श्रेणी में 44 नदियां आती हैं।
  3. जिन नदियों का अपवाह क्षेत्र 2,000 वर्ग किमी. से कम है, लघु नदियां हैं। ऐसी नदियां भारी संख्या में हैं।

सामान्यतया अपवाह प्रणाली को दो रूपों में विभाजित कर अध्ययन किया जाता है:

  1. क्रमबद्ध अपवाह तंत्र
  2. अक्रमवतीं अपवाह तंत्र

क्रमबद्ध अपवाह प्रणाली

ढालों के अनुरूप प्रवाहित होने वाली सरिताओं को क्रमबद्ध अपवाह कहते हैं। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं-

अनुवर्ती सरिता (Consequent Streams): ढाल के अनुरूप गमन करने वाली नदी को अनुवर्ती या अनुगामी सरिता कहते हैं। दक्षिण भारत की अधिकांश नदी अनुवर्ती श्रेणी की हैं। इन्हें नतजल धारा (DIP) भी कहा जाता है क्योंकि इनका प्रवाह नमन की दिशा में होता है। वलित पर्वतीय क्षेत्रों में इनका उद्गम अभिनति में होता है। बाद में इनका प्रवाह जालीनुमा विकसित होता है। इनके विकास हेतु सर्वाधिक उपयुक्त स्थलाकृति जलवायुमुखी शंकु तथा गुम्बदीय संरचना होती है। इनका विकास दो रूपों में सर्वाधिक होता है, प्रथम-वलित पर्वतों की अभिनतियों में तथा द्वितीय-अपनतियों के पार्श्व भागों पर। प्रथम को अनुदैर्ध्य अनुवर्ती तथा द्वितीय को पार्श्ववर्ती अनुवर्ती कहते हैं।

परवर्ती सरिता (SubsequentStream): अनुवर्ती सरिताओं के बाद उत्पन्न होने वाली तथा अपनतियों के अक्षों का अनुसरण करने वाली सरिताओं को परवर्ती सरिता कहते हैं। जितनी भी नदियाँ प्रमुख अनुवर्ती नदी से समकोण पर मिलती हैं, उन्हें सामान्यतया परवर्ती सरिता कहा जाता है।


प्रतिअनुवर्ती सरिता (Obsequent Streams): प्रधान अनुवर्ती नदी की प्रवाह दिशा के विपरीत प्रवाहित होने वाली नदी को प्रति अनुवर्ती कहते हैं। यह ढाल के अनुरूप प्रवाहित है, अतः यह भी अनुवर्ती ही होती है, परंतु क्षेत्र की द्वितीय श्रेणी की नदी होने के कारण तथा मुख्य नदी की विपरीत दिशा में प्रवाहित होने के कारण इसे अनुवर्ती न कहकर प्रतिअनुवर्ती कहा जाता है। यह परवर्ती नदियों को समकोण पर काटती हैं।

नवनुवर्ती सरिता (Resequent Streams): ढल के अनुरूप तथा प्रधान अनुवर्ती नदी के प्रवाह की दिशा में प्रवाहित होने वाली नदी को नवानुवर्ती सरिता कहते हैं। नवानुवर्ती, प्रधान अनुवर्ती के बाद विकसित होती है तथा द्वितीय श्रेणी की सरिता होती है। इसका उद्गमवलित संरचना पर द्वितीय अपरदन के समय होता है।

अक्रमबद्ध अपवाह प्रणाली

जो नदियां क्षेत्रीय ढाल के प्रतिकूल तथा भू-वैन्यासिक संरचना के आर-पार प्रवाहित होती हैं; उन्हें अक्रमबद्ध अथवा अक्रमवर्ती नदी कहा जाता है।

ये सरिताएं दो प्रकार से विकसित होती हैं-

पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र (Antecedent Drainage system): ऐसे प्रवाह पर संरचना तथा उत्थान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि किसी क्षेत्र में अपवाह प्रणाली का विकास हो चुका है तथा बाद में प्रवाह मार्ग पर स्थलखण्ड का उत्थान हो जाता है एवं नदी उत्थित भू-खण्ड को काटकर अपने पुराने प्रवाह मार्ग का अनुसरण करती है; तो ऐसे प्रवाह प्रणाली को पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र कहते हैं। सिन्धु, सतलज एवं ब्रह्मपुत्र नदियाँ भारतीय उपमहाद्वीप में इस प्रवाह प्रणाली के प्रमुख उदाहरण हैं।

अध्यारोपित प्रवाह प्रणाली (Superimposed Pattern): जब किसी भू-आकृतिक प्रदेश में धरातलीय संरचना नीचे की संरचना से भिन्न होती है, तो इस प्रकार की प्रवाह प्रणाली का विकास होता है। सर्वप्रथम उक्त धरातल पर ऊपरी संरचना के अनुसार प्रवाह विकसित होता है तथा धीरे-धीरे, नदी अपनी घाटी को निम्नवर्ती कटाव द्वारा गहरा करती है जैसे ही निचली संरचना मिलती है अपरदन कार्य में परिवर्तन आ जाता है परंतु नदी घाटी उस संरचना पर भी निम्नवर्ती कटाव जारी रखती है। इससे उस संरचना पर इसे अध्यारोपित माना जाता है। सोन नदी (रीवा पठार), चम्बल, स्वर्ण रेखा, बनास आदि नदियां इसका प्रमुख उदाहरण हैं।


अपवाह प्रतिरूप

किसी भी, प्रदेश में अपवाह तंत्र के ज्यामितिक आकार तथा सरिताओं की स्थानिक व्यवस्था को अपवाह प्रतिरूप कहते हैं। यह उक्त प्रदेश की संरचना, सरिताओं की अवस्थिति तथा संख्या, प्रवाह दिशा, ढाल, शैलों की विशेषता, विवर्तनिक कारकों तथा हलचलों, जलवायु तथा वनस्पतिक स्वरूप आदि से नियंत्रित होती है। अतः अपवाह प्रतिरूप के अध्ययन में उक्त कारक समाविष्ट हैं। सामान्यतया निम्नलिखित प्रवाह प्रतिरूप विकसित होते हैं-

  1. वृक्षाकार प्रतिरूप: ग्रेनाइट चट्टानों वाले क्षेत्रों में विकसित दक्षिण भारतीय नदियाँ इसी प्रकार की हैं।
  2. समानांतर प्रतिरूप: तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में विकसित होता है।
  3. जालीनुमा प्रतिरूप: क्वेस्टा स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में पाया जाता है।
  4. आयताकार प्रतिरूप: जहां चट्टानों की संधियां आयत के रूप में होता है, जैसे- पलामू क्षेत्र।
  5. अरीय प्रतिरूप: ज्वालामुखी शंकु या गुम्बदीय क्षेत्र।
  6. अभिकद्री प्रतिरूप: अंतः स्थलीय प्रवाह के क्षेत्र में पायी जाती है, जैसे-तिब्बत, काठमाण्डू घाटी, लद्दाख आदि।
  7. वलयाकार प्रतिरूप: गुम्बदीय संरचना, जैसे-किऊल नदी (मुंगेर)।
  8. कंटकीय प्रतिरूप: सरिता अपहरण वाले क्षेत्रों में विकसित होता है। सिन्धु एवं ब्रह्मपुत्र नदियों की ऊपरी घाटी में ऐसे प्रतिरूप मिलते हैं।

हिमालयीय नदी विकास

हिमालय की नदियाँ अपने प्रवाह मार्ग, घाटियों क्र निर्माण, डेल्टा के निर्माण, मैदानी भाग की सिंचाई आदि के द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। हिमालयीय नदियां चार बड़े वर्गों में प्रवाहित होती हैं-

  1. पूर्व हिमालयीय नदियां- जिसके अंतर्गत अरुण, सिंधु, सतलज और ब्रह्मपुत्र नदियां हैं।
  2. महान् हिमालयीय नदियां- जिसके अंतर्गत गंगा, काली, घाघरा, गंडक और तीस्ता नदियों का स्थान आता है।
  3. निम्न हिमालयीय नदियां- जिसके अंतर्गत व्यास, रावी, चिनाब और झेलम का स्थान है।
  4. शिवालिक नदियां- जिसके अंतर्गत हिण्डन और सोलनी का स्थान आता है।

हिमालयीय नदी प्रणाली

हिमालय की अनेक नदियां पूर्ववर्ती हैं एवं इन नदियों ने काफी गहरे गार्ज का निर्माण किया है। लम्बी अवधि एवं कठोर संरचना के कारण प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ खुली हुई एवं संतुलित घाटियों से होकर प्रवाहित होती हैं। ये नदियां अनुवर्ती या अनुगामी हैं। हिमालय की नदियां विसर्पण करती हैं एवं कभी-कभी अपने मार्ग को परिवर्तित कर लेती हैं। कोसी, तीस्ता, ब्रह्मपुत्र, सतलज, यमुना आदि नदियों ने अत्यधिक मार्ग परिवर्तित किया है। प्रायद्वीपीय भारत की नदियां कठोर चट्टानों की उपस्थिति एवं जलोढ़ों की कमी के कारण विसर्पण नहीं कर पाती हैं।

हिमालयीय नदियां अलग-अलग तीन नदी प्रणालियों का निर्माण करती हैं-

  1. सिंधु नदी प्रणाली
  2. गंगा नदी प्रणाली
  3. ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली

सिंधु नदी प्रणाली

विश्व की कुछ सबसे बड़ी नदी प्रणालियों में से एक है सिंधु नदी प्रणाली। इस प्रणाली के अंतर्गत भारत में प्रवाहित होने वाली प्रमुख नदियां हैं- सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलज आदि।

सिंधु (संस्कृत नाम-तिधु): सिंधु हिमालय से निकलने वाली नदियों में पश्चिमवर्ती नदी है। यह नदी हिमालय पर्वत् की लद्दाख श्रेणी के उत्तरी भाग में कैलाश चोटी के पृष्ठ भाग से 5,000 मीटर की ऊंचाई से निकलती है। नंगा पर्वत के समीप गहरा मोड़ बनाती हुई सिंधु नदी पाकिस्तान में प्रविष्ट होती है। जास्कर श्रेणी से निकलने वाली जास्कर नदी इससे लेह के समीप मिलती है। काराकोरम श्रेणी के उत्तर की ओर से निकलने वाली स्यांग नदी फिरीय के समीप सिंधु से मिलती है।

सिंधु नदी का भारत में कुल जलप्रवाह क्षेत्र 1, 17, 844 वर्ग किलोमीटर है। इस नदी की कुल लंबाई 2,880 किलोमीटर है, जबकि भारत में इसकी लंबाई 709 किलोमीटर है। सिंधु नदी माशेरब्रुम (7,821 मीटर), नंगा पर्वत (7.114 मीटर), राकापोशी (7,888 मीटर) तथा तिरिच मिर (7,690 मीटर) आदि-जैसी ऊंची पर्वत् चोटियों के बीच से होकर प्रवाहित होती है। सतलज, व्यास, झेलम, चिनाब, रवि, शिगार, गिलकित, सिंग, जसकर आदि सिंधु की प्रमुख सहायक नदियां हैं। ग्रीष्म ऋतु में हिम के ज्यादा पिघलने से इस नदी में बाढ़ आ जाती है। सिंधु नदी सिंधु के शुष्क प्रदेश में प्रवाहित होती हुई अंततः अरब सागर में विलीन हो जाती है।

झेलम (संस्कृत नाम- वितस्ता): झेलम नदी का उद्गम जम्मू-कश्मीर में स्थित शेषनाग का नीला जलस्रोत है। यह नदी कश्मीर में शेषनाग से शुरू होकर उत्तर-पश्चिम दिशा में 112 किलोमीटर तक प्रवाहित होती हुई वूलर झील में मिल जाती है। आगे निकलकर यह नदी हिमालय एवं पीरपंजाल श्रेणी के बीच से बहती हुई कश्मीर घाटी को अपने जल से सीचती है। झेलम नदी बारामूला से आगे निकलने के बाद पाकिस्तान में प्रविष्ट हो जाती है। पाकिस्तान में प्रवेश के पूर्व यह नदी एक बहुत गहरी घाटी का निर्माण करती है। इस घाटी को बासमंगल के नाम से जानते हैं और इसकी गहराई 2,130 मीटर है। झेलम नदी की कुल लंबाई 725 किलोमीटर है। भारत में इस नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 28,490 वर्ग किलोमीटर है और भारत में इसकी लम्बाई 400 किलोमीटर है। यह नदी सिंधु की सहायक नदियों में सबसे छोटी है, परंतु कश्मीर में यह एक महत्वपूर्ण नदी है, क्योंकि यह यहां का प्रमुख जलमार्ग है।

चिनाब (संस्कृत नाम-अस्किनि अथवा चंद्रभागा):चिनाब, सिंधु नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है। चिनाब की दो प्रमुख सहायक नदियां हैं- चंद्र एवं भागा। ये दोनों नदियां चिनाब के ऊपरी भाग पर आकर मिलती है। चंद्र एवं भागा नदियां लाहुल में बड़ा लाप्चा दर्रे (4,880 मीटर) के समीप से निकलती हैं और हादी के समीप एक-दूसरे से मिलती हैं। चिनाब नदी किश्तवाड़ पर एक विकट मोड़ का निर्माण करने के बाद पीरपंजाल में गहरी कंदरा का निर्माण करती हुई पाकिस्तान में प्रविष्ट हो जाती है। भारत में चिनाब नदी की लंबाई 1,180 किलोमीटर है, जबकि भारत में इसका जलग्रहण क्षेत्र 26,755 वर्ग किलोमीटर है।

रावी (संस्कृत नाम- पुरुष्णीय या इरावती): यह पंजाब की सबसे छोटी नदी है और इसे लाहौर की नदी के रूप में भी जाना जाता है। पीरपंजाल तथा धौलाधार श्रेणियों के बीच हिमाचल प्रदेश की कुल्लू पहाड़ी का रोहतांग दर्रा (4,000 मीटर) रावी नदी का उद्गम स्थल है। यह नदी धौलाधार पर्वतमाला के उत्तरी और पीरपंजाल श्रेणी के दक्षिणी ढालों का जल बहाकर अपने साथ लाती है। पठानकोट के समीप यह मैदानी भाग में प्रविष्ट होती है। पंजाब के गुरुदासपुर और अमृतसर जिलों की पश्चिमी सीमा बनाती हुई यह नदी पाकिस्तान में प्रवेश कर जाती है। आगे जाकर मुल्तान के समीप झेलम व चिनाब की सम्मिलित धारा के साथ रावी भी मिल, जाती है। भारत में रावी नदी की कुल लंबाई 725 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 5,957 वर्ग किलोमीटर है।

व्यास (संस्कृत नाम-विपासा या अर्गिकिया): इस नदी का उद्गम स्थल कुल्लू पहाड़ी में रोहतांग दर्रे (4,000 मीटर) का दक्षिणी किनारा है, जो रावी नदी के उद्गम स्थल से बहुत दूर नहीं है। यह नदी हिमाचल प्रदेश में कुल्लू, मण्डी और कांगड़ा जिलों में प्रवाहित होती हुई पठानकोट के पूर्व में मैदानी भाग में उतरती है। इससे थोड़ा-सा आगे बढ़ने पर यह नदी एक बड़ा मोड़ बनाती है और कपूरथला के निकट सतलज नदी में मिल जाती है। व्यास नदी की कुल लंबाई 470 किलोमीटर और इसका जल ग्रहण क्षेत्र 25,900 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है।

सतलज (संस्कृत नाम- शतद्रु उया शुतुद्री): सतलज भारत में सिंधु नदी की सहायक नदियों में प्रमुख है। तिब्बत में 4,630 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रकास झील सतलज नदी का उद्गम स्थल है। इस नदी को तिब्बत में लांगचेन खंबाब के नाम से जाना जाता है, जो दुल्चु खंबाब (मानसरोवर और कैलाश के बीच स्थित प्रमुख व्यापारिक केंद्र पर्खा से 35 किलोमीटर पश्चिम) से निकलती है। स्पीति नदी, सतलज की सर्वप्रमुख सहायक नदी है जिसका प्रवाह मध्य हिमालय में है। यह नदी हिमाचल प्रदेश में एक गहरी घाटी का निर्माण करती है। सतलज नदी धौलाधार श्रेणी में रामपुर के निकट संकरी घाटी से होकर गुजरती है। व्यास नदी कपूरथला के दक्षिण-पश्चिम किनारे पर सतलज से मिलती है और ये दोनों नदियां सम्मिलित होकर पठानकोट के समीप सिंधु नदी में मिल जाती हैं। भारत में सतलज नदी की कुल लंबाई लगभग 1,050 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र भारत में 24,087 वर्ग किलोमीटर है।

सरस्वती: अम्बाला जिले की सीमा पर सिरमौर की शिवालिक श्रेणी सरस्वती नदी का उद्गम स्थल है। यह नदी अधबदरी के समीप मैदानी भाग में प्रविष्ट होती है। यह भवानीपुर और बालचापार के पास बाहर निकल जाती है, किंतु करनाल के पास फिर से प्रविष्ट होती है। 175 किलोमीटर की दूरी तक प्रवाहित होने के बाद पटियाला में रासुला के समीप घग्घर नदी सरस्वती में मिल जाती है। घग्घर से मिलने के बाद सरस्वती को हाकरा अथवा सुतार के नाम से जाना जाता है। वैदिक साहित्य में सरस्वती नदी का उल्लेख भारत की पवित्रतम नदी के रूप में हुआ है, यहां तक कि इसे गंगा और सिंधु से भी ज्यादा महत्व का बताया गया है।

गंगा नदी प्रणाली

गंगा नदी प्रणाली भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी प्रणाली है। यह भारत के एक-चौथाई भाग से भी अधिक भाग में विस्तृत है। गंगा नदी और इसकी सहायक नदियों की घाटियों में भारत की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी निवास करती है।

गंगा: गंगा नदी की उसके प्रवाह क्रम के आधार पर अनेक स्थलों पर अनेक नामों से जाना जाता है। आरंभ में इसे भागीरथी के नाम से जाना जाता है। भागीरथी का उद्गम गढ़वाल में गंगोत्री नामक हिमनद से होता है। देवप्रयाग नामक स्थान पर अल्का हिमनद से निकलने वाली अलकनंदा, भागीरथी से मिलती है और यहीं से मध्य हिमालय और शिवालिक श्रेणी को काटती हुई गंगा नदी की उत्पत्ति होती है और यह ऋषिकेश और हरिद्वार में अवतरित होती है। गंगोत्री केदारनाथ चोटी के उत्तर में गोमुख नामक स्थान पर 6,600 मीटर की ऊंचाई पर है। मुख्य हिमालय के उत्तर से निकलकर जा वी नदी, भागीरथी से गंगोत्री के समीप मिलती है। ये दोनों नदियां सम्मिलित रूप से बंदरपंच और श्रीकांत चोटियों के बीच 4,870 मीटर गहरी घाटी बनाती हुई प्रवाहित होती हैं। गंगा का अपवाह पूर्वगामी है तथा यह हिमालय की श्रेणियों से भी पुराना है। कर्णप्रयाग के समीप गंगा में पिण्डार नदी मिलती है और इससे आगे बढ़ने पर इसमें मंदाकिनी नदी मिलती है। प्रयाग (इलाहाबाद) के समीप यमुना, गाजीपुर के समीप गोमती, छपरा के समीप घाघरा तथा पटना के समीप सोन नदी गंगा में मिलती है। गंगा की सहायक नदियों में रामगंगा, घाघरा, गण्डक, बूढ़ी गण्डक, बागमती और कोसी नदियाँ बाएं किनारे पर मिलती हैं, जबकि यमुना, सों और समोदर नदियां इसमें दायें किनारे से मिलती हैं। इनमें से सोन और दामोदर प्रायद्वीपीय भारत की नदियां हैं। इलाहाबाद से आगे बनारस, बक्सर, पटना, भागलपुर आदि में पूर्व की दिशा में प्रवाहित होती हुई गंगा नदी फरक्का के समीप दक्षिण की ओर मुड़ जाती है और यहां पर यह कई शाखाओं में बंट जाती है। हुगली प्रमुख शाखा है, जो पश्चिम बंगाल में बहती है। इसकी एक शाखा जमुना नाम से बांग्लादेश में प्रविष्ट होती है और अंततः मेघना नदी में मिलकर बंगाल की खाड़ी में समाहित हो जाती है

गंगा नदी 8,38,200 वर्ग किलोमीटर की घाटी या द्रोणी का निर्माण करती है, जो भारत की सबसे बड़ी नदी घाटी है। गंगा नदी का डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा है। हुगली और मेघना नदियों के बीच गंगा डेल्टा का क्षेत्रफल 51,306 वर्ग किलोमीटर है। गंगा नदी की कुल लंबाई 2510 किलोमीटर है, जबकि भारत में इसकी लंबाई 2,071 किलोमीटर है। गंगा नदी का जलग्रहण क्षेत्र 9,51,600 वर्ग किलोमीटर है।

यमुना: यमुना नदी का उद्गम स्थल 6,315 मीटर की ऊचाई पर स्थित यमुनोत्री हिमनद है, जो गंगा के उद्गम स्थल के पश्चिम में स्थित है। यह नदी जगाधरी के निकट मैदानी भाग में प्रविष्ट होती है और आगरा तक गंगा के समानांतर दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती हुई इलाहाबाद में गंगा से मिल जाती है। चंबल, सिंद, बेतवा और केन यमुना की प्रमुख सहायक नदियां हैं। यमुना नदी की कुल लंबाई 1,375 किलोमीटर है। इस नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 3,59,000 वर्ग किलोमीटर है। भूगर्भवेत्ताओं का ऐसा मानना है कि पूर्व में यमुना दिल्ली और अरावली की पहाड़ियों के पश्चिम में होते हुए थार में जाती थी और सरस्वती नदी की प्रमुख सहायक शाखा थी।

चम्बल: चम्बल नदी का उद्गम विंध्य श्रेणी के मऊ के समीप होता है और उत्तर की ओर कोटा तक प्रवाहित होती है। पिनाहाट पहुंचने के बाद यह नदी पूर्व की ओर मुड़ जाती है और इटावा जिले के दक्षिणी क्षेत्र में यमुना नदी में मिल जाती है। चंबल नदी की कुल लंबाई 1,050 किलोमीटर है। बनास चम्बल की प्रमुख सहायक नदी है और यह बायीं ओर से आकर मिलती है।

सोन: इस नदी का उद्गम अमरकंटक पहाड़ियों (600 मीटर) में होता है और उत्तर की ओर प्रवाहित होती हुई यह कश्मीर श्रेणी में मिलती है और उत्तर पूर्व में मुड़ जाती है। सोन नदी अपने प्रवाह मार्ग में अनेक जलप्रपातों का निर्माण करती है। रामनगर के समीप गंगा में विलीन होने से पूर्व सोन नदी लगभग 780 किलोमीटर की लंबाई पूरी करती है। सोन नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 71,900 वर्ग किलोमीटर है और इसकी सहायक नदियां मुख्य रूप से दाहिनी ओर से आकर इसमें मिलती हैं।

रामगगा: इस नदी का उद्गम स्थल कुमाऊं हिमालय के अंतर्गत गढ़वाल के पूर्वी भाग में नैनीताल के समीप है। रामगंगा कालागढ़ के समीप मैदानी भाग में प्रविष्ट होती है। बिजनौर, मुरादाबाद तथा बरेली में इस नदी का मुख्य प्रवाह है। बीच में शिवालिक पहाड़ियों के आ जाने के कारण इसका अपवाह दक्षिण-पश्चिम की ओर हो जाता है और मैदान में उतरने के पश्चात् इसका अपवाह दक्षिणपूर्व दिशा में हो जाता है। कन्नौज के निकट रामगंगा, गंगानदी में मिल जाती है। गंगा में बायीं ओर से आकर मिलने वाली सहायक नदियों में रामगंगा ही सर्वाधिक प्रमुख नदी है। इस नदी की कुल लंबाई 690 किलोमीटर है। रामगंगा नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 32,000 वर्ग किलोमीटर है।

शारदा: इस नदी को गौरी गंगा, चौकी और काली के नाम से भी जाना जाता है। यह नदी कुमाऊं के उत्तर-पूर्वी भाग में भिलाम हिमनद से निकलती है। आरंभ में इस नदी को गौरी गंगा कहते हैं। इसकी मुख्य सहायक नदियां धर्मा एवं लीसड़ हैं, जो अपने ऊपरी भागों में दक्षिण-पूर्वी दिशा में बहती हैं, किंतु मुख्य नदी में सरयू और पूर्वी रामगंगा नदियां उत्तर-पश्चिम से आकर पंचमेश्वर के निकट मिलती हैं। यहीं से यह नदी सरयू या शारदा के नाम से पहाड़ियों में चक्कर लगाती हुई ब्रह्मदेव के निकट मैदानी भाग में प्रविष्ट होती है। खीरी में इस नदी की चार शाखाएं हो जाती हैं- अल, शारदा, ढहावर और सुहेली। शारदा नदी घूमती हुई बहरामघाट के निकट घाघरा में दायीं ओर से मिल जाती है। यह नदी मुख्य रूप से भारत और नेपाल की सीमाओं पर प्रवाहित होती है।

घाघरा: इस नदी का उद्गम स्थल गंगोत्री के पूर्व में मापचा चूंगो हिमनद है। घाघरा नदी को पहाड़ी क्षेत्र में करनाली के नाम से जाना जाता है। यह नदी दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होकर दक्षिण-पश्चिम की ओर से हिमालय की लांघती है। मैदानी भाग में पहुंचने पर इसकी दो शाखाएं बन जाती हैं- पश्चिम की ओर करनाली तथा पूर्व की ओर शिखा, परंतु कुछ दूरी के बाद दोनों शाखाएं फिर से एक हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश में अवध में प्रवाहित होती हुई बिहार में छपरा के निकट यह नदी गंगा में समाहित हो जाती है। घाघरा नदी का अपवाह तंत्र 1,080 किलोमीटर लंबा है। इस नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 1,27,500 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से आधे से अधिक नेपाल में पडता है।

गण्डक: इस नदी का उद्गम नेपाल-चीन सीमा पर मध्य हिमालय का 7,600 मीटर ऊंचा स्थल है। इस नदी को नेपाल के पहाड़ी भाग में सालिग्रामी तथा मैदानी भाग में नारायणी कहते हैं। चम्पारण जिले के पास यह नदी बिहार में प्रवेश करती है। महाभारत श्रेणी को काटकर दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती हुई शिवालिक श्रेणी को पार कर मैदानी भाग में आती है और आगे चलकर सोनपुर के समीप गंगा में मिल जाती है। काली गंडक और त्रिशूल गंगा इसकी मुख्य सहायक नदियां हैं। गण्डक नदी की कुल लंबाई 425 किलोमीटर है और इसका जल ग्रहण क्षेत्र 48,500 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से मात्र 9,540 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ही भारत में पड़ता है।

कोसी: इस नदी का उद्गम स्थल नेपाल, तिब्बत और सिक्किम की चोटी है। इस नदी का क्षेत्र पूर्वी नेपाल में अधिक है और यह नदी बिहार के सहरसा जिले में विभिन्न मार्गों से प्रविष्ट होती है। इसकी मुख्य धारा अरुणा (पुंगचु) के नाम से गोसाई थान के उत्तर से निकलकर बहुत दूर तक पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। आगे चलकर इस नदी में चारू के साथ-साथ अनेक छोटी नदियां मिलती हैं, जिनका उद्गम पर्वतीय हिमनदों से होता है। भारत में कोसी नदी की लंबाई 730 किलोमीटर है। भागलपुर के समीप यह नदी गंगा में समाहित हो जाती है। कोसी नदी का कुल जल ग्रहण क्षेत्र 86,900 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से मात्र 21,500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भारत में पड़ता है।

दामोदर: इस नदी का उद्गम-स्थल छोटानागपुर पठार के दक्षिण पूर्व में पलामू जिले में तोरी नामक स्थान है। गर्ही, कोनार, जमुनिया और बराकर इसकी प्रमुख सहायक नदियां हैं। बराकर के मिलने के बाद यह बड़ी नदी का रूप ले लेती है। आसनसोल के निकट यह दक्षिण-पूर्वी दिशा में मुड़ जाती है। डायमण्ड हारबर के समीप यह हुगली में मिल जाती है और यहीं पर रूपनारायण नदी भी हुगली में मिलती है। दामोदर नदी 541 किलोमीटर लंबी है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 22,000 वर्ग किलोमीटर है।

ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली

ब्रह्मपुत्र नदी को तिब्बत में सांगपो तथा असम हिमालय में दिहांग कहा जाता है। इस नदी का उद्गम दक्षिण-पश्चिम तिब्बत में कैलाश पर्वत के पूर्वी ढाल पर 5,150 मीटर की ऊंचाई से होता है। दक्षिण तिब्बत में 1,290 किलोमीटर तक प्रवाहित होने के बाद यह असम हिमालय को पार करती है। आगे बढ़ते हुए नामचाबरवा पर्वत तक पूर्व दिशा में हिमालय के समानांतर प्रवाहित होती है तथा दक्षिण की ओर मुड़कर अरुणाचल प्रदेश में प्रविष्ट होती है। आगे पश्चिम दिशा की ओर असम घाटी में प्रवाहित होती हुई यह नदी बांग्लादेश में प्रवेश कर जाती है। इस प्रकार, ब्रह्मपुत्र की प्रमुख सहायक नदियां हैं- मनास, मटेली, सुबानसीरी, लोहित आदि। इसकी अनेक सहायक नदियां इसके अपवाह के विपरीत प्रवाहित होती हैं। तीस्ता नदी बांग्लादेश के उत्तरी भाग में ब्रह्मपुत्र से मिलती है। तीस्ता नदी सिक्किम और दार्जिलिंग क्षेत्र की एक मुख्य नदी है। सूरमा नदी मणिपुर के उत्तरी भाग से निकलकर अपने मार्ग में अनेक जलप्रपातों का निर्माण कर कछार जिले में पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। बदरपुर पहुंचने पर सूरमा नदी दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है और आगे बढ़ने पर ये दोनों शाखाएं एक होकर जमुना में (बांग्लादेश में) मिल जाती हैं। सूरमा नदी के सम्मिलन के बाद इस नदी को मोहाना कहा जाता है। अंतिम अवस्था में चांदपुर के निकट पद्मा और जमुना नदियां इसमें आकर मिलती हैं। ये धाराएं मिलकर एक विशाल एस्च्युअरी का निर्माण करती हैं। इस एस्च्युअरी के अंतर्गत अनेकद्वीप हैं। इसके अतिरिक्त धनशिरी, संकोश,रैदाक, दीशू और कपोली भी इसकी सहायक नदियां हैं। ब्रह्मपुत्र नदी की कुल लंबाई 2580 किलोमीटर है, जबकि भारत में इसकी लंबाई 885 किलोमीटर ही है। इसलिए, यह ध्यान देने योग्य बात है कि भारत में सबसे लंबी नदी गंगा है और भारत में प्रवाहित होने वाली नदियों की कुल लंबाई के आधार पर ब्रह्मपुत्र सबसे लंबी नदी है। ब्रह्मपुत्र नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 5,80,000 वर्ग किलोमीटर है, जबकि भारत में इसका जलग्रहण क्षेत्र 2,40,000 वर्ग किलोमीटर है।

[table id=137 /]


प्रायद्वीपीय नदियां

भारतीय प्रायद्वीप में अनेक नदियां प्रवाहित हैं। इनमें से अधिकांश परिपक्व अवस्था को प्रदर्शित करती हैं, विशेषकर घाटियों के निम्नवर्ती क्षेत्र की नदियां। मैदानी भाग की नदियों की अपेक्षा प्रायद्वीपीय भारत की नदियां आकार में छोटी हैं। यहां की नदियां अधिकांशतः मौसमी हैं और वर्षा पर आश्रित हैं। वर्षा ऋतु में इन नदियों के जल-स्तर में वृद्धि हो जाती है, पर शुष्क ऋतु में इनका जल-स्तर काफी कम हो जाता है। इस क्षेत्र की नदियां कम गहरी हैं, परंतु इन नदियों की घाटियां चौड़ी हैं और इनकी अपरदन क्षमता लगभग समाप्त हो चुकी है। यहां की अधिकांश नदियां बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं, कुछ नदियां अरब सागर में गिरती हैं और कुछ नदियां गंगा तथा यमुना नदी में जाकर मिल जाती हैं। प्रायद्वीपीय क्षेत्र की कुछ नदियां अरावली तथा मध्यवर्ती पहाड़ी प्रदेश से निकलकर कच्छ के रन या खंभात की खाड़ी में गिरती हैं।

पूर्वी प्रवाह वाली नदियां

जो नदियां पूर्व की ओर प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं, उनमें कुछ प्रमुख हैं-

महानदी: 858 किलोमीटर लंबी अपवाह प्रणाली वाली महानदी नदी का उद्गम स्थल मध्य प्रदेश के रायपुर जिले की अमरकंटक पहाड़ियों का सिहावा नामक स्थल है। यहां से पूर्व व दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर प्रवाहित होती हुई महानदी ओडीशा में कटक के निकट बड़े डेल्टा का निर्माण करती है। सियोनाथ, हसदेव, मंड और डूब उत्तर की ओर से आकर महानदी में मिलती हैं। तेल नदी बायीं ओर से इसकी प्रमुख सहायक नदी है। संभलपुर के समीप महानदी एक विशाल नदी का रूप धारण कर लेती है। महानदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 1,32,090 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 53 प्रतिशत मध्यप्रदेश में और 46 प्रतिशत ओडीशा में पड़ता है।

गोदावरी: प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियों में गोदावरी सबसे बड़ी नदी है और भारत में विस्तार की दृष्टि से दूसरी सबसे बड़ी नदी है। गोदावरी नदी को वृद्ध गंगा और दक्षिण गंगा की संज्ञा भी दी जाती है। इस नदी की कुल लंबाई 1,465 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 3,13,839 वर्ग किलोमीटर है। पश्चिमी घाट में नासिक की पहाड़ियों में त्रम्बक नामक स्थल से इस नदी का उद्गम होता है। यहां से दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई और अनेक छोटी नदियों को अपने में समाहित करती हुई यह आगे बढ़ती है। पूर्वी घाट में थोड़ी दूर तक तंग घाटी बनाने के बाद यह नदी बहुत फैल जाती है। राजमुंद्री के समीप गोदावरी नदी की चौड़ाई 2,750 मीटर हो जाती है। उत्तर में इसकी प्रमुख सहायक नदियां प्राणहित, इंद्रावती, शबरी, मंजरा, पेनगंगा, वर्धा, वेनगंगा, ताल, मुला, प्रवरा आदि हैं। दक्षिण में मंजीरा इसकी मुख्य सहायक नदी है। धवलेश्वरम् के बाद गोदावरी दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है- पूर्वी शाखा गौतमी गोदावरी के नाम से और पश्चिमी शाखा वशिष्ठ गोदावरी के नाम से प्राणहित होती है। इसके बीच में एक और नदी वैष्णव गोदावरी के नाम से प्रवाहित होती है। गोदावरी की ये तीनों शाखाएं क्रमशः येनम, नरसापुर और नागरा नामक स्थलों पर बंगाल की खाड़ी में समाहित हो जाती हैं।

कृष्णा: प्रायद्वीपीय भारत में प्रवाहित होने वाली दूसरी सबसे बड़ी नदी कृष्णा है। पश्चिमी घाट में महाबलेश्वर के उत्तर में 1,327 मीटर की ऊंचाई पर कृष्णा नदी का उद्गम स्थल है। इस नदी की कुल लंबाई 1400 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 2,59,000 वर्ग किलोमीटर है। कोयना, यरला, वर्णा, पंचगंगा, दूधगंगा, घाटप्रभा, मालप्रभा, भीमा, तुंगभद्रा और मूसी कृष्णा की प्रमुख सहायक नदियां हैं। ये सभी सहायक नदियां गहरी घाटियों में बहती हैं और वर्षा के दिनों में जल से परिपूर्ण होती हैं। भीमा और तुंगभद्रा के अतिरिक्त अन्य नदियों का जल स्तर शुष्क मौसम में काफी कम हो जाता है। तुंगभद्रा, कृष्णा की सबसे बड़ी सहायक नदी है। इस नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 71,417 वर्ग किलोमीटर है। तुंगभद्रा का निर्माण दो श्रेणियों- तुंग और भद्रा के मिलन से होता है। तुंगभद्रा का उद्गम स्थल कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले में पश्चिमी घाट में 1,200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगामूल नामक चोटी है। तुंगभद्रा 640 किलोमीटर की लंबाई पूर्ण करने के बाद कुर्नूल के समीप कृष्णा में समाहित हो जाती है। भीमा नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 76,614 वर्ग किलोमीटर है। यह नदी दक्षिण महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में बहती है तथा विजयवाड़ा के नीचे डेल्टा का निर्माण करती है। कृष्णा नदी डेल्टा बनाती हुई बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है और कृष्णा नदी का डेल्टा गोदावरी के डेल्टा से मिला हुआ है।

स्वर्ण रेखा: इस नदी का उद्गम स्थल झारखण्ड में छोटानागपुर पठार पर रांची के दक्षिण-पश्चिम में है। इस नदी का प्रवाह सामान्यतः पूर्वी दिशा में है। स्वर्णरेखा नदी का विस्तार मुख्य रूप से झारखण्ड के सिंहभूम, ओडीशा के मयूरभंज तथा पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बीच है। स्वर्णरेखा नदी की कुल लंबाई 395 किलोमीटर है (कहीं-कहीं इसकी लंबाई 433 किलोमीटर भी बतायी जाती है) और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 19,500 वर्ग किलोमीटर है।

ब्राह्मणी: ब्राह्मणी नदी का निर्माण कोयल और सांख नदियों के मिलन से होता है। ब्राह्मणी नदी का उद्गम स्थल भी वहीं है, जहां से स्वर्णरेखा नदी निकलती है। कोयल और सांख नदियां गंगपुर के समीप एक-दूसरे से मिलती हैं। ब्राह्मणी नदी का प्रवाह बोनाई, तलचर और बालासोर जिले में है। बंगाल की खाड़ी में गिरने से ठीक पूर्व वैतरणी नदी, ब्राह्मणी से मिलती है। ब्राह्मणी नदी की कुल लंबाई 705 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 36,300 वर्ग किलोमीटर है।

वैतरणी: इस नदी का उद्गम स्थल ओडीशा के क्योंझर पठार पर है। वैतरणी नदी की कुल लंबाई 333 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में लगभग 19,500 वर्ग किलोमीटर है।

पेन्नार: इस नदी का उद्गम कोलार जिला (कर्नाटक) से होता है। चित्रावती और पापाग्नि इसकी मुख्य सहायक नदियां हैं। इस नदी की दो शाखाएं हैं- उत्तरी पेन्नार 560 किलोमीटर लंबी है और कुड़प्पा, अनंतपुर के मार्ग से प्रवाहित होती हुई नेल्लूर के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है। दक्षिणी पेन्नार 620 किलोमीटर लम्बी है और तमिलनाडु में सेलम और दक्षिणी अर्काट जिलों में प्रवाहित होती हुई कुलाडोर के उत्तर में बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है।

कावेरी: इस नदी का उद्गम कर्नाटक के कुर्ग जिले में 1,341 मीटर की ऊंचाई से होता है। मैदानी भाग में अवतरित होने के पूर्व यह नदी मैसूर के पठार में प्रवाहित होती है। यह नदी दक्षिण-पूर्व दिशा में कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों में 805 किलोमीटर की लंबाई में प्रवाहित होती है। उत्तर की ओर हेमावती, लोकपावनी, शिम्सा और अरकावती इअकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं, जबकि दक्षिण की ओर इसकी मुख्य सहायक नदियाँ हैं- लक्ष्मणतीर्थ, कबबीनी, स्वर्णवती, भवानी और अमरावती। तमिलनाडु में प्रवेश करने के पूर्व कावेरी को मेका दाटु, आडु, थंडम कावेरी आदि नामों से जाना जाता है। श्रीरंगम् के पास यह नदी उत्तरी कावेरी और दक्षिणी कावेरी के नाम से दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। बंगाल की खाड़ी में गिरने के पूर्व कावेरी विशाल डेल्टा का निर्माण करती है। इस डेल्टा का आरंभ तिरुचिरापल्ली से 16 किलोमीटर पूर्व होता है। कावेरी का डेल्टा लगभग 31,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है,जिसमें से लगभग 55 प्रतिशत तमिलनाडु, 41 प्रतिशत कर्नाटक और 3 प्रतिशत केरल के क्षेत्र में आता है। कावेरी नदी अपने प्रवाह मार्ग में शिवसमुद्रम और होकेनागल नामक दो विशाल जलप्रपातों का निर्माण करती है। प्राचीन काल का प्रसिद्ध कावेरीपट्टनम् बंदरगाह कावेरी नदी के तट पर ही था।

ताम्रपणीं: इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के अगस्त्यमलय ढाल (1,838 मीटर) से होता है। यह नदी तिरुनेवेल्ली जिले से शुरू होकर समाप्त भी यहीं होती है। प्राचीन पाण्ड्य राज्य की राजधानी कोकई किसी समय आठ किलोमीटर तक ताम्रपर्णी नदी के अंदर चली गई थी। इस नदी की कुल लंबाई 120 किलोमीटर है। ताम्रपर्णी नदी कल्याणतीर्थम नामक स्थल पर 90 मीटर ऊंचे जलप्रपात का निर्माण करती है। यह नदी मन्नार की खाड़ी में गिरती है।

पश्चिमी प्रवाह वाली नदियां

प्रायद्वीपीय भारत में कुछ नदियां ऐसी हैं, जो पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होती हुई अरब सागर में गिरती हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं-

नर्मदा: इस नदी का उद्गम स्थल मैकाल पर्वत की 1,057 मीटर ऊंची अमरकंटक चोटी है। प्रायद्वीप की पश्चिमी प्रवाह वाली नदियों में नर्मदा सबसे बड़ी है। इसके उत्तर में विंध्याचल और दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत् है। नर्मदा हांड़ियां ओर मांधाता के बीच तीव्र गति से प्रवाहित होती है और जलप्रपात का निर्माण करती है। मध्यप्रदेश में जबलपुर के नीचे भेड़ाघाट की संगमरमर की चट्टानों और कपिलधारा प्रपात का सुंदर दृश्य देखने को मिलता है। कपिलधारा जलप्रपात को धुंआधार के नाम से जाना जाता है और इसका निर्माण नर्मदा नदी करती है। बंजर, शेर, शक्कर, तवा, गंवाल, छोटी तवा, हिरन आदि नर्मदा की सहायक नदियां हैं। नर्मदा की कुल लंबाई 1,312 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 93,180 वर्ग किलोमीटर है। भड़ौंच के निकट यह खम्भात की खाड़ी में विलीन हो जाती है।

ताप्ती (तापी): इस नदी का उद्गम स्थल बेतूल जिले का 792 मीटर ऊंचा मुल्ताई नामक स्थल है। यह प्रायद्वीप की पश्चिमी प्रवाह वाली दूसरी सबसे बड़ी नदी है। ताप्ती या तापी नदी की कुल लंबाई लगभग 724 किलोमीटर है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 64,750 वर्ग किलोमीटर है। इसकी मुख्य सहायक नदियां हैं- लावदा, पटकी, गज्जल, बोदक, अम्भोरा, खुरसी, खांडू, कपर, सिप्रा, इतौली, कखेकरी, पूर्ण, भोकर, सुकी, मरे, हरकी, मनकी, गुली, अरुणावती, गोमई, नाथुर, गुरना, बोरी, पंझरा आदि। नर,अदा के समानान्तर प्रवाहित होती हुई सतपुड़ा के दक्षिण में सूरत के समीप एक एस्चुअरी का निर्माण करने के बाद तपती नदी अरब सागर में गिर जाती है।

लूनी: इसका उद्गम स्थल राजस्थान में अजमेर जिले के दक्षिण-पश्चिम में अरावली पर्वत का अन्नासागर है। यह नदी 450 किलोमीटर लम्बी है और अरावली के समानांतर पश्चिम दिशा में बहती है। अजमेर में पुष्कर झील से निकलने वाली सरसुती इसकी मुख्य सहायक नदी है। लूनी नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 37,250 वर्ग किलोमीटर है। यह नदी कच्छ के रन के उत्तर में साहनी कच्छ में समाप्त हो जाती है।

साबरमती: इस नदी का उद्गम स्थल राजस्थान के उदयपुर जिले में अरावली पर्वत पर स्थित जयसमुद्र झील है। साबरमती प्रायद्वीप में प्रवाहित पश्चिम प्रवाह वाली नदियों में तीसरी सबसे बड़ी नदी है। सावर और हाथमती इसकी मुख्य सहायक नदियां हैं। साबरमती नदी की कुल लंबाई लगभग 330 किलोमीटर (कहीं-कहीं 416 किलोमीटर भी) है और इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 21,674 वर्ग किलोमीटर है।

माही: इस नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में होता है और यह नदी धार, रतलाम तथा गुजरात में प्रवाहित होती हुई अंततः खम्भात की खाड़ी में विलीन हो जाती है। यह नदी 560 किलोमीटर लंबी है, जिसमें से अंतिम 65 किलोमीटर ज्वार के रूप में है।

हिमालयीय और प्रायद्वीपीय नदियों में अंतर

  1. प्रायद्वीपीय नदियां पूर्ण विकसित अवस्था की हैं, जबकि हिमालयीय नदियां अभी भी नए सिरे से अपना विकास कर रही हैं।
  2. प्रायद्वीपीय नदियों की अपरदन क्षमता लगभग समाप्त हो चुकी है और इसलिए वे अब अपना मार्ग-परिवर्तन करने में अक्षम हैं, जबकि हिमालयीय नदियों की अपरदन क्षमता काफी तीक्ष्ण है और ये अपना मार्ग-परिवर्तन करने में भी दक्ष हैं।
  3. उत्तर भारत की अनेक नदियां ऐसी हैं, जो हिमालय पर्वतश्रेणियों से भी पुराने काल की हैं। हिमालय पर्वत ज्यों -ज्यों उभरता गया, वैसे-वैसे ये नदियां अपनी घाटी को गहरी करती हुई पूर्ववत् प्रवाहित होती रहीं। उत्थान और नदियों के कटाव की क्रियाएं साथ-साथ चलती रहीं और इसका परिणाम यह हुआ कि नदियों की प्रवाह की गति नियमित रही। दूसरी ओर, प्रायद्वीपीय नदियों का उद्गम प्राचीन पठारों से होता है, जो बहुत पहले ही अपनी संपूर्ण क्षमता का प्रदर्शन कर चुकी हैं। प्रायद्वीप की नदियां अपने आधार तल को प्राप्त कर चुकी हैं और निचली घाटियों में इनकी गति लगभग समाप्त हो जाती है।
  4. हिमालयीय नदियां अपने तीव्र प्रवाह, श्रेणियों के समानांतर आरंभिक प्रवाह और बाद में अचानक दक्षिण की ओर घूमकर समुद्र में गिरती हैं, इसलिए ये नदियां अपने प्रवाह मार्ग में तंग घाटियों का ही निर्माण करती हैं। दूसरी ओर, प्रायद्वीपीय नदियों की घाटियां प्रायः चौड़ी और उथली हैं, क्योंकि यहां का ढाल बहुत कम है।
  5. प्रायद्वीपीय नदियों का अपवाह-तंत्र अनुगामी है, जबकि हिमालयीय नदियों का अपवाह-तंत्र अनुगामी नही है।
  6. हिमालयीय नदियां सदाबहार हैं, क्योंकि इनके जल का स्रोत हिमालय के बड़े-बड़े हिमनद हैं। दूसरी ओर, प्रायद्वीपीय भारत की प्रायः अधिकांश नदियां मौसमी हैं। ये नदियां वर्षा ऋतु में जल से भर जाती हैं, परंतु शुष्क मौसम में सूख जाती हैं।
  7. हिमालयीय नदियां तेज प्रवाह और अधिक गहराई लिए हुए होने के कारण यातयात का मार्ग उपलब्ध कराती हैंं, जबकि प्रायद्वीपीय नदियाँ कम गहरी और मौसमी होने के कारण यातायात के अनुकूल नहीं हैं।
  8. इस प्रकार, इन दो नदी प्रणालियों का अपना-अपना पृथक् स्थलाकृतिक स्वरूप और पृथक्-पृथक् अपवाह प्रणाली है और इसलिए ये दोनों अलग-अलग रूपों में परिलक्षित होती हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *