भारत: चट्टानों का वर्गीकरण India: Classification of Rocks

कालक्रमिक वर्गीकरण

भूपर्पटी पर ठोस पिण्ड के रूप में दिखाई देने वाले किसी भी प्राकृतिक निक्षेप को चट्टान कहा जाता है। इनका निर्माण दो प्रकार से होता है

  1. पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण, तथा;
  2. आदि चट्टानों के रूपांतरण या विखंडन से पुनः जम जाने के कारण।

विद्वानों द्वारा भारतीय चट्टानों को प्रमुखतः चार वर्गों में विभाजित किया गया है:

आर्कियन समूह की चट्टानें – पूर्व कैम्ब्रियन: 500 मिलियन से अधिक प्राचीन

आर्कियन क्रम की चट्टाने

पृथ्वी के ठंडा होने पर सर्वप्रथम इन चट्टानों का निर्माण हुआ। ये चट्टानें अन्य प्रकार की चट्टानों हेतु आधार का निर्माण करती हैं। नीस, ग्रेनाइट, शिस्ट, मार्बल, क्वार्टज़, डोलोमाइट, फिलाइट आदि चट्टानों के विभिन्न प्रकार हैं।

यह भारत में पाया जाने वाला सबसे प्राचीन चट्टान समूह है, जो प्रायद्वीप के दो-तिहाई भाग को घेरता है। जब से पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व है, तब से आर्कियन क्रम की चट्टानें भी पाई जाती रही हैं। इन चट्टानों का इतना अधिक रूपांतरण हो चुका है कि ये अपना वास्तविक रूप खो चुकीं हैं। इन चट्टानों के समूह बहुत बड़े क्षेत्रों में पाये जाते हैं। यह लगभग 1,87,500 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले हुए हैं। इनका विस्तार मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडीशा, बिहार के पठारी क्षेत्र तथा राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी भाग पर है। मुख्य हिमालय के कुछ भागों में भी इस प्रकार की चट्टानें पाई जाती हैं। आर्कियन क्रम की चट्टानों की विशेषता है कि ये रवेदार होती हैं परंतु इसमें जीवाश्मों का सर्वथा अभाव होता है, क्योंकि आंतरिक शक्तियों का काफी प्रभाव इन चट्टानों पर पड़ा है।


धारवाड़ क्रम की चट्टानें

इस समूह की चट्टानों का निर्माण आर्कियन क्रम की चट्टानों के रूपांतरण अथवा भ्रंशन से हुआ। धारवाड़ शैल समूह की चट्टानें सबसे पहले बनी अवसादी शैलें हैं। आज ये कायान्तरित रूप में मिलती हैं। इनमें भी जीवाश्म नहीं मिलते हैं। ये चट्टानें कर्नाटक, मध्य प्रदेश, झारखंड, मेघालय और राजस्थान में फैली हैं। ये मध्य और उत्तरी हिमालय में भी पाई जाती हैं। शिस्ट, स्लेट, क्वाटूजाइट और कांग्लोमेरेट इसी वर्ग की चट्टानें हैं। इस शैल समूह में सोना, मैगनीज-अयस्क, लौह-अयस्क, क्रोमियम, तांबा, यूरेनियम, थोरियम और अभ्रक जैसे खनिज पाए जाते हैं। ग्रेनाइट, संगमरमर, क्वार्टूजाइट और स्लेट जैसी चट्टानों के रूप में भवन निर्माण सामग्री भी इनमें उपलब्ध है।

धारवाड़ क्रम की चट्टानें मध्यवर्ती एवं पूर्वी दक्कन प्रदेश में विभिन्न श्रेणियों के नाम से विस्तृत हैं, यथा-बालाघाट और भटिंडा में चिपली श्रेणी, नागपुर व जबलपुर में सागर श्रेणी, हजारीबाग व रीवा में गोंडाइट श्रेणी तथा विशाखापट्टनम में कुदोराइट श्रेणी। इसी तरह गुजरात एवं दिल्ली में क्रमशः चम्पानेर श्रेणी तथा अरावली के क्षेत्र में ऊपरी अरावली श्रेणियों के नाम से जानी जाती है।

बाह्य प्रायद्वीप की धारवाड़ क्रम की चट्टानें मुख्यतः पश्चिमी हिमाचल प्रदेश की निचली घाटियों में प्राप्त होती है। बाह्य प्रायद्वीपीय धारवाड़ क्रम की चट्टानें भी विभिन्न स्थानों पर विभिन्न श्रेणियों के नामों से जानी जाती हैं। इन्हें असोम के पठारी भाग में शिलांग श्रेणी, कश्मीर में सखलाना श्रेणी तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित समिति घाटी में वैक्रता श्रेणी के नाम से जाना जाता है।

प्रायद्वीप और वाह्य-प्रायद्वीप की धारवाड़ चट्टानों में काफी भिन्नताएँ देखने को मिलती है। प्रायद्वीपीय चट्टानों का रूपांतर बहुत ज्यादा हुआ है जबकि वाह्य प्रायद्वीपीय चट्टानों का अपेक्षाकृत कम। प्रायद्वीपीय चट्टानों के अत्यधिक रूपांतरित होने के कारण उनमें खनिज पदार्थ अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं। कहीं-कहीं ये चट्टानें एक साथ काफी दूर के क्षेत्रों में व्याप्त मिलती हैं। इसके विपरीत बाह्य प्रायद्वीप में धारवाड़ क्रम की चट्टानें अधिकतर गहरी गर्तों और घाटियों में मिलती है या कहीं ऊचे स्थान पर। इसके पीछे वजह यह है कि इन प्रदेशों का धरातल निर्माण के बाद ऊपर उठा है और इस पर अधिक जमाव नहीं हो पाया है। कहीं यदि जमाव हुआ भी है तो वह सही रूप में नहीं है।

भारत में पायी जाने वाली समस्त चट्टानों में आर्थिक दृष्टि से यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण चट्टान है। देश में उपलब्ध लगभग सभी धातुएं इन्हीं चट्टानों की देन हैं। ये धातुएं हैं-सोना, तांबा, लोहा, मैंगनीज जस्ता, टंगस्टन, क्रोमियम आदि। इन धातुओं के अलावा कई खनिज पदार्थ भी इन चट्टानों से प्राप्त होते हैं- सीसा, अभ्रक, कोबाल्ट, फ्लूराइट, इल्मैनाइट, ग्रेनाइट, बजफ्राम, गारनेट, एस्बेस्टस, कोरडम और संगमरमर आदि। धातुओं में सोना मुख्य रूप से कर्नाटक के कोलार क्षेत्र में और धारवाड़ की घाटी में मिलता है और लोहा मुख्य रूप से बिहार, मध्य प्रदेश, ओडीशा, गोवा व कर्नाटक में मिलता है।

पुराण समूह: इस समूह के चट्टानों की उत्पत्ति विभिन्न विवर्तनिक (Tectonic) हलचलों के कारण हुई। धारवाड़ समूह की चट्टानों के रूपांतरण से ही पुराण समूह की चट्टानों की उत्पत्ति हुई। धारवाड़ चट्टानों की आंतरिक हलचलों की प्रक्रिया में निचले भागों में कुड़प्पा क्रम की चट्टानें तथा ऊपरी भागों में विंध्यन क्रम की चट्टानें प्राप्त हुई।

कुडप्पा क्रम की चट्टाने (600 मिलियन-I,400 मिलियन वर्षा प्राचीन)

ध्यातव्य है कि इन चट्टानों का निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के बाद एक अंध युग के पश्चात् हुआ है। धारवाड़ युग की चट्टानें समय के साथ धीरे-धीरे विभिन्न जलज क्रियाओं द्वारा कट-छंट कर समुद्र एवं नदियों की निचली घाटियों में जमा होती रहीं और बाद में इन्हीं एकत्रित निक्षेपों ने चट्टानों का रूप ग्रहण कर लिया, जिन्हें हम कुडप्पा क्रम की चट्टानें कहते हैं। आध्र प्रदेश के कुडप्पा जिले के नाम पर इस चट्टान समूह का नामकरण किया गया है। कुडप्पा जिले में यह चट्टान अर्द्ध-चंद्राकार स्वरूप में एक विशाल क्षेत्र में पाई जाती है, जिसकी ऊंचाई लगभग 6,000 मीटर है। कुडप्पा क्रम की चट्टानों की निर्माण सामग्री शैल, स्लेट, क्वार्टजाइट तथा चुने के पत्थर की चट्टानों से प्राप्त हुई है। ऐसा नहीं है कि इन चट्टानों में रूपांतरण नहीं हुआ है, परंतु धारवाड़ चट्टानों की अपेक्षा कम हुआ है। इन चट्टानों के विषय में सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि अब तक इन चट्टानों में जीवाश्मों का रूप प्राप्त नहीं किया जा सका है जबकि उस समय पृथ्वी पर जीवन का आविर्भाव हो चुका था। सामान्यतः ये चट्टानें निचली कुडप्पा चट्टानें और ऊपरी कुडप्पा चट्टानें नामक दो वर्गों में विभाजित हैं। इनका विस्तार लगभग 22,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में है। ये चट्टानें मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा हिमालय के कुछ क्षेत्रों में स्थित हैं। आर्थिक दृष्टि से कुडप्पा चट्टानें धारवाड़ चट्टानों से कम महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें खनिज पदार्थ अपेक्षाकृत कम मात्रा में मिलते हैं। हालांकि इन चट्टानों से हमें तांबा, निकेल, कोबाल्ट, लोहा मैंगनीज, संगमरमर, जास्पर, एस्बेस्टस, हीरे, चूना-पत्थर, बालुका, पत्थर और सीसा आदि प्राप्त होते हैं।

विध्यन क्रम की चट्टानें

विंध्यन चट्टानों का निर्माण कुडप्पा चट्टानों के बाद हुआ है। इसका नामकरण विंध्याचल के नाम पर किया गया है। जल निक्षेपों के द्वारा निर्मित ये परतदार चट्टानें हैं। यह प्रमाणित है कि निक्षेप समुद्र एवं नदी घाटियों में ही एकत्र हुए थे। क्योंकि, विंध्यन चट्टानों से बलुआ पत्थर प्राप्त हुआ है, जो इस बात का सूचक है कि जिन निक्षेपों से इन चट्टानों का निर्माण हुआ है, वह छिछले सागर में ही एकत्र हुए थे।

कुडप्पा चट्टानों की भांति इन चट्टानों को भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-निचली विंध्यन चट्टानें और ऊपरी विंध्यन चट्टानें। निचली विंध्यन चट्टानें उन निक्षेपों द्वारा बनी हैं जो समुद्र में काफी मोटी परत में जमे हुए थे। ये चट्टानें अधिकतम प्रायद्वीपीय भारत में पायी जाती हैं। निचली विंध्यन चट्टानें मुख्य रूप से पांच प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जहां इन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। सोन नदी की घाटी में सेमरी श्रेणी, आंध्र प्रदेश के दक्षिण पश्चिमी भाग में करनूल श्रेणी, भीमा नदी की घाटी में भीमा श्रेणी, राजस्थान के जोधपुर तथा चित्तौड़गढ़ में पलनी श्रेणी तथा ऊपरी गोदावरी घाटी तथा नर्मदा घाटी के उत्तर में मालवा व बुंदेलखण्ड में इन चट्टानों की विभिन्न श्रेणियां मिलती हैं। इन चट्टानों से सेलखड़ी, चूना-पत्थर तथा क्वार्टूजाइट आदि प्राप्त होता है।

ऊपरी विंध्यन चट्टानें नदियों की घाटी में होने वाली निक्षेप से बनी हैं। ये चट्टान प्रायद्वीपीय भारत के साथ-साथ बाह्य प्रायद्वीपीय भागों में भी पाई जाती हैं। ये भी मुख्य रूप से पांच क्षेत्रों में पायी जाती हैं-नर्मदा के उत्तरी भागों में, कटनी से इलाहाबाद जाने वाले मध्य रेलवे मार्ग, सोन नदी पर स्थित डेहरी-ऑन-सोन जाने वाले रेलमार्ग, प्रायद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में अरावली एवं उसके निकटवर्ती भाग, पीर पंजाल एवं धौलाधार श्रेणियां और शिमला एवं लाहौल-स्पीती घाटी के निकटवर्ती भाग में।

इन चट्टानों का विस्तार लगभग एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। यह पूर्व दिशा में बिहार के सासाराम एवं रोहतास क्षेत्र से लेकर पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ क्षेत्र तक तथा उत्तर में आगरा से लेकर दक्षिण में होशंगाबाद तक फैली हुई हैं। विंध्यन चट्टानों की अधिकतम चौड़ाई आगरा और नीमच के बीच है, जो लगभग 4,242 मीटर है। विंध्यन चट्टानों से कई प्रकार के खनिज प्राप्त होते हैं, जैसे-चूना-पत्थर, बलुआ पत्थर, चीनी मिट्टी, अग्निप्रतिरोधक मिट्टी, वर्ण मिट्टी, तांबा, निकिल, कोबाल्ट, जॉस्पर, एस्बेस्टस, कोयला, आदि इन चट्टानों से ही प्राप्त होते हैं। इन्हीं चट्टानों से पन्ना और गोलकुण्डा में हीरे भी मिलते हैं।

  1. द्रविडियन समूह: द्राविडियन समूह की चट्टानें जीवावशेषों से युक्त होते हैं। इस समूह की चट्टानें प्रायः प्रायद्वीप के बाहरी भागों में पाई जाती हैं। द्रविड़ महाकल्प में प्रायद्वीप पठार समुद्र तल से ऊपर था अतः इस शैल समूह की चट्टानें यहां नहीं पायी जाती । उल्लेखनीय है कि, द्रविड़ शैल समूह की चट्टानें हिमालय में एक निरंतर क्रम में मिलती हैं। इस समूह की चट्टानों से कोयला, बलुआ पत्थर तथा रासायनिक उर्वरक इत्यादि प्राप्त होते हैं।
  2. आर्यन समूह: ऊपरी कार्बनी कल्प में द्रोणी के आकार के गर्तों का निर्माण हुआ। इसी काल में पर्वतीय व मैदानी भागों का निर्माण हुआ। इस समूह की चट्टानों का विवरण इस प्रकार है:

गोंडवाना क्रम की चट्टानें (350) मिलियन वर्ष पूर्व

विन्ध्य क्रम की चट्टानों के निर्माण के काफी दीर्घ समय तक कोई विशेष विवर्तनिक हलचल नहीं हुई। किंतु जब ऊपरी कार्बनीफेरस काल में विश्वव्यापी सरसीनियन हलचल हुई तब संकरी घाटियों में नदी द्वारा एकत्र होने वाले पदार्थों द्वारा इन चट्टानों का निर्माण हुआ।

प्रायद्वीपीय भारत और बाह्य प्रायद्वीपीय भारत में इनका विस्तार इस प्रकार है- प्रायद्वीपीय भारत में दामोदर नदी की घाटी में ये चट्टानें राजमहल पहाड़ियों तक विस्तृत हैं, महानदी की घाटी में महानदी श्रेणी, गोदावरी तथा वानगंगा एवं वर्धा नदी की घाटियों में, नागपुर तक दक्कन के मुख्य पठारी भाग में, कच्छ, काठियावाड़, पश्चिमी राजस्थान, चेन्नई, कटक, विजयवाड़ा, राजमुंदरी, तिरुचिरापल्ली और रामनाथपुरम में मिलती हैं। इस प्रकार यह चट्टान मुख्य रूप से बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है।

बाह्य प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में चट्टानों का विस्तार अधिक स्पष्ट नहीं है। कश्मीर, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम में इस प्रकार की चट्टानें पाई जाती हैं। भारत के अलावा इसके निकटवर्ती प्रदेशों में भी ये चट्टानें मिलती हैं, यथा- नेपाल, पाकिस्तान, भूटान, अफगानिस्तान, आदि। बाह्य प्रायद्वीपीय चट्टानें प्रायद्वीपीय चट्टानों से काफी भिन्न हैं।

आर्थिक महत्व की दृष्टि से ये चट्टानें काफी उपयोगी हैं। भारत का 98 प्रतिशत कोयला केवल इन्हीं चट्टानों में पाया जाता है। गोण्डवाना चट्टान से प्राप्त बलुआ पत्थर इमारतों के निर्माण के काम आता है। इसके अलावा चीका मिट्टी, लिग्नाइट कोयला, सीमेंट और रासायनिक उर्वरक आदि कई खनिज पदार्थ इन चट्टानों से प्राप्त होते हैं।

दक्कनट्रैप (100 मिलियन वर्ष पूर्व)

मीसोजोइक युग के अंतिम काल में प्रायद्वीपीय भारत में ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था, जिसके उद्गार से लावा उत्पन्न हुआ तथा इसने दक्कन के पठार की आकृति को जन्म दिया। यह प्रायद्वीप भारत में 5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र तक फैला हुआ है।

दक्कन ट्रैप्स की चट्टानें काफी सख्त हैं किंतु दीर्घकाल से इनका कटाव होता रहा है तथा इस कटाव से जो चूर्ण बना उससे काली मिट्टी का निर्माण हुआ। इस मिट्टी को रेगुर अथवा कपासी मिट्टी भी कहते हैं। इसी ट्रेप से लेटराइट मिट्टी का निर्माण हुआ है, जिसे बनाने में मानसूनी जलवायु का योगदान है। इसमें लोहा, मैगनीज और एल्यूमिना आदि के अंश मिलते हैं। दक्कन ट्रेप में बेसॉल्ट व डोलोरॉइट 2.9 के आपेक्षिक घनत्व के अनुसार पाये जाते हैं। खनिजीय विशेषताओं के साथ-साथ दक्कन ट्रेप में रासायनिक विशेषताओं में भी एकरूपता पाई जाती है। इनमें सिलिका की मात्रा 50 प्रतिशत होती है तथा लोहा, कैल्शियम और मैग्नीशियम भी काफी मात्रा में मिले होते हैं।

दक्कन ट्रेप का विस्तार भारत के विभिन्न क्षेत्रों में है, परंतु मुख्य रूप से यह महाराष्ट्र के अधिकांश भागों को घेरती है। इसके अतिरिक्त यह गुजरात, मध्य भारत और बिहार तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में भी फैली हुई है। भूगर्भ वेत्ताओं द्वारा अनुमान लगाया गया है कि वर्तमान महाराष्ट्र तट के पश्चिम में कुछ दूर तक अरब सागर में दक्कन ट्रेप फैली थी, पर इस भाग में दरार आ गयी और यह समुद्र में डूब गई। इन दोनों तथ्यों की पुष्टि इस आधार पर की गई है कि पश्चिमी तट के महाद्वीपीय जलमग्न तट की सीधी व खड़ी ढाल है और ट्रेप की चौड़ाई 2,134 मीटर तक है।

दक्कन ट्रेप चट्टानें उत्तम  किस्म के पत्थर प्रदान करती हैं, जिसे भवन व् सड़क निर्माण के कार्य में प्रयुक्त किया जाता है। महाराष्ट्र के समीप कुछ हल्के रंग की ट्रेचिरिक चट्टानें मिलती हैं, जिनमें पाइरॉइट और केलसारॉइट का कुछ अंश प्राप्त होता है। खंभात और रत्नगिरि से माणिक, अगेट आदि रत्न प्राप्त होते हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में बॉक्साइट के जमाव भी मिलते हैं, जिसका उपयोग एल्युमीनियम अयस्क के रूप में और पेट्रोल शोधन के लिए किया जाता है।

टरशियरी समूह

इस समूह की चट्टानों का निर्माण काल इयोसीन युग से लेकर प्लायोसीन युग तक माना जाता है। भारत के लिए इस युग का महत्व इसलिए भी अत्यधिक है, क्योंकि इस समय भारत ने अपने वर्तमान रूप को धारण किया था। इसके अलावा टरशियरी महाकल्प ने भारत को दो भौतिक प्रदेश भी प्रदान किए- प्रायद्वीपीय पठार तथा हिमालय पर्वत। इस महाकल्प ने भारत की चट्टानों और वनस्पतियों में भी काफी परिवर्तन किए।

टरशियरी चट्टानें मुख्य रूप से भारत के बाह्य प्रायद्वीपीय भाग में पाई जाती हैं। भारत के अतिरिक्त यह पाकिस्तान में बलूचिस्तान के मकरान तट से लेकर सुलेमान-किरथर श्रेणी तक, हिमालय पर्वत श्रेणी से होती हुई बर्मा के अराकान योमा पर्वत श्रेणी तक फैली है। प्रायद्वीपीय भारत में इनका विस्तार केवल तटीय क्षेत्रों में ही है। टरशियरी कल्प की चट्टानों को क्रमशः तीन भागों में बांटा जा सकता है-

  1. इयोसीन क्रम की चट्टानें,
  2. ओलिगोसीन एवं निम्नवर्ती मायोसीन क्रम की चट्टानें, तथा;
  3. मायो-प्लायोसीन क्रम की चट्टानें।

टरशियरी कल्प की इन सभी चट्टानों से विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थ मिलते हैं। बलुआ पत्थर, चीका, लाल व पीला गेरू आदि इन चट्टानों से प्राप्त होते हैं। इयोसीन क्रम की चट्टानों के मध्यवर्ती भागों में पेट्रोल के भंडार भी पाए जाते हैं।

हिमालय की उत्पत्ति

इयोसीन युग और प्लायोसीन युग की अवधि के बीच टेथिस सागर का तल उथला हो गया और इसके बेसिन पर पर्वत के निर्माण की हलचल होने लगी। इन आंतरिक हलचलों के परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत की उत्पत्ति हुई। हिमालय पर्वत के अतिरिक्त अन्य कई पर्वतों की उत्पत्ति भी इसी हलचल के परिणामस्वरूप हुई, वे हैं- कॉकेशस, ईरानियन, कॉरपेथियन, पिरेनीज और आल्प्स। हिमालय के उत्थान में पांच कालों का योगदान माना जा सकता है। इनमें से प्रथम काल ऊपरी क्रिटेशियस है और दूसरा ऊपरी इयोसीन। इन कालों में नारी, गज और मुर्री का जमाव देखा जा सकता है। हिमालय का तीसरा उत्थान मध्य मायोसीन काल में देखने को मिलता है। इस काल में टेथिस सागर के अवशेष पूर्ण रूप से विलुप्त हो गए और हिमालय के दक्षिण में एक छोटी-सी खाड़ी की उत्पत्ति हुई। इस खाड़ी में नदियों द्वारा निक्षेप एकत्रित किया गया और यही निक्षेप प्लायोसीन काल के अंत में ऊपर उठे जिनसे शिवालिक पहाड़ियों का निर्माण हुआ। यह हिमालय का चौथा उत्थान था। हिमालय का अंतिम एवं पांचवां उत्थान प्लीस्टोसीन काल के अंत में हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पीर पंजाल पर्वत श्रेणी का उत्थान तथा कश्मीर घाटी का निर्माण हुआ। हैं।

सभी प्रारंभिक टरशियरी चट्टानें समुद्री चट्टानें हैं, जिनमें, उथले और गहरे जल निक्षेप शामिल हैं। उत्तर-पश्चिम में स्थित इयोसीन चट्टानें समुद्री चट्टानें हैं और मुर्री चट्टानें नदी सागर के मिलन स्थल पर निर्मित चट्टानें हैं तथा शिवालिक चट्टानें नदीय चट्टानें हैं।

क्वाटरनरी समूह: इस समूह की चट्टानों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है-

  1. प्लीस्टोसीन क्रम की चट्टानें
  2. वर्तमान क्रम की चट्टानें

प्लीस्टोसीन क्रम की चट्टानें: इस काल में पृथ्वी के कुछ हिस्सों में हिमनदों का विस्तार हुआ था जिससे तापमान में स्वाभाविक गिरावट आई व इसका पशु जीवन व वनस्पति पर प्रभाव पड़ा। इस दौरान हिमालय पर हिमानियों का विस्तार काफी निचले स्तर तक हो गया था। इन हिमानियों से कुछ क्षेत्रों में जल प्रवाहित होने से झीलों का निर्माण हुआ।

कश्मीर घाटी का निर्माण प्लीस्टोसीन काल में हुआ था। कश्मीर घाटी में कोरेवां नाम का एक विशाल सरोवर था। इस सरोवर में जिन चट्टानों का निर्माण हुआ, उन्हें कोरेवां राशि कहा गया। यह राशि झेलम की घाटी और पीर पंजाल के किनारे पर चपटे उतलों का निर्माण करती है। ये चपटे उत्तल श्रीनगर और गुलमर्ग के बीच पाये जाते हैं। इस राशि में बालू, दोमट एवं चीका मिट्टी और गोलाश्म प्राप्त होते हैं। कोरेवां चट्टानों का फैलाव लगभग 7,500 वर्ग कि. मी. तक है। यह चट्टानें मुख्यतया अनुप्रस्थ दशा में फैलती है। ऊपरी परतें, निचली परतों की अपेक्षा अधिक मोटी है। इनकी चौड़ाई लगभग 1,600 मी. तक होती है। इन चट्टानों में लिग्नाइट कोयले के भण्डार मिलते हैं। यह चट्टानें कश्मीर घाटी के दक्षिणी किनारे पर पीर पंजाल पर्वतों के रूप में मुड़ गई हैं। पीर पंजाल पर्वत में भी इसकी चौड़ाई 1,600 मीटर तक दिखाई देती है। इन साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि इन पर्वतों का निर्माण कश्मीर घाटी के अवसाद जमा होने के बाद ही हुआ है। इन अवसादों के विषय में यह माना जाता है कि एक बड़ी झील में इनका जमाव हुआ। यह झील उत्तर में हिमालय श्रेणी और दक्षिण में फैली किसी श्रेणी के बीच स्थित थी, जो श्रेणी बाद में पीर पंजाल पर्वत श्रेणी बनी। ओडीशा तट पर चिल्का झील का निर्माण महानदी द्वारा बहाकर लाये गये अवसादों के निक्षेप से ही हुआ है। गुजरात स्थित कच्छ का रन एक ऐसा प्रदेश है, जो प्लीस्टोसीन काल में समुद्र का भाग था, परंतु अब यह प्लीस्टोसीन तथा आधुनिक काल के अवसादों से भर चुका है। पश्चिमी राजस्थान स्थित थार मरुस्थल से भी प्लीस्टोसीन काल के जमाव के प्रमाण मिलते हैं।

कोरेवां चट्टानें नदीय और सरोवरीय प्रकार की चट्टानें हैं। निचले कोरेवां चट्टानों से चीड़, ओक, बीच, हांली, दलचीनी आदि के अवशेष पाए जाते हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है की उस समय की जलवायु शीतोष्ण थी। खाद्य पदार्थ और पेड़-पौधों के अतिरिक्त जीव-जंतुओं का भी अस्तित्व मिलता है, यथा-मछलियां, सीप तथा अन्य स्तनपायी जीव। प्रायद्वीप के तटीय भागों में बालू मिलती है, जिसमें उत्तरार्द्ध प्लीस्टोसीन और आधुनिक काल के मोलस्क सीप पाये जाते हैं। ऐसे जमाव मुख्य रूप से ओडीशा, तमिलनाडु और गुजरात में ही मिलते हैं।

वर्तमान क्रम की चट्टानें: इस क्रम की चट्टानों की निर्माण-प्रक्रिया आज भी जारी है। वर्तमान में तटीय बालिका-स्तूप, नदियों के मुहानों का निर्माण आदि कई प्रक्रियाएं कार्यशील हैं। ताप्ती, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी और पेरियार नदियों ने अपने-अपने मुहानों पर कांप का विशाल निक्षेप एकत्रित कर लिया है और बंगाल की खाड़ी के तटीय भागों पर बालुका-स्तूप का जमाव हो गया है। ऐसी और कई प्रक्रियाएं जारी हैं।

इस प्रकार, संक्षिप्त में ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का प्रायद्वीप भाग प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक की विभिन्न चट्टानों से भरा-पड़ा है। यहां पर कई ऐसी चट्टानें भी मौजूद हैं जो अपना मूल रूप बदल चुकी हैं, अर्थात्, वह इतनी प्राचीन हो गयी हैं कि उनका वास्तविक रूप ही परिवर्तित हो गया है।


संरचनात्मक वर्गीकरण

संरचना के आधार पर चट्टानों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. आग्नेय चट्टान;
  2. अवसादी चट्टान, एवं;
  3. रूपांतरित चट्टान

आग्नेय चट्टानें: इन्हें प्राथमिक चट्टान भी कहते हैं क्योंकि अन्य प्रकार की चट्टानों का निर्माण इन्हीं से हुआ है। सभी चट्टानों का मूल पदार्थ एक समय गर्म व चिपचिपी अवस्था में था, जिसे मैग्मा कहते हैं। यह भू-गर्भीय भाप द्वारा प्रेरित होकर 60 से 100 कि.मी. की गहराई से दरारों से होता हुआ प्रायः धरातल की ओर बढ़ता है। यह या तो अंदर ही अंदर ठोस रूप धारण करता है या धरातल के ऊपर पहुंचकर ठोस बनता है। जब मैग्मा कठोर रूप धारण करता है तो उसे आग्नेय चट्टान कहते हैं।

विशेषताएं: आग्नेय चट्टानें कठोर, रवेदार, परतहीन तथा जीवावशेष रहित होती हैं। पानी का प्रवेश कम होने से इनमें रासायनिक अपक्षय की क्रिया बहुत ही कम होती है। इन चट्टानों में संधियां पायी जाती हैं। इनका वितरण ज्वालामुखी क्षेत्रों में अधिक होता है।

अवसादी चट्टानें: अपरदन के कारण जब चट्टानें टूटकर टुकड़ों में बिखर जाती हैं और फिर छोटे कणों में बदल जाती हैं तो अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है। बालू, मिट्टी, बजरी तथा रोड़ी अवसाद के ही रूप हैं। पौधों और जानवरों के अवशेषों से उत्पन्न जैव-पदार्थ भी अवसादी चट्टानों का निर्माण करते हैं।

विशेषताएं: भूपृष्ठ के 75 प्रतिशत भाग में विस्तृत अवसादी चट्टानें परतदार, संधियुक्त तथा जीवावशेषों से परिपूर्ण होती है। ये संगठित, असंगठित या ढीली किसी भी प्रकार की हो सकती हैं। इनमें अपरदन का प्रभाव शीघ्र होता है।

रूपांतरित चट्टानें: जब अधिक दाब व ताप से चट्टानों के मूल लक्षण के मूल लक्षण में आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन होता है उन्हें रूपांतरित चट्टानें कहते हैं। इस प्रकार की चट्टानों का निर्माण भी प्रायः उन्हीं परिस्थितियों में होता है जिनमें आग्नेय चट्टानों का निर्माण होता है।

विशेषताएं: इनमें ग्रेनाइट से नीस, चूना-पत्थर से संगमरमर तथा गेब्रो से सरपेन्टाइन का निर्माण होता है। इन चट्टानों में खनिज लगभग समानांतर पतों में व्यवस्थित होते हैं।


स्थालाकृतियां

भारत धरातलीय दृष्टि से विभिन्नताएं रखने वाला देश है। यहां पर पर्वत, पहाड़ियां, पठार और मैदान सभी प्रकार के भू-दृश्य पाये जाते हैं। भारतवर्ष में प्राचीन पर्वत श्रेणियों में मुख्य रूप से अरावली, सतपुड़ा और विंध्याचल पर्वत हैं। भारत के कुल क्षेत्रफल का 10.7% भाग पर उच्च पर्वत, 18.3% भाग पर पहाड़ियां और 43% भाग पर मैदान तथा 28% भाग पर पठारी भाग है। भौतिक रचना एवं धरातल के आधार पर भारत को पांच भाग में विभाजित किया जा सकता है-

  1. उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र,
  2. विशाल मैदान,
  3. प्रायद्वीप पठार,
  4. मरुस्थलीय प्रदेश,
  5. तटीय प्रदेश एवं द्वीप समूह

Leave a Reply to Davidbep Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *