भूख एवं गरीबी Hunger and Poverty

विश्व में, विकसित एवं विकासशील दोनों ही देशों में, भुखमरी की तुलना में न तो सामाजिक और न ही कोईआर्थिक समस्याइतनी आपातप्रकृति की है। जबकि इस तरह की निराशाजनक स्थिति नई नहीं है, लेकिन उल्लेखनीय तकनीकी एवं उत्पादक उन्नति के बावजूद, भुखमरी का निरंतर अस्तित्व गरीबी एवं सामाजिक न्याय के प्रश्न में गहन जांच का विषय है।

गरीबी एवं भुखमरी शक्तिशाली हैं लेकिन जानी पहचानी शब्दावली है। हर कोई जानता है कि इनका क्या अर्थ है, फिर भी, इनका प्रत्येक के लिए एक अलग चित्रण है। संयुक्त राष्ट्र संघ, शायद एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय संगठन है जिसने भुखमरी एवं गरीबी जैसे मामलों पर कार्य किया है, गरीबी को दो भागों में वर्गीकृत किया है- आय निर्धनता एवं मानवनिर्धनता।

आय निर्धनता

यह गरीबी को समझने की ऐसी श्रेणी है जो पूरी तरह से मौद्रिक आय के स्तरों पर आधारित है। इसका प्रयोग विश्व बैंक एवं संयुक्त राष्ट्र दोनों द्वारा किया जाता है। विश्व बैंक के अनुसार, जो लोग प्रतिदिन 1 अमेरिकी डॉलर से भी कम पर गुजर-बसर करते हैं वे बेहद गरीब हैं, और वे लोग जो प्रतिदिन 2 अमेरिकी डॉलर से कम कमाते हैं, गरीब हैं।

पूरे विश्व में, लगभग 10 करोड़ लोग प्रतिदिन 1 डॉलर से कम परजीवन व्यतीत करते हैं। लगभग 2.6 बिलियन लोग प्रतिदिन 2 डॉलर से कम पर जीवन बसर करता है। यह विश्व जनसंख्या का 20 प्रतिशत है। दक्षिण एशिया में अत्यधिक गरीबी है। भारत,विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है जिसमें 34 प्रतिशत लोग 1 डॉलर प्रतिदिन से कम पर और 80 प्रतिशत 2 डॉलर प्रतिशत से कम पर जीवन व्यतीत करते हैं।

मानव निर्धनता

जहां आय निर्धनता एक संकेतक पर आधारित होती है, वहीं मानव निर्धनता गरीबी से सम्बद्ध विभिन्न आयामों से जुड़ी होती है। इसमें भौतिक स्तर पे वंचितों जैसे, उचित भिजन की कमी, कपडा, आवास एवं कार्य के अभाव को शामिल किया जाता है। इसमें सामाजिक वंचना जैसे रोजगार, सामाजिक संस्थानों में सहभागिता, एवं शिक्षा से वंचना भी शामिल है। संयुक्त राष्ट्र ने मानव निर्धनता फ्रेमवर्क के साथ-साथ आय निर्धनता का भी उपयोग किया है।


निर्धनता के कारण

आर्थिक-कारक: अपर्याप्त विकास को भारत में निर्धनता का कारण माना गया है। बाजार अर्थव्यवस्था की कमी तथा सरकार का अत्यधिक विनियमन, लाल फीताशाही जिसमें लाइसेंस राज के तौर पर जाना जाता है, भारत निर्धनता के कारकों में शामिल है। चीन, सिंगापुर एवं दक्षिण कोरिया जैसे एशियाई देशों में निर्धनता की वही स्थिति थी जो भारत में स्वतंत्रता के समय थी,लेकिन भारत ने समाजवादी केंद्रीयकृत योजनाबद्ध, बंद अर्थव्यवस्था को अपनाया। भारत की आर्थिक नीतियां  निर्धनता के लिए काफी बड़ा कारण रही हैं। भारत ने 1950 में उच्च संवृद्धि दर, व्यापार एवं निवेश के प्रति खुलापन, एक वृद्धिपरक राज्य, सामाजिक कार्यजागरूकता एवं वृहद् स्थिरता के साथ शुरू किया लेकिन 1980 के दशक तक आते-आते इसकी निम्न संवृद्धि दर, व्यापार एवं निवेश में कमी, लाइसेंस राज की व्यवस्था, सामाजिक व्यय को बनाए रखने की अक्षमता और वृहद् अस्थिरता, ने संकट की स्थिति पैदा की।

सामाजिक कारक: भेदभाव, पूर्वाग्रह, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, प्रांतीयता भी रोजगार के अवसरों और कुल आय को प्रभावित करते हैं। भारत में प्रादेशिकता पर आधारित असंतुलन विभिन्न राज्यों की आय के अंतर की ओर संकेत करता है।

इन दो बड़े कारकों के अतिरिक्त, वर्ग समाज का शोषण, अत्यधिक जनसंख्या, पूंजी की कमी, उच्च निरक्षरता, महत्वाकांक्षा व आर्थिक प्रेरणा का अभाव, गर्म जलवायु में दुर्बल स्वास्थ्य और सहनशक्ति का अभाव, प्रतिबद्ध और ईमानदार प्रशासकों का अभाव,पुरानी सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता का अभाव, और कृषकों को पूर्ण रूप से गतिहीन स्थिति में रखने वाली शोषक भूमि व्यवस्था निर्धनता के कारणों में शामिल हैं।

भूख एवं निर्धनता के मध्य संबंध

व्यापक तौर पर देखा जाए तो, भूख असहजता या असुविधा की भावना को व्यक्त करती है जिसमें शरीर के संकेत भोजन की बेहद आवश्यकता को दर्शाते हैं। एक समय पर सभी लोग इस प्रकार की जरूरत को महसूस करते हैं। जब भूख या भोजन की कमी लगातार बनी रहती है, तो परिणाम खतरनाक हो सकते हैं।

प्रत्येक निर्धन व्यक्ति भूखा नहीं है, लेकिन भूख से पीड़ित लगभग सभी लोग निर्धन होते हैं। लाखों लोग भूख एवं कुपोषण के साथ जीवन जीते हैं। क्योंकि साफ तौर पर वे पर्याप्त भोजन खरीदने में असमर्थ हैं, स्वास्थ्यवर्धक भोजन नहीं खरीद सकते या अपने पर्याप्त विकास के लिए कृषि आपूर्ति का खर्चा वहन नहीं कर सकते। भूख या भुखमरी को अत्यधिक निर्धनता के एक आयाम के तौर पर देखा जा सकता है। इसे प्रायः निर्धनता का बेहद घृणित रूप कहा जाता है।

ऐतिहासिक प्रवृतियां बताती हैं कि निर्धनता में कुपोषण की अपेक्षा तेजी से कमी की जा सकती है। यह बताते हैं कि गरीबी में कमी प्रायः उनको लाभ पहुंचाती है जो इतने निर्धन नहीं हैं कि उन्हें भूखा रहना पड़े।

सयुंक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास लक्ष्य भूख एवं निर्धनता को अपने प्रथम लक्ष्य अत्यंत निर्धनता एवं भुखमरी का उन्मूलन की प्राप्ति के लिए युग्मित करता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आय निर्धनता, कुपोषण, रोजगार-जनसंख्या अनुपात और अन्य रोजगार संकेतकों का प्रयोग किया जाता है।

भारत में भूख एवं गरीबी

भारत में गरीबी बेहद व्यापक है, जैसाकि आंकलित किया गया है कि विश्व का तीसरा गरीब भारत में है। ऑक्सफोर्ड निर्धनता एवं मानव विकास पहल (ओपीएचआई)के अनुसार, भारत के 8 राज्य 26 निर्धनतम अफ्रीकी देशों से अधिक निर्धन हैं।

यूनीसेफ के नवीनतम आंकड़ों के तहत पुरे विश्व में तीन कुपोषित बच्चों में से एक भारत में पाया जाता है, जबकि देश के पांच वर्ष तक की आयु के 42 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई)-2011 की रिपोर्ट ने भारत की उन देशों में स्थान दिया है जहां वर्ष 1996 और 2011 के बीच जीएचआई में 22.9 से 23.7 तक की वृद्धि हुई है, जबकि 81 में से 78 विकासशील म्यांमार, युगांडा जिम्बाब्वे एवं मलावी शामिल हैं, भुखमरी की स्थिति में सुधार करने में सफल हुए हैं।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई)2012 के अनुसार सामाजिक क्षेत्रों में लगातार बढ़ रहे खर्च और तेज आर्थिक विकास के बावजूद भारत में अल्प पोषित लोगों, सामान्य से कम वजन वाले बच्चों और शिशु मृत्युदर के अनुपात में कोई खास फर्क नहीं आया है। भारत विश्व की भूख सूचकांक की सूची में 65वें स्थान पर है। इसका तात्पर्य है कि हंगर चार्ट में वर्ष 2011 और 2012 के बीच रैंकिंग में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

हालांकि, विगत् दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने निरंतर संवृद्धि हासिल की है, तथापि जब विभिन्न सामाजिक समूहों, आर्थिक समूहों, भौगोलिक प्रदेशों, और ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों की तुलना की जाती है तो यह संवृद्धि असमान रही है। 1999 से 2008 के बीच गुजरात, हरियाणा या दिल्ली की वार्षिक संवृद्धि दर बिहार, उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश से ऊंची थी। ग्रामीण ओडीशा और ग्रामीण बिहार में निर्धनता दर क्रमशः 34 प्रतिशत एवं 41 प्रतिशत है, जो विश्व में बेहद अधिक है, उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति के बावजूद, राष्ट्र को जनसंख्या का एक-चौथाई हिस्सा सरकार द्वारा निर्धारित प्रतिदिन 32 रुपए (गरीबी रेखा से ऊपर व्यक्ति) से भी कम कमाता है।

भूख एवं गरीबी से संबंधित विषय

एकीकृत निर्धनता मापन सूत्र का अभाव दरअसल भारत में गरीबी मापन का कोई एकीकृत उपाय नहीं है। योजना आयोग ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया जो भारत के 37 प्रतिशत लोगों को गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) दर्शाती है। अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट, जो 1993-94 और 2004-05 के आंकड़ों पर आधारित है, मानती है कि 77 प्रतिशत भारतीय प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम पर गुजर-बसर करते हैं। एन.सी. सक्सेना समिति रिपोर्ट बताती है कि, जो राष्ट्रीय आय से इतर कैलोरी उपभोग पर आधारित है, 50 प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।

निर्धनता निवारण की सीमा पर विवाद

भारत में निर्धनता की परिभाषा संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम द्वारा प्रश्नगत की जाती रही है। ग्लोबल हगर इंडेक्स रिपोर्ट में यह कहकर भारत सरकार की गरीबी की परिभाषा को प्रश्नगत किया कि, कैलोरी वंचना उस दौरान बढ़ रही थी जब गरीबी रेखा से नीचे की ग्रामीण जनसंख्या में तेजी से कमी आ रही थी, जो आधिकारिक निर्धनता आकलन और कैलोरी वंचना के मध्य बढ़ते असंचार एवं असम्पर्क को दर्शाता है।

जबकि भारत में गरीबी को कुल मात्रा में कमी हुई है, गरीबी निवारण की सीमा अक्सर चर्चा में रहती है। इस बात पर सहमति दिखाई देती है कि 1903-04 और 2004-05 के बीच गरीबी में इजाफा नहीं हुआ है, लेकिन इस बात पर तस्वीर धुंधली है यदि गैर-आर्थिक आयामों (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराध, अवसंरचनात्मक ढांचा तक पहुंच) पर इसका विश्लेषण किया जाता है। जिस तरह से भारत तीव्र आर्थिक प्रगति कर रहा है, यह संभव है कि ग्रामीण जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण भाग निरंतर शहरों की तरफ कूच करेगा, जिससे दीर्घावधि में शहरी गरीबी का विषय महत्वपूर्ण हो जाएगा।

यह विचार महत्वपूर्ण है कि जबकि कुल गरीबी में वृद्धि नहीं हुई है, भारत संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में नितलीय स्थान पर रहता है।

कुपोषण की निरंतरता

न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार, भारत में लगभग 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। विश्व बैंक ने कहा कि, विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलनों का उद्धरण देते हुए, विश्व के लगभग 49 प्रतिशत कम वजन के बच्चे, विश्व के 34 प्रतिशत अविकसित बच्चे और विश्व के 46 प्रतिशत दुर्बल एवं क्षीण बच्चे भारत में हैं। विश्व बैंक ने गौर किया कि, जबकि गरीबी ही अक्सर बच्चों में कुपोषण का एक कारण होती है, उप-सहारा अफ्रीका की तुलना में दक्षिण एशियाई देशों द्वारा उच्च आर्थिक संवृद्धि प्राप्त की गई है, जो इसे दक्षिण एशियाई देशों के बच्चों के लिए उत्कृष्ट पोषणीय दर्जे में परिवर्तित नहीं कर पाए। भारतीय उच्चतम न्यायालय के विशेष आयोग ने गौर किया कि भारत में बालकुपोषण दरउप-सहारा अफ्रीका से दोगुनी है। विश्व बैंक के आंकड़े दशतेि हैं कि उप-सहारा अफ्रीका में कम वजन के बच्चों का प्रतिशत 24 है जबकि भारत में यह दोगुने से अधिक 49 प्रतिशत है जिसमें से 50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों से, 38 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों से, 48.9 प्रतिशत कम वजन के बच्चे बालिकाएं हैं और 45.5 प्रतिशत लड़के हैं।

कुपोषम से अक्सर डायरिया मलेरिया, एवं मीजल्स जैसी बीमारियों से सम्बद्ध होता है जो स्वास्थ्य देखभाल साधनों तक पहुंच के अभाव के कारण होता है जिसका संबंध गरीबी की समस्या से भी होता है। संयुक्त राष्ट्र ने आकलित किया है कि प्रत्येक वर्ष 2.1 मिलियन भारतीय बच्चे 5 वर्ष की आयु तक पहुंचने से पूर्व ही काल कवलित हो जाते हैं।

देश में कुपोषण की समस्या का सामना करने के लिए भारत सरकार वर्ष 1975 में समन्वित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) लेकर आई। आईसीडीएस विश्व में बाल विकास का सर्वाधिक व्यापक कार्यक्रम है लेकिन भारत में कुपोषण की समस्या पर इसका प्रभाव सीमित रहा। ऐसा इसलिए हुआ कि यह कार्यक्रम 3 साल तक के बच्चों पर ध्यान देने में नाकाम रहा, जिन्हें इस कार्यक्रम से सर्वाधिक मदद मिलनी चाहिए थी। आईसीडीएस केंद्रों की गुणवत्ता में भी राज्यवार विभिन्नता है और अक्सर कुपोषण से गंभीर रूप से प्रभावित बच्चों को सबसे कम मात्रा में मदद मिली। बेहद असंतोषजनक मदद के बावजूद, आईसीडीएस अभी भी देश में बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार का सक्षम कार्यक्रम माना जाता है। यूनीसेफ के आंकड़ों के अनुसार 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर सुधरकर 1990 के 118 प्रति 1000 जीवित जन्मों पर से घटकर 2009 में 66 प्रति 1000 जीवित जन्मों पर हो गई। हालांकि, कुपोषण अभी भी भारत के लिए एक समस्या बनी हुई है, लेकिन यह पाया गया है कि मात्र सूक्ष्म पोषक रोगों की भारत में वार्षिक लागत संभवतः 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। कुपोषण बच्चों को स्कूल जाने में अक्षम बना सकता है या उनकी पूर्ण क्षमता को प्रभावित कर सकता है, जिसका प्रभाव श्रम उत्पादकता में कमी के रूप में देखा जाता है, जो समग्र रूप में भारत की आर्थिक संवृद्धि को प्रभावित करती है।

निर्धनता उन्मूलन दृष्टिकोण

भारत में निर्धनता उन्मूलन को सामान्यतः एक दीर्घकालीन उद्देश्य समझा गया। ऐसी आशा की जाती है कि निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम या उद्देश्य आगामी 50 वर्षों में विगत समयकी तुलना में बेहतर प्रगति करेगा क्योंकि दृष्टिकोण में परिवर्तन हो रहा है। शिक्षा पर बढ़ता बल, सरकारी नौकरियों में आरक्षण, महिला और समाज के कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण, भी संभवतः गरीबी निवारण में योगदान देगा। यह कहना गलत होगा कि सभी गरीबी निवारण कार्यक्रम असफल हो चुके हैं। मध्यवर्ग की वृद्धि इस ओर इशारा करती है कि भारत में आर्थिक समृद्धि शायद प्रभावी हो रही है, लेकिन धन वितरण एकसमान नहीं है।

उदारीकरण नीतियां एवं उनके प्रभाव

एक सोचनीय मत है कि 1990 के पूर्वार्द्ध में शुरू किए गए आर्थिक सुधार ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं के बर्बाद होने एवं कृषिय संकट के लिए जिम्मेदार हैं। हिंदू समाचार-पत्र के पत्रकार एवं ग्रामीण मामलों के विशेषज्ञ पी. साईनाथ ने भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अपनी रिपोर्ट में विवेचना की कि असमानता का स्तर असाधारण स्तर तक बढ़ा है, और उसी समय, इन दशकों में भारत में भुखमरी भी अपने उच्च स्तर पर पहुंची। उदारीकरण ने बेहद ऊंची मानव लागत ली है।

बिना किसी अपवाद के 1992-2010 तक प्रति व्यक्ति भोजन उपलब्धता प्रति पांच वर्ष पर घटी है जबकि 1972-1991 तक बिना किसी अपवाद के यह प्रति पांच वर्ष पर इसमें वृद्धि हुई है। 2006 के तहत् सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.2 प्रतिशत कृषि पर और जीडीपी का 3 प्रतिशत से कम शिक्षा पर व्यय किया। हालांकि, सरकार की कुछ योजनाएं जैसे मध्यान्ह भोजन योजना (मिड-डे-मील) और मनरेगा आशिक रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जीवन रेखा प्रदान करने में सफल हुए हैं और निर्धनता को बढ़ने से रोका है।

वितरणात्मक न्याय

वर्तमान में निर्धनता दूर करने के लिए बेतहाशा संवृद्धि करने के साथ-साथ हमें इसके न्यायपूर्ण एवं एकसमान वितरण पर भी अधिकाधिक ध्यान देना होगा। अतः निर्धनता में जीएनपी विकास का ही मुद्दा नहीं है अपितु वितरण भी बेहद संवेदनशील विषय है। आय और संपत्ति में पूर्ण समानता वाद कदाचित संभव न हो परंतु कम से कम ऐसे कानून तो बनाए जा सकते हैं और उन्हें क्रियान्वित भी किया जा सकता है जिनसे धनी व्यक्ति कर की अदायगी से नहीं बच सकें और गांवों में भूमि को बेनामी स्थानांतरणों और सौदों से बचाया जा सके।

विकेंद्रीकरण एवं कार्यान्वयन

जब तक योजना और उसके कार्यान्वयन का विकेंद्रीकरण नहीं होगा, तब तक प्रत्येक पंचायत निर्धन परिवारों की पहचान का कार्य स्थानीय स्तर पर नहीं करेगी, परियोजनाएं उन लोगों को लाभ नहीं पहुंचा पाएंगी जिनके लिए वे बनाई गई थीं। इस प्रकार योजनाओं का विकेंद्रीकरण एवं स्थानीय स्वायत्त शासन का वित्तीय एवं प्रशासनिक सशक्तिकरण किया जाना चाहिए जो एक संवेदनशील मुद्दा है। विकेंद्रीकरण पर फिर से विचार किए जाने की आवश्यकता है जो समुदाय सहभागिता एवं सामाजिक कार्रवाई की अनुपस्थिति में अपर्याप्त पाया गया है।

जनांकिकीय नियंत्रण

लोगों में आधुनिक दृष्टिकोण की कमी के कारण निर्धनता एवं भूख बढ़ी है। कहा जाता है कि यदि भारत की जनसंख्या किसी चमत्कार से 1947 के स्तर पर (30 करोड़) पर स्थिर हो जाती तो अब तक हुआ विकास निर्धनता का पूर्णतया उन्मूलन कर देता। इसका एक प्रमाण है रूढ़िवाद और प्रांतीयता का बढ़ना जो कि देश के कल्याण,एकीकरण और उन्नति के लिए एक खतरा बन गया है। हालांकि सरकार ने इसके लिए विभिन्न परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाए हैं और छोटे परिवारों के लाभों के प्रति लोगों को जागरूक किया है लेकिन इसे उस गति से कार्यान्वित नहीं किया गया जिस अनुपात में किया जाना चाहिए।

काले धन पर नियंत्रण

काला धन बेहिसाब पैसा है, कर चोरी करके छुपाई हुई आय है, गुप्त धन है। इस पैसे को प्रायः दर्शकीय उपभोग और ऐसे भ्रष्ट कार्यों में खर्च किया जाता है जिससे और अधिक आय एवं धन उत्पन्न हो। काले घन की समस्या की जांच के लिए केंद्र सरकार द्वारा 1970 में गठित वांचू समिति ने कहा कि, कर की चोरी और काला धन हमारे देश में ऐसे चरण में पहुंच गए हैं कि उनसे हमारी अर्थव्यवस्था को खतरा पैदा हो गया है और वे वितरणात्मक न्याय और समतावादी समाज के सृजन के स्वीकृत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक चुनौती हो गए हैं। काला धन भूख एवं गरीबी को बढ़ाता है अतः इस पर लगाम लगाए जाने की आवश्यकता है।

महत्वपूर्ण कार्यक्रमों तक पहुंच का अभाव विभिन्न आंकड़ों एवंतव्यों का विश्लेषण दर्शाता हैकिसरकार के विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का, जागरूकता के अभाव, विलम्ब, प्रक्रियात्मक जटिलताओं, शोषण, निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं अधिकारियों की कार्यान्वयन के प्रति संवेदनहीनता, प्रतिकूल चयन एवं अवसर लागत के कारण लाभ सीमित हो जाता है।

कृषि के अतिरिक्त रोजगार उपलब्धता

प्रभावित परिवार दर्शाते हैं कि जब तक कृषि के अतिरिक्त रोजगार अवसरों का सृजन नहीं किया जाता, भूख एवं गरीबी से निजात पाना बेहद मुश्किल है। मौजूदा संपत्ति एवं प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन स्थिति के अंतर्गतन के बराबर व्यावसायिक विविधीकरण संभव है। अतः कृषि के अतिरिक्त रोजगार सृजन एक बड़ी चुनौती है। प्राकृतिक संसाधनों की वितरणात्मक भूमि नीति एवं लोक-नीति भागीदारी के माध्यम से वैकल्पिक प्रयोग की संभावना मौजूद है।

विभिन्न प्रकार के अपवर्जन

भुखमरी की स्थिति विभिन्न प्रकार के बहिष्करण-सामाजिक, वितीय, सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं राजनीतिक अपवर्जन से भी सम्बद्ध है। अतः लोगों का समग्र समावेश एक बड़ा मुद्दा एवं चुनौती है।

अशक्त पंचायतें

पंचायतों के पास क्षमताओं, धन, कार्यकरण एवं स्टॉफ तथा स्वतंत्रता का अभाव है जिससे वह भूख की चुनौती से निपट सकें और धीरे-धीरे पंचायतें संवेदनशून्य नौकरशाही का एक हिस्सा बनती जा रही हैं।

बढ़ता प्रवास

रोजगार की तलाश में बढ़ता प्रवास एक तरफ जहां महिलाओं एवं बच्चों को उनके हाल पर छोड़ देता है वहीं शहरी गरीबी एवं भूख में भी इजाफा करता है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की अक्षमता

सार्वजनिक वितरण प्रणाली वास्तविक रूप से ध्वस्त होने की कगार पर है और निर्धन लोग व्यवस्था में निगरानी, सतर्कता एवं पारदर्शिता की अनुपस्थिति में आर्थिक सहायता प्राप्त (सब्सिडाइज्ड) खाद्यान्न खरीदने के लाभ लेने में व्यापक रूप से असफल हो जाते हैं। यहां तक कि चयनित पंचायत प्रतिनिधियों का भी उचित दर दुकानों के कार्यकरण पर कोई नियंत्रण नहीं होता है गौरतलब है कि विश्व का सबसे बड़ा सार्वजनिक वितरण प्रणाली होने के बावजूद हमें इसके लक्षित लाभ नहीं ले पाए हैं जो निर्धनता एवं भूख उन्मूलन के रास्ते में बड़ी चुनीती एवं मुद्दा है।

अंतिम तौर पर, बेहतर लोक सेवा प्रदायन एवं निर्धनता एवं भूख में कमी राजनीतिक एवं आर्थिक संदर्भ और विकेंद्रीकरण को किस प्रकार तैयार एवं कार्यान्वित किया गया है, पर निर्भर करता है।

उपाय एव अनुशसा

कृषिज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के वैश्विक विश्लेषण ने एक प्राथमिक प्रश्न उठाया कि क्या विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग से भूख एवं गरीबी को कम, ग्रामीण आजीविका में सुधार और एक समान विकास को सुसाध्य बनाया जा सकता है। आपस में आठ सम्बद्ध थीम्स में जैव-ऊर्जा, जैव-तकनीक, जलवायु परिवर्तन, मानव स्वास्थ्य, प्राकृतिक संसाधन प्रबंध, व्यापार एवं बाजार, परम्परागत एवं स्थानीय ज्ञान, समुदाय आधारित नवाचार और कृषि में महिला शामिल हैं। कार्रवाई अनुसंधान ने प्रकट किया किसमुदायसहभागिता एवंस्व-सहायता समूहों की मदद, खाय सुरक्षा की विकेंद्रीकृत पहल को सरकार के कार्यक्रमों, सेवाओं एवं तकनीकी मदद से मिलाया जा सकता है या तालमेल बैठाया जा सकता है। निम्न कुछ मॉडलों को अपनाया जा सकता है

अनाज बैंक

समुदाय एवं ग्राम पंचायत के पर्यवेक्षण के अंतर्गत इस परम्परागत खाद्य सुरक्षा उपाय को प्रबंधन के लिए स्व-सहायता समूहों को सौंपा जा सकता है।

पोषण गार्डन

सीमांत एवं भूमिहीन कृषकों को घर के नजदीक भूमिदान प्रकल्प के अंतर्गत अधिक पोषक फल एवं सब्जियां उगाने के लिए आगे और पीछे की ओर खुले स्थानों को उपयोग करने के लिए भूमि दी जा सकती है।

खाद्य वन

यहां स्वदेशी वृक्षों की व्यापक किस्में मौजूद हैं जो खाद्य एवं फलों की आपूर्ति करते हैं और उच्च पोषकों से भरपूर होते हैं लेकिन बाजार में इनका कम मूल्य होता है। इन वृक्षों की जैव-विविधता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। खाद्य वन एक पर्यावरण हितैषी मॉडल है जिससे अनुपयोगी भूमि संसाधनों का इस्तेमाल कमजोर समुदायों को पोषक भोजन प्रदान करने के लिए होता है।

साझा संपत्ति संसाधन

साझा संपत्तियों जैसे ऊसर भूमि, जल निकाय, नदी एवं पोखर किनारे, सिंचाई नहर का क्षेत्र, सड़क एवं रेल मार्ग के किनारे इत्यादि स्थान अनुपयोगी रहते हैं या नष्ट होते हैं, इन्हें औषधीय पौधों के साथ भोजन, चारा और ईंधन लकड़ी उगने के लिए स्व-सहायता समूहों को सौंपा जा सकता है।

वर्षा जल खेती

छोटा-नागपुर पठार में स्व-सहायता समूहों या सीमांत कृषकों को मनरेगा के अंतर्गत जलसंभर तकनीक से वर्षा जल खेती से खाद्यान्न उत्पादन करने के लिए ऊसर भूमि के उपयोग में मदद की जा सकती है।

समन्वित कृषि

समन्वित कृषि वह कृषि व्यवस्था है जो विभिन्न उपव्यवस्थाओं जैसे-पशुपालन, मत्स्य, कुक्कुट पालन, मौसमी एवं सदानीरा फसल उत्पादन को समन्वित करती है। भूमि आधारित कार्य मनरेगा के तहत किया जा सकता है जबकि मत्स्यपालन एवं पशुपालन को आरकेवीवाई के अंतर्गत प्रोत्साहित किया जा सकता है।

कृषि प्रशिक्षण

जैविक कृषि करने, ड्रिप सिंचाई, फसल उत्पादन में सुधार, शुष्क कृषि इत्यादि का प्रशिक्षण।

वित्त तक पहुंच

स्व-सहायता समूहों एवं महिलाओं के सूक्ष्म वित्त प्रदान करना जिससे महिलाएं अपने धन को परिवार के पोषण, स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति सुधारने में इस्तेमाल करेंगी।

अन्य उपाय

इसके अतिरिक्त गरीबी एवं भूख में कमी के लिए विभिन्न आय सृजन गतिविधियों तथा उचित कृषि तकनीक एवं कृषि आगतों पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है जिससे जीवन स्तर उच्च होगा और गरीबी उन्मूलन में कमी आएगी।

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