मनुष्य का श्वसन तंत्र Human Respiratory System

प्रत्येक जीव को जीवित रहने हेतु ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है क्योंकि ऑक्सीजन ही कार्बनिक भोज्य पदार्थों का ऑक्सीकरण या विघटन करके ऊर्जा प्रदान करते हैं। भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण की यही प्रक्रिया श्वसन (Respiration) कहलाती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीवों में सम्पन्न होनेवाली वह ऑक्सीकरण क्रिया जिसमें ऑक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में जटिल भोज्य पदार्थों का सामान्य शरीर तापमान पर विभिन्न एन्जाइमों के नियंत्रण में क्रमिक अपघटन होता है, जिसके फलस्वरूप सरल भोज्य पदार्थ CO2 अथवा जल एवं CO2 का निर्माण होता है तथा ऊर्जा मुक्त होती है, श्वसन कहलाती है।

ऑक्सीजन के अंतर्ग्रहण (Ingestion) करने का कार्य श्वसन तंत्र (Respiratory system) करता है। श्वसन तंत्र के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका ऑक्सीजन की सम्पूर्ति प्राप्त करती है, साथ-ही-साथ ऑक्सीकरण उत्पादनों से मुक्त हो जाती है। श्वसन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. बाह्य श्वसन (External respiration), 2. गैसों का परिवहन (Transportation of gases), 3. आन्तरिक श्वसन (Internal respiration)।
  2. बाह्य श्वसन (External respiration): प्राणी और वातावरण के बीच श्वसन गैसों (O2 एवं CO2) के आदान-प्रदान अर्थात् ऑक्सीजन का शरीर में आना और कार्बन डाइऑक्साइड का शरीर से बाहर जाना बाह्य श्वसन कहलाता है चूंकि इस प्रकार की श्वसन क्रिया फुफ्फुसों (Lungs) में ही सम्पन्न होती है। इसलिए इसे फुफ्फुस श्वसन (Pulmonary respiration) भी कहते हैं। चूंकि इसमें ऑक्सीजन का रुधिर में मिलना तथा CO2 का शरीर से बाहर निकलना सम्मिलित होता है, अतः इसे गैसीय विनिमय (Gaseous exchange) भी कहते हैं।

स्तनधारियों में बाह्य श्वसन दो पदों में होता है- (a) श्वासोच्छवास (Breathing) (b) गैसों का विनिमय (Exchange of gases)।

(a) श्वासोच्छवास (Breathing): स्तनधारी में एक जोड़े लचीले, स्पन्जी फेफड़े होते हैं जो वक्ष गुहा (Thoracic cavity) में स्थित एक जोड़ा फुफ्फुसावरणी गुहाओं (Pleural cavities) के भीतर सुरक्षित बन्द रहते हैं। फेफड़ों में निश्चित दर से वायु भरी तथा निकाली जाती है, जिसे सांस लेना या श्वासोच्छवास कहते हैं। श्वास लेने की प्रक्रिया दो भागों में सम्पन्न होती है। ये हैं-

(i) निःश्वसन (Inspiration): जब वायु वातावरण से शरीर के भीतर श्वासोच्छवास अंगों में प्रवेश करती है, तब उस अवस्था को निःश्वसन कहते हैं। निःश्वसन में बाह्य अन्तरार्शुक पेशियाँ सिकुड़ती हैं, पसलियाँ तथा स्टर्नम ऊपर तथा बाहर की ओर खिंचते हैं, जिससे वक्षगुहा का आयतन बढ़ जाता है। डायफ्रॉम की रेडियल पेशियाँ सिकुड़ती हैं जिससे डायफ्राम चिपटा हो जाता है, जिससे वक्ष गुहा का आयतन अग्रपश्च दिशा में बढ़ जाता है। वक्षगुहा का आयतन बढ़ने से दबाव कम हो जाता है, फेफड़े फैलते हैं। वायु नासा, नासावेश्मों, नेजोफेरिंग्स, ट्रैकिया ब्रोक्स एवं ब्रोकियोल्स आदि से होती हुई फेफड़ों में पहुँचती है। गैसों का आदान-प्रदान एलव्योली में होता है। एलव्योली से ऑक्सीजन विसरित होकर रुधिर में तथा कार्बन डाइऑक्साइड रुधिर से विसरित होकर फेफड़ों की एलव्योली में पहुँचती है।

(ii) उच्छवास (Expiration): जब श्वसन के पश्चात् CO2 युक्त वायु श्वासोच्छवास अंगों से बाहर वातावरण में निकलती है, तब उस अवस्था को उच्छवास कहते हैं। उच्छवास में आन्तरिक इण्टरकॉस्टल पेशियों (Internal intercoastal muscles) के सिकुड़ने के कारण पसलियाँ फिर अपने स्थान पर वापस आ जाती हैं। इसके फलस्वरूप प्लूरल गुहा (Pleural cavity) का आयतन घट जाता है एवं फेफड़े पर दबाव पड़ने के कारण वह सिकुड़ता रहता है तथा फेफड़े की हवा उसी पथ से, जिस पथ से प्रवेश करती है, बाहर निकलकर वातावरण में वापस चली जाती है। आन्तरिक इण्टरकॉस्टल पेशियों को उच्छवास पेशियाँ भी कहते हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा उच्छवास सम्पन्न होता है।

(b) गैसों का विनिमय (Exchange of gases): गैसों का विनिमय फेफड़े के अन्दर होता है। श्वासोच्छवास के फलस्वरूप वायु फेफड़े के विभिन्न वायुकोष्ठकों (Alveoli) में पहुँच जाती है। वायुकोष्ठकों के चारों और रक्त कोशिकाओं का घना जाल उपस्थित रहता है। इस समय की वायु ऑक्सीजन महीन शिरा कोशिकाओं (Venous capillaries) की दीवार से होकर इनके रुधिर में पहुँच जाती है। बदले में रुधिर से CO2 केशिकाओं निकाली गई वायु की दीवार से बाहर निकलकर बाहर जाने वाली वायु में मिल जाती है। यह गैसीय विनिमय घुली अवस्था में या विसरण प्रवणता (Diffusion gradient) के आधार पर साधारण विसरण द्वारा होता है।


फेफड़े में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड गैसों का विनिमय उनके दाब के अन्तर के कारण होता है। कूपिक वायु (Alveolar air) में ऑक्सीजन का दाब 100 mm Hg होता है जबकि शिरा केशिका के रुधिर में ऑक्सीजन का दाब 37mm Hg होता है। इनके दबाव में अन्तर के कारण ऑक्सीजन शिरा केशिका (venous capillary) की ओर विसरित होता है। इसी तरह CO2 का दाब कूपिक वायु में 40 mmHg होता है जबकि शिरा केशिका में 46 mm Hg होता है। फलतः CO2 शिरा केशिका से कूपिका (Alveoli) की ओर विसरित होती है। अतः ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड की विसरण की दिशा एक-दूसरे के विपरीत होती है। फेफड़े के समान ही गैसीय विनिमय ऊतकों (Tissues) में भी होता है। ऊतकों में सक्रिय उपापचय के फलस्वरूप केशिकाओं में CO2 की मात्रा अधिक तथा ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। इस कारण CO2 केशिकाओं से रुधिर में विसरित होता रहता है जबकि ऑक्सीजन की मात्रा रुधिर में अधिक रहने के फलस्वरूप यह रुधिर से ऊतक को केशिकाओं में विसरित होता रहता है। मानव शरीर में ऑक्सीजन का अभिगमन का क्रम क्रमशः फुफ्फुस, रुधिर और ऊतक द्वारा होता है। इस प्रकार शरीर में गैसों का आदान-प्रदान एक सरल भौतिकीय विसरण सिद्धान्त पर होता रहता है।

श्वासोच्छवास में वायु का संघठन
  नाइट्रोजन ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड
निश्वसन के दौरान अन्दर ली गयी वायु 79% 21% 0.03%
उच्छवास के दौरान बाहर निकाली गयी वायु 79% 17% 4%

 

  1. गैसों का परिवहन (Transportation of gases): गैसों अर्थात् ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड का फेफड़े से शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचना तथा पुनः फेफड़े तक वापस आने की क्रिया को गैसों का परिवहन कहते हैं। श्वसन गैसों का परिवहन रुधिर परिसंचरण तंत्र की सहायता से होता है।

(a) ऑक्सीजन का परिवहन (Transportation of oxygen): ऑक्सीजन का परिवहन मुख्यतः रुधिर में पाये जाने वाले लाल वर्णक हीमोग्लोबिन (Haemoglobin) के द्वारा होता है। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से संयुक्त होकर एक अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन (Oxyhaemoglobin) बनाता है जो एक भौतिक परिवर्तन (Physical change) है।

Hb (हीमोग्लोबिन) + O2 (ऑक्सीजन) → HbO2 (ऑक्सीहीमोग्लोबिन)

यह ऑक्सीहीमोग्लोबिन रुधिर परिसंचरण के द्वारा शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में पहुँचता है। कोशिकाओं में ऑक्सीजन का आंशिक दाब कम रहता है जिसके कारण ऑक्सीहीमोग्लोबिन का विखण्डन ऑक्सीजन एवं हीमोग्लोबिन में हो जाता है। इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन मुक्त होकर ऊतकों में प्रवेश कर जाता है।

हीमोग्लोबिन बैंगनी रंग (violet) का होता है जबकि ऑक्सी हीमोग्लोबिन चमकदार लाल रंग का होता है। ऑक्सीजन की कितनी मात्रा का संयोजन हीमोग्लोबिन से होगा, यह ऑक्सीजन के आंशिक दाब एवं रक्त के pH पर आधारित होता है।

हीमोग्लोबिन को श्वसन वर्णक (Respiratory pigment) कहा जाता है। यह दो भागों से मिलकर बना होता है। प्रथम भाग हीमेटीन या होम (Haernatin or Heme) कहलाता है। हीम एक आयरन पारफाइरिन (Iron Porfirin) होता है। इसके केन्द्रक में एक लौह परमाणु (Fe) रहता है। हीमोग्लोबिन का दूसरा भाग ग्लोबिन (Globin) कहलाता है जो कि एक रंगहीन प्रोटीन है। यह हीमोग्लोबिन का 95% होता है।

(b) कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन (Transportation of Carbondioxide): कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कोशिकाओं से फेफड़े तक हीमोग्लोबिन के द्वारा केवल 10 से 20 प्रतिशत तक ही हो पाता है। अतः CO2 का परिवहन रुधिर परिसंचरण द्वारा अन्य प्रकार से भी होता है जो निम्नलिखित हैं-

(i) प्लाज्मा में घुलकर (Dissolved in plasma): कार्बन डाइऑक्साइड रुधिर प्लाज्मा में घुलकर कार्बोनिक अम्ल (Carbonic acid) बनाती है। कार्बोनिक अम्ल के रूप में CO2 का लगभग 7% परिवहन होता है।

CO2 + H2O ⇌ H2CO3 (कार्बोनिक अम्ल)

(ii) बाइकार्बोनेट्स के रूप में (As bicarbonates): बाइकार्बोनेट्स के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड के अधिकांश भाग (लगभग 70%) का परिवहन होता है। यह रुधिर के पोटैशियम तथा प्लाज्मा के सोडियम से मिलकर क्रमशः पोटैशियम बाइकार्बोनेट एवं सोडियम बाइकार्बोनेट बनाता है।

RBC में बाइकार्बोनेट का निर्माण:

CO2 + H2O —कार्बोनिक एनहाइड्रेज→  H2CO3 (कार्बोनिक अम्ल) H2CO3 → H+  + HCO3 (बाइकार्बोनेट)

CO2 + H2O + Na2CO3 → 2NaHCO3 (सोडियम बाइकार्बोनेट)

(iii) कर्बोमिनो यौगिकों के रूप में (As carbomino compounds): कार्बन डाइऑक्साइड हीमोग्लोबिन के अमीनो (-NH2) समूह से संयोग कर कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन (Carboxy haemoglobin) तथा प्लाज्मा प्रोटीन से संयोग कर कार्बोमिनो-हीमोग्लोबिन बनाता है। इस प्रकार यह लगभग 23% CO2 का परिवहन करता है।

CO2 + H2O → NHCOOH कार्बोमिनो यौगिक

HbNH2 + CO2 → Hb NHCOOH कार्बोक्सिल हीमोग्लोबिन

मनुष्य में साँस लेने की दर 12-15 बार प्रति मिनट होती है। सामान्य श्वसन के दौरान लगभग 1500 ml वायु फेफड़े में हर समय भरी रहती है। इसे फेफड़े की कायत्मिक अवशेष सामर्थ्य (Functional residual capacity) कहते हैं।

  1. आन्तरिक श्वसन (Internal respiration): शरीर के अन्दर रुधिर एवं ऊतक द्रव्य के बीच होने वाले गैसीय विनिमय को आन्तरिक श्वसन कहते हैं। फेफड़े में होनेवाले गैसीय विनिमय को बाह्य श्वसन कहते हैं। चूंकि आन्तरिक श्वसन कोशिका के अन्दर होता है। अतः इसे कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration) भी कहते हैं। आन्तरिक श्वसन या कोशिकीय श्वसन में निम्नलिखित प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।

(i) ऑक्सीहीमोग्लोबिन का विघटन (Dissociation of oxyhaemoglobin): रक्त परिसंचरण के परिणामस्वरूप ऑक्सीहीमोग्लोबिन कोशिकाओं में पहुँचता है जहाँ पर ऑक्सीजन का दाब कम होता है। अत: ऑक्सीहीमोग्लोबिन का ऑक्सीजन में विघटन हो जाता है। इस प्रकार से लगभग 25% ऑक्सीजन ऊतकों में पहुँच जाते हैं।

HbO2 (ऑक्सीहीमोग्लोबिन) → Hb (हीमोग्लोबिन) + O2 (ऑक्सीजन)

(ii) खाद्य पदार्थों का ऑक्सीकरण (Oxidation of food stuffs): कोशिकाद्रव्य में ऑक्सीजन की उपस्थिति में विभिन्न खाद्य पदार्थों का विभिन्न एन्जाइमों की उपस्थिति में ऑक्सीकरण होता है जिसके परिणामस्वरूप ऊर्जा मुक्त होती है।

आन्तरिक श्वसन दो प्रकार के होते हैं- A. अनॉक्सीश्वसन (Anaerobic respiration) B. ऑक्सी श्वसन (Aerobic respiration)

  1. अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic respiration): वह श्वसन जो ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है, अनॉक्सी श्वसन कहलाता है। इसमें जटिल रासायनिक प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला द्वारा ग्लूकोज (कोशिकीय ईंधन) का आंशिक विखंडन होता है। ग्लूकोज का यह आंशिक विखंडन 12 एन्जाइमों की सहायता से कोशिकाद्रव्य में सम्पन्न होती है। इसके अन्तर्गत होनेवाले सम्पूर्ण प्रक्रम को ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) कहते हैं। अनॉक्सी श्वसन का अन्तिम उत्पाद पाइरुविक अम्ल (Pyruvic acid) होता है। सम्पूर्ण प्रक्रम में 4 अणु ATP ऊर्जा का निर्माण होता है, जिसमें से 2 अणु ATP ऊर्जा इस प्रक्रम के सम्पन्न होने में खर्च हो जाती है। इस प्रकार 2 अणु ATP का शुद्ध लाभ होता है। इसमें ग्लूकोज अणु के आंशिक विखण्डन के कारण उनसे लगभग 7% ऊर्जा मुक्त हो पाती है, शेष ऊर्जा पाइरुविक अम्ल के बन्धनों में ही संचित रह जाती है। यह बची हुई ऊर्जा आण्विक ऑक्सीजन की उपस्थिति में पाइरुविक अम्ल के पूर्ण विखण्डन के फलस्वरूप मुक्त होती है।

यदि पाइरुविक अम्ल को स्थायी रूप से आण्विक ऑक्सीजन बिल्कुल उपलब्ध नहीं हो पाती तब यह चरण स्थायी हो जाता है और पाइरुविक अम्ल लैक्टिक अम्ल या एथिल ऐल्कोहॉल में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरणस्वरूप- पौधों, मांसल फलों, जीवाणुओं एवं फफूंदों में पाइरुविक अम्ल का परिवर्तन एथिल ऐल्कोहॉल में हो जाता है और CO2 मुक्त होती है।

C6H12O6 (ग्लूकोज) → 2C2H5OH (एथिल ऐल्कोहॉल) + 2CO2 + 210 kJ

जन्तुओं में पेशियों में आण्विक ऑक्सीजन की स्थिति में पाइरुविक अम्ल का परिवर्तन लैक्टिक अम्ल में हो जाता है ।

C6H12O6 (ग्लूकोज) → 2C3H6O3 (लैक्टिक अम्ल) + 150 kJ

अनॉक्सी श्वसन प्रायः जीवों में गहराई पर स्थित ऊतकों में, अंकुरित होते बीजों में व फलों में अल्प समय के लिए होता है। अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic respiration) को शर्करा किण्वन भी कहा जाता है।

  1. ऑक्सीश्वसन (Aerobic Respiration): कोशिकीय श्वसन का यह चरण कोशिका के अंदर माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) में सम्पन्न होता है। इस चरण में विभिन्न रासायनिक प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला और अनेक एन्जाइमों की सहायता से पाइरुविक अम्ल का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है तथा अन्त में CO2 एवं जल उपोत्पाद के रूप में बनते हैं और ढेर सारी रासायनिक ऊर्जा मुक्त होती है जो ATP अणुओं में संचित हो जाती है। इस चरण के अन्त में 36ATP के अणु प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण कोशिकीय श्वसन में एक अणु ग्लूकोज से 38ATP ऊर्जा प्राप्त होती है। एक अणु ग्लूकोज के पूर्ण विखण्डन या पूर्ण ऑक्सीकरण के फलस्वरूप कुल ऊर्जा का लगभग 55 से 60 प्रतिशत तक ही जीवों को उपलब्ध होता है, शेष ऊर्जा ऊष्मा ऊर्जा के रूप में ह्रासित हो जाती है।

C6H12O6 + 6O2 → 6CO2 + 6H2O + 2830 kJ

अनॉक्सी श्वसन एवं ऑक्सी श्वसन में अंतर
अनॉक्सी श्वसन ऑक्सी श्वसन
1. यह ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है। 1. यह ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है।
2. अनॉक्सी श्वसन की सम्पूर्ण प्रक्रिया कोशिकाद्रव्य में सम्पन्न होती है। 2. ऑक्सीश्वसन का प्रथम चरण कोशिकाद्रव्य में तथा द्वितीय चरण माइटोकॉण्ड्रिया में सम्पन्न होती है।
3. अनॉक्सी श्वसन में ग्लूकोज का आंशिक ऑक्सीकरण होता है एवं पायरुवेट इथेनॉल या लैक्टिक अम्ल का निर्माण होता है । 3. ऑक्सी श्वसनमें ग्लूकोज का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) एवं जल (H2O) का निर्माण होता है।
4. इसमें ग्लूकोज के 1 ग्राम अणु से ATP के 2 अणु बनते हैं। 4. इसमें ग्लूकोज के एक ग्राम अणु से ATP के 38 अणु बनते हैं।
5. एक ग्लूकोज अणु से केवल 54 k cal ऊर्जा मुक्त होती है। 5. एक ग्लूकोज अणु से 686 kcal ऊर्जा मुक्त होती है।
6. यह अवायवीय जीवाणुओं यीस्ट तथा आंत्रीय परजीवियों में होता है। 6. यह अधिकांश जन्तुओं एवं पेड़-पौधों में होता है।

श्वसन की क्रियाविधि (Mechanism of respiration): श्वसन की प्रक्रिया सामान्यतया दो पदों में सम्पन्न होती है। ये हैं- 1. ग्लाइकोलाइसिस तथा 2. क्रेब्स चक्र।

ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis): इस प्रक्रिया में ग्लूकोज के एक अणु से पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है। अतः यह प्रक्रिया अनॉक्सीश्वसन तथा ऑक्सीश्वसन में एक जैसी ही होती है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया कोशिकाद्रव्य में पूर्ण होती है। ग्लाइकोलिसिस के पूरे चरण में ATP के 4 अणु बनते हैं जबकि ATP के 2 अणु खर्च हो जाते हैं। इस प्रकार इस प्रक्रिया में ATP के दो अणुओं का शुद्ध लाभ होता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन के चार परमाणु बनते हैं जो NAD को 2NADH2 में बदलने में काम आते हैं।

ग्लाइकोलिसिस की खोज जर्मनी के तीन जीव वैज्ञानिकों एम्बडेन-मेयरहॉफ एव पारसन ने की थी, इस कारण इसे EMP पाथवे भी कहते हैं।

  1. क्रेब्स चक्र (Kreb’s cycle): इस प्रक्रिया की खोज 1937 ई. में ब्रिटिश वैज्ञानिक हैन्स क्रेब्स (Hens Krebs) ने की थी। क्रेब्स चक्र की सम्पूर्ण अभिक्रियाएँ यूकैरियोटिक जीवों में माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) में तथा प्रोकैरियोटिक जीवों में कोशिका कला (Cell membrane) पर होती है। इसमें ग्लाइकोलिसिस से प्राप्त पाइरुविक अम्ल के दोनों अणुओं का ऑक्सीजन की उपस्थिति में पूर्ण ऑक्सीकरण (Oxidation) होता है। इस चरण में होने वाले प्रमुख परिवर्तन इस प्रकार हैं-

(i) क्रेब्स चक्र में प्रवेश करने से पूर्व पाइरुविक अम्ल से CO2 के एक अणु तथा दो हाइड्रोजन परमाणुओं का विमोचन होता है। बचा हुआ अणु कोएन्जाइम-A से संयुक्त होकर ऐसीटल कोएन्जाइम-A बनाता है।

(ii) ऐसीटल कोएन्जाइम-A अब कोशिका में उपस्थित ऑक्जैलो एसीटिक अम्ल तथा जल से क्रिया कर साइट्रिक अम्ल बनाता है।

(iii) साइट्रिक अम्ल का क्रेब्स चक्र में धीरे-धीरे कई अभिक्रियाओं के माध्यम से क्रमबद्ध विघटन होता है। इन अभिक्रियाओं के परिणामस्वरूप कई मध्यवर्ती अम्ल बनते हैं, जैसे- ऑक्जैलोसक्सिनिक अम्ल, अल्फा कीटोग्लूटेरिक अम्ल, सक्सिनिक अम्ल, फ्यूमेरिक अम्ल मैलिक अम्ल आदि। इन परिवर्तनों के दौरान CO2 के 2 अणु तथा हाइड्रोजन के 8 परमाणु मुक्त होते हैं।

(iv) अन्त में मैलिक अम्ल का परिवर्तन ऑक्जैलोग्लिसरिक अम्ल में होता है। यह पुनः दूसरे पाइरुविक अम्ल के साथ संयुक्त होकर क्रेब्स चक्र में पुनः प्रवेश करता है।

ऊर्जा का उत्पादन (Production of energy): पाइरुविक अम्ल के अणु के ऑक्सीकरण से ATP का एक अणु 5 अणु NADH के और 1 अणु FADH2 का बनता है। NADH के एक अणु से 3 अणु ATP के और FADH2 के एक अणु से ATP के दो अणु प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पाइरुविक अम्ल के एक अणु से 1 + (3 × 5) + (2 × 1) = 1 + 15 + 2 = 18 अणु ATP बनते हैं।

चूंकि ग्लूकोज के एक अणु से दो अणु पाइरुविक अम्ल के बनते हैं। इसलिए पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं से 2 × 18 = 36 अणु ATP के प्राप्त होते हैं। ग्लाइकोलिसिस के दौरान भी 2 ATP अणुओं का लाभ होता है। अतः ग्लूकोज के 1 अणु के श्वसन से 2 + 36 = 38 अणु ATP प्राप्त होते हैं। स्पष्ट है कि हमारे तंत्र में अधिकतम ATP अणुओं का उत्पादन क्रेब्स चक्र के दौरान ही होता है।

मनुष्य का श्वसन तत्र (Respiratory system in human): मनुष्य का श्वसन तंत्र कई अंगों से मिलकर बना होता है। इन अंगों में सबसे महत्वपूर्ण अंग फेफड़ा (Lungs) या फुफ्फुस होता है, जहाँ पर गैसों का विनिमय (Exchange of gases) होता है। इस कारण इसे फुफ्फुसीय श्वसन (Pulmonary respiration) भी कहा जाता है। मनुष्य के श्वसन तंत्र के अन्तर्गत वे सभी अंग आते हैं जिनसे होकर वायु का आदान-प्रदान होता है। मनुष्य में नासिका छिद्र (Nostrils), स्वरयंत्र (Larynx), श्वासनली (Trachea) तथा फेफड़ा (Lungs) मिलकर श्वसन अंग कहलाते हैं।

मनुष्य के श्वसन तंत्र (Organs of human respiratory system):

  1. नासिका (Nostrils): मनुष्य में नासिका मुखद्धार के ठीक ऊपर स्थित होता है। इसमें दो लगभग गोलाकार बाह्य नासिका छिद्र (External nostrils or Nares) होते हैं जो अन्दर की ओर दो अलग-अलग (दायाँ एवं बायाँ) नासिका वेश्मों (Nasal chambers) में खुलते हैं। दोनों नासिका वेश्म एक ऊँची, लम्बवत, अस्थि की बनी नासा पट्टिका (Nasal septum) के द्वारा एक-दूसरे से अलग होते हैं। नासिका वेश्म का छोटा अग्रभाग जिसमें बाह्य नासिका छिद्र खुलता है, प्रघ्राण या प्रकोष्ठ (vestibule) कहलाता है। इस भाग में सामान्य रोमयुक्त त्वचा (Hairy skin) का स्तर होता है। प्रघ्राण के पीछे नासा वेशम का छोटा ऊपरी भाग घ्राणक्षेत्र (Olfactory region) तथा मध्य और निचला भाग श्वसन क्षेत्र (Respiratory region) कहलाता है। मनुष्य में घ्राण क्षेत्र अत्यन्त छोटा होता है, जिसके कारण मनुष्य में सूंघने की क्षमता कुछ निम्न स्तनधारियों की तुलना में कम होती है। नासिका वेश्म की दीवार टेढ़ी-मेढ़ी, घुमावदार प्लेट की तरह होती है, जिसे काँची (Conchae) कहते हैं। नासिका वेश्मों में महीनम्यूकस मेम्ब्रेन (Mucous Membrane) का स्तर होता है जो म्यूकस (Mueous) का स्राव करते हैं। श्वसन क्षेत्र में स्थित श्वसन एपिथोलियम (Respiratory epithelium) के नीचे महीन रक्त केशिकाओं का जाल फैला रहता है। नासिका वेश्म अन्दर की ओर ग्रसनी (Pharynx) में कण्ठद्वार (Glottis) के समीप खुलता है। ग्रसनी कण्ठद्वार के ठीक नीचे एक छोटी रचना स्वरयंत्र में खुलती है।
  2. स्वरयंत्र (Larynx): श्वसन मार्ग का वह भाग जो ग्रसनी (Pharynx) को श्वासनली से जोड़ता है, कण्ठ या स्वरयंत्र कहलाता है। इसका मुख्य कार्य ध्वनि का उत्पादन करना है। ध्वनि उत्पादन के अतिरिक्त यह खाँसने, निगलने, श्वासोच्छवास तथा श्वसन मार्ग की सुरक्षा करने में सहायक होता है। स्वरयंत्र के प्रवेश द्वार पर एक पतला एवं पत्ती के समान कपाट (valve) होता है, जिसे एपिग्लॉटिस (Epiglottis) कहते हैं। जब कुछ अन्दर निगलना होता है तो एपिग्लॉटिस द्वार बन्द कर लेता है, जिससे भोजन श्वासनली में प्रवेश नहीं कर पाता है। यह क्रिया स्वतः सम्पन्न होती है।
  3. श्वासनली (Trachea): स्वरयंत्र श्वासनली या ट्रेकिया से जुड़ा होता है। दूसरे शब्दों में स्वरयंत्र (Larynx) पीछे की ओर श्वासनली या ट्रेकिया में खुलता है। श्वासनली लगभग 11 cm लम्बी नली है जिसका व्यास 16 mm का होता है। शवासनली की पतली दीवार को मजबूती प्रदान करने के लिए बहुत से उपास्थि के बने अपूर्ण वलय (Incomplete rings) क्रम से इसकी सम्पूर्ण लम्बाई में सजे होते हैं। ये वलय श्वासनली से वायु के बाहर निकलते समय उसे पिचकने से रोकते हैं। श्वासनली नीचे की ओर वक्षगुहा (Thoracic cavity) जहाँ यह विभाजित होकर दी श्वसनियों (Bronchi) में बँट जाती है। श्वसनियों में भी श्वासनली की तरह उपस्थीय वलय (Cartilageous rings) होते हैं। प्रत्येक श्वसनी फेफड़े में प्रवेश कर तुरन्त श्वसनिकाओं (Bronchioles) में विभाजित हो जाती है। नासिका से शवसनिकाओं तक श्वसन तंत्र का सम्पूर्ण आन्तरिक भाग पक्ष्माभिकामय एपिथीलियम (Ciliated epithelium) का बना होता है। फेफड़े के अन्दर प्रत्येक श्वसनिका पुनः पतली शाखाओं में विभाजित हो जाती है जिन्हें वायुकोष्ठिका वाहिनियाँ (Alevolar ducts) कहते हैं। ये वाहिनियाँ अनेक छोटे-छोटे वायुकोष या एल्विओलाई (Airsacs or Alveoli) में खुलती है। मनुष्य के दोनों फेफड़ों में ऐसे करीब 3 × 108 वायुकोष पाए जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य के फेफड़ों में श्वसन गैसों के आदान-प्रदान के लिए लगभग 400-800 वर्ग फीट सतह (surface) उपलब्ध होती है।
  4. फेफड़ा (Lungs): मनुष्य के वक्ष गुहा (Thoracic cavity) में एक जोड़ी शंक्वाकार फेफड़े होते हैं। मनुष्य का फेफड़ा स्पंजी (spongy), गुलाबी थैलीनुमा रचना है, जो हृदय के इधर-उधर प्लूरल गुहाओं (Pleural cavity) में स्थित होता है। प्लूरल गुहा के चारों ओर प्लूरल मेम्ब्रेन (Pleural membrane) का पतला आवरण होता है जिसे पैराइटल गुहा (Parietal Pleura) कहते हैं। फेफड़ा और प्लूरा के मध्य म्यूकस जैसा चिकना तरल पदार्थ पाया जाता है जो फेफड़े के फैलने और फिर वास्तविक रूप में लौटने से होने वाले घर्षण को कम करता है। मनुष्य के प्रत्येक फेफड़े में लगभग 300 करोड़ वायुकोष (Airsacs) या एल्विओलाई (Alveoli) होते हैं। दायाँ फेफड़ा थोड़ा लम्बा एवं बायाँ फेफड़ा थोड़ा छोटा होता है। दायाँ फेफड़ा तीन पालियों (Lobes) एवं बायाँ फेफड़ा दो पालियों का बना होता है। प्लूरल मेम्ब्रेन फेफड़ों की सुरक्षा करते हैं। फेफड़े कुंचनशील होते हैं और यदि हम श्वासनली में फूंक मारें तो फेफड़े गुब्बारों की भांति फैल जाते हैं।

वक्षीय गुहा के पसलियों के संकुचन एवं शिथिलन से वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ता एवं घटता है जिसके कारण वायु फेफड़े के अन्दर प्रवेश करती है और बाहर निकलती है।

  1. डायफ्राम (Diaphragm): वक्षीय गुहा का निचला फर्श एक पतले पट्ट द्वारा बन्द रहता है, जिसे डायफ्राम कहते हैं। यह वक्ष एवं उदर के बीच गुम्बद के समान पेशीय सेप्टम है। यह देहगुहा को दो भागों में बाँटती है- अग्र वक्ष गुहा एवं पश्च उदर गुहा। यह वक्ष गुहा की तरफ उठा रहता है। उच्छवास (Exhalation) के समय डायफ्राम संकुचित (चपटा) हो जाता है।
  2. पसलियाँ तथा पशुक पेशियाँ: स्तनधारियों में वक्ष गुहा एक बन्द बक्से के समान गुहा होता है जो वक्ष और कशेरुक दण्ड अधरतल पर स्टर्नम, पार्श्व और पसलियों से, पश्च और डायफ्राम से, अग्र ओर गर्दन से घिरी होती है। पास-पास की पसलियों के बीच दो प्रकार की पेशियाँ पाई जाती हैं- (i) वाह्य अन्तरापर्शुक पेशी (External inter coastal muscle), (ii) अन्तः अन्तरापर्शुक पेशी (Internal Inter Coastal Muscle)। 

कृत्रिम श्वसन

जल में डूबने या बिजली का करेंट लगने पर जब किसी व्यक्ति की श्वसन क्रिया रुक जाती है तो कृत्रिम श्वासोच्छवास क्रिया का सहारा लेना पड़ता है। इसके द्वारा फेफड़ों में पुनः संचालन (ventilation) संभव हो पाता है।

कृत्रिम श्वसन निम्न चरणों में किया जाता है-

(i) अमुक व्यक्ति को पीठ के बल लिटाकर उसकी गर्दन के नीचे हाथ रखकर उसे ऊपर ऊठाना चाहिए जिससे उसकी गर्दन खिंच जाये और उसका वायुमार्ग खुल जाए।

(ii) व्यक्ति की नाक को अंगुलियों की सहायता से बन्द करके अपना मुख उस व्यक्ति पर रखकर जोर से फूंक मारा जाए जिससे उसके फेफडे फूल जाएँ।

(iii) अब मुख को हटा लेना चाहिए जिससे निःश्वसन संभव हो सके। यह क्रिया एक मिनट में 10-15 बार करनी चाहिए। इस प्रकार उस व्यक्ति में पुनः श्वसन क्रिया प्रारम्भ हो सकती है।

इस प्रकार इस विधि के द्वारा प्रथम उपचार के रूप में दुर्घटना से ग्रसित व्यक्ति की जान बचायी जा सकती है।

निश्वसन तथा उच्छश्वास में अन्तर
निश्वसन (Inspiration) उच्छश्वास (Expiration)
1. यह वायुमण्डल की वायु का फेफड़ों में प्रवेश की क्रिया है। 1. यह फेफड़ों में भरी वायु का फेफड़ों से बाहर निकलने की क्रिया है।
2. इससे फेफड़ों में वायुदाब कम होता है। 2. इससे फेफड़ों में वायुदाब अधिक होता है।
3. इसमें डायफ्राम की अरीय पेशियाँ सिकुड़ती हैं, जिससे डायफ्राम चपटा हो जाता है। 3. इसमें डायफ्राम की अरीय पेशियाँ शिथिल हो जाती हैं जिससे डायफ्राम गुम्बद के समान होता है।
4. बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियाँ तथा अन्तः अन्तरापर्शुक पेशियाँ के इन्टरकार्टिलेजिनस भाग सिकुड़ते हैं जिनसे वक्षकण्डी बाहर की ओर खीच जाती हैं। 4. अन्तः अन्तरापशुक पेशियों के सिकुड़ने तथा बाह्य अन्तरापशुक पेशियों के शिथिलन से वक्षकण्डी अंदर की ओर खींच आती हैं।
5. इसमें प्लूरल गुहाओं का आयतन अधिक होता है। 5. इसमें प्लूरल गुहाओं का आयतन कम होता है।

श्वसन भागफल

श्वसन क्रिया के दौरान उपयोग में लायी गई सम्पूर्ण ऑक्सीजन (O2) एवं इस दौरान उत्पन्न हुई कार्बन डाइऑक्साइड के गैसीय विनिमय अनुपात को श्वसन भागफल (Respiratory quotient or R.Q.) कहते हैं।

श्वसन भागफल (Respiratory quotient or R.Q.) = CO2 का कुल उत्पादन / O2 का कुल उत्पादन विभिन्न भोज्य पदार्थों के लिए श्वसन भागफल (R.Q) का मान भिन्न-भिन्न होता है। यह एक तरह का मापन है, जिसको देखकर उसूमें प्रयुक्त होनेवाले खाद्य  पदार्थों की पहचान की जाती है। प्रत्येक खाद्य पदार्थ का अपना निश्चित श्वसन भागफल (R.Q) होता है।

खाद्य पदार्थ श्वसन भागफल
1. कार्बोहाइड्रेट 1.0
2. वसा 0.7 (1 से कम)
3. कार्बनिक अम्ल 4.0 (1 से अधिक)
4. प्रोटीन 0.8 (1 से कम)

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