ऊष्मा Heat

ताप व ऊष्मा

ताप या तापमान (Temperature): वस्तु की उष्णता और शीतलता के माप को ताप कहते हैं। अर्थात् ताप वस्तु की ऊष्मीय अवस्था का सूचक है। इसी के कारण ऊष्मा का स्थानान्तरण होता है। ऊष्मीय ऊर्जा सदैव उच्च ताप की वस्तु से निम्न ताप की वस्तु में जाती है।

ऊष्मा (Heat): ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जो दो वस्तुओं के बीच उनके तापान्तर के कारण एक वस्तु से दूसरी वस्तु में स्थानान्तरित होती है। स्थानान्तरण के समय ही ऊर्जा ऊष्मा कहलाती है। वस्तु का ताप, वस्तु में ऊष्मा की मात्रा तथा वस्तु के पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है, जबकि किसी वस्तु में निहित ऊष्मा उस वस्तु के द्रव्यमान व ताप पर निर्भर करती है। ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसे कार्य में बदला जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सबसे पहले रमफोर्ड (Rurnford) ने दिया। बाद में डेवी (Davy) ने बर्फ के दो टुकड़े को आपस में घिसकर पिघला दिया। चूंकि बर्फ को पिघलने के लिए ऊष्मा का और कोई स्रोत नहीं था, अतः यह माना गया कि बर्फ को घिसने में किया कार्य बर्फ पिघलने के लिए ली गई आवश्यक ऊष्मा में बदल गया। बाद में जूल (Joule) ने अपने प्रयोगों से इस बात की पुष्टि की कि “ऊष्मा ऊर्जा का ही एक रूप है।’’ जूल ने बताया कि जब कभी कार्य ऊष्मा में बदलता है, या ऊष्मा कार्य में बदलती है, तो किए गए कार्य व उत्पन्न ऊष्मा का अनुपात एक स्थिरांक होता है, जिसे ऊष्मा का यांत्रिक तुल्यांक (Mechanical equivalent of Heat) कहते हैं तथा इसको J से सूचित करते हैं। यदि W  कार्य करने से उत्पन्न ऊष्मा की मात्रा Q हो तो हैं-

[latex]\frac { W }{ Q } =\quad J[/latex]

जहाँ J का मान 4186 जूल / किलोकैलोरी या 4.186 जूल / कैलोरी या 4.186 × 107 अर्ग / कैलोरी होता है। इसका तात्पर्य हुआ कि यदि 4186 जूल का यांत्रिक कार्य किया जाए, तो उत्पन्न ऊष्मा की मात्रा 1 किलोकैलोरी होगी।

ऊष्मा के प्रभाव:

(a) भौतिक परिवर्तन: किसी वस्तु पर ऊष्मा के प्रभाव से उसके भौतिक संरचना यथा रंग-रूप, आयतन, ताप एवं अवस्था आदि में परिवर्तन होते हैं, जैसे-


(i) ताप में परिवर्तन: साधारणतः सभी वस्तुओं को गर्म करने पर उनका तापमान बढ़ता है।

(ii) आयतन में परिवर्तन: साधारणतया प्रत्येक वस्तु में ऊष्मा परिवर्तन से उसके आयतन में परिवर्तन होता है। साधारणतः ऊष्मा की मात्रा बढ़ने से उसका आयतन बढ़ता है।

(iii) अवस्था में परिवर्तन- पदार्थ की तीन अवस्थाएँ होती हैं-ठोस, द्रव एवं गैस। ये अवस्थाएँ तापमान में परिवर्तन के कारण होती हैं और ताप में परिवर्तन ऊष्मा के कारण होती है। अतः अवस्था परिवर्तन ऊष्मा के कारण होती है।

(iv) अन्य परिवर्तन: गर्म करने पर पदार्थ के रंग-रूप, पदार्थ का विद्युत् प्रतिरोध, विलायक की विलयन क्षमता आदि में परिवर्तन हो जाता है।

(b) रासायनिक परिवर्तन- पदार्थ को गर्म करने पर कुछ स्थायी परिवर्तन होते हैं, जैसे- पोटैशियम क्लोरेट और मैंगनीज डाइऑक्साइड के मिश्रण को गर्म करने पर ऑक्सीजन गैस मुक्त होकर बाहर निकलती है।

ऊष्मा के मानक

ऊष्मा का SI मात्रक जूल और CGS मात्रक कैलोरी है।

कैलोरी (Calorie): एक ग्राम जल का ताप 1°C बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को कैलोरी कहते हैं।

1 जूल = 0.24 कैलोरी

1 कैलोरो = 4.186 जूल

1 किलोकैलोरी = 4.186 × 103 = 1000 कैलोरी

1 B.Th.U. = 252 कैलोरी

अंतर्राष्ट्रीय कैलोरी (International Calorie): – एक जूल ग्राम जल का ताप 14.5°C से 15.5°C तक बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को अन्तर्राष्ट्रीय कैलोरी कहते हैं।

ब्रिटिश थर्मल यूनिट (B.Th.U.): एक पौंड जल का ताप 1°F बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को 1 B.Th.U. कहते हैं।

तापमापी

तापमापी (Thermometer): ताप मापने वाले यंत्र को तापमापी कहते हैं। ताप मापन के लिए पदार्थ के किसी ऐसे गुण का प्रयोग किया जाता है, जो ताप पर निर्भर करता है, जैसे- द्रव के आयतन में प्रसार, गैस के आयतन में प्रसार, पदार्थ के विद्युत् प्रतिरोध में परिवर्तन आदि। तापमापी कई प्रकार के होते हैं, जैसे- द्रव तापमापी, गैस तापमापी, प्लैटिनम प्रतिरोध तापमापी, तापयुग्म तापमापी, पूर्ण विकिरण तापमापी (Pyrometer) आदिl

(i) द्रव तापमापी (Liquid Thermometer): द्रव तापमापी में मुख्य रूप से ऐल्कोहॉल या पारा का प्रयोग किया जाता है। ऐल्कोहॉल का प्रयोग उन तापमापियों में किया जाता है, जो -40°C से नीचे के ताप मापते हैं। ऐल्कोहॉल -115°C पर जमता है। पारा -39°C पर जमता है और 357°C पर उबलने लगता है। इसीलिए पारे का तापमापी लगभग -40°C से 350°C तक के ताप को मापने के लिए प्रयुक्त होता है।

(ii) डॉक्टरी तापमापी (Clinical Thermometer): मानव शरीर के ताप में मापन लिए प्रयुक्त किये जाने वाले थर्मामीटर को क्लिनिकल थर्मामीटर कहते हैं। चूंकि मानव शरीर का ताप एक छोटे परिसर (short range) के बीच बदलता (vary) रहता है इसलिए इस थर्मामीटर में न्यूनतम बिन्दु 95°F (या 35°C) तथा उच्चतम बिन्दु 110°F (या 43°C) अंकित किया जाता है।

(iii) गैस तापमापी (Gas Thermometer): स्थिर आयतन हाइड्रोजन गैस तापमापी से 500°C तक के ताप को मापा जा सकता है। हाइड्रोजन की जगह नाइट्रोजन गैस लेने पर 1500°C तक के ताप को मापा जा सकता है।

(iv) प्लैटिनम प्रतिरोध तापमापी (Platinum Resistance Thermometer): इसके द्वारा -200°C से 1200°C तक के ताप मापे जाते हैं।

(v) ताप-युग्म तापमापी (Thermo-couple Thermometer): इस प्रकार के तापमापी से -200°C से 1600°C तक के ताप को मापा जा सकता है। ताप-युग्म तापमापी सीबेक प्रभाव पर आधारित है।

[सीबेक प्रभाव (seebeck Effect): जब दो भिन्न-भिन्न धातुओं के तारों के सिरों को जोड़कर एक बन्द परिपथ बनाते हैं तथा इस परिपथ की संधियों (junctions) को अलग-अलग तापों पर रखते हैं, तो परिपथ में धारा बहने लगती है। इसे ताप विद्युत-धारा कहते हैं तथा इस प्रभाव को सीबेक प्रभाव कहते हैं।]

(vi) पूर्ण विकिरण उत्तापमापी (Total Radiation Pyrometer): इस तापमापी की सहायता से अत्यधिक ऊँचे एवं दूर स्थित वस्तुएँ जैसे सूर्य आदि के तापों की माप की जाती है। यह तापमापी स्टीफेन के नियम पर आधारित है, जिसके अनुसार उच्च ताप पर उसी वस्तु से उत्सर्जित विकिरण की मात्रा इसके परम ताप के चतुर्थ घात के अनुक्रमानुपाती होती है। किसी निश्चित समय में वस्तु द्वारा उत्सर्जित विकिरण ऊर्जा की माप कर वस्तु के ताप की गणना कर ली जाती है। प्रायः 800°C से ऊँचे ताप ही इस तापमापी से मापे जाते हैं, इससे नीचे के ताप नहीं। इसका कारण यह है कि 800°C से कम ताप की वस्तुएँ ऊष्मीय विकिरण उत्सर्जित नहीं करती हैं।

ताप मापन के पैमाने (Scales of Temperature Measurement): ताप मापन के लिए हम दो बिन्दु निश्चित करते हैं। पिघलते हुए बर्फ के ताप को हिमांक (Ice Point) तथा पारे के 760 मिमी० दाब पर उबलते हुए शुद्ध जल के ताप को भाप बिन्दु (steam Point) कहते हैं। कई प्रकार के ताप पैमाने प्रचलित रहे हैं, जैसे-सेल्सियस, फारेनहाइट, ट्यूमर, केल्विन, रैकाइन ताप पैमाना आदि।

(i) सेल्सियस पैमाना (Celcius Scale): इसमें हिमांन को 0°C तथा भाप बिन्दु की 100°C अंकित किया जाता है तथा इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक भाग को 1°C (1 डिग्री सेल्सियस) कहते हैं। पहले सेल्सियस पैमाने को सेण्टीग्रेड पैमाना कहा जाता था।

(ii) फरेनहाइट पैमाना (Fahrenheit scale): इसमें हिमांक को 32°F तथा भाप बिन्दु को 212°F अंकित किया जाता है  तथा इनके बीच की दूरी को 180 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक भाग को 1°F कहते हैं।

(iii) रयूमर पैमाना (Reamur scale) – इसमें हिमांक को 0°R तथा भाप बिन्दु को 80°R अंकित किया जाता है तथा इनके बीच की दूरी को 80 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक भाग को 1°R कहते हैं। आजकल इस पैमाने का प्रयोग प्रायः समाप्त हो गया है।

(iv) केल्विन पैमाना (Kelvinscale): इसमें हिमांक को 273K तथा भाप बिन्दु को 373K अंकित किया जाता है और इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक भाग को 1 K कहते हैं ।

विभिन्न पैमानों में संबंध

[latex]\frac { C-0 }{ 100 } =\frac { F-32 }{ 180 } =\frac { R-0 }{ 80 } =\frac { K-273 }{ 100 }[/latex]

परम शून्य (Absolute zero): सिद्धान्त रूप में अधिकतम ताप की कोई सीमा नहीं है, परन्तु निम्नतम ताप की सीमा है। किसी भी वस्तु का ताप -273.15°C से कम नहीं हो सकता है। इसे परम शून्य ताप कहते हैं और केल्विन पैमाने पर 0 K लिखते हैं।

अर्थात 0K = -273.15°C एवं 273.15 K = 0°C

कल्विन में व्यक्त ताप को परम ताप कहते हैं।

विभिन्न पैमानों पर कुछ तापमान
तापमान सेल्सियस (0°C) फारेनहाइट (°F) केल्विन (K)
जल का जमना 0 32 273
कमरे का सामान्य ताप 27 80.6 300
मानव शरीर का सामान्य ताप 37 98.6 310
जल का उबलना 100 212 373

विशिष्ट ऊष्मा

विशिष्ट ऊष्मा: किसी पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा, ऊष्मा की वह मात्रा है, जो उस पदार्थ के एकांक द्रव्यमान में एकांक ताप वृद्धि उत्पन्न करती है। अर्थात् यदि पदार्थ के एक ग्राम द्रव्यमान लेकर इसका ताप एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया जाए, तो इस प्रक्रिया में दी गई ऊष्मा को पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं। स्पष्ट है कि m द्रव्यमान में θ ताप वृद्धि करने के लिए आवश्यक ऊष्मा Q = mcθ होगी, जहाँ c उस पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा है।

अर्थात् [latex]c=\frac { Q }{ m\quad \times \quad \theta  }[/latex]

अतः विशिष्ट ऊष्मा का SI मात्रक जूल किलोग्राम-1 केल्विन-1 होगा। 1 ग्राम जल का ताप 1°C बढ़ाने के लिए 1 कैलोरी ऊष्मा की आवश्यकता होती है। अतः जल की विशिष्ट ऊष्मा का मान 1 कैलोरी / ग्राम °C होती है। जल की विशिष्ट ऊष्मा का मान अन्य पदार्थों की तुलना में सबसे अधिक है।

कुछ पदार्थों की विशिष्ट ऊष्मा
पदार्थ विशिष्ट ऊष्मा (कैलोरी/ग्राम°C) पदार्थ विशिष्ट ऊष्मा (कैलोरी/ग्राम°C)
सीसा 0.03 संगमरमर 0.21
पीतल 0.09 मैग्नीशियम 0.25
लोहा 0.11 तारपीन 0.42
कार्बन 0.17 बर्फ 0.50
बालू 0.20 ऐल्कोहॉल 0.60
ऐलुमिनियम 0.21 पानी 1

गैसों की विशिष्ट ऊष्माएँ (specific Heat of Gases): गैसों का आकार एवं आयतन दोनों अनिश्चित होता है। इसीलिए गैसों की दो विशिष्ट ऊष्माएँ होती हैं-

(i) नियत आयतन पर विशिष्ट ऊष्मा (Sp. Heat at Const. volume) – इस दशा में 1 ग्राम गैस का ताप 1°C बढ़ाने के लिए जितनी ऊष्मा की आवश्यकता होती है, वह नियत आयतन पर गैस की विशिष्ट ऊष्मा होती है। यह CV से प्रदर्शित की जाती है।

(ii) नियत दाब पर विशिष्ट ऊष्मा (sp. Heatat const. Pressure): नियत दाब पर किसी गैस की विशिष्ट ऊष्मा, ऊष्मा की वह मात्रा है, जो 1 ग्राम गैस का ताप, नियत दाब पर 1°C बढ़ाने के लिए आवश्यक है। यह Cp से प्रदर्शित की जाती है। CV एवं Cp के मात्रक कैलोरी/ग्राम °C या, कैलोरी/मोल °C या, जूल/मोल °C हैं।

CV – Cp = R (मेयर का सूत्र) यानि Cp > CV

  1. ऊष्मीय प्रसार

ऊष्मीय प्रसार Thermal Expansion

सामान्यतः पदार्थ को ऊष्मा देने पर पदार्थ का आयतन बढ़ता है, क्योंकि ताप बढ़ने पर पदार्थ के अणुओं के बीच दूरी बढ़ जाती है। लेकिन कुछ पदार्थ, जैसे पानी 0°C से 4°C के बीच, सिल्वर आयोडाइड 80°C से 140°C के बीच आदि का ताप बढ़ाने पर इनका संकुचन होता है। ऊष्मित किए जाने पर प्रायः सभी गैसों, बहुत से द्रवों एवं ठोसों में प्रसार होता है। परन्तु ये सभी समान रूप से प्रसार नहीं करते हैं। यदि गैस, द्रव एवं ठोस को समान ऊष्मा द्वारा ऊष्मित किया जाये, तो सबसे अधिक प्रसार गैस में होगा, उससे कम प्रसार द्रव में एवं सबसे कम प्रसार ठोस में होगा।

रेखीय प्रसार गुणांक (co-efficient of Linear Expansion): प्रति डिग्री सेल्सियस  तापमान बढ़ने पर किसी वस्तु की इकाई लम्बाई में जो वृद्धि या प्रसार होता है, उसे रेखीय प्रसार गुणांक कहते हैं। इसका मात्रक प्रति डिग्री सेल्सियस होता है। इसे α से सूचित किया जाता है।

रेखीय प्रसार गुणांक = लम्बाई में वृद्धि / मूल लम्बाई × ताप वृद्धि

या,  [latex]\alpha \quad =\quad \frac { \Delta L }{ L\quad \times \quad \Delta \theta  }[/latex]

क्षेत्रीय प्रसार गुणांक (Co-efficient of Superficial Expansion): प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर किसी वस्तु के इकाई क्षेत्र में जो प्रसार होता है, उसे क्षेत्रीय प्रसार गुणांक कहते है।

क्षेत्रीय प्रसार गुणांक = क्षेत्रफल में वृद्धि / मूल क्षेत्रफल × ताप वृद्धि

या, [latex]\beta \quad =\quad \frac { \Delta A }{ \Alpha \quad \times \quad \Delta \theta  }[/latex]

आयतन प्रसार गुणांक (co-efficient of Cubical Expansion): प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर किसी वस्तु की इकाई आयतन में जो प्रसार होता है, उसे आयतन प्रसार गुणांक कहते हैं। इसे γ से दर्शाया जाता है।

आयतन प्रसार गुणांक = आयतन में वृद्धि / मूल आयतन × ताप वृद्धि

या,

[latex]\gamma \quad =\quad \frac { \Delta V }{ V\quad \times \quad \Delta \theta  }[/latex]

रेखीय, क्षेत्रीय एवं आयतन प्रसार गुणांक में संबंध: [latex]\alpha \quad =\quad \frac { \beta  }{ 2 } =\frac { \gamma  }{ 3 }[/latex]

या, β = 2α, γ = 3α

α:β:γ::1:2:3

जल का असामान्य प्रसार (Anomalous Expansion of Water): प्रायः सभी द्रव गर्म किए जाने पर आयतन में बढ़ते हैं, परन्तु जल 0°C से 4°C तक गर्म करने पर आयतन में घटता है तथा 4°C के बाद बढ़ना आरंभ करता है। इसे ही जल का असामान्य प्रसार कहते हैं। चूंकि जल 4°C के बाद गरम करने पर बढ़ना शुरू करता है। इसका अर्थ यह है कि जल का घनत्त्व 4°C पर सबसे अधिक होता है। जल के असामान्य प्रसार का दैनिक जीवन पर प्रभाव (i) ठण्डे देशों में तालाबों के जम जाने पर भी उनमें मछलियाँ जीवित रहती हैं- ठण्डे देशों में तालाबों के जम जाने पर भी उनमें मछलियाँ जीवित रहती हैं, क्योंकि जल के जमने की क्रिया ऊपर से नीचे की ओर होती है। इस कारण तालाब का ऊपरी भाग जम जाता है और नीचे वाला भाग 4°C पर जल की अवस्था में रहता है, जिससे मछलियाँ उसमें जीवित रहती हैं।

(ii) जाड़े की रातों में पाइप फट जाते हैं- पानी के असामान्य प्रसार के कारण जाड़े की रातों में पाइप फट जाते हैं। अधिकतर द्रव जब ठोस रूप ग्रहण करते हैं तो वे सिकुड़ जाते हैं, किन्तु पानी के साथ स्थिति इसके विपरीत है। पानी जमने के बाद सिकुड़ने की बजाय फैल जाता है। यदि पानी 9 लीटर हो। तो वह जमने के बाद 10 लीटर ठोस बर्फ में बदल जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बर्फ बनने पर पानी का आयतन बढ़ जाता है जिसके फलस्वरूप पाइप में आंतरिक दबाब सीमा से अधिक हो जाता है और पाइप फट जाता है।

  1. ऊष्मा का संचरण

ऊष्मा का संचरण (Transmission of Heat): ऊष्मा को एक स्थान से दूसरे स्थान जाने को ऊष्मा का संचरण कहते हैं। इसकी तीन विधियाँ है- चालन, संवहन एवं विकिरण।

  1. चालन (Conduction): जब बिना स्थान परिवर्तन किए ही पदार्थ के तप्त कण अपनी ऊष्मा अपने बगल वाले कणों को दे देते हैं और पूरी वस्तु गर्म हो जाती है तो ऊष्मा के संचरण की इस विधि को चालन कहते हैं। अर्थात् इस विधि से ऊष्मा के संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है, परन्तु माध्यम के तप्त कणों का स्थान परिवर्तन नहीं होता है। ठोस पदार्थों के अणु एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए स्वतंत्र नहीं होते हैं, इसलिए ठोस में ऊष्मा का संचरण इसी विधि से होता है। द्रवों व गैसों में ऊष्मा का संचरण चालन द्वारा बहुत कम होता है। ठोसों तथा पारे में ऊष्मा का संचरण केवल चालन द्वारा होता है। पदार्थ में चालन द्वारा ऊष्मा का संचरण ऊष्मा चालकता (Therrnal Conductivity) कहलाती है। ऊष्मा चालकता पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करती है तथा जिन पदार्थों में ऊष्मा का चालन जितना अधिक होता है, उनकी ऊष्मा चालकता भी उतनी ही अधिक होती है। ऊष्मा की चालकता के आधार पर हम पदार्थों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से कर सकते हैं-

(i) चालक (Conductor): जिन पदार्थों से होकर ऊष्मा का चालन सरलता से हो जाता है, उन्हें चालक कहते हैं। ऐसे पदार्थों की ऊष्मा चालकता अधिक होती है। सभी धातु, अम्लीय जल, मानव शरीर आदि ऊष्मा के अच्छे चालक हैं।

(ii) कुचालक (Bad Conductor) जिन पदार्थों से ऊष्मा का चालन सरलता से नहीं होता या बहुत कम होता है, उन्हें कुचालक कहते हैं। लकड़ी, काँच, वायु, गैसें, सिलिका, कपड़ा, ऊन, रबर आदि ऊष्मा के कुचालक पदार्थ हैं। बुरे चालक अच्छे रोधी/रोधक होते हैं (Bad conductors are good insulators)। कपड़ा, ऊन आदि के अच्छे रोधी गुणों (good insulating properties) का कारण उनके रेशों के बीच फंसी हवा होती है।

(iii) ऊष्मारोधी (Thermal Insulator)- जिन पदार्थों से ऊष्मा का चलन बिलकुल नहीं होता, उन्हें ऊष्मारोधी पदार्थ कहते हैं। जैसे- एबोनाइट, ऐस्बेस्टस आदि।

  1. संवहन (Convection): गैसों एवं द्रवों में ऊष्मा का संचरण संवहन के द्वारा ही होता है। ठोसों में संवहन विधि द्वारा ऊष्मा का संचरण संभव नहीं है। इस विधि में द्रव एवं गैस के कण गरम भाग से ऊष्मा लेकर स्वयं हल्के होकर ऊपर उठते हैं तथा ठण्डे भाग की ओर जाते हैं। इनका स्थान लेने के लिए पुनः ठण्डे भाग से कण नीचे आते हैं। इस प्रकार, संवहन विधि में ऊध्वधिरतः तापान्तर होने पर ऊष्मा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर माध्यम के घनत्व में परिवर्तन होने के कारण संवहन धाराओं द्वारा होता है।

नोट: पृथ्वी का वायुमंडल संवहन विधि से ही गर्म होता है।

  1. विकिरण (Radiation): विकिरण में ऊष्मा के संचरण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है। इसके द्वारा ऊष्मा का संचरण निर्वात् (vaccum) में भी होता है। इस विधि में ऊष्मा, गरम वस्तु से ठण्डी वस्तु की ओर बिना किसी माध्यम की सहायता के तथा बिना माध्यम को गरम किए प्रकाश की वेग से सीधी रेखा में संचरित होती है। विकिरण में ऊष्मा, तरंगों के रूप में चलती है, जिन्हें विद्युत्-चुम्बकीय तरंगे (Electro-magnetic Waves) कहते हैं। जैसे- पृथ्वी तक सूर्य की ऊष्मा विकिरण विधि से पहुँचती है।

ऊष्मा संचरण का दैनिक जीवन में उपयोग

(A) दैनिक जीवन में चालन से संबंधित उपयोग

(i) एस्किमों लोग बर्फ की दोहरी दीवारों के मकान में रहते हैं: इसका कारण यह है कि बर्फ की दोहरी दीवारों के मध्य हवा की परत होती है जो ऊष्मा की कुचालक होती है, जिससे अन्दर की ऊष्मा बाहर नहीं जा पाती है, फलस्वरूप कमरे का ताप बाहर की अपेक्षा अधिक बना रहता है।

(ii) शीत ऋतु में लकड़ी एवं लोहे की कुर्सियाँ एक ही ताप पर होती हैं, परन्तु लोहे की कुर्सी छूने पर लकड़ी की अपेक्षा अधिक ठण्डी लगती है: शीत ऋतु में शरीर का ताप कमरे के ताप से अधिक होता है। लोहा ऊष्मा का सुचालक और लकड़ी ऊष्मा का कुचालक होता है। अतः जब हम लोहे की कुर्सी को छूते हैं, तो हमारे हाथ से ऊष्मा तापान्तर के कारण लोहे की कुर्सी में शीघ्रता से प्रवाहित होने लगती है। जबकि लकड़ी की कुर्सी में ऐसा नहीं होता। इसीलिए लोहे की कुर्सी छूने पर लकड़ी की अपेक्षा अधिक ठण्डी लगती है ।

(iii) धातु के प्याले में चाय पीना कठिन है, जबकि चीनी मिट्टी के प्याले में चाय पीना आसान है: धातु ऊष्मा का सुचालक होता है, इसके कारण चाय की ऊष्मा से धातु के प्याले गर्म हो जाते है, जिससे हीठ जलने लगते हैं और चाय पीना कठिन हो जाता है। चीनी मिट्टी का ऊष्मा के कुचालक होने के कारण ऐसा नहीं होता है।

(B) दैनिक जीवन में संवहन से संबंधित उपयोग

(i) समुद्री हवाएँ (sea Breeze) तथा स्थलीय हवाएँ (Land Breeze): दिन के समय सूर्य की गर्मी से जल की अपेक्षा स्थल जल्दी गर्म हो जाता है, जिससे स्थल की हवाएँ ऊपर उठती हैं तथा उनका स्थान लेने के लिए समुद्र की ओर से ठण्डी हवाएँ स्थल की ओर बहने लगती हैं। इन हवाओं को समुद्री हवाएँ कहते हैं। रात में स्थल, जल की अपेक्षा जल्दी ठण्डा हो जाता है। इसीलिए समुद्र के जल के सम्पर्क से गर्म हवाएँ ऊपर उठती हैं तथा इनका स्थान लेने के लिए स्थल से समुद्र की ओर हवाएँ चलने लगती हैं, इन्हें स्थलीय हवाएँ कहते हैं।

(ii) रेफ्रिजरेटर में फ्रीजर पेटिका को ऊपर रखा जाता है: इसका कारण यह है कि नीचे की गरम वायु हल्की होने के कारण ऊपर उठती है तथा फ्रीजर पेटिका से टकराकर ठण्डी हो जाती है। ऊपर की ठण्डी वायु भारी होने के कारण नीचे आती है तथा रेफ्रिजरेटर में रखी वस्तुओं को ठण्डा कर देती है।

(iii) बिजली के बल्बों में निष्क्रिय गैसों का भरा जाना: बिजली के बल्वों में निर्वात् के स्थान पर निष्क्रिय गैस (जैसे-आर्गन) भरी जाती हैं। इसका कारण यह है कि बल्व में निष्क्रिय गैस भरने से तन्तु की ऊष्मा संवहन धाराओं द्वारा चारों ओर फैल जाती है, जिससे तन्तु का ताप उसके गलनांक तक नहीं बढ़ पाता है। ऐसा नहीं करने पर बल्व का ताप तन्तु के गलनांक तक बढ़ जाएगा जिससे तन्तु पिघल जाएगी।

(C) दैनिक जीवन में विकिरण से संबंधित उपयोग

(i) बादलों वाली रात, स्वच्छ आकाश वाली रात की अपेक्षा गरम होती है: स्वच्छ आकाश वाली रात में पृथ्वी द्वारा छोड़ी गयी विकिरण की ऊष्मा आकाश की ओर चली जाती है। बादल ऊष्मा के बुरे अवशोषक होते हैं अतः बादलों वाली रात में पृथ्वी द्वारा छोड़ी गयी विकिरण की ऊष्मा आकाश की ओर जाने के बजाय पृथ्वी की ओर लौट जाती है, जिससे पृथ्वी गरम बनी रहती है ।

(ii) रेगिस्तान दिन में बहुत गरम तथा रात में बहुत ठण्डे हो जाते हैं: रेत ऊष्मा का अच्छा अवशोषक है और हम जानते हैं कि ऊष्मा का अच्छा अवशोषक ही ऊष्मा का अच्छा उत्सर्जक होता है। अतः दिन में सूर्य की ऊष्मा को अवशोषित करके रेत गर्म हो जाती है वही रात में वह अपनी ऊष्मा को विकिरण द्वारा खोकर ठण्डी हो जाती है ।

(iii) चाय की केतली की बाहरी सतह चमकदार बनायी जाती है: चमकदार सतह न तो बाहर से ऊष्मा का अवशोषण करती है और न भीतर की ऊष्मा बाहर जाने देती है । अतः चाय देर तक गरम बनी रहती है।

(iv) पॉलिश किए हुए जूते धूप से शीघ्र गरम नहीं होते क्योंकि वे अपने ऊपर गिरने वाली ऊष्मा का अधिकांश भाग परावर्तित कर देते हैं।

  1. न्यूटन का शीतलन नियम

न्यूटन का शीतलन नियम (Newton’s law of cooling): इस नियम के अनुसार किसी वस्तु में विकिरण द्वारा ऊष्मा क्षय होने की दर उस वस्तु और वातावरण के तापमान के अन्तर का समानुपाती होता है। अर्थात् वस्तु की ऊष्मा हानि की दर ∝ तापान्तर। अतः एक गर्म वस्तु द्वारा 90°C से 80°C तक ठंढा होने में लगा समय उसके 40°C से 30°C तक ठंढा होने में लगे समय से कम होगा।

नोट: विकिरण द्वारा किसी वस्तु से क्षय होने वाली ऊष्मा की दर वस्तु और उसके आस-पास के वातावरण के तापान्तर के साथ-साथ वस्तु के पृष्ठ की प्रकृति और पृष्ठ क्षेत्रफल पर भी निर्भर करता है।

  1. विकिरण का उत्सर्जन व अवशोषण

उत्सर्जन क्षमता (Emissive power): वस्तु के प्रति एकांक पृष्ठ से प्रति एकांक समय में उत्सर्जित विकिरण ऊर्जा की मात्रा को उस वस्तु की उत्सर्जन क्षमता कहते हैं। चमकदार तथा श्वेत तल से ऊष्मा का उत्सर्जन बहुत कम होता है।

कृष्ण-पिण्ड (Black Body): जो वस्तु अपने पृष्ठ पर आपतित सम्पूर्ण विकिरण को पूर्णतः अवशोषित कर लेती है, उसे कृष्ण-पिण्ड कहते हैं। काली वस्तु ऊष्मा का अच्छा अवशोषक होती है। इसीलिए सर्दियों में काले एवं गहरे रंग के कपड़े पहने जाते हैं। सफेद कपड़े ऊष्मा के बुरे अवशोषक होते हैं, इसीलिए उन्हें गर्मियों में पहना जाता है।

किरचौफ का नियम (Kirchhoff’s Law): इसके अनुसार ‘अच्छे अवशोषक ही अच्छे उत्सर्जक होते हैं (Good absorbers are good emitters)I’ अंधेरे कमरे में एक काली और एक सफेद वस्तु को समान ताप पर गरम करके रखा जाए, तो काली वस्तु अधिक विकिरण उत्सर्जित करेगी। अतः काली वस्तु अंधेरे कमरे में अधिक चमकेगी। हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग में लाये जाने वाले कई बर्तन किरचॉफ के नियम के अनुसार बनते हैं। जैसे- थरमस के बाहरी एवं भीतरी दोनों सतहों को चमकदार बनाया जाता है, क्योंकि सफेद एवं चमकदार सतह ऊष्मा की बुरी अवशोषक होती है, अतः वह बुरी उत्सर्जक भी होती है, फलस्वरूप ऊष्मा की हानि कम होती है। चाय के प्याले की सतह भी चमकदार एवं सफेद इसी कारण से बनायी जाती है।

नोट: यदि श्वेत प्रकाश के सात रंगों में लाल रंग को निकाल दिया जाए, तो शेष रंगों का सम्मिलित प्रभाव हरे रंग जैसा होता है, अतः किरचॉफ के नियमानुसार, लाल रंग की वस्तु गरम होने पर हरा प्रकाश उत्सर्जित करेगी / इसीलिए लाल काँच की गेंद को गरम करक अधरे कमरे में रखा जाय, तो वह हरी दिखाई देती है और हरे काँच की पर्याप्त रूप से गरम गेंद लाल दिखाई देगी।

स्टीफन का नियम (Stefan’s law): किसी वस्तु की इकाई तल से उत्सर्जित विकिरण ऊर्जा की दर E उसके परम ताप T के चौथे घात के अनुक्रमानुपाती होती है।

E ∝ T4

या

E = σ T4 जहाँ σ एक नियतांक है, जिसे स्टीफन नियतांक (stefan Constant) कहते हैं।


 

  1. गैसों का प्रसार

गैसों का गतिज सिद्धान्त (Kinetic Theory of gases): गैसों के व्यवहार का सैद्धान्तिक अध्ययन सबसे पहले सन् 1738 ई० में जेम्स बरनौली ने किया था। उसके बाद सन् 1860 से 1890 के बीच बोल्ट्मान, मैक्सवेल, क्लॉसियस आदि ने भी गैसों के विभिन्न मॉडल प्रस्तुत किए। इन सबों के प्रयासों के परिणामस्वरूप गैसों का एक व्यापक सिद्धान्त उभरकर सामने आया जिसे गैसों का गतिक सिद्धांत (Kinetic theory of gases) कहते हैं। इस सिद्धान्त के मुख्य परिणाम निम्नलिखित हैं।

(i) प्रत्येक गैस एक समान द्रव्यमान व आयतन वाले सूक्ष्म कणों से बनी होती है, जिन्हें अणु (Molecule) कहते हैं।

(ii) गैसों के अणु गोलीय होते हैं तथा पूर्णतः प्रत्यास्थ होते हैं। अतः परस्पर टकराने के बाद भी उनकी ऊर्जा में कोई कमी नहीं आती है।

(iii) गैस के अणु लगातार पात्र की दीवारों से टकराते रहते हैं, जिससे पात्र की दीवारों पर दाब उत्पन्न होता है। इसे ही गैसीय दाब कहते हैं।

(iv) गैस की अणुओं में परस्पर आकर्षण एवं विकर्षण नहीं होता है। अतः गैस के अणुओं की स्थितिज ऊर्जा शून्य होती है।

(v) गैस के अणुओं की गतिज ऊर्जा गैस के परम ताप के अनुक्रमानुपाती होती है।

(vi) गैसीय अणुओं का वास्तविक आयतन गैस के सम्पूर्ण आयतन की तुलना में नगण्य होता है।

  1. अवस्था परिवर्तन व गुप्त ऊष्मा

(A) अवस्था परिवर्तन (Change in state) किसी पदार्थ का एक निश्चित ताप पर एक अवस्था से दूसरी अवस्था अर्थात् ठोस से द्रव या द्रव से गैस या द्रव से ठोस या गैस से द्रव में परिवर्तित होना अवस्था परिवर्तन कहलाता है। चूंकि अवस्था परिवर्तन में पदार्थ का ताप नहीं बदलता है, अतः पदार्थ के अणुओं की माध्य गतिज ऊर्जा नहीं बदलती है, लेकिन अणुओं की आन्तरिक स्थितिज ऊर्जा बदल जाती है।

(i) गलनांक (Melting Point): निश्चित ताप पर ठोस का द्रव में बदलना गलन कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को ठोस का गलनांक (Melting Point) कहते हैं।

गलनांक पर दाब का प्रभाव: वे पदार्थ जो पिघलने पर संकुचित (contract) होते हैं उन पर दाब बढ़ाने से उनका गलनांक कम हो जाता है, जैसे-बर्फ, ढलवा लोहा, बिस्मथ आदि तथा वे पदार्थ जो पिघलने पर प्रसारित (expand) होते हैं, उन पर दाब बढ़ाने से उनका गलनांक बढ़ जाता है।

गलनांक पर अशुद्धि का प्रभाव: सामान्यतः अशुद्धि (impurity) मिलाने से गलनांक कम हो जाता है। जैसे 0°C पर पिघलती बर्फ में कुछ नमक, शोरा आदि मिलाने से बर्फ का गलनांक 0°C से घटकर -22°C तक कम हो जाता है। ऐसे मिश्रण को हिम मिश्रण (Freezing Mixture) कहते हैं। इस मिश्रण का उपयोग कुल्फी, आइसक्रीम आदि बनाने में किया जाता है।

(ii) हिमांक (Freezing Point): निश्चित ताप पर द्रव का ठोस में बदलना हिमीकरण कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को द्रव का हिमांक कहते हैं। प्रायः गलनांक एवं हिमांक बराबर होते हैं।

(iii) क्वथनांक (Boiling Point): निश्चित ताप पर द्रव का वाष्प या गैस में बदलना वाष्पण कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को द्रव का क्वथनांक कहते है।

क्वथनांक पर दाब का प्रभाव: दाब बढ़ाने से द्रव का क्वथनांक बढ़ता है।

क्वथनांक पर अशुद्धि का प्रभाव: अशुद्धि मिलाने से भी द्रव का क्वथनांक बढ़ता है।

(iv) संघनन बिन्दु (Condensation Point): निश्चित ताप पर वाष्प का द्रव में बदलना संघनन कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को संघनन बिन्दु कहते हैं। प्रायः क्वथनांक एवं संघनन बिन्दु समान होते हैं।

(B) गुप्त ऊष्मा (Latent Heat): नियत ताप पर पदार्थ की अवस्था परिवर्तन के लिए ऊष्मा की आवश्यकता होती है, इसे ही पदार्थ की गुप्त ऊष्मा कहते हैं। इसे जूल/किलोग्राम या कैलोरी/ग्राम में मापा जाता है।

गलन की गुप्त ऊष्मा (Latent heat of Fusion or Melting): नियत ताप पर ठोस के एकांक द्रव्यमान को द्रव में बदलने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को ठोस की गलन की गुप्त ऊष्मा कहते है। 0°C पर 1 ग्राम बर्फ को 0°C पर पानी में बदलने के लिए 80 कैलोरी ऊष्मा की आवश्यकता होती है। अतः बर्फ के गलन की गुप्त ऊष्मा का मान 80 कैलोरी प्रति ग्राम है।

वाष्पन की गुप्त ऊष्मा (Latent heat of Vaporisation): नियत ताप पर द्रव के एकांक द्रव्यमान को वाष्प में बदलने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को द्रव की वाष्पण की गुप्त ऊष्मा कहते हैं। जल के लिए वाष्पण की गुप्त ऊष्मा का मान 540 कैलोरी/ग्राम या 2,260,000 जूल/किग्रा० होता है।

गुप्त ऊष्मा को प्रायः अक्षर L द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। यदि पदार्थ की गुप्त ऊष्मा L है, तो पदार्थ के m द्रव्यमान की अवस्था परिवर्तन के लिए आवश्यक ऊष्मा Q = mL होगा।

उबलते जल की अपेक्षा भाप से जलने पर अधिक कष्ट होता है, यद्यपि दोनों का ताप 100°C ही होता है: 100°C के जल की अपेक्षा 100°C के भाप की गुप्त ऊष्मा का मान अधिक होता है, इसलिए जल की अपेक्षा भाप से जलने पर अधिक कष्ट होता है।

  1. वाष्पीकरण

वाष्पीकरण (Evaporation): द्रव की खुली सतह से प्रत्येक ताप पर धीरे-धीरे द्रव का वाष्प में बदलना वाष्पीकरण कहलाता है। वाष्पीकरण के लिए द्रव को ऊष्मा की आवश्यकता होती है, यह ऊष्मा द्रव अपने अन्दर से ही प्राप्त करता है, अतः द्रव ठण्डा हो जाता है। आम जीवन में इसके कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, जैसे- हमारे शरीर में पसीना जब सूखता है, तो हमें ठण्डक महसूस होती है, क्योंकि पसीना सूखने यानी वाष्पीकरण के लिए ऊष्मा शरीर से ग्रहण होता है अतः शरीर ठण्डा हो जाता है। वाष्पीकरण के कारण ही कुलर ठण्ड उत्पन्न करता है एवं सुराही का पानी ठण्डा हो जाता है।

वाष्पण की दर निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है-

(i) द्रव का ताप: ताप बढ़ने पर वाष्पीकरण की दर बढ़ जाती है।

(ii) द्रव की खुली सतह का क्षेत्रफल: द्रव की खुली सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाने से वाष्पीकरण की दर बढ़ जाती है।

(iii) वाष्प निकासी दर (Rate of Removal of vapour): वाष्पीकरण से द्रव की वाष्प उसकी सतह के ऊपर ही जमा होती रहती है, यदि इसे वहाँ से हटाते रहें, तो वाष्पन की दर बढ़ जाती है। यही कारण है कि पंखे की हवा में गीले कपड़े शीघ्र सूख जाते हैं।

प्रशीतक (Refrigerator): प्रशीतक में भी वाष्पीकरण के द्वारा ठंडक उत्पन्न की जाती है। ताँबे की एक वाष्पक कुण्डली में द्रव फ्रीऑन भरा रहता है, जो वाष्पीकृत होकर ठण्डक उत्पन्न करती है।

  1. आपेक्षिक आर्द्रता

आर्द्रता (Humidity): वायुमंडल में जलवाष्प (water vapour) की उपस्थिति को आर्द्रता कहते हैं। वायु में उपस्थित जलवाष्प की यह मात्रा प्रत्येक स्थान पर समान नहीं होती। प्रायः समुद्रतटीय स्थान में जलवाष्प की मात्रा यानी आर्द्रता अधिक होती है। वर्षा ऋतु में भी आर्द्रता बढ़ जाती है।

आपेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity): किसी दिए हुए ताप पर वायु के किसी आयतन में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा तथा उसी ताप पर उसी आयतन की वायु को संतृप्त करने के लिए आवश्यक जलवाष्प की मात्रा के अनुपात को आपेक्षिक आर्द्रता कहते हैं। आपेक्षिक आर्द्रता को प्रतिशत में व्यक्त करते हैं। अर्थात् आपेक्षिक आर्द्रता

= किसी ताप पर वायु के किसी आयतन में जलवाष्प की मात्रा / उसी ताप पर उसी आयतन की वायु को संतृप्त करने के लिए आवश्यक जलवाष्प की मात्रा × 100

आपेक्षिक आर्द्रता को मापने के लिए हाइग्रोमीटर (Hygrometer) नामक यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है। ताप बढ़ने पर आपेक्षिक आर्द्रता बढ़ जाती है।

नोट: संतृप्त अवस्था (saturated state): किसी दिए गए ताप पर वायु जलवाष्प की एक निश्चित मात्रा ही ग्रहण कर सकती है। इस अवस्था को वायु की संतृप्त अवस्था कहते हैं।

वातानुकूलन (Air-conditioning): पृथ्वी पर किसी स्थान की जलवायु वहाँ के ताप, आपेक्षिक आर्द्रता तथा वायु बहने की दिशा से निर्धारित होती है। सामान्यतः मनुष्य के स्वास्थ्य के अनुकूल जलवायु के लिए निम्न परिस्थितियाँ होनी चाहिए

(i) ताप: 23°C से 25°C

(ii) आपेक्षिक आर्द्रता: 60% से 65%

(iii) वायु की गति: 0.0125 मी०/से० से 0.0416 मी०/से० तक

यदि किसी स्थान की जलवायु उपर्युक्त परिस्थितियों के अनुसार नहीं होती, तो वह जलवायु मनुष्य के लिए आरामदेह व स्वास्थ्यकर नहीं होती; अतः इसको अनुकूल बनाने के लिए इन बाह्य परिस्थितियों को कृत्रिम रूप से निर्धारित व नियंत्रित करने की प्रक्रिया को ही वातानुकूलन कहते हैं।

  1. उष्मागतिकी

उष्मागतिकी (Thermodynamics): उष्मागतिकी भौतिकी की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत ऊष्मीय ऊर्जा का यांत्रिक  ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा आदि के साथ सम्बन्ध के बारे में अध्ययन किया जाता है।

उष्मागतिकी का प्रथम नियम First (Law of Thermodynamics): इस नियम को उर्जा संरक्षण का नियम (The Law of Conservation of Energy) भी कहते हैं। इस नियम के अनुसार किसी निकाय (system) को दी जाने वाली ऊष्मा दो प्रकार के कार्यों में खर्च होती है।

(i) निकाय की आन्तरिक ऊर्जा वृद्धि करने में, जिससे निकाय का ताप बढ़ता है।

(ii) बाह्य कार्य करने में।

यदि किसी निकाय को Q ऊष्मा दी जाय, तो उष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार-

Q = ΔU+W जहाँ ΔU = आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि, W = निकाय द्वारा किया गया बाह्य कार्य

यह नियम मुख्यतः ऊर्जा संरक्षण (Conservation of Energy) of प्रदर्शित करता है, परन्तु व्यवहार में देखा जाता है कि कार्य को तो ऊष्मा में पूर्णतः बदला जा सकता है, किन्तु ऊष्मा को पूर्णतः कार्य में नहीं बदला जा सकता है। प्रथम नियम के आधार पर इसे नहीं समझाया जा सकता है।

ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम (second Law of Thermodynamics): इस नियम को उत्क्रम-माप का नियम (The Law of Entropy) भी कहते हैं। ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊष्मा प्रवाहित होने की दिशा नहीं बताता। ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम ऊष्मा के प्रवाहित होने की दिशा को व्यक्त करता है। ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम दो कथनों (statements) के रूप में व्यक्त किया जाता है-

(i) केल्विन प्लांक का कथन: ‘‘किसी भी ऐसे ऊष्मा इंजन का निर्माण असंभव है, जो कि चक्रीय प्रक्रम में किसी स्रोत से ऊष्मा लेकर, कार्यकारी पदार्थ में बिना कुछ परिवर्तन किए, उसे पूर्णतः कार्य में बदल सके”। इस प्रकार के इंजन की दक्षता सदैव 1 से कम होती है। दक्षता η = W/Q1 जहाँ W किया गया उपयोगी कार्य है, और Q1 अवशोषित ऊष्मा है। (ii) क्लासियस का कथन: ‘‘ऐसी किसी भी स्वचालित मशीन का निर्माण असंभव है, जो चक्रीय प्रक्रम में बिना किसी बाह्य ऊर्जा स्रोत की सहायता के ऊष्मा को ठण्डी वस्तु से गरम वस्तु तक पहुँचा सके।

ऊष्मा सदैव गरम वस्तु से ठण्डी वस्तु की ओर प्रवाहित होती है, परन्तु प्रशीतक (Refrigerator) में बाह्य ऊर्जा स्रोत (विद्युत मोटर) की सहायता से ऊष्मा को ठण्डी वस्तु से गरम (वायुमंडल) में पहुँचाया जाता है।

उष्मागतिक निकाय तथा प्रक्रम (Thermodynamic System and Processes):

उष्मागतिक निकाय: वह निकाय जिसकी अवस्था को आयतन, दाब तथा ताप के पदों में व्यक्त किया जा सकता है, ऊष्मागतिक निकाय कहलाता है। जैसे-सिलिंडर में भरी गैस, फुटबॉल में भरी हवा आदि एक ऊष्मागतिक निकाय है।

किसी निकाय को दाब, आयतन व ताप की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में ले जाने के लिए जिस प्रक्रिया को अपनाया जाता है, उसे ऊष्मागतिक प्रक्रम कहते है। ये निम्न प्रकार के होते हैं-

(i) चक्रीय प्रक्रम (Cyclic Process): जब कोई निकाय विभिन्न अवस्थाओं से होकर प्रारम्भिक अवस्था में लौट आता है, तो ऐसे प्रक्रम को चक्रीय प्रक्रम कहते हैं। इसमें निकाय की आन्तरिक ऊर्जा में कोई परिवर्तन नहीं होता है, अर्थात् ΔU = 0 (शून्य) अतः Q = W यानी निकाय को दी गई कुल ऊर्जा उसके द्वारा किए गए कार्य के बराबर होती है।

(ii) समदाबी प्रक्रम (Isobaric Process): यदि प्रक्रम की अवधि में निकाय का दाब एकसमान रहता है, तो उसे समदाबी प्रक्रम कहते हैं।

(iii) समआयतनिक प्रक्रम (Isochoric Process): यदि प्रक्रम की अवधि में निकाय का आयतन स्थिर रहता है, तो ऐसे प्रक्रम को समआयतनिक प्रक्रम कहते हैं। ऐसे प्रक्रम में किया गया बाह्य कार्य शून्य होता है (W = 0), अतः Q = ΔU अर्थात् निकाय को दी गई ऊर्जा उसकी आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि (जैसे ताप में वृद्धि) करने में काम आती है।

(iv) समतापी प्रक्रम (Isothermal process): जब निकाय में परिवर्तन इस प्रकार होता है कि सम्पूर्ण क्रिया में निकाय का ताप स्थिर बना होता है, तो ऐसे प्रक्रम को समतापी प्रक्रम कहते है। ऐसे प्रक्रम प्रायः बहुत धीरे-धीरे सम्पन्न किए जाते हैं।

(v) रूद्धोष्म प्रक्रम (Adiabatic Process): जब निकाय में परिवर्तन इस प्रकार होता है, कि निकाय न तो अपने बाहर के वातावरण को कोई ऊष्मा दे पाए और न वहाँ से ऊष्मा ग्रहण करे, तो ऐसे प्रक्रम को रूद्धोष्म प्रक्रम कहते है। इस प्रक्रम के कुछ उदाहरण है-

(i) यदि साइकिल का ट्यूब अचानक फट जाए, तो उसकी हवा निकलकर वायुमंडल में फैल जाती है। इस अचानक फैलाव के कारण वह बाहर से ऊर्जा नहीं ले पाती और प्रसार के लिए आवश्यक ऊर्जा अपनी आन्तरिक ऊर्जा से ही ग्रहण करती है। अतः आन्तरिक ऊर्जा घट जाती है जिससे वायु का ताप भी घट जाता है।

(ii) शुष्क बर्फ (dry ice) बनाने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड को अचानक प्रसारित किया जाता है, जिससे वह ठंढा होकर बर्फ में बदल जाता है। इसे ही शुष्क बर्फ कहते है।

(iii) यदि थरमस में भरी चाय को तेजी से हिलाया जाए तो वह गरम हो जाती है। इसका कारण यह है कि हिलाने से चाय की परतों के बीच उपस्थित श्यान बलों के विरुद्ध कार्य किया जाता है जिससे चाय की आन्तरिक ऊर्जा बढ़ जाती है और उसके फलस्वरूप चाय का ताप बढ़ जाता है।

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