आनुवंशिकी एवं जैव विकास Genetics and Biological Evolution

आनुवंशिकी

जनन प्रक्रम का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम संतति के जीवों के समान डिजाइन (अभिकल्प) का होना है। आनुवंशिकता के नियम इस बात का निर्धारण करते हैं, जिनके द्वारा विभिन्न लक्षण पूर्व विश्वसनीयता के साथ वंशागत होते हैं।

वंशागत लक्षण

वास्तव में समानता एवं विभिन्नताओं से हमारा क्या अभिप्राय है? हम जानते हैं कि शिशु में मानव के सभी आधारभूत लक्षण होते हैं। फिर भी यह पूर्णरूप से अपने जनकों जैसा दिखाई नहीं पड़ता तथा मानव समष्टि में यह विभिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है।

लक्षणों की वंशागति के नियम

मानव में लक्षणों की वंशागति के नियम इस बात पर आधारित हैं कि माता एवं पिता, दोनों ही समान मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ को संतति (शिशु) में स्थानांतरित करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक लक्षण पिता और माता के डी.एन.ए. से प्रभावित हो सकता है। अत: प्रत्येक लक्षण के लिए, प्रत्येक संतति में दो विकल्प होंगे। फिर संतान में कौन-सा लक्षण परिलक्षित होगा? मेंडल ने इस प्रकार की वंशागति के कुछ मुख्य नियम प्रस्तुत किए। इन प्रयोगों के बारे में जानना अत्यंत रोचक होगा जो उसने लगभग एक शताब्दी से भी पहले किए थे।

ग्रेगर जॉन मेंडल (1822-1884)

मेंडल की प्रारंभिक शिक्षा एक गिरजाघर में हुई थी तथा वे विज्ञान एवं गणित के अध्ययन के लिए वियना विश्वविद्यालय गए। अध्यापन हेतु सर्टिफिकेट की परीक्षा में असफल होना उनकी वैज्ञानिक खोज की प्रवृत्ति को दबा नहीं सका। वे अपने चर्च में वापस गए तथा मटर पर प्रयोग करना प्रारंभ किया। उनसे पहले भी बहुत से वैज्ञानिकों ने मटर एवं अन्य जीवों के वंशागत गुणों का अध्ययन किया था। परंतु मेंडल ने अपने विज्ञान एवं गणितीय ज्ञान को समिश्रित किया। वे पहले वैज्ञानिक थे, जिन्होंने प्रत्येक पीढ़ी के एक-एक पौधे द्वारा प्रदर्शित लक्षणों का रिकॉर्ड रखा तथा गणना की। इसे उन्हें वंशागत नियमों के प्रतिपादन में सहायता मिली।


मेंडल ने मटर के पौधे के अनेक विपर्यासी (विकल्पी) लक्षणों का अध्ययन किया, जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरणत: गोल/झुर्रीदार बीज, लंबे/बौने पौधे, सफेद/बैंगनी फूल इत्यादि। उसने विभिन्न लक्षणों वाले मटर के पौधों को लिया, जैसे कि लंबे पौधे तथा बौने पौधे। इससे प्राप्त संतति पीढ़ी में लंबे एवं बौने पौधे के प्रतिशत की गणना की।

प्रथम संतति पीढ़ी अथवा F1 में कोई पौधा बीच की ऊँचाई का नहीं था। सभी पौधे लंबे थे। इसका अर्थ था कि दो लक्षणों में से केवल एक पैतृक जनकीय लक्षण ही दिखाई देता है, उन दोनों का मिश्रित प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। तो अगला प्रश्न था कि क्या F1 पीढ़ी के पौधे अपने पैतृक लंबे पौधों से पूर्ण रूप से समान थे? मेंडल ने अपने प्रयोगों में दोनों प्रकार के पैतृक पौधों एवं F1 पीढ़ी के पौधों को स्वपरागण द्वारा उगाया। पैतृक पीढ़ी के पौधों से प्राप्त सभी संतति भी लंबे पौधों की थी। परंतु F1 पीढ़ी के लंबे पौधों की दूसरी पीढ़ी अर्थात् F2 पीढ़ी के सभी पौधे लंबे नहीं थे वरन् उनमें से एक-चौथाई संतति बौने पौधे थे। यह इंगित करता है कि F1 पौधों द्वारा लंबाई एवं बौनेपन, दोनों विशेषकों (लक्षणों) की वंशानुगति हुई। परंतु केवल लंबाई वाला लक्षण ही व्यक्त हो पाया। अत: लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों में किसी भी लक्षण की दो प्रतिकृतियों की (स्वरूप) वंशानुगति होती है। ये दोनों एक समान हो सकते हैं, अथवा भिन्न हो सकते हैं जो उनके जनक पर निर्भर करता है।

इस व्याख्या में “TT” एवं “Tt” दोनों ही लंबे पौधे हैं, जबकि केवल “tt” बौने पौधे हैं। दूसरे शब्दों में, “T” की एक प्रति ही पौधे को लंबा बनाने के लिए पर्याप्त है, जबकि बौनेपन के लिए “t” की दोनों प्रतियाँ “t” ही होनी चाहिए। “T” जैसे लक्षण प्रभावी (Dominent) लक्षण कहलाते हैं, जबकि जो लक्षण ‘t’ की तरह व्यवहार करते हैं अप्रभावी (Recessive) कहलाते हैं।

क्या होता है जब मटर के पौधों में एक विकल्पी जोड़े के स्थान पर दो विकल्पी जोड़ों का अध्ययन करने के लिए संकरण कराया जाए? गोल बीज वाले लंबे पौधों का यदि झुर्रीदार बीजों वाले बौने पाधों से संकरण कराया जाए तो प्राप्त संतति कैसी होगी? F1 पीढ़ी के सभी पौधे लंबे एवं गोल बीज वाले होंगे। अत: लंबाई तथा गोल बीज प्रभावी लक्षण हैं। परंतु क्या होता है जब F1 संतति के स्वनिषेचन से F2 संतति के कुछ पौधे गोल बीज वाले लंबे पौधे होंगे तथा कुछ झुर्रीदार बीज वाले पौधे। परंतु F2 की संतति के कुछ पौधे नए संयोजन प्रदर्शित करेंगे। उनमें से कुछ पौधे लंबे परंतु झुरींदार बीज तथा कुछ पौधे बौने, परंतु गोल बीज होंगे। अत: लंबे/बौने लक्षण तथा गोल/झुरींदार लक्षण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होते हैं।

ये लक्षण अपने आपको किस प्रकार व्यक्त करते हैं?

आनुवंशिकता की कार्य विधि किस प्रकार होती है? कोशिका के डी.एन.ए. में प्रोटीन संश्लेषण के लिए एक सूचना स्रोत होता है। डी.एन.ए. का वह भाग, जिसमें किसी प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचनायें होती हैं, उस प्रोटीन का जीन कहलाता है। प्रोटीन विभिन्न लक्षणों की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करती है। पौधों की लंबाई के एक लक्षण को उदाहरण के रूप में लेते हैं। हम जानते हैं कि पौधों में कुछ हार्मोन होते हैं, जो लंबाई का नियंत्रण करते हैं। अत: किसी पौधे की लंबाई पौधे में उपस्थित उस हार्मोन की मात्रा पर निर्भर करती है। पौधे के हार्मोन की मात्रा उस प्रक्रम की दक्षता पर निर्भर करेगी, जिसके द्वारा यह उत्पादित होता है। एंजाइम इस प्रक्रम के लिए महत्वपूर्ण है। यदि हम एंजाइम (प्रकिण्व) दक्षता से कार्य करेगा तो हार्मोन पर्याप्त मात्रा में बनेगा तथा पौधा लंबा होगा। यदि इस प्रोटीन के जीन में कुछ परिवर्तन आते हैं तो बनने वाली प्रोटीन की दक्षता पर प्रभाव पड़ेगा तथा वह कम दक्ष होगी। अत: बनने वाले हार्मोन की मात्रा भी कम होगी तथा पौधा बौना होगा। अत: जीन लक्षणों को नियंत्रित करते हैं।

लैंगिक प्रजनन के दौरान संतति के डी.एन.ए. में दोनों जनक का समान रूप से योगदान होगा। यदि दोनों जनक संतति के लक्षण के निर्धारण में सहायता करते हैं तो दोनों जनक एक ही

चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (1809-1882)

चार्ल्स डार्विन जब 22 वर्ष के थे तो उन्होंने साहसिक समुद्री यात्रा की। पाँच वर्षों में उन्होंने दक्षिणी अमेरिका तथा इसके विभिन्न द्वीपों की यात्रा की। इस यात्रा का उद्देश्य पृथ्वी पर जैव विविधता के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता था। उनकी इस यात्रा ने जैव विविधता के विषय में उस समय व्याप्त दृष्टिकोण को सदा के लिए बदल दिया। यह भी अत्यंत रोचक है कि इंग्लैंड वापस आने के बाद वे पुन: किसी और यात्रा पर नहीं गए। वे घर पर ही रहे तथा उन्होंने अनेक प्रयोग किए, जिनके आधार पर उन्होंने अपने ‘प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास’ के अपने सिद्धांत की परिकल्पना की। वे यह नहीं जानते थे कि किस विधि द्वारा स्पीशीज में विभिन्नताएँ आती हैं। उन्हें मेंडल के प्रयोगों का लाभ मिलता, परंतु ये दोनों व्यक्ति वैज्ञानिक न तो एक-दूसरे को और न ही उनके कार्य के विषय में जानते थे।

हम डार्विन के केवल उनके जैव विकासवाद के कारण ही जानते हैं। परंतु वे एक प्रकृतिशास्त्री भी थे तथा उनका एक शोध भूमि की उर्वरता बनाने में कचुओं की भूमिका के विषय में था।

जीन की एक प्रतिकृति संतति को प्रदान करेंगे। इसका अर्थ है कि मटर के प्रत्येक पौधे में सभी जीन के दो-सेट होंगे, प्रत्येक जनक से एक सेट की वंशानुगति होती है। इस तरीके को सफल करने के लिए प्रत्येक जनन कोशिका में जीन का केवल एक ही सेट होगा, जबकि सामान्य कायिक कोशिका में जीन के सेट की दो प्रतियाँ होती हैं, फिर इनमें जनन कोशिका में इसका एक पूर्ण सेट प्राप्त होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि दो लक्षण ‘R’ तथा ‘Y’ सेट में एक-दूसरे से संलग्न रहेंगे तथा स्वतंत्र रूप में आहरित नहीं हो सकते। इसे इस तथ्य के आधार पर समझा जा सकता है कि वास्तव में एक जीन सेट केवल एक डी.एन.ए. श्रृंखला के रूप में न होकर डी.एन.ए. के अलग-अलग स्वतंत्र रूप में होता है, प्रत्येक एक गुण सूत्र कहलाता है। अत: प्रत्येक कोशिका में प्रत्येक गुणसूत्र की दो प्रतिकृतियाँ होती हैं, जिनमें से एक नर तथा दूसरी मादा जनक से प्राप्त होती हैं। प्रत्येक जनक कोशिका (पैतृक अथवा मातृक) से गुणसूत्र के प्रत्येक जोड़े का केवल एक गुणसूत्र ही एक जनन कोशिका (युग्मक) में जाता है। जब दो युग्मों का संलयन होता है तो बने हुए युग्मनज में गुणसूत्रों की संख्या पुन: सामान्य हो जाती है तथा संतति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित बनी रहती है, जो स्पीशीज के डी.एन.ए. के स्थायित्व को सुनिश्चित करता है। वंशागति की इस क्रियाविधि से मेंडल के प्रयोगों के परिणाम की व्याख्या हो जाती है। इसका उपयोग लैंगिक जनन वाले सभी जीव करते हैं। परंतु अलैंगिक जनन करने वाले जीव भी वंशागति के इन्हीं नियमों का पालन करते हैं।

एक जीन एक एन्जाइम परिकल्पला One Gene, One Enzyme Hypothesis

इस परिकल्पना की प्रतिपादना जार्ज बेडल एवं एडवर्डलॉरी टेटम द्वारा 1941 में दी गयी। जिसमें इन्होंने कहा कि एक जीन एक एन्जाइम के उत्पादन को नियंत्रित करता है। कुछ समय बाद इस अवधारणा को संशोधित करते हुए इसमें यह भी जोड़ा गया कि एक सिस्ट्रोन, एक पोलिपेप्टाइड के उत्पाद को नियंत्रित करता है।

लिंग निर्धारण

इस बात की चर्चा हम कर चुके हैं कि लैंगिक जनन में भाग लेने वाले दो एकल जीव किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, जिसके कई कारण हैं। नवजात का लिंग निर्धारण कैसे होता है? अलग-अलग स्पीशीज इसके लिए अलग-अलग युक्ति अपनाते हैं। कुछ पूर्ण रूप से पर्यावरण पर निर्भर करते हैं। इसलिए कुछ प्राणियों में लिंग निर्धारण निषेचित अंडे (युग्मक) के ऊष्मायन ताप पर निर्भर करता है कि संतति नर होगी या मादा।। घोंघे जैसे कुछ प्राणी अपना लिंग बदल सकते हैं, जो इस बात का संकेत है कि इनमें लिंग निर्धारण आनुवंशिक नहीं है। लेकिन, मानव में लिंग

पृथ्वी पर जीवन का उत्पत्ति

डार्विन के सिद्धांत हमें बताते हैं कि पृथ्वी पर सरल जीवों से जटिल स्वरूप वाले जीवों का विकास किस प्रकार हुआ?मेंडल के प्रयोगों से हमें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में लक्षणों की वंशानुगति की कार्यविधि का पता चला। परन्तु दोनों ही यह बताने में असमर्थ रहे कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई, अर्थात इसका सर्वप्रथम अविर्भाव किस प्रकार हुआ।

एक ब्रिटिश वैज्ञानिक, जे.बी.एस. हाल्डेन (जो बाद में भारत के नागरिक हो गए थे।) ने 1929 में यह सुझाव दिया कि जीवों की सर्वप्रथम उत्पत्ति उन सरल अकार्बनिक अणुओं से ही हुई होगी, जो पृथ्वी की उत्पत्ति के समय बने थे। उसने कल्पना की कि पृथ्वी पर उस समय का वातावरण, पृथ्वी के वर्तमान वातावरण से सर्वथा भिन्न था। इस प्राथमिक वातावरण में संभवत: कुछ जटिल कार्बनिक अणुओं का संश्लेषण हुआ जो जीवन के लिए आवश्यक थे। सर्वप्रथम प्राथमिक जीव अन्य रासायनिक संश्लेषण स्टेनले एल. मिलर तथा हेराल्ड सी. उरे द्वारा 1953 में किए गए प्रयोगों के आधार पर की जा सकती है। उन्होंने कृत्रिम रूप से ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो संभवत: प्राथमिक/प्राचीन वातावरण के समान था (इसमें अमोनिया, मीथेन तथा हाइड्रोजन सल्फाइड के अणु थे परंतु ऑक्सीजन के नहीं), पात्र में जल भी था। इसे 100 डिग्री सेल्सियस से कुछ कम ताप पर रखा गया। गैसों के मिश्रण में चिनगारियाँ उत्पन्न की गई, जैसे-आकाश में बिजली। एक सप्ताह के बाद, 15 प्रतिशत कार्बन (मीथेन से) सरल कार्बनिक यौगिकों में परिवर्तित हो गए। इनमें एमीनो अम्ल भी संश्लेषित हुए, जो प्रोटीन के अणुओं का निर्माण करते हैं तो, क्या पृथ्वी पर आज भी जीवन की उत्पत्ति हो सकती है?

निर्धारण आनुवंशिक आधार पर होता है। दूसरे शब्दों में, जनन जीवों में वंशानुगत जीन ही इस बात का निर्णय करते हैं कि संतति लड़का होगा अथवा लड़की। परंतु अभी तक हम मानते रहे हैं कि दोनों जनकों से एक जैसे जीन सेट संतति में जाते हैं। यदि यह शाश्वत नियम है तो फिर लिंग निर्धारण वंशानुगत कैसे हो सकता है?

इसकी व्याख्या इस तथ्य में निहित है कि मानव के सभी गुणसूत्र पूर्णरूपेण युग्म नहीं होते। मानव में अधिकतर गुणसूत्र माता और पिता के गुणसूत्रों के प्रतिरूप होते हैं। इनकी संख्या 22 जोड़े में नहीं होता। स्त्री में गुणसूत्र का पूर्ण युग्म होता है तथा दोनों ‘X’ कहलाते हैं। लेकिन पुरुष (नर) में यह जोड़ा परिपूर्ण जोड़ा नहीं होता, जिसमें एक गुणसूत्र सामान्य आकार का ‘X’ होता है तथा दूसरा गुणसूत्र छोटा होता है जिसे ‘Y’ गुणसूत्र कहते हैं। अत: स्त्रियों में ‘XX’ पुरुष में ‘XY’ गुणसूत्र होते हैं। क्या अब हम हम X और Y का वंशानुगत पैटर्न कर सकते हैं?

जैव विज्ञान का विकास

अभी तक हमने जो कुछ भी समझा, वह सूक्ष्म-विकास था। इसका अर्थ है कि यह परिवर्तन बहुत छोटे हैं, तथापि महत्वपूर्ण हैं। फिर भी ये विशिष्ट स्पीशीज की समष्टि के सामान्य लक्षणों (स्वरूप) में परिवर्तन लाते हैं, लेकिन इससे यह नहीं समझा जा सकता कि नयी स्पीशीज (जाति) का उद्भव किस प्रकार होता है। यह तभी कहा जा सकता था, जबकि भृगों का यह समूह, जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, दो भिन्न समष्टियों में बँट जाएँ तो आपस में जनन करने में असमर्थ हों। जब यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब हम उनहें दो स्वतंत्र स्पीशीज कह सकते हैं।

सोचिए, क्या होगा कि वे झाड़ियाँ जिन पर भृंग भोजन के लिए निर्भर करते हैं, एक पर्वतश्रृंखला के बृहद क्षेत्र में फैल जाएं। परिणामत: समष्टि का आकार भी विशाल हो जाता है। परंतु व्यष्टि भृंग अपने भोजन के लिए जीवन-भर अपने आसपास की कुछ झाड़ियों पर ही निर्भर करते हैं। वे बहुत दूर नहीं जा सकते। अत: भूगों की इस विशाल समष्टि के आसपास उप-समष्टि होगी। क्योंकि नर एवं मादा भृंग जनन के लिए आवश्यक हैं। अत: जनन प्राय: इन उप समष्टियों के सदस्यों के मध्य ही होगा। हाँ, कुछ साहसी भृंग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं अथवा कौआ एक भृंग को एक स्थान से उठाकर बिना हानि पहुँचाए दूसरे स्थान पर छोड़ देता है। दोनों ही स्थितियों में अप्रवासी भृंग, स्थानीय समष्टि के साथ ही जनन करेगा। परिणामत: अप्रवासी भृंग के जीन नयी समष्टि में प्रविष्ट हो जाएँगे। इस प्रकार जीन-प्रवाह उन समष्टियों में होता रहता है, जो आंशिक रूप से अलग-अलग हैं; परंतु पूर्णरूपेण अलग नहीं हुई हैं। परंतु, यदि इस प्रकार की दो उप समष्टियों के मध्य एक विशाल नदी आ जाए, तो दोनों समष्टियाँ और अधिक पृथक हो जाएँगी। दोनों के मध्य जीन-प्रवाह का स्तर और भी कम हो जाएगा।

उत्तरोत्तर पीढ़ियों में आनुवंशिक विचलन प्रत्येक उप-समष्टि में विभिन्न परिवर्तनों का संग्रहण हो जाएगा। भौगोलिक रूप से विलग इन समष्टियों में प्राकृतिक चयन का तरीका भी भिन्न होगा। अत: उदाहरण के लिए, एक उप-समष्टि की सीमा में उकाब/चील द्वारा कौए समाप्त हो जाते हैं। परंतु दूसरी उप-समष्टि में यह घटना नहीं होती, जहाँ पर कौओं की संख्या बहुत अधिक है। परिणामत: पहले स्थान पर भृंगों का हरा रंग (लक्षण) का प्राकृतिक चयन नहीं होगा, जबकि दूसरे स्थान पर इसका चयन होगा।

भृंगों की इन पृथक उप-समष्टियों में आनुवंशिक विचलन एवं प्राकृतिक-वरण (चयन) के संयुक्त प्रभाव के कारण समष्टि एक-दूसरे से अधिक भिन्न होती जाती है। यह भी संभव है कि अंतत: इन समष्टियों के सदस्य आपस में एक-दूसरे से मिलने के बाद भी अंतर्जनन में असमर्थ हों।

अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा यह परिवर्तन संभव है। यदि डी. एन.ए. में यह परिवर्तन पर्याप्त है, जैसे गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन, तो दो समष्टियों के सदस्यों की जनन कोशिकाएँ संलयन करने में असमर्थ हो सकती हैं अथवा संभव है कि ऐसी विभिन्नता उत्पन्न हो जाए, जिसमें हरे रंग की मादा भृग, लाल रंग के नर भृंग के साथ जनन की क्षमता ही खो दे, वह केवल हरे रंग के नर भृंग के साथ ही जनन कर सकते हैं। यह हरे रंग के प्राकृतिकवरण के लिए एक अत्यंत दृढ़ परिस्थिति है। अब यदि ऐसी हरी मादा भृंग, दूसरे समूह के लाल नर से मिलती है तो उसका व्यवहार ऐसा होगा कि जनन न हो। परिणामत: भृगों की नयी स्पीशीज का उद्भव होता है।

विकास का वर्गीकरण

इन सिद्धांतों के आधार पर हम चहुँओर पायी जाने वाली विभिन्न स्पीशीज के बीच विकासीय संबंध स्थापित कर सकते हैं। यह एक प्रकार से समय घड़ी से पीछे जाना है। हम ऐसा विभिन्न स्पीशीज के अभिलक्षणों के पदानुक्रम का निर्धारण करके कर सकते हैं।

विभिन्न जीवों के मध्य समानताएँ हमें उन जीवों को एक समूह में रखने और फिर उनके अध्ययन का अवसर प्रदान करती हैं। इसके लिए कौन से अभिलक्षण जीवों के मध्य आधारभूत विभिन्नताओं का निर्णय करते हैं तथा कौन से अभिलक्षण कम महत्वपूर्ण अंतरों का निर्णय लेते हैं? अभिलक्षणों से हमारा क्या अभिप्राय है? बाह्य आकृति अथवा व्यवहार का विवरण अभिलक्षण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विशेष स्वरूप अथवा विशेष प्रकार्य अभिलक्षण कहलाता है। हमारे चार पाद होते हैं, यह एक अभिलक्षण है। पौधों में प्रकाश संश्लेषण होता है, यह भी एक अभिलक्षण है।

कुछ आधारभूत अभिलक्षण अधिकतर जीवों में समान होते हैं। कोशिका सभी जीवों की आधारभूत इकाई है। वर्गीकरण के अगले स्तर पर कोई अभिलक्षण अधिकतर जीवों में समान हो सकता है, परंतु सभी जीवों में नहीं। कोशिका के अभिकल्प का आधारभूत अभिलक्षण का एक उदाहरण, कोशिका में केंद्रक का होना या न होना है, जो विभिन्न जीवों में भिन्न हो सकता है। जीवाणु कोशिका में केंद्रक नहीं होता, जबकि अधिकतर दूसरे जीवों की कोशिकाओं में केंद्रक पाया जाता है। केंद्रक युक्त कोशिका वाले जीवों के एक-कोशिका अथवा बहुकोशिका होने का गुण शारीरिक अभिकल्प में एक आधारभूत अंतर दर्शाता है जो कोशिकाओं एवं ऊतकों के विशिष्टीकरण के कारण है। बहुकोशिकीय जीवों में प्रकाशसंश्लेषण का होना या न होना वर्गीकरण का अगला स्तर है। उन बहुकोशिकीय जीवों, जिनमें प्रकाश संश्लेषण नहीं होता, में कुछ जीव ऐसे हैं, जिनमें अंत: ककाल होता है तथा कुछ में बाह्य-कंकाल का अभिलक्षण एक अन्य प्रकार का आधारभूत अभिकल्प अंतर है।

दो स्पीशीज के मध्य जितने अधिक अभिलक्षण समान होंगे, उनका संबंध भी उतना ही निकट का होगा। जितनी अधिक समानताएँ उनमें होंगी उनका उद्भव भी निकट अतीत में समान पूर्वजों से हुआ होगा। इसे हम उदाहरण की सहायता से समझ सकते हैं। एक भाई एवं बहन अति निकट संबंधी हैं। उनसे पहली पीढ़ी में उनके पूर्वज समान थे अर्थात वे एक ही माता-पिता की संतान हैं। लड़की के चचेरे/ममेरे भाई-बहन भी उससे संबंधित है परन्तु उसके अपने भाई से कम हैं। इसका मुख्य कारण है कि उनके पूर्वज समान हैं, अर्थात् दादा-दादी, जो उनसे दो पीढ़ी पहले के हैं, न कि एक पीढ़ी पहले के। अब आप इस बात को भली प्रकार समझ सकते हैं कि स्पीशीज/जीवों का वर्गीकरण उनके विकास के संबंधों का प्रतिबिंब है।

अत: हम स्पीशीज के ऐसे समूह का निर्माण कर सकते हैं, जिनके पूर्वज निकट अतीत में समान थे, इसके बाद इन समूह का (समय के अनुसार) के हों। सैद्धांतिक रूप से इस प्रकार अतीत की कड़ियों का निर्माण करते हुए हम विकास की प्रारंभिक स्थिति तक पहुँच सकते हैं, जहाँ मात्र एक ही स्पीशीज थी। यदि यह सत्य है तो जीवन की उत्पत्ति अवश्य ही अजैविक पदार्थों से हुई होगी। यह किस प्रकार संभव हुआ होगा, इसके विषय में अनेक सिद्धांत हैं। यह रोचक होगा यदि हम अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन कर सक।

विकासीय सम्बन्ध खोजना

जब हम विकासीय संबंधों को जानने का प्रयास करते हैं तो हम समान अभिलक्षणों की पहचान किस प्रकार करते हैं। विभिन्न जीवों में यह अभिलक्षण समान होंगे। क्योंकि वे समान जनक से वंशानुगत हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, इस वास्तविकता को ही लेते हैं कि पक्षियों, सरीसृप एवं जल-स्थलचर की भाँति ही स्तनधारियों के चार पाद (पैर) होते हैं। सभी में पादों की आधारभूत संरचना एक समान है, यद्यपि विभिन्न कशेरुकों में भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए इनमें रूपांतरण हुआ है, तथापि पाद की आधारभूत संरचना एकसमान है। ऐसे समजात अभिलक्षण से भिन्न दिखाई देने वाली विभिन्न स्पीशीज के बीच विकासीय संबंध की पहचान करने में सहायता मिली है।

परंतु किसी अंग की आकृति में समानताएँ होने का एकमात्र कारण समान पूर्वज परंपरा नहीं है। चमगादड़ एवं पक्षी के पंख के विषय में आपके क्या विचार हैं? पक्षी एवं चमगादड़ के पंख होते हैं, परंतु गिलहरी एवं छिपकली के नहीं तो क्या पक्षी एवं चमगादड़ों के बीच संबंध गिलहरी अथवा छिपकली की अपेक्षा अधिक घनिष्ठ हैं?

इससे पहले कि हम कोई निष्कर्ष निकालें, हमें पक्षी एवं चमगादड़ के पंखों को और बारीकी से देखना होगा। जब हम ऐसा करते हैं तो हमें पता चलता है कि चमगादड़ के पंख मुख्यतः उसकी दीर्घित अँगुली के मध्य की त्वचा के फैलने से बना है। परंतु पक्षी के पंख उसकी अग्रबाहु की त्वचा के फैलाव से बनता है, जो परों से ढकी रहती है। अत: दो पंखों के अभिकल्प, उनकी संरचना एवं संघटकों में बहुत अंतर है। वे एक जैसे दिखाई देते हैं क्योंकि वे उड़ने के लिए इसका उपयोग करते हैं, परंतु सभी की उत्पत्ति पूर्णत: समान नहीं है। इस कारण यह उन्हें समरूप अभिलक्षण बनाता है न कि समजात अभिलक्षण। अब यह विचार करना रोचक होगा कि पक्षी के अग्रपाद एवं चमगादड़ के अग्रपाद को समजात माना जाए अथवा समरूप।

जीवाश्म

अंगों की संरचना केवल वर्तमान स्पीशीज पर ही नहीं की जा सकती, वरन् उन स्पीशीज पर भी की जा सकती है जो अब जीवित नहीं हैं। हम कैसे जान पाते हैं कि ये विलुप्त स्पीशीज कभी अस्तित्व में भी थीं? यह हम जीवाश्म द्वारा ही जान पाते हैं। जीवाश्म क्या हैं? सामान्यतः जीव की मृत्यु के बाद उसके शरीर का अपघटन हो जाता है तथा वह समाप्त हो जाता है। परंतु कभी-कभी जीव अथवा उसके कुछ भाग ऐसे वातावरण में चले जाते हैं, जिसके कारण इनका अपघटन पूरी तरह से नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, यदि कोई मृत कीट गर्म मिट्टी में सूख कर कठोर हो जाए तथा उसमें कीट के शरीर की छाप सुरक्षित रह जाए। जीव के इस प्रकार के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं।

हम यह कैसे जान पाते हैं कि जीवाश्म कितने पुराने हैं? इस बात के आकलन के दो घटक हैं। एक है सापेक्ष। यदि हम किसी स्थान की खुदाई करते हैं और एक गहराई तक खोदने के बाद हमें जीवाश्म मिलने प्रारंभ हो जाते हैं तब ऐसी स्थिति में यह सोचना तर्कसंगत है कि पृथ्वी की सतह के निकट वाले जीवाश्म गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्मों की अपेक्षा अधिक नए हैं। दूसरी विधि है फॉसिल डेटिंग या कार्बन डेटिंग, जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिकों का अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय-निर्धारण किया जाता है। यह जानना रोचक होगा कि यह विधि किस प्रकार कार्य करती है।

जीवाश्म एक के बाद एक परत कैसे बनाते हैं?

आइये 10 करोड़ (100 मिलियन) वर्ष पहले से प्रारंभ करते हैं। समुद्र तल पर कुछ अकशेरुकीय जीवों की मृत्यु हो जती है तथा वे रेत में दब जाते हैं। धीरे-धीरे और अधिक रेत एकत्र होती जाती है तथा अधिक दाब के कारण चट्टान बन जाती है।

कुछ मिलियन वर्षों बाद, क्षेत्र में रहने वाले डायनासोर मर जाते हैं तथा उनका शरीर भी मिट्टी में दब जाता है। यह मिट्टी भी दबकर चट्टान बन जाती है। जो पहले वाले अकशेरुकीय जीवाश्म वाली चट्टान के ऊपर बनती है।

फिर इसके कुछ और मिलियन वर्षों बाद इस क्षेत्र में घोड़े के समान कुछ जीवों के जीवाश्म चट्टानों में दब जाते हैं।

इसके काफी समय उपरांत मृदा अपरदन के कारण कुछ चट्टानें फट जाती हैं तथा घोड़े के समान जीवाश्म प्रकट होते हैं। जैसे-जैसे हम गहरी खुदाई करते जाते हैं, वैसे-वैसे पुराने तथा पुराने जीवाश्म प्राप्त होते हैं।

विकास के चरण

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि जटिल अंग, उदाहरण के लिए आँख का चयन उनकी उपयोगिता के आधार पर होता है तो वे डी.एन.ए. में मात्र एक परिवर्तन द्वारा किस प्रकार संभव है? निश्चित रूप ऐसे जटिल अगों का विकास क्रमिक रूप से अनेक पीढ़ियों में हुआ होगा। परंतु बीच के परिवर्तन किस प्रकार चयनित होते हैं? इसके लिए अनेक संभावित स्पष्टीकरण हैं। एक बीच का चरण, जैसे कि अल्पवर्धित ऑख, किसी सीमा तक उपयोगी हो सकती है। यह योग्यता के लाभ के लिए पर्याप्त हो सकता है। वास्तव में पंख की तरह ऑख भी एक व्यापक अनुकूलन है। यह कीटों में पाई जाती है, उसी प्रकार ऑक्टोपस तथा कशेरुकी में भी, तथा आँख की संरचना इन सभी जीवों में भिन्न है, जिसका मुख्य कारण अलग-अलग विकासीय उत्पत्ति है।

साथ ही, एक परिवर्तन जो एक गुण के लिए उपयोगी है, कालांतर में किसी अन्य कार्य के लिए भी उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए, पर जो संभवत: ठडे मौसम में ऊष्मारोधन के लिए विकसित हुए थे, कालांतर में उड़ने के लिए भी उपयोगी हो गए। वास्तव में कुछ उड़ने में समर्थ नहीं थे। बाद में संभवत: पक्षियों ने परों को उड़ने के लिए अपनाया। डायनासोर सरीसृप थे, अत: हम यह अर्थ निकाल सकते हैं कि पक्षी बहुत निकटता से सरीसृप से संबंधित हैं।

यहाँ इसका उल्लेख करना रोचक होगा कि बहुत अधिक भिन्न दिखने वाली संरचनाएँ एक समान परिकल्प से विकसित हो सकती हैं। यह सत्य है कि जीवाश्म में अंगों की संरचना का विवेचन हमें यह अनुमान लगाने में सहायक हो सकता है कि विकासीय संबंध कितना पीछे जा सकता है? क्या इस प्रक्रम के उदाहरण उपलब्ध हैं? जंगली गोभी इसका एक अच्छा उदाहरण है। दो हजार वर्ष पूर्व से मनुष्य जंगली गोभी को एक खाद्य पौधे के रूप में उगाता था, तथा उसने चयन द्वारा इससे विभिन्न सब्जियाँ विकसित कीं। परंतु यह प्राकृतिक वरण न होकर कृत्रिम चयन है। कुछ किसान इसकी पत्तियों के बीच की दूरी को कम करना चाहते थे जिससे पत्तागोभी का विकास हुआ, जिसे हम खाते हैं। कुछ किसान पुष्पों की वृद्धि रोकना चाहते थे, अत: ब्रोकोली (ब्रेसिका ओलेरेसिआ) विकसित हुई, अथवा बंध्य पुष्पों से फूलगोभी विकसित हुई। कुछ भाग का चयन किया, अत: गाँठगोभी विकसित हुई। कुछ ने केवल चौड़ी पत्तियों को ही पसंद किया तथा केल नामक सब्जी का विकास किया। यदि मनुष्य ने स्वयं ऐसा नहीं किया होता तो क्या हम कभी ऐसा सोच सकते थे कि उपरोक्त सभी समान जनक से विकसित हुई हैं?

आणविक जातिवृत्त
हम इस बात की चर्चा करते हैं कि कोशिका विभाजन के समय डी.एन. ए. में होने वाले परिवर्तन से उस प्रोटीन में भी परिवर्तन आएगा तो नए डी. एन.ए. से बनेगी, दूसरी बात यह हुई कि ये परिवर्तन, उत्तरोत्तर पीढ़ियों में संचित होते जाएँगे। क्या हम समय के साथ पीछे जाकर यह जान सकते हैं कि ये परिवर्तन किस समय हुए? आणविक जातिवृत्त वास्तव में यही करता है। इस अध्ययन में यह विचार सन्निहित है कि दूरस्थ संबंधी जीवों के डी.एन.ए. में ये विभिन्नताएँ अधिक संख्या में संचित होंगी। इस प्रकार के अध्ययन विकासीय संबंधों को खोजते हैं तथा यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि विभिन्न जीवों के बीच आणविक जातिवृत्त द्वारा स्थापित संबंध वर्गीकरण से सुमेलित होते हैं।

विकासीय संबंध खोजने का एक अन्य तरीका उस मौलिक परिकल्पना पर निर्भर करता है, जिससे हमने प्रारंभ किया था। वह विचार था कि जनन के दौरान डी.एन.ए. में होने वाले परिवर्तन विकास की आधारभूत घटना है। यदि, यह सत्य है तो विभिन्न स्पीशीज के डी.एन.ए. की संरचना की तुलना से हम सीधे ही इसका निर्धारण कर सकते हैं कि इन स्पीशीज के उद्भव के दौरान डी.एन.ए. में क्या-क्या और कितने परिवर्तन आए। विकासीय संबंध स्थापित करने में इस विधि का व्यापक स्तर पर प्रयोग हो रहा है।

जैव विकास से संबंधित नियम

  1. बर्जमान का नियम: ठण्डे प्रदेशों के नियततापी (Warm blooded) जन्तुओं का शरीर अधिकाधिक बड़ा हो पाता है।
  2. ऐलेन का नियम: ठण्डे प्रदेश की जातियों में शरीर के खुले भाग (पूंछ, कान, पाद) आदि छोटे होते जाते हैं ताकि इनके माध्यम से ताप का क्षरण कम हो।
  3. डोलो का नियम: जैव विकास के समय लक्षणों के प्रमुख भेद दोबारा नहीं होते, अर्थात् जैव विकास उल्टी दिशा में नहीं बढ़ता।
  4. कोप का नियम: जैव विकास के विकास काल में जन्तु शरीर के बड़े होते रहने की प्रवृत्ति रही है।
  5. गांसी का नियम: दो जीव जातियाँ जिनको समान वातावरणीय आवश्यकता चाहिए, एक ही जगह पर अनिश्चितकाल हेतु नहीं रह सकतीं।
  6. ग्लोगर का नियम: गर्म व नम प्रदेशों के नियततापी जन्तुओं में मिलेनिन रंग अधिक पाये जाते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *