भारतीय संविधान का कार्यकरण एवं समीक्षा Functioning and Review of the Constitution

संवैधानिक परिदृश्य

संविधान किसी भी शासन व्यवस्था की आत्मा के समान है जो संबधित राष्ट्र की ऐतिहासिक निरन्तरता, जनाकांक्षाओं तथा समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार निर्मित होता है। भारत गणराज्य का संविधान 26 जनवरी, 1950 से प्रवर्तित है जो देश के सभी क्षेत्रों, भाषाओं, राजनीतिक दलों तथा वर्गों से आए 284 विद्वान सदस्यों से युक्त संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया था। यद्यपि संविधान निर्माण के समय अन्य देशों के संविधानों की अच्छाइयों-बुराइयों का भली-भांति अध्ययन करके उनसे आवश्यक प्रेरणा भारतीयों ने प्राप्त की थी तथापि हमारा संविधान एक संतुलित तथा कारगर संविधान बने इसके लिए इसमें भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप उपबंध किए गए। इस प्रक्रिया के अंतर्गत 1950 से लेकर वर्तमान समय तक 98 संविधान संशोधन किए जा चुके हैं जो यह सिद्ध करता है कि संविधान किसी राष्ट्र के सामाजिकआर्थिक-राजनीतिक विकास की दिशा एवं आधार प्रदान करता है।

वर्ष 1950 से अबतक संविधान की पांच बड़ी समीक्षाएं हो चुकी हैं। प्रथम समीक्षा 1951 में आरम्भ हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप नवीं अनुसूची सामने आई थी। इसका उद्देश्य सरकार द्वारा चुने हुए कानूनों को न्यायिक पुनर्विचार के दायरे से बाहर रखना था। दूसरी समीक्षा 1954 में हुई थी,जिसके फलस्वरूप न्यायपालिका विरोधी भावनाएं सामने आई थीं, जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान में सम्मिलित करने से रोक दिया। तीसरी समीक्षा 1967 में प्रारंभ हुई थी। इसके परिणामस्वरूप 24वें संविधान संशोधन की घोषणा हुई थी। यह समीक्षा केशवानन्द भारतीवाद में सर्वोच्च न्यायालय के आधारभूत संरचना सिद्धांत के साथ समाप्त डुई थी। चौथी समीक्षा स्वर्ण सिंह समिति ने 1976 में की थी, जिसका परिणाम 42वें संविधान संशोधन के रूप में सामने आया था। ये संशोधन इतने अधिक व्यापक थे कि इसे लघु संविधान  (mini constitution) की संज्ञा प्रदान की जाने लगी। जनता पार्टी सरकार ने यदि 43वें और 44वें संशोधन न किए होते तो चौथी समीक्षा ने लोकतंत्र को समाप्त कर दिया होता। 1980 के दशक में हुई संवैधानिक समीक्षा का परिणाम संघ-राज्य सम्वन्धों पर न्यायमूर्ति रंजीत सिंह की रिपोर्ट के रूप में सामने आई। उत्कृष्ट होने के बावजूद भी इस रिपोर्ट को सरकार द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया।

विगत् पांच-छः दशकों में हुए कतिपय कटु अनुभवों से यह परिलक्षित हुआ है कि सम्भवतः हमारा संविधान किसी दृष्टि से अभी भी अपूर्ण है अथवा हमारी मानवीय क्षमताएं एवं मानसिकता इस योग्य नहीं है कि संविधान का अक्षरशः पालन कर सफलतापूर्वक भारत का शासन संचालित किया जा सके। त्रिशंकु विधायिका, मौलिक अधिकार बनाम कर्तव्य, केंद्र-राज्य संबंध, योजनागत विकास, नदी-जल विवाद, लोक सेवाएं तथा कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं विधायिका के मध्य संबंधों को लेकर अनेक प्रकार के विवाद आए दिन उठते रहते हैं। इसी संदर्भ में यह कहा जाता रहा है कि संविधान की समीक्षा की जाए अथवा समयानुकूल परिवर्तन किए जाएं। संविधान का मूलदर्शन तथा आधार परिवर्तित किए बिना किंचित भागों या अनुच्छेदों में यथावश्यक संशोधन करके भी काम चलाया जा सकता है। ऐसा अनेक विचारक मानते हैं जबकि कुछ विधिवेत्ता यह स्वीकारते हैं कि सम्पूर्ण संविधान पर पुनः चर्चा की जाए। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग का गठन किया गया था।

वस्तुतः, भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की प्रबल शक्ति इसकी राजनीतिक व्यवस्था रही है। समस्याओं एवं मतभेदों के बावजूद, भारत ने शक्तिशाली लोकतांत्रिक राजव्यवस्था के तौर पर निरंतर कार्य किया है।

राजनीतिक मोर्चे पर उपलब्धियां

  • हैदराबाद एवं जम्मू-कश्मीर सहित भारतीय संघ में 600 रियासतों को समन्वित करना।
  • भारत में पुर्तगालियों के पूर्व के अधिकार क्षेत्रों (गोवा, दमन एवं दीव) एवं फ्रांसिसियों (पांडिचेरी एवं अन्य क्षेत्र) के क्षेत्रों को भारत में सम्मिलित किया।
  • शरणार्थियों का पुनर्वास
  • जमींदारी प्रथा का उन्मूलन एवं भूमि सुधार के प्रयास
  • गुट निरपेक्षता एवं शांतिपूर्ण-सहअस्तित्व के सिद्धांतों के साथ सुपरिभाषित एवं रणनीतिक विदेश नीति का निर्माण।
  • सार्वभौमिक निर्वाचक आधार के साथ कई आम चुनावों का आयोजन।
  • संविधानवाद एवं लोकतांत्रिक गतिशीलता के माध्यम से एक दल से दूसरे दल दल या गठबंधन को शक्ति का शांतिपूर्ण हस्तांतरण।
  • जनमांगों एवं इच्छाओं के आधार पर नए राज्यों एवं स्वायत क्षेत्रों का निर्माण।
  • 73 एवं 74वें संविधान संशोधनों के माध्यम से निचले स्तर तक शक्तियों का हस्तांतरण एवं विकेंद्रीकरण।

आर्थिक एवं सामाजिक उपलब्धियां


सामाजिक एवं आर्थिक मोर्चे परकुछ मुख्य उपलब्धियां निम्न प्रकार हैं-

  • कृषि उत्पादन सूचकांक में वृद्धि।
  • औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र का प्रभावी विस्तार।
  • सकल घरेलू उत्पाद की प्रभावी संवृद्धि दर।
  • शिशु मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी।
  • जीवन प्रत्य्षा में वृद्धि।
  • चिकित्सा संजाल एवं लोक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार।
  • प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा का विस्तार।

असफलताएं

यद्यपि लोकातत्रिक परम्पराएं स्थापित हो रही हैं, हालांकि, लोकतंत्र को समावेशी प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों द्वारा इसकी बहुलता एवं विविधिता प्रतिबिम्वित नहीं होती। इसी प्रकार, लोक मामलों एवं निर्णयन में महिलाओं की सहभागिता उनके संख्या के अनुपात में नहीं है।

राजनीतिक क्षय का मुख्य कारण एवं स्रोत चुनावी प्रक्रिया है जो परिदृश्य में प्रवेश से रोक नहीं पाती और जो राजनीतिक क्षेत्र पर प्रभुत्व करते हैं और चुनावी तथा संसदीय प्रक्रियाओं को दूषित करते हैं। धनबल एवं आपराधिक तत्वों ने लोकजीवन में मूल्यों एवं मानकों का हास किया है और आपराधिक राजनीति को बढ़ावा दिया है। यह सबसरकार एवं शासन प्रक्रियाओं की गुणवत्ता में प्रतिबिम्बित होता है।

चिंता के विषय

सरकारों एवं उनके शासन के तरीकों से सांविधानिक विश्वास एवं आस्था का उल्लंघन होता है जिस प्रकार वे लोगों की उपेक्षा करते हैं, जो सभी राजनीतिक शक्ति का अंतिम स्रोत हैं। लोकसेवक एवं संस्थाएं इस मूल तथ्य के प्रति बेपरवाह हैं कि वे लोगों के सेवक हैं। संविधान में पल्लवित वैयक्तिक गरिमा मात्र लफ़्ज़ रह गए हैं। इस प्रकार, सरकार एवं शासन में विश्वास खत्म होता जा रहा है। समाज वर्तमान स्थिति से बाहर निकलने में अक्षम है। भारतीय राजव्यवस्था में अन्य चिंता के विषय निम्न हैं-

  • कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के मध्य मतभेद।
  • विधायी कार्यपालिका-न्यायपालिका अंतक्रिया।
  • संसदीय व्यवहार का पतन।
  • संघ-राज्य संबंधों में संघर्ष।
  • अनुच्छेद-356 की शक्ति का दुरुपयोग।
  • राज्यों का पुनर्गठन एवं स्वायत्तता की उठती मांग।
  • मूल अधिकारों एवं नीति-निदेशक तत्वों के बीच संबंध।
  • न्यायिक सुधार।
  • निर्वाचन सुधार।
  • पुलिस सुधार एवं जेल सुधार।
  • संसद के विशेषाधिकार बनाम वैयक्तिक अधिकार और प्रेस की स्वतंत्रता ।
  • आरक्षण का विषय (विशिष्ट रूप से महिला एवं अन्य पिछड़े वर्गो हेतु)।
  • क्षेत्रवाद की बढ़ती प्रवृति।
  • नक्सलवाद एवं सीमापारीय आतंकवाद।
  • सरकार की बढ़ती लागत एवं चिंताजनक वित्तीय घाटा।
  • राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा का विषय।
  • आपातकालीन स्थितियों एवं आपदा प्रबंधन का प्रत्युत्तर।
  • लोक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता पर पर्याप्त ध्यान नहीं।
  • काला धन, समानांतर अर्थव्यवस्था एवं यहां तक कि समानांतर सरकारें आर्थिक एवं सामाजिक वास्तविकताओं को दरकिनार कर रहे हैं।

संविधान के प्रभावी कार्यकरण हेतु सुझाव एव अनुशसाए

उपर्युक्त तथ्यों एवं स्थितियों के संदर्भ में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार  ने 22 फरवरी, 2000को पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एन. बैंकटचलैया की अध्यक्षता में दस सदस्यीय राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग गठित किया गया। इस आयोग की प्रथम बैठक 23 मार्च, 2000को हुई जिसमें आयोग ने अपना कार्यक्षेत्र निश्चित किया। आयोग ने स्वीकार किया कि दल-बदल का खतरा, गरीबी उन्मूलन के लिए संवैधानिक प्रावधान, अनुच्छेद-356 के कार्य तथा राज्यपालों की नियुक्ति एवं बर्खास्तगी, सत्ता का विकेंद्रीकरण एवं पंचायती राजसंस्थाओं को सुदृढ़ बनाना, मौलिक अधिकारों का विस्तार, नीति-निर्देशक सिद्धांतों का प्रभावी क्रियान्वयन, मौलिक कर्तव्यों एवं वित्तीय तथा मौद्रिक नीतियों से संबंधित प्रावधान अहम् मुद्दे हैं।

आयोग ने जनसाधारण, गैर-सरकारी संगठनों, संस्थाओं एवं अन्य हितबद्ध व्यक्तियों से सुझाव आमंत्रित कर 31 मार्च, 2002 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन कानून मंत्री को सौंपी। आयोग द्वारा की गई सिफारिशें इस प्रकार हैं-

  • अनुच्छेद-15 एवं 16 के तहत् जातिगत अथवा सामाजिक व्युत्पत्ति, राजनीतिक या अन्य विचारधारा तथा सम्पत्ति या जन्म के आधार पर विभेद नहीं किए जाने का भी प्रावधान जोड़ा जाए। अनुच्छेद 19(1) के अधीन वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में प्रेस की स्वतंत्रता एवं सूचना के अधिकार को समाहित किया जाना चाहिए। न्यायालय की अवमानना से संबंधित मामलों में प्रभावित व्यक्तिको अपना बचाव प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 21 में यह भी जोड़ा जाए कि किसी भी व्यक्ति के साथ निर्दयतापूर्ण, अमानवीय तथा हीन व्यवहार नहीं किया जाए और प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से वंचित व्यक्ति को प्रतिकार पाने का अधिकार हो।
  • संविधान के भाग चार के शीर्षक को बदलकर राज्य के नीति-निर्देशक तत्व और क्रियान्वयन कर देना चाहिए। राज्य को ऐसे प्रयास करने चाहिए ताकि पांच वर्षों में अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकें। राज्य को अपनी नीतियों में कृषि उत्पादन सुधार, बागवानी विकास, पशुधनरक्षा, गुणवत्ता से युक्त डेयरी उत्पादन, भू एवं जल संरक्षण,जनसंख्या नियंत्रक तथा धार्मिक एवं सामाजिक सौहार्द संबंधी योजनाओं को स्थान देने का प्रयास करना चाहिए।
  • नीति-निर्देशक तत्वों तथा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अधिकारो विशेषतः रोजगार, स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्रं, आवास, 14 वर्षं तक शिक्षा तथा संस्कृति पालन के अधिकारों की समीक्षा हेतु उच्चस्तरीय निकाय स्थापित किया जाना चाहिए।
  • आयोग ने मूल कर्तव्यों (अनुच्छेद-51(क) का विस्तार करने का सुझाव देते हुए कहा है कि चुनावों में मतदान करना,कर चुकाना, बच्चों का शारीरिक एवं नैतिक विकास तथा औद्योगिक संगठनों द्वारा अपने कार्मिकों के बच्चों को शिक्षा प्रदान करना सम्मिलित किया है। मूलकर्तव्यों को प्रभावी बनाने हेतु जनता में मूल कर्तव्यों के प्रति जागरूकता एवं संवेदनशीलता उत्पन्न करने, अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान करने, धार्मिक स्वतंत्रता एवं अन्य प्रकार की स्वतंत्रताओं की रक्षा करने तथा शिक्षा की संपूर्ण प्रक्रिया में सुधार करने के उपाय सुझाए हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाना चाहिए। इस आयोग में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्यायमंत्री तथा राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति को सदस्य बनाया जाना चाहिए।
  • सभी पीठासीन अधिकारियों की नियमित बैठकें होनी चाहिए। विभागीय संसदीय समितियों के कार्य की समीक्षा संसदीय कार्यमंत्री तथा राजनीतिक दलों के मुख्य सचेत कद्वारा होनी चाहिए। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर केंद्रीय स्थायी समिति का गठन किया जाना चाहिए। संशोधन प्रस्तावों तथा वर्तमान अनुमान समिति, सार्वजनिक उपक्रमों पर समिति तथा अधीनस्थ विधानों की समाप्ति की उचित छानबीन के लिए संसद के दोनों सदनों की स्थायी संविधान समिति बनायी जानी चाहिए।
  • अनुच्छेद 105(2) में संशोधन करके यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि संसदीय विशेषाधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त उन्मुक्तियों के दायरे में अपने कर्तव्यपालन में उनके द्वारा किया गया भ्रष्ट आचरण नहीं रखा जाएगा।
  • विधायी निकायों को प्रभावी बनाने हेतु यह आवश्यक है कि ऐसे अवसरों में कमी की जाए जिनमें मतदान करना पड़ता है। किसी भी एक सत्र में पहले से ही इस प्रकार के मतदान अवसरों की संख्या निर्धारित कर देनी चाहिए। विधायिका में सदस्यों की पूर्ण उपस्थिति हेतु विहप जारी करना चाहिए। दोनों सदनों में संसदीय समय का बंटवारा सरकार एवं विपक्ष के लिए उपयुक्त रूप से निर्धारित करना चाहिए।
  • किसी भी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए सदन के कम-से-कम 20 प्रतिशत सदस्यों द्वारा नोटिस देना चाहिए तथा
  • अविश्वास प्रस्ताव के साथ ही नए वैकल्पिक नेता के चुनाव का भी प्रस्ताव होना चाहिए। अविश्वास प्रस्ताव का निर्णय केवल सदन के पटल पर ही होना चाहिए।
  • नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति से पूर्व लोकसभा अध्यक्ष से परामर्शलेने की एक स्वस्थ परम्परा विकसित की जानी चाहिए। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कामकाज की जांच बाहर की किसी संस्था द्वारा करानी चाहिए।
  • राजनीतिक दलों या दलीय गठबंधनों के पंजीकरण तथा कार्यकरण पर नियंत्रण के लिए एक व्यापक कानून बनाया जाना चाहिए। प्रत्येक राजनीतिक दल को बिना किसी भेदभाव के सभी भारतीय नागरिकों हेतु अपने द्वार खुले रखने चाहिए। राजनीतिक दलों को भारत की सम्प्रभुता तथा संविधान के प्रति निष्ठा रखनी चाहिए। जो राजनीतिक दल ऐसा नहीं करे उसकीं मान्यता रद्द कर देनी चाहिए।
  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत निर्वाचन आयोग को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि वह निर्वाचन अधिकारियों, पर्यवेक्षकों तथा नागरिक संस्थाओं की शिकायत पर बूथ कैप्चरिंग के संबंध में निर्णय ले सके। जाति एवं धर्म के नाम पर किए जाने वाले चुनाव प्रचार को प्रतिबंधित करने के लिए अनिवार्य रूप से सजा का प्रावधान होना चाहिए।
  • संविधान की सातवीं अनुसूची की तृतीय सूची (समवर्ती सूची) में प्राकृतिक एवं मानवजनित आपदाओं तथा आपात स्थितियों का प्रबंधन विषय में सम्मिलित किया जाना चाहिए। सेवाओं की विशिष्ट गणना की जानी चाहिए ताकि राज्य द्वारा इन पर बाध्यकारी रूप से कर लगाया जा सके।
  • अनुच्छेद 301, 302, 303 तथा 304 के अंतर्गत अंतरराज्यीय व्यापार एवं वाणिज्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तया व्यापार एवं वाणिज्य को बढ़ावा देने हेतु संसद द्वारा अंतरराज्यीय व्यापार एवं वाणिज्य आयोग की स्थापना की जानी चाहिए।
  • नदी जल विवादों की सुनवाई कम-से-कम तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा होनी चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर पांच न्यायीधशों की पीठ को मामला सौंप देना चाहिए जो साक्ष्यों को रिकॉर्ड कर सके ताकि सर्वोच्च न्यायालय का अमूल्य समय बच सके। नदीजल अधिनियम, 1956 के स्थान पर एक नया व्यापक कानून बनाया जाना चाहिए। साथ ही विवादों के हल के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार को अंतरराज्यीय परिषद् का प्रभावी उपयोग करना चाहिए।
  • स्थानीय स्वशासन निकायों के चुनाव संबंधी समस्त प्रावधानों को एक कानून में समेकित किया जाना चाहिए। किसी चुनाव क्षेत्र के परिसीमन, आरक्षण तथा चक्रानुचक्र क्रम के कार्य हेतु एक परिसीमन आयोग बनाना चाहिए। राज्य निर्वाचन आयोग के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव होने चाहिए तथा स्थानीय चुनावों के लिए अधिकतम खर्च की सीमा इसी आयोग द्वारा निर्धारित की जानी चाहिए।
  • संविधान की ग्यारहवीं एवं बारहवीं अनुसूची की पुनर्सरचना कर पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरीय संस्थाओं के लिए विशेष राजकोषीय संपदाएं निर्धारित की जानी चाहिए। अनुच्छेद-280 में संशोधन कर इस प्रकार का प्रावधान करना चाहिए कि वित्त आयोग वृहद् स्तर पर समीक्षा कर सके। सभी स्थानीय निकायों को राज्य सरकार एवं वितीय संस्थाओं से उधार लेने की अनुमति होनी चाहिए।
  • महत्वपूर्ण निर्णय लेने में उच्च स्तरीय राजनीतिक प्राधिकारियों की सहायता के लिए एक स्वायत्त कार्मिक निकाय स्थापित किया जाना चाहिए। संयुक्त सचिव स्तर के ऊपर के पदों पर पदासीन अधिकारियों की खुली सामाजिक जांच होनी चाहिए। अनुच्छेद-311 में इस प्रकार संशोधन किया जाना चाहिए ताकि न केवल ईमानदार अधिकारियों को संरक्षा मिले बल्कि भ्रष्ट अधिकारियों को दण्डित भी किया जा सके।
  • सिख, बौद्ध, तथा जैन मतों को उनकी अलग पहचान बनाए रखने के लिए हिंदुओं से पृथक् माना जाना चाहिए। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम, 1989को प्रभावी रूप से लागू करना चाहिए। सूखा शौचालय (प्रतिषेध) अधिनियम, 1993 को कड़ाई से लागू किया जाना चाहिए ताकि मैला ढोने के अमानुषिक कृत्य पर रोक लग सके। इसी प्रकार सफाई कर्मियों के लिए रोजगार नियमावली‘ का भी कठोरता से पालन होना चाहिए।
  • सरकारिया आयोग की अनुशंसा को दोहराते हुए राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग ने भी सुझाया है कि राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श लिया जाना चाहिए।
  • राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को अनुमति प्रदान करने के लिए अधिकतम 6 माह की समय सीमा होनी चाहिए। ऐसे मामलों में जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास परामर्श के लिए भेजता है तब राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति देने की अधिकतम समय सीमा 3 माह की होनी चाहिए। जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनुमति देते हैं तो यह मानना चाहिए कि संविधान के सभी उद्देश्यों के लिए दी है।
  • अनुच्छेद-356 बने रहना चाहिए लेकिन इसका उपयोग कम से कम करना चाहिए। प्रभावित राज्य की अपनी स्थिति स्पष्ट करने तथा परिस्थिति का सामना करने का अवसर मिलना चाहिए। सामान्यतः किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन केवल राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर ही लागू करना चाहिए। अनुच्छेद-356 में इस प्रकार सुधार करना चाहिए कि संसद में अभिज्ञापित होने से पूर्व राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानसभा की भंग न किया जा सके।
  • आरक्षण व्यवस्था एक कानून के अंतर्गत होनी चाहिए जो आरक्षण के समस्त पक्षों को समाहित करती हो। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण न्याय अदालत तथा न्यायाधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए।
  • लोक उपक्रमों के विनिवेश संबंधी समझौता पत्रों में यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि नियुक्तियों में आरक्षण नीति को जारी रखा जाएगा।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत दुकानों तथा पेट्रोल पम्पों तथा गैस एजेंसियों के आवंटन में अनुसूचितजाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण मिलना चाहिए। पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए भी उचित स्थान निर्धारित होने चाहिए।
  • जनजातीय लोगों की सांस्कृतिक विरासत तथा बौद्धिक संपदा अधिकार रक्षा के लिए विशेष सुरक्षोपाय किए जाने चाहिए।
  • खानाबदोश तथा अर्द्ध खानाबदोश समुदाय की उन्नति के लिए विशेष कार्यक्रम संचालित किया जाना चाहिए।
  • बंधुआ श्रमिकों की मुक्ति एवं पुनर्वास हेतु अति शीघ्र एक राष्ट्रीय प्राधिकरण स्थापित किया जाना चाहिए।
  • 9 जुलाई, 1997 के गौरव जैन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय तथा वेश्यावृति,बाल वेश्यावृति एवं यौन श्रमिकों के बच्चों पर गठित सचिवों की समिति की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए।

इसके अतिरिक्त आयोग ने पूर्वोत्तर राज्यों की समस्याओं पर विस्तार से रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिनमें संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत शासित क्षेत्रों कोछठी अनुसूची में सम्मिलित करने, घुसपैठ रोकने हेतु एक राष्ट्रीय आप्रवास परिषद् की स्थापना करने तथा स्वायत्त परिषदों और स्वायत्त जिला परिषदों में संशोधन करने इत्यादि सुझाव सम्मिलित हैं। आयोग ने सन् 1978-80 में प्रारूपित केन्द्रीय श्रम विधेयक, केंद्रीय सतर्कता आयोग विधेयक तथा राजकोषीय जवाब देयता विधेयक को शीघ्र पारित करने की भी अनुशंसाएं की है। आयोग में विदेशी मूल के व्यक्ति को उच्च पदों पर प्रतिबंधित करने के विवादस्पद मुद्दे को राजनीतिक दलों पर छोड़ दिया है ताकि व्यापक बहस के पश्चात् निर्णय किया जा सके।

राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग की सिफारिशें 19 केंद्रीय मंत्रालयों,चुनाव आर्योग, राज्य सरकारों तथा विभिन्न अभिकरणों से सम्बद्ध हैं जिन्हें क्रियान्वित करने के लिए 58 संविधान संशोधनों तथा 86 अधिनियमों की आवश्यकता है। भारत सरकार द्वारा शिक्षाको मौलिक अधिकार बनाने, सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम पारित करने तथा दल-बदल रोक एवं मत्रिमण्डल के सदस्यों की संख्या निश्चित करने जैसे सामयिक प्रयास किए जा चुके हैं किंतु प्रश्न यह है कि जहां सरकारिया आयोग की रिपोर्ट दो दशक से विचार-विमर्श के दौर से गुजर रही है वहांराष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग की अत्यंत विस्तृत रिपोर्ट को क्रियान्वित करना बेहद कठिन कार्य है। आयोग ने संविधान के मूल स्वरूप में परिवर्तन किए विना ही क्रांतिकारी सुझाव दिए हैं जो सुखी, समृद्ध तथा उन्नत भारत में सुशासन के संदर्भ में निर्णायक सिद्ध होंगे।

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