आपात उपबंध Emergency Provisions

आपात की व्यवस्था का आधार

वस्तुतः संविधान निर्माताओं ने शांतिकाल की स्थिति में शासन व्यवस्था हेतु हमें एक विशाल, परिपूर्ण संतुष्टि प्रदायक एवं अदभुत संविधान प्रदान किया तथा साथ ही साथ परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए इसे आंशिक नम्य एवं लोचशील बनाया जिससे देश एवं समाज का संभव विकास हो सके। दूसरी ओर संविधान निर्माताओं का विचार था कि असाधारण परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं और संविदान की सामान्य कार्य योजना विफल हो सकती है। उन्होंने यही समझा की ऐसे संकट की घड़ी में इस व्यवस्था को बदलने के लिए संविधान में ही उपबंध होने चाहिए। संकट के समय संघीय शक्ति का विस्तार होना चाहिए क्योंकि देश को संकट के समय अपनेवजूद को बनाए रखने के लिए मिल-जुलकर प्रयास करना होगा। सभी शक्तियों का केंद्रीकरण हो जाएगा परंतु जैसे ही संकट की स्थिति समाप्त हो जाएगी तुरंत संविधान के सामान्य उपबंध प्रभावी हो जाएंगे।

आपात के प्रकार

संक्षेप में, संविधान के भाग-18 में अनुच्छेद 352-360 के अंतर्गत तीन प्रकार की आपात स्थितियों की परिकल्पना की गई है-

  1. युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण अनुच्छेद-352 के अधीन राष्ट्रीय आपात;
  2. राज्य विशेष में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य आपात या राष्ट्रपति शासन;
  3. राष्ट्र के वित्तीय स्थायित्व के संकट की स्थिति में अनुच्छेद 360 के अंतर्गत वित्तीय आपात।

राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा

मूल संविधान के अनुच्छेद 352 में व्यवस्था थी कि यदि राष्ट्रपति को अनुभव हो कि युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक अशांति के कारण भारत या उसके किसी भाग की शांति या व्यवस्था नष्ट होने का भय है तो यथार्थ रूप में इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने पर राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा कर सकता था। संसद की स्वीकृति के बिना भी यह दो माह तक लागू रहती और संसद से स्वीकृति हो जाने पर शासन जब तक चाहे उसे लागू रख सकता था। 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उपरोक्त व्यवस्था में परिवर्तन किया गया ताकि इन संकटकालीन शक्तियों का दुरुपयोग न किया जा सके। वर्तमान स्थिति के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल तभी घोषित किया जा सकेगा जब मंत्रिमण्डल लिखित रूप से ऐसा परामर्श राष्ट्रपति को दे।

आपात उद्घोषणा का ऐतिहासिक झरोखा
महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद 352 के अधीन पहली उद्घोषणा 26 अक्टूबर, 1962 को की गई जब चीन ने भारत पर हमला किया। इस संकटकालीन आपात उद्घोषणा को 10 जनवरी, 1968 को वापस लिया गया। पाकिस्तान द्वारा अघोषित युद्ध के आधार पर 8 दिसंबर 1971 की दूसरी उद्घोषणा की गई। 1971 में की गई दूसरी उद्घोषणा के दौरान ही 25 जून, 1975 की आंतरिक अशांति के नाम पर तीसरी उद्घोषणा की गई। दोनों उद्घोषणाओं को 21 मार्च, 1977 को वापस लिया गया। उल्लेखनीय है कि 44वें संवैधानिक संशोधन के पश्चात् आंतरिक अशांति के नाम पर आपात घोषणा नहीं की जा सकती।

इस प्रकार का आपातकाल अब युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह होने या इस प्रकार की आशंका होने पर ही घोषित किया जा सकेगा, आंतरिक अशांति होने पर नहीं; राष्ट्रपति द्वारा घोषणा किए जाने के एक माह के भीतर संसद के विशेष बहुमत से इसकी स्वीकृति अनिवार्य होगी। उल्लेखनीय है कि एक बार में इसकी अवधि 1 वर्ष एवं अधिकतम 3 वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है। लोकसभा में उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से आपातकाल की घोषणा समाप्त की जा सकती है; संविधान में किए गए 38वें संवैधानिक संशोधन को भी रद्द कर दिया गया है, जिसमें व्यवस्था की गई थी कि राष्ट्रपति द्वारा 352वें अनुच्छेद के अंतर्गत की गई आपात की उद्घोषणा को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। 44वें संशोधन द्वारा इस संकटकालीन घोषणा को न्याया योग्य बना दिया गया है अर्थात सम्बद्ध घोषणा को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।


घोषणा के संवैधानिक प्रभाव

  1. इस घोषणा के लागू रहने के समय में 19वें अनुच्छेद द्वारा नागरिकों को प्रदत्त 6 स्वतंत्रताएं स्थगित हो जाएंगी और राज्य के द्वारा इन स्वतंत्रताओं को प्रतिबंधित या स्थगित करने वाले कानूनों का निर्माण किया जा सकेगा।
  2. मूल संविधान में व्यवस्था थी कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुच्छेद 32 में वर्णित संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी स्थगित कर सकता है लेकिन 44वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर यह व्यवस्था की गई है कि आपात काल के समय भी जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को निलम्बित नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त अन्य अधिकार न्याय योग्य नहीं होंगे।
  3. संसद को सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या किसी भी क्षेत्र के लिए सभी विषयों, जिसमें राज्य सूची एवं समवर्ती सूची भी शामिल है, पर कानून निर्माण की अधिकारिता प्राप्त हो जाएगी।
  4. संघीय कार्यपालिका, राज्य कार्यपालिका को उसकी शक्ति का प्रयोग करने संबंधी निर्देश देने की शक्ति प्राप्त कर सकेगी।
  5. इस संकटकालीन उद्घोषणा के दौरान राष्ट्रपति यह निर्देश जारी कर सकता है कि संघ एवं राज्य के मध्य आय के वितरण के सभी या कोई उपबंध चालू वित्तीय वर्ष में उसके अनुसार संशोधित रहेंगे।

राज्यों में सांविधानिक तत्र विफल हो जाने की दशा में उपबंध

अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा के आधार

संघ का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और यह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक राज्य की सरकार इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाई जा रही है (अनुच्छेद 355)। संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राष्ट्रपति की राज्यपाल के प्रतिवेदन पर या अन्य किसी प्रकार से समाधान हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयी है जिसके परिणामस्वरूप राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है। गौरतलब है कि संघ को अनुच्छेद 256 और 257 के अधीन उन दोनों अनुच्छेदों में आने वाले विषयों के बारे में राज्यों को निर्देश देने की शक्ति दी गई है। यदि कोई राज्य संघ द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने में असमर्थ रहता है तो यह समझा जा सकता है कि सांविधानिक तंत्र विफल ही गया है और अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा निधिसंगत होगी।

उद्घोषणा का प्रभाव

  1. उद्घोषणा के अधीन राज्यविधानमंडल की शक्तियों का प्रयोग संसद या संसद द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति कर सकता है।
  2. राज्य विधानसभा का विघटन किया जा सकता है या उसे निलम्बित अवस्था में रखा जा सकता है।
  3. राष्ट्रपति उद्घोषणा की पूर्ति हेतु उच्च न्यायालय की शक्ति को छोड़कर अन्य समस्त शक्ति अपने हाथ में ले सकता है।
  4. अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन के प्रवर्तन के दौरान संसद, राज्य की विधायी शक्तियां राष्ट्रपति को सौंप सकती है और उसे यह अधिकार दे सकती है कि वह इन शक्तियों को अन्य प्राधिकारियों को दे दे (अनुच्छेद 357)।
  5. संकटावधि में राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताओं पर निर्बंधन लगा सकता है और उसके जीवन एवं दैहिक स्वतंत्रता के अतिरिक्त अन्य अधिकारों के साथ संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी समाप्त किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा के द्वारा साधारणतया राज्य सरकार और राज्यपाल की शक्तियां राष्ट्रपति में समाहित कर दी जाती हैं इसलिए आम बोलचाल की भाषा में इसे राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होना कह दिया जाता है, हालांकि संविधान में इस अभिव्यक्ति का कहीं प्रयोग नहीं है।


अनुच्छेद-356: विवादग्रस्त उपबंध

व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य

अनुच्छेद 356, जिसके अधीन संघ, राज्यों पर राष्ट्रपति शासन लागु कर सकता है, संविधान का सर्वाधिक आलोचित एवं विवादग्रस्त उपबंध रहा है। उल्लेखनीय है कि संविधान के इस उपबंध का अभी तक 100 से अधिक बार प्रयोग किया जा चुका है। इस शक्ति का सर्वप्रथम प्रयोग 20 जून, 1951 में पंजाब में भार्गव मंत्रिमण्डल के पतन के कारण किया गया, क्योंकि कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति चाहती थी कि मुख्यमंत्री त्यागपत्र दे दें किंतु मुख्यमंत्री का उत्तराधिकारी कौन होगा यह तय नहीं हो पाया था। बहरहाल यह शुद्ध रूप से कांग्रेस का आंतरिक मामला था। तत्पश्चात 1952 पेप्सू राज्य में, 1954 में आंध्र प्रदेश में, 1956 में ट्रावनकोर- कोचीन में, 1959 में केरल, 1961 में उड़ीसा (ओडीशा), 1966 में पंजाब, 31 मार्च, 1967 में राजस्थान और इसके बाद पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक और गुजरात राज्यों में संकटकालीन उद्घोषणा की गई। उपर्युक्त संकटकालीन उद्घोषणाओं में से 13 जुलाई, 1959 को केरल राज्य में साम्यवादी सरकार के स्थान पर कांग्रेस सरकार लाने के चलते जानबूझकर संकटकाल की उद्घोषणा, 31 मार्च, 1967 में राजस्थान में राष्ट्रपति शासन एवं 1992 में नागालैंड में इसकी उद्घोषणा विशेष आलोचना का विषय रही। वर्ष 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता सरकार द्वारा 9 राज्यों की विधानसभाएं भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। इस स्थिति की पुनरावृत्ति 1980 में हुई, जब केंद्र की इंदिरा सरकार द्वारा 9 राज्यों की विधानसभाएं भंग कर दी गई। पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अवधि बार-बार बढ़ाई गई और 11 मई, 1987 से चला आ रहा राष्ट्रपति शासन 25 फरवरी, 1992 को समाप्त हुआ।

1989 में नागालैण्ड और कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया जिसकी सर्वत्र आलोचना की गई। 1990 में असम, 1991 में तमिलनाडु एवं 1992 में नागालैण्ड में राष्ट्रपति शासन लागू करना घोर आपत्तिजनक माना गया। वर्ष 1992 चार राज्यों- मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं हिमाचल में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया जबकि वहां की विधानसभाओं को विश्वास मत हासिल था एवं संवैधानिक तंत्र असफल नहीं हुआ था।

सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्बई बनाम भारत संघ के निर्णय में 11 मार्च, 1994 को कहा कि राष्ट्रपति शासन केवल ऐसी स्थिति में लागू किया जाना चाहिए जब अन्यथा हल न बचे, हालात बेकाबू हो जाएं और राज्य का शासन संविधान के अनुसार चलाना असंभव हो जाए। एस.आर बोम्बई निर्णय के पश्चात् अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति उद्घोषणा न्यायिक पुनर्विलोकन के अंतर्गत हो गई है। इसके अंतर्गत न्यायालय केवल दो बातों की परीक्षा करेगा- प्रथमतः, क्या राष्ट्रपति के समाधान के लिए पर्याप्त सामग्री विद्यमान थी कि अनुच्छेद 356 में वर्णित स्थिति उत्पन्न हो गई थी; द्वितीय, क्या समाधान अनुचित है या असद्भावपूर्ण है या पूर्णतया बाह्य और असंगत है।

राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356):

  • सर्वाधिक लम्बी अवधि का आपात पंजाब राज्य में 1987-1992 तक लागू किया गया।
  • सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन मणिपुर में 10 बार लागू किया गया।
  • सबसे कम बार अरुणाचल प्रदेश एवं महाराष्ट्र में (केवल 1 बार) लगाया गया।
  • सबसे अधिक बार संकटकालीन घोषणा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काल में (50 बार) की गई एवं सबसे कम बार प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के काल में (2 बार) की गई।
  • नागालैंड में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा जनवरी 2008 में की गई जिसे मार्च 2008 में समाप्त किया गया।
  • जम्मू कश्मीर में यह उद्घोषणा जुलाई 2008 से जनवरी 2009 के मध्य रही।
  • झारखंड में संकटकालीन उद्घोषणा 2009, 2010 और 2013 में की गई।
  • मेघालय में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा मार्च 2009 से मई 2009 के मध्य प्रवर्तन में रही।

परन्तु 17 अक्टूबर, 1996 को और फिर 21 अक्टूबर, 1996 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने जिन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की और इस राज्य को मध्यावधि चुनावों के बाद राष्ट्रपति शासन झेलना पड़ा, उससे जन-साधारण तथा राज्य सरकारों के मन में भय का वातावरण व्याप्त हो गया। 21 अक्टूबर, 1996 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने अनुच्छेद 356 को तब बहुत ही ज्यादा हास्यास्पद बना दिया, जब मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सदन में बहुमत प्राप्त कर लेने के बाद भी उन्होंने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर दी। बाद में राष्ट्रपति के हस्तक्षेप से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं कराया जा सका। इसी प्रकार 2002 में उत्तर प्रदेश, 2008 में नागालैंड, 2007-08 में कर्नाटक, 2009, 2010 और 2013 में झारखंड, 2002, 2008-09 में जम्मू कश्मीर, 2005 में बिहार, 2009 में मेघालय में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। संविधान लागू किए जाने के बाद मात्र 63 वर्षों की अवधि में 100 से अधिक बार अनुच्छेद 356 के तहत् राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना, इस अनुच्छेद के राजनीतिक दुरुपयोग की कहानी स्वयंमेव ही सुना देता है।

बोम्मई निर्णय में अधिकथित सिद्धांत

  • अनुच्छेद 356 के अधीन जारी उद्घोषणा न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है।
  • यदि केंद्र में कोई राजनीतिक दल सत्ता में आ जाता है तो उसे राज्यों में भिन्न दलों द्वारा बनाई गई सरकारों की पद्च्युत करने का प्राधिकार नहीं मिल जाता।
  • उद्घोषणा के तुरंत पश्चात विधानसभा भंग नहीं की जानी चाहिए, संसद के अनुमोदन के पश्चात् ऐसा होना चाहिए।
  • यदि न्यायालय यह अभिनिर्धारित करता है कि उद्घोषणा अविधिमान्य थी तो न्यायालय विधानसभा को पुनप्रतिष्ठित कर सकता है और नये चुनावों को रोकने हेतु न्यादेश जारी कर सकता है।

राज्यों में इतनी बार राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू किया जाना इस बात को दर्शाता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल इस अनुच्छेद का उपयोग स्वहित के लिए करता रहा है। विभिन्न दलों द्वारा समय-समय पर इस अनुच्छेद का दुरुपयोग किया गया है और ऐसे अधिकांश अवसरों पर इसे निकालने की मांग भी विपक्षी पार्टियों द्वारा उठायी गयी, परन्तु उन्हीं विपक्षी पार्टियों के सत्तारूढ़ होने पर उनके द्वारा भी अनुच्छेद 356 का उसी प्रकार दुरुपयोग करना, इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि कोई भी दल अंतःस्थल से इस अनुच्छेद की हटाने के पक्ष में नहीं है।

अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के प्रयास

संविधान के विवादस्पद व अलोकतांत्रिक कहे जाने वाले अनुच्छेद 356 के राजनीतिक दुरुपयोग को रोके जाने के लिए समय-समय पर समितियों एवं आयोगों का गठन किया गया है तथा विभिन्न राज्यों की केन्द्रीय गृह मंत्री की अध्यक्षता में अनेक बैठकें भी आयोजित की गई हैं। लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं गृह मंत्रियों तथा विशेषज्ञों ने अधिकांश अवसरों पर अनुच्छेद 356 के प्रावधानों के तहत लगाए गए राष्ट्रपति शासन की असंवैधानिक ही बताया है। कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने तो अंतरराष्ट्रीय परिषद की बैठकों में इस धारा को संविधान से निकाल देने की ही बात कही थी। परन्तु, ज्यादातर लोगों का यह विचार था कि इस धारा को निकालने की बजाए इसके तहत की जाने वाली कार्रवाई के लिए कुछ निश्चित नियम बनाए जाएं। 10 मई, 1997 को तत्कालीन गृह मंत्री इन्द्रजीत गुप्त की अध्यक्षता में अंतरराज्यीय परिषद की बैठक बुलाई गई थी और उसमें केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग रोकने के लिए कुछ उपाय सुझाए थे, जिस पर मुख्यमंत्रियों ने आम सहमति जतायी थी। अनुच्छेद 356 के प्रावधानों के तहत् राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के लिए केंद्र सरकार ने जो उपाय सुझाए, उसके अनुसार निम्नांकित शर्तों के अनुरूप ही राष्ट्रपति शासन लागू करना उचित होगा-

  1. धारा 356 के तहत् राष्ट्रपति शासन का अध्यादेश जारी करने के पूर्व संबद्ध राज्य सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी किया जाए और नोटिस में उन कारणों का उल्लेख किया जाए, जिनके आधार पर इस असाधारण कार्रवाई की आवश्यकता महसूस की गई। राज्य सरकार की कारण बताओ नोटिस का जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाना चाहिए। राज्य सरकार का जवाब आने तक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
  2. धारा 356 के तहत् जारी अध्यादेश को संसद में दो-तिहाई बहुमत से स्वीकृति दिलवाना अनिवार्य कर देना चाहिए।
  3. अध्यादेश में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के कारणों तथा राज्यपाल की रिपोर्ट को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
  4. राज्य सरकार को बर्खास्त करने के बाद विधानसभा को भंग न किया जाए, इसकी कार्रवाई का अधिकार संसद को हो।
  5. विधानसभा में (चुनावों के बाद) किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो, तो सदन के सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता को सरकार बनानेके लिए राज्यपाल द्वारा आमंत्रित किया जाए, जो एक निर्धारित अवधि में विधानसभा में अपना बहुमत साबित करे।

उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद 356

अनुच्छेद 356 के तहतू राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णय को जून 1994 में उच्चतम न्यायालय ने असीमित नहीं माना। उच्चतम न्यायालय ने यह तय किया कि न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति के आदेश का न्यायिक पुनर्विलोकन कराया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अन्य कई विचारों को भी अनुच्छेद 356 के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया-

  • अनुच्छेद 356 का प्रयोग केंद्र सरकार राजनीतिक आधारों पर 1988, 1989 तथा 1991 में क्रमशः नागालैण्ड, कर्नाटक व मेघालय राज्यों के सरकारों की बर्खास्तगी को उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित किया।
  • संविधान की प्रस्तावना में वर्णित धर्मनिरपेक्षता संविधान का मूल आधार है, जिस पर आघात करने वाली सरकार की बर्खास्तगी वैध मानी जाएगी। इस संदर्भ में 1992 में विवादित ढांचे को गिराए जाने पर न्यायालय ने मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान की भाजपा शासित सरकारों की बर्खास्तगी को उचित ठहराया था।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने रामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम भारत संघ के मामले में 24 जनवरी, 2006 को निर्णय दिया कि बिहार विधानसभा को भंग करना अवैध एवं असंवैधानिक था। यद्यपि न्यायालय ने विधानसभा को फिर से जीवित करने का निर्देश नहीं दिया, उसका कहना था कि नई विधानसभा के गठन हेतु निर्वाचन प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 356 के संदर्भ में लिए गए निर्णय-

  1. राष्ट्रपति शासन तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक राज्यपाल द्वारा लिखित रिपोर्ट नहीं प्राप्त हो।
  2. धर्मनिरपेक्षता के हनन के पक्ष में कोई कार्य करने पर राज्य सरकार की बर्खास्तगी वैध।
  3. केंद्र में नए दल के सत्तारूढ़ होने पर राज्य सरकारों की बर्खास्तगी अवैध।
  4. बर्खास्तगी का आधार राजनीति से प्रेरित होने पर न्यायालय द्वारा यथास्थिति बहाल करने की घोषणा संभव।
  5. संसद द्वारा घोषणा का अनुमोदन होने पर ही विधानसभा भंग।
  6. राज्य की सरकार तथा विधानसभा की बर्खास्तगी एक साथ नहीं।
  7. मंत्रिमण्डल द्वारा राष्ट्रपति को सौंपे गए परामर्श संबंधी कागजात न्यायालय को मांगने का अधिकार है।

अनुच्छेद 356 के विवाद के कारण सम्पूर्ण संविधान ही कलंकित हो। रहा है। इससे केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक संबंध अच्छे नहीं बन पा रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जल्द-से-जल्द इसके दुरुपयोग को रोका जाए।

अनुच्छेद 352 एवं 356 का तुलनात्मक अध्ययन

  • आपात की उद्घोषणा राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जब भारत या उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण संकट में है। जबकि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत उद्घोषणा तब की जाती है जब राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राज्य सरकार कार्य करती है उसे निलम्बित नहीं किया जाता बल्कि केंद्र को राज्य में विद्यमान और प्रशासन की सहवर्ती शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं। जबकि अनुच्छेद 356 की दशा में राज्य विधानमण्डल को पदच्युत एवं निलम्बित कर दिया जाता है एवं समस्त विधायी एवं कार्यपालिका शक्ति केंद्र के हाथों में आ जाती है।
  • अनु. 352 के अंतर्गत संसद राज्य के विषयों पर विधान बनाने के लिए सक्षम हो जाती है एवं इस शक्ति का प्रत्यायोजन नहीं किया जा सकता, जबकि अनु. 356 के अधीन उद्घोषणा में संसद उस राज्य के बारे में विधान बनाने की शक्ति राष्ट्रपति या किसी अन्य प्राधिकारी की प्रत्यायोजित कर सकती है।
  • यदि आपातकाल (अनु. 352) का संसद द्वारा संकल्प पारित करके सम्यक अनुमोदन प्राप्त होता है तो उद्घोषणा अनिश्चित काल तक लागू रहेगी। इसके विपरीत अनुच्छेद 356 के अंतर्गत यह उद्घोषणा 3 वर्ष से अधिक जारी नहीं रह सकती। उल्लेखनीय है कि यह अवधि संविधान द्वारा नियत की गई है।
  • अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपात उद्घोषणा के संकल्प की संसद की कुल संख्या का बहुमत एवं सदन में उपस्थित एवं मतदान करने वालों का दो-तिहाई बहुमत प्राप्त होना अनिवार्य है जबकि 356 के अधीन संकटकालीन घोषणा का अनुमोदन सदन में उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों के सादे बहुमत से अनुमोदित किया जा सकता है।

वित्तीय आपात

संविधान के अनुच्छेद 360 के अंतर्गत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय वित्तीय संकट से निपटने हेतु प्राधिकार प्रदान किया गया है। इसके अंतर्गत, यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए की ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं जिनसे भारत के वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है तो वह वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है। ऐसी परिस्थिति में तुरंत कदम उठाना अनिवार्य हो जाता है जिससे मंदी के कुप्रभाव को रोका जा सके और राज्य के अस्तित्व के संकट को टाला जा सके। ऐसी घोषणा के लिए वही अवधि निर्धारित है जो अनुच्छेद 352 के अंतर्गत उद्घोषणा के लिए निर्धारित है। इस उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना होता है। यह दो मास की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी, यदि इस बीच दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन न कर दिया जाए।

वित्तीय संकट की उद्घोषणा के प्रभाव

  1. जब उद्घोषणा प्रवर्तन में रहती है उस अवधि में संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य की वित्तीय औचित्य संबंधी ऐसे सिद्धांतों का पालन करने के लिए ऐसे निर्देश देने तक होगा जो निर्देशों में विनिर्दिष्ट किए जाएं।
  2. संघ तथा राज्यों के अधिकारियों के वेतन में, जिनमें उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी शामिल होंगे, आवश्यक कमी की जा सकती है।
  3. यह निर्देश दिया जा सकेगा कि समस्त धन विधेयक या अन्य वित्तीय विधेयक राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित होने के पश्चात् राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखे जाएंगे।
  4. राष्ट्रपति, केंद्र एवं राज्यों के मध्य वित्तीय आबंटन संबंधी प्रावधानों के बारे में आवश्यक संशोधन कर सकता है।
  5. संघीय कार्यकारिणी, राज्य कार्यकारिणी को शासन संबंधी जरूरी आदेश दे सकती है।

उल्लेखनीय है कि भारत की स्वतंत्रता से लेकर अभी तक वित्तीय आपात (360) का प्रयोग या उद्घोषणा नहीं हुई है।

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