रोग एवं चिकित्सा Diseases and Therapies

सामान्य परिचय

वर्तमान समय में भारत जिस प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहा है, वह अत्यन्त ही कठिन एवं चुनौतीपूर्ण है। आज भी हम कई महामारी फ़ैलाने वाले रोगों, एड्स, कैंसर, हेपेटाइटिस जैसी खतरनाक बीमारियों से निजात पाने के लिए संघर्षरत् हैं। इस संदर्भ में भारत में बड़े पैमाने पर चातुर्दिक फैली गरीबी, कुपोषणता, अशिक्षा एवं नजरअंदाजी, आग में घी का काम कर रही है। ये ऋणात्मक शक्तियाँ, जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण दिन-प्रतिदिन तीव्र से तीव्रतर होती जा रही हैं।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में हुई प्रगति का आकलन किया जाय तो भले ही भारत ने अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त न किया हो, परन्तु इस क्षेत्र में हमारी सफलताएँ एवं विकास अभूतपूर्व है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले भारत में स्वास्थ्य सुविधा के विकास का स्तर निम्न था तथा जो सुविधाएँ उपलब्ध थी, उन तक सीमित लोगों की ही पहुँच थी। आजादी के बाद जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत ने अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त की- भारत के गाँव-गाँव तक प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों द्वारा पहुँचाया गया। विभिन्न स्वास्थ्य विषयों पर विश्वस्तरीय शोधकार्य किये गये एवं आज भी यह अबाध गति से जारी है। भारत में नई-नई दवाओं की खोज एवं उनके उत्पादन ने भारत का इस क्षेत्र में विश्व के अग्रणी देशों की सूची में नाम दर्ज करा दिया है।

भारत का स्वास्थ्य-मंत्रालय दिन-रात देश की आधारभूत स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ बनाने में लगा हुआ है, जिससे कि स्वास्थ्य सुविधाओं को देश के कोने-कोने में तथा देश के सर्वाधिक पिछड़े एवं गरीब वर्ग के लोगों तक पहुँचाया जा सके। यह मंत्रालय स्वास्थ्य संबंधी नीतियों को निर्धारित कर उसे कार्यरूप प्रदान करने के लिए कृतसंकल्प है, जिससे कि स्वास्थ्य सब के लिए (Health for all) के राष्ट्रीय लक्ष्य को (जिसे सितम्बर 1978 के आल्माटा के विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में अपनाया गया था) पूरा किया जा सके।

भारतीय संविधान के अनुसार, जन-स्वास्थ्य एवं सफाई, अस्पताल व दवाखाने, राज्य सूची के अन्तर्गत आते हैं; जबकि जनसंख्या, परिवार नियोजन, चिकित्सा, शिक्षा, खाद्य पदार्थों एवं अन्य वस्तुओं में मिलावट, औषधियाँ एवं विष, व्यवसाय, पंजीकरण सहित जन्म-मरण के आंकड़े, पागलपन तथा मानसिक विकृतियाँ आदि समवर्ती सूची में आते हैं। वैसे राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के तहत अनुच्छेद 47 में भी जन स्वास्थ्य में सुधार सम्बन्धी प्रावधानों को शामिल किया गया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, नागरिकों को स्वस्थ एवं सुखी जीवन जीने के लिए सहायक के तौर पर महत्वपूर्ण योजनाएँ, रोगों की रोकथाम एवं नियंत्रण आदि जैसे राष्ट्रीय महत्व के कार्यक्रम, जो हमारे विकास प्रयासों के मुख्य मुद्दे भी हैं, के कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व भी इसी मंत्रालय पर है।

भारत में औषधि की विभिन्न पद्धतियां

आयुर्वेद


शब्द आयुर्वेद का अर्थ है-जीवन का विज्ञान। संभवतया यह सबसे पुराना चिकित्सा विज्ञान रहा है जिसकी सकारात्मक परिणति मानसिक, सामाजिक, नैतिक और अध्यात्मिक कल्याण को मिलाने के द्वारा प्राप्त करने वाला स्वास्थ्य रही है। भारत, स्वास्थ्य देखभाल के तत्कालीन परिदृश्य में आयुर्वेद उपयोगिता की वकालता करने में आगे आया है। इसके प्रयासों से विदेशी देशों ने इस विज्ञान की प्रभावोत्पादकता और महत्व को समझना शुरू किया है। यूएसए, यूके, रूस, जर्मनी, हगरी, विश्व के अन्य भाग से लोग आयुर्वेद विशेषज्ञों द्वारा उपचार कराने के लिए भारत आते हैं।

योग

योग एक विज्ञान तथा शारीरिक, मानसिक, नैतिक और अध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रहने की कला भी है। यह किसी भी प्रकार से जाति, आयु, लिंग, धर्म, जाति या आस्था द्वारा सीमित नहीं। अभ्यास उनके द्वारा किया जा सकता है जो बेहतर जीवन के लिए शिक्षा पाना

चाहते हैं। भारत में असंख्य योग केंद्र हैं, जो सुचना देते हैं और यह शिक्षा देते हैं कि कैसे योग और औषधि, किसी के जीवन में खुशियां ला सकते हैं। तथापि, योग शिविर लगभग सभी भारतीय शहरों में आयोजित किए जाते हैं, जो योग और ध्यान उपचार के लिए निम्नलिखित हैं –

  1. ऋषिकेश
  2. हरिद्वार
  3. धर्मशाला
  4. पांडिचेरी में औरोविले
  5. बंगलौर के निकट पुट्टापर्ती
  6. माउंट आबू

भारत में योग का विकास विज्ञान के रूप में किया गया है जो अनेक रोगों को ठीक करने के लिए लाभदायक है ।

नेचुरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा)

नेचुरोपैथी ठीक-ठाक रखने के विज्ञान की प्रणाली है, जो शरीर में निहित शक्ति को प्रकृति में पांच महान तत्वों की सहायता प्राप्ति के लिए उत्तेजित करती है अर्थात मृदा, जल, वायु, अग्नि और भूमि। नेचुरोपैथी प्रकृति में वापस आने का आह्वान है और पर्यावरण के साथ सामन्जस्य करके जीने का सरल तरीका अपनाना है।

नेचुरोपैथी रोग प्रबंधन का न केवल सरल व्यावहारिक तरीका प्रदान करता है। अपितु एक सुदृढ़ सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। यह संपूर्णत्व चिकित्सा देखभाल के लिए प्रयोज्य है और स्वास्थ्य की नींव पर ध्यान देकर; और भावी पीढ़ी के लिए अधिक प्रभावी ढांचा भी प्रदान करता है।

नेचुरोपैथी, पश्चिमी दुनिया में भी जीवन में खुशहली वापस लाने के प्राकृतिक तरीके के कारण लोकप्रिय हो रहा है।

यूनानी

औषध की यूनानी प्रणाली एक प्राचीनतम प्रणाली है । यह अभी भी लोकप्रिय है और भारतीय उपमहाद्वीप एवं विश्व के अन्य भागों में इसका अभ्यास किया जाता है । यूनानी के मूल सिद्धांतों के अनुसार शरीर चार मूल तत्वों से बना है अर्थात पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि, और अलग-अलग विशेषता है- ठंड, गर्म, गीला एवं शुष्क ।

सिद्ध

सिद्ध प्रणाली के सिद्धांत और शिक्षा मौलिक और व्यावहारिक, दोनों हैं। यह आयुर्वेद के समान ही है। इसकी विशेषता यह है कि आंतरिक प्रणाली के अनुसार मानव शरीर ब्रम्हांड की प्रतिकृति है।

यह प्रणाली जीवन में उद्धार की परिकल्पना से जुड़ी हुई है। इस प्रणाली के प्रवर्तकों का मानना है कि इस अवस्था को औषधि और मननः चिंतन के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। प्रणाली आकस्मिक मामलों को छोड़ कर सभी प्रकार के रोगों का इलाज करने में, विशेष तौर पर त्वचा संबंधी सभी समस्याओं का उपचार करने में सक्षम हैं, विशेष कर सोरायसिस, यौन संचारित संक्रमण में संक्रमण, यकृत की बीमारी और आंत के रोग, सामान्य डिसएबिलिटी, एनेमिया, डायरिया और विकार के अतिरिक्त सामान्य बुखार ।

होम्योपैथी

आज होम्योपैथी तेजी से बढ़ती प्रणाली बन गई है और लगभग पूरी दुनिया में इसका अभ्यास किया जा रहा है। लगभग 10 प्रतिशत भारतीय जनसंख्या अपने स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता के लिए केवल होम्योपैथी पर लगभग डेढ़ शताब्दी से भी अधिक समय से निर्भर है जब से भारत में होम्योपैथी का प्रचालन हो रहा है । इसे औषधि की एक राष्ट्रीय प्रणाली के रूप में मान्यता मिल गई है और बड़ी संख्या में स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसकी ताकत इसके स्पष्ट प्रभाव में निहित है। चूंकि यह भावनात्मक, अध्यात्मिक और शारीरिक स्तरों पर आंतरिक संतुलन के संवर्धन द्वारा रोगी व्यक्ति के लिए संपूर्णता का तरीका है, इसलिए पूरे विश्व के लोग होम्योपैथी द्वारा रोगों को चंगा करने में भारत की मास्टरी का लोहा मानते हैं ।

चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान

भारत में चिकित्सा अनुसंधान की शुरूआत 1911 में भारतीय अनुसंधान फंड एसोसिएशन (IRFA) की स्थापना से चरणबद्ध तरीके से शुरू हुई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् 1949 में आई. आर.एफ.ए. का नाम बदलकर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (Indian Council of Medical Research-ICMR) कर दिया गया। यह परिषद् देश में जैव चिकित्सा के निरूपण, समन्वय और अनुसंधान की सर्वोच्च संस्था है। आई.सी.एम.आर. द्वारा राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप संक्रामक रोगों, कुपोषण, नये प्रकार के टीकों, जनसँख्या वृद्धि नियंत्रण तथा परिवार कल्याण सम्बन्धी अनुसंधानों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। केन्द्र सरकार द्वारा शत-प्रतिशत सहायता प्राप्त इस परिषद् के मूल कार्य देश के विभिन्न भागों में स्थापित 12 स्थायी राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थानों, 6 क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान केन्द्रों, उच्चस्तरीय अनुसंधान केन्द्रों, अनुसंधान एकांशों, कार्यशक्ति परियोजनाओं और राष्ट्रीय सहयोगी परियोजनाओं के माध्यम से संचालित किए जाते हैं। परिषद् द्वारा हृदय रोगों, उपापचयी कैंसर, मानसिक रोग, नशीले पदार्थों की लत, तपेदिक, कुष्ठ रोग, पेचिश, मलेरिया, फिलौरिएसिस/फाइलेरिया तथा एड्स के संबंध में किए जाने वाले अनुसंधान कार्यों पर विशेष बल दिया जा रहा है। परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों तथा जड़ी-बूटियों से इलाज की प्राचीन आयुर्वेदिक पद्धति के संबंध में रोगोन्मुखी दृष्टिकोण से अनुसंधान कार्य पुन: शुरू किया गया है। इन सार्थक प्रयासों के परिणामस्वरूप देश में सरल, सहज एवं समग्र चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की लोकप्रियता बढ़ने लगी है।

भारतीय चिकित्सा परिषद्

भारतीय चिकित्सा परिषद् एक विधायी संस्था है, जिसकी स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम, 1933 के तहत स्थापना की गई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद चिकित्सा अधिनियम, 1933 को निरस्त करके उसके स्थान पर भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम,1956 लाया गया, जिसमें 1958 एवं 1964 में मामूली संशोधन किए गए। भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम में 1993 में व्यापक संशोधनों के द्वारा ऐसे प्रावधान बनाये गए ताकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की पूर्व अनुमति के बिना मेडिकल कॉलेजों की अनियंत्रित स्थापना, उनमें मनमाने तरीके से सीटें बढ़ाए जाने या नए पाठ्यक्रम शुरू कर देने पर रोक लगाई जा सके। चिकित्सा परिषद् अधिनियम को पुन: 2001 में संशोधित किया गया ताकि भारतीय चिकित्सा परिषद्, चिकित्सा के क्षेत्र में विदेशी योग्यता प्राप्त करने वाले भारतीय नागरिकों को भारत में प्रैक्टिस करने के लिए चिकित्सा पंजीकरण कराने से पूर्व उनकी कुशलता की जांच के लिए परीक्षा ले सके। इस संशोधन द्वारा विदेशी संस्थानों में स्नातक-पूर्व चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने के इच्छुक छात्रों के लिए भी यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वे भारतीय चिकित्सा परिषद् से इस आशय का योग्यता प्रमाणपत्र लें कि परिषद् द्वारा सुनिश्चित मानदंडों को पूरा करते हैं। इन संशोधनों के बाद भारतीय चिकित्सा परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  • स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर पर चिकित्सा शिक्षा को मानको पर नजर रखना।
  • भारतीय चिकित्सा पजिका का निर्माण करना।
  • विश्व के अन्य देशों में भारतीय चिकित्सा डिग्रियों को मान्यता दिलाने तथा उन देशों की डिग्रियों को भारत में मान्यता देने के लिए इन देशों के साथ पारस्परिक तालमेल बिठाना।
  • निरंतर चिकित्सा शिक्षा को बनाए रखना।
  • मान्य चिकित्सा योग्यताओं वाले चिकित्सकों की स्थायी अथवा अस्थायी मान्यता प्रदान करना।
  • नई चिकित्सा योग्यताओं को पंजीकृत करना।
  • राष्ट्रमंडल देशों में जाने वाले चिकित्सकों को प्रतिष्ठित (गुड स्टैंडिग) डॉक्टर का प्रमाण-पत्र देना।
  • वर्तमान में देश में 193 मेडिकल कॉलेज हैं, इनमें से 157 को भारतीय चिकित्सा परिषद् द्वारा मान्यता प्राप्त है।

भारतीय दंत चिकित्सा परिषद्

भारतीय दंत चिकित्सा परिषद् की स्थापना एक विधायी संस्था के रूप में भारतीय दंत चिकित्सा अधिनियम, 1948 के अंतर्गत की गई थी। इस परिषद् का मुख्य उद्देश्य दंत चिकित्सा शिक्षा, व्यवसाय और आचार संहिता का नियंत्रण करना है। परिषद् दंत चिकित्सा संस्थाओं में अध्यापन सुविधाओं की उपयुक्तता सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर दंत संस्थाओं का निरीक्षण करती है। वर्तमान में देश में कुल 150 दंत चिकित्सा कॉलेज हैं।

चिकित्सा पद्धतियाँ
पद्धति आविष्कारक देश
आयुर्वेद आत्रेय भारत
योग पतंजलि भारत
सिद्धयोग वृदकुट भारत
अष्टांग हृदय बाग्भट्ट भारत
रस चिकित्सा नागार्जुन भारत
पाश्चात्य चिकित्सा हिप्पोक्रेटस स्विटजरलैंड
होमियोपैथी हैनीमन जर्मनी

भारतीय फार्मेसी परिषद्

फार्मेसी अधिनियम, 1948 को तहत भारतीय फार्मेसी परिषद् का गठन किया गया। इस परिषद् का मुख्य कार्य फार्मासिस्टो को लिए प्रशिक्षण के समान स्तर बनाए रखने के नियंत्रण के लिए पाठ्यक्रम एवं नियम बनाना तथा फार्मासिस्टों के पंजीकरण का दायित्व भी भारतीय फार्मेसी परिषद् का है। वर्तमान में देश के 352 संस्थानों में विद्यार्थियों को फार्मेसी में डिप्लोमा डी फार्मा प्रदान किया जा रहा है, जबकि 155 संस्थानों के विद्यार्थियों को फार्मेसी की स्नातक उपाधि बी फार्मा प्रदान की जा रही है।

राष्ट्रीय चिकित्सा विज्ञान अकादमी

राष्ट्रीय चिकित्सा विज्ञान अकादमी की स्थापना एक पंजीकृत संस्था के रूप में 1962 में की गई, इस अकादमी का मुख्य उद्देश्य चिकित्सा विज्ञान के उत्थान को प्रोत्साहन देना है। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अकादमी अपने फेलो एवं सदस्यों का चयन करती है तथा उनकी प्रतिभाओं एवं योग्यताओं को मान्यता प्रदान करती है। चिकित्सा व्यवसायियों को नई समस्याओं से निपटने एवं स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में उनके ज्ञान को अद्यतन बनाने के लिए अकादमी ने 1982 से निरंतर शिक्षा कार्यक्रम लागू किया हुआ है। इसके अतिरिक्त अकादमी 1982 से चिकित्सा के क्षेत्र में प्रतियोगिता परीक्षा का आयोजन भी करती है।

भारतीय नर्सिग परिषद्

भारतीय नर्सिग परिषद् की एक विधायी संस्था के रूप में भारतीय नर्सिग परिषद् अधिनियम, 1947 के अंतर्गत स्थापना की गई थी। परिषद् का कार्य नर्सिग शिक्षा को न्यूनतम मानक तय करना और विभिन्न नर्सिग पाठ्यक्रमों के लिए पाठ्यक्रम एवं नीतियां निर्धारित करना है। नर्सिग शिक्षा मुख्यतः 5 स्तर पर दी जाती है – 1. सहायक नर्स दाई (ए.एन.एम.), 2. सामान्य नर्सिग दाई (जी.एन.एम.), 3. नर्सिग में स्नातक, 4. नसिंग में स्नातकोत्तर, 5. नर्सिग में एम.फिल अथवा पी.एच.डी.।

रोग एवं प्रतिरक्षा कार्यक्रम

शरीर के किसी अंग अथवा अंग-तंत्र की संरचना एवं कार्य-विधि में किसी प्रकार की विरूपता रोग कहलाती है। रोग प्रमुखत: दो प्रकार के होते हैं – संचारी एवं असंचारी।

संचारी रोग

संचारी रोग, शरीर में रोग कारक (Pathogen) के प्रवेश से उत्पन्न होता है। एवं यह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्पर्क से एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलता है। संक्रमण का प्रसार जल, हवा, दूध, खाद्य पदार्थ द्वारा अथवा संक्रिमत माता से नवजात शिशुओं में होता है। संचारी अभिकर्ता की प्रकृति के आधार पर संचारी रोग को विषाणु-जनित रोग, यथा – चिकन पॉक्स, मीजल्स, पोलियोमाइलिटिस; जीवाणुजनित रोग, यथा – कॉलरा, मेनिनजाइटिस; यौन-जनित रोग, प्रोटोजोआ-जनित रोग (यथा-रिंगवर्म) आदि में विभाजित किया जा सकता है।

असंचारी रोग

असंचारी रोग का प्रसार रोगी के सम्पक में आने से अथवा किसी वाहक द्वारा नहीं होता है। ये रोग निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हो सकते हैं-

  • असन्तुलित आहार से, अर्थात् विटामिन, खजिन लवण, प्रोटीन आदि की कमी से;
  • बुढ़ापे में ऊतकों के नष्ट होने से;
  • शरीर के किसी भाग में ऊतकों में अनियंत्रित वृद्धि
  • उपापचयिक अभिक्रियाओं में दोष होने से;
  • दुर्घटना को कारण शरीर को किसी भाग को क्षतिग्रस्त होने से।

इसके अलावा, हृदय रोग, कैंसर, डायबिटीज आदि कुछ अन्य असंचारी रोग हैं, जो किसी वाहक द्वारा अथवा रोगियों के सम्पक में आने से उत्पन्न नहीं होते हैं।

संक्रमण वाले रोगों की समस्या

मलेरिया: प्रतिवर्ष इससे 75 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित होते हैं तथा लगभग 8 लाख मृत्यु मलेरिया से होती है।

  • मलेरिया नियंत्रण पर साठ के दशक में अपार सफलता मिली, परंतु मलेरिया परजीवी द्वारा दवा प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने के कारण यह पुन: एक भीषण समस्या बन गई है।
  • आने वाले भविष्य में मलेरिया पर संपूर्ण नियंत्रण की संभावना क्षीण है।

टी.बी. (T.B): इससे भारत में लगभग 5 लाख लोग प्रतिवर्ष मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

डायरिया रोग: भारत में 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चे इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं, तथा 5 वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की मृत्यु का यह सबसे प्रमुख कारण है। ग्रामीण बच्चों में विशेषकर रूग्णता, डायरिया के कारण ही पाई जाती है।

  • प्रति वर्ष लगभग 1.5 लाख मृत्यु।
  • यह एक महामारी का रूप धारण कर लेता है जो मुख्यत: अस्वच्छ-परिवेश के कारण जन्म लेता है।

कुष्ठ रोग: भारत में लगभग 1.3 लाख लोग इससे ग्रसित हैं। कुष्ठरोग से संबंधित सभी आकड़ों का राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेशों द्वारा निरंतर अध्ययन किया जाता है तथा केन्द्र को संप्रेषित किया जाता है।

AIDS: स्वास्थ्य क्षेत्र में उभरकर सामने आयी एक नवीन एवं जानलेवा समस्या है।

पोषण से संबंधित समस्यायें

पोषण के संदर्भ में भारतीय समाज को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- समाज का एक छोटा हिस्सा जो संतुलित आहार ग्रहण करता है तथा दूसरा बड़ा हिस्सा जो कुपोषण से ग्रसित हैं। कुपोषण से उत्पन्न होने वाले प्रमुख रोग निम्न हैं-

  • प्रोटीन-उर्जा कुपोषण (Protein energy Malnutrition): अपर्याप्त भोजन अथवा लंबे भोजन अंतराल को कारण प्रोटीन-ऊर्जा की कमी।
  • कुपोषण के शिकार 80% से अधिक लोगों में प्रोटीन की कमी पाई जाती है।
  • 5 वर्ष से छोटे बच्चों की संख्या के 1 से 2 प्रतिशत संख्या में प्रोटीन की कमी अत्यधिक गंभीर समस्या बन गई है।
  • कुपोषण-एनिमिया: विश्व में भारतीय महिलायें एवं बच्चों में कुपोषण एनिमिया सर्वाधिक पाया जाता है।
  • भारत में लगभग 60% गर्भवती महिलायें एनिमिया से ग्रसित हैं।
  • एनिमिया का प्रमुख कारण है- लौह तत्व तथा विटामिन B-12 की भोजन में कमी।
  • कुपोषण अंधापन (Malnutritional Blindness) भारत में अंधेपन का एक प्रमुख कारण है विटामिन ‘A’ की कमी। विटामिन ‘A’ की कमी के कारण बच्चे रतौंधी से ग्रसित हो जाते हैं जो धीरे-धीरे अंधेपन में बदल जाता है।
  • मातृ कुपोषण के कारण नवजात शिशु का औसत वजन से कम वजन का होना।
  • आयोडीन की कमी तथा घेघा रोग: भोजन में आयोडीन की कमी से गलगंड या घेंघा रोग उत्पन्न हो जाता है।

भारत में यह हिमालय क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लोगों को अपनी चपेट में ले लेता है।

दवा नीति 2002

5 फरवरी, 2002 को सरकार ने नयी दवा नीति को मंजूरी दे दी। इस नीति की घोषणा माशेलकर कमिटी की अनुशंसा को आधार पर की गयी है। इस नीति का उद्देश्य व्यावसायिकता के तौर पर शोध एवं विकास हेतु अधिकाधिक निवेश करना है। इनमें उचित मूल्य पर अच्छी क्वालिटी की दवाएं प्रचुरता के साथ उपलब्ध कराना, कम लागत वाली उत्तम कोटि की दवा उत्पादन की देशी क्षमता को विकसित करना, व्यापारिक बाधाओं में कटौती करना, शोध व विकास को प्रोत्साहन देना तथा निवेश व प्रौद्योगिकी को उपयोग को बढ़ावा देना जैसे विषय सम्मिलित हैं।

नये मानदंडों के तहत वैसी औषधियों पर मूल्य-नियंत्रण की नीति अपनायी जायेगी, जिनकी वार्षिक बिक्री करोड़ से अधिक है और उसके एक ब्राण्ड की बाजार हिस्सेदारी 50 प्रतिशत या उससे अधिक है। प्रतियोगिता के दायरे में उन औषधियों पर भी मूल्य नियंत्रण करने का प्रस्ताव रखा गया है, जिनका टर्नओवर 10 से 25 करोड़ है और उसके एक ब्राण्ड का बाजार अंश 90 प्रतिशत है। नयी औषधि नीति से बड़ी मात्रा में दवाओं के विक्रय को मूल्य नियंत्रण से बाहर रखा गया है। वैक्सीन, सेरा तथा जैव-प्रौद्योगिकी उत्पादों को नियंत्रण रेखा से बाहर रखा गया है।

सुरक्षित बाल विकास (ICDS)

  • इन्टिग्रेटिड चाइल्ड डवलपमेण्ट सर्विसिज (ICDS) एक व्यापक बाल कल्याण कार्यक्रम है, जो कि ब्लॉक स्तर पर शुरू किया गया है। इसका उद्देश्य बच्चों को केवल पोषकता प्रदान करना हि नहीं, बल्कि दूसरी जरुरी सुविधाएं जैसे-टीकाकरण व स्कूल से पहले की शिक्षायें देना भी है।
  • हाल ही में 745 ऑगनबाड़ियों के द्वारा 0-6 वर्ष के 421.89 लाख बच्चों और 92.81 लाख गर्भवती और दूध पिलाने वाली माताओं को इस कार्यक्रम के अन्तर्गत शामिल किया गया है।

ICDs के मुख्य उद्देश्य

  • 0-6 वर्ष के बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण में सुधार करना।
  • बच्चों का मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और सामाजिक विकास करना।
  • बाल मृत्यु दर, कुपोषणता और बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में कमी करना।
  • बाल विकास के लिये नीतियां बनाना और उनके क्रियान्वयन के बीच समन्वय स्थापित करना।
  • स्वास्थ्य और पोषण संबंधी शिक्षा के द्वारा माताओं को इस योग्य बनाना ताकि वे अपने बच्चों की स्वास्थ्य और पोषकता संबंधी जरूरतों का ध्यान रख सकें।

ICDS का क्रियान्वयन

  • यह एक 100% केन्द्र द्वारा प्रायोजित स्कीम है, लेकिन इसके अन्तर्गत आने वाला न्यूनता पूरक पोषण, राज्य सरकारों पर भारित है।
  • कुछ राज्य, जो न्यूनता पूरक पोषण उपलब्ध नहीं करा सकते, उनके व्यय का 50% केन्द्र सरकार उपलब्ध कराती है।

क्षय रोग

  • एक जीवाणु (Bacteria) जनित एक संक्रामक रोग है। यह मुख्य रूप से फेफड़े को प्रभावित करता है, जिसे Pulmonary TB कहा जाता है। यह आंत, हड्डी एवं जोड़, लिम्फ ग्रंथियाँ, चमड़ा एवं शरीर की अन्य कोशिकाओं को भी प्रभावित कर सकता है।

क्षय रोग की समस्या

  • अत्यधिक प्रभावकारी दवाओं एवं टीकों की उपलब्धता के बावजूद यह रोग विश्व-स्तरीय स्वास्थ्य-समस्या बन गया है, विशेषकर विकासशील देशों के लिए।
  • क्षय रोग का पूर्व बचाव (Preventable) भी है तथा होने के बाद इसका इलाज (Curable) भी संभव है। यह इलाज, थोड़ा लंबा अवश्य है, पर यह जानलेवा नहीं हो सकता है, यदि सही समय पर अनुशासनपूर्वक दवाईयों का सेवन किया जाये।
  • विश्व में लगभग 15-20 मिलियन लोग TB से ग्रसित हैं।
  • प्रतिवर्ष लगभग 4-5 मिलियन नये लोग इससे संक्रमित हो रहे हैं।
  • प्रतिवर्ष TB से लगभग 3 मिलियन लोग मृत्यु को प्राप्त हो। रहे हैं।
  • TB से प्रभावित लोगों में HIV संक्रमण की संभावना अधिक होती है। TB एवं HIV की युगल बंदी अत्यधिक घातक है एवं इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार लगभग 5 मिलियन लोग इस युगलबंदी की चपेट में आ चुके हैं।
  • भविष्य में TB से प्रभावित लोगों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि की संभावना है।
  • वर्ष 1993, WHO ने TB के मामले में विश्वस्तरीय इमरजेंसी की घोषणा की थी, क्योंकि TB के कुछ बैक्टीरिया में दवाओं के प्रति प्रतिरोध क्षमता विकसित हो गई थी।

भारत के संदर्भ में

  • विश्व के कुल TB बोझ का एक-तिहाई भारत वहन करता है। प्रतिवर्ष भारत में लगभग 22 लाख नये लोग इसकी चपेट में आ रहे हैं तथा इनमें से 10 लाख लोग अति संक्रामक होते हैं।
  • भारत में प्रति मिनट एक आदमी TB से मृत्यु को प्राप्त कर रहा है। प्रतिदिन 1,000 से अधिक, तथा प्रतिवर्ष 500,000 से अधिक लोग इससे मर रहे हैं।

रोग के फैलने का माध्यम

  • संक्रमित रोगियों के थूक एवं बलगम से।
  • लगातार एवं अत्यधिक खाँसी के कारण भी संक्रमित रोगी से TB बैक्टिरिया बड़ी संख्या में वातावरण में फैल जाते हैं और दूसरे लोगों को संक्रमित कर देते हैं।

भारत में चिकित्सा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं पद्धतियाँ

चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में भारत प्रथम खोजकर्ता माना जाता है। अथर्ववेद विश्व का प्राचीनतम चिकित्साशास्त्र है, जिसमें बीमारियों के कारण जानने के पश्चात उनके इलाज की विधियाँ बताई गई हैं। वैदिक ग्रन्थों के बाद भारतीय औषधिशास्त्र के पिता चरक तथा महान शल्य विज्ञानी, सुश्रुत हुए। इनके ग्रंथों, क्रमश: चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता में भारतीच चिकित्सा का गूढ़ ज्ञान भरा हुआ है। सुश्रुत संहिता में मोतियाबिन्दु, पथरी और कई अन्य रोगों का शल्योपचार बताया गया है। चरक संहिता भारतीय चिकित्साशास्त्र का विश्वकोष है। इसमें ज्वर, कुण्ठ, मिर्गी तथा क्षय के अनेक भेदों का वर्णन है। प्राचीनकाल के आयुर्वेदाचार्य और शल्य चिकित्सकों में जीवक (महात्मा बुद्ध के चिकित्सक), नागार्जुन, बागभट्ट तथा धन्वतरि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। नागार्जुन रस चिकित्सा के आविष्कारक थे। उन्होंने सिद्ध किया कि सोना, चांदी, लोहा, ताँबा आदि धातुओं में जटिल रोगों के निवारण की शक्ति विद्यमान है। नागार्जुन ने पारद (पारा) का आविष्कार करको अमृततुल्य संजीवनी नामक औषधि का निर्माण किया था। बाणभट्ट की कृति, अष्टांग हृदय चिकित्साशास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। धन्वन्तरि, गुप्तकाल के प्रसिद्ध वैद्य थे। वे आयुर्वेद के क्षेत्र में इतने अधिक दक्ष थे कि धन्वन्तरि को आयुर्वेद का पर्याय माना जाता था। प्राचीन काल में बाल चिकित्सा, तान्त्रिक विकृत, भेषज विज्ञान तथा कर्णकण्ड विज्ञान रोगों के अभिज्ञान तथा उपचार पर विशेष बल दिया जाता था। इस काल में जलोपचार, जड़ी-बूटी उपचार तथा पथ्योपचार की विधियों की प्रधानता थी। औषधियों के निर्माण में वानस्पतिक जड़ी-बूटियों का ही अधिक प्रयोग किया जाता था।

भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में आयुर्वेद, होमियोपैथी, यूनानी, सिद्ध, योग तथा प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियाँ प्राचीनकाल से ही भारतीय सभ्यता का अभिन्न अंग रही हैं। यद्यपि यूनानी चिकित्सा पद्धति का भारत में आगमन 10वीं शताब्दी में हुआ और होम्योपैथी का जन्म स्थान जर्मनी है, फिर भी वे भारतीय चिकित्सा पद्धति का महत्वपूर्ण अंग बन गयी हैं।

आयुर्वेद का प्रचलन लगभग संपूर्ण देश में है, जबकि सिद्ध पद्धति तमिलनाडु तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में केन्द्रित है। यूनानी चिकित्सा पद्धति एवं योग का प्रचलन देश के विभिन्न क्षत्रों में है। इन पद्धतियों के तहत देश के विभिन्न क्षेत्रों, मुख्यत: ग्रामीण अंचलों में लगभग 5 लाख पंजीकृत चिकित्सक हैं। पूर्व स्नातक शिक्षा के लिए देश में सरकारी व गैर-सरकारी निकायों के तहत लगभग 100 आयुर्वेद, 17 यूनानी एवं 2 सिद्ध महाविद्यालय चलाये जा रहे हैं। राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर के अलावा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय, जामनगर में दो स्नातकोत्तर आयुर्वेद संस्थान हैं। इसके अलावा, 22 आयुर्वेद महाविद्यालय, यूनानी महाविद्यालय एवं एक सिद्ध महाविद्यालय, 2 यूनानी महाविद्यालय एव एक सिद्ध महाविद्यालय हैं, जहाँ स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। कर्नाटक सरकार के सहयोग से केन्द्र सरकार द्वारा बंगलौर में राष्ट्रीय यूनानी औषधि संस्थान की स्थापना की गयी है।


मलेरिया

यह प्लाज्मोडियम (Plasmodium) नामक प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न होता है, जो मादा एनोफेलीज मच्छर के मुख की लारग्रंथियों में मौजूद होते हैं। जब मादा एनोफेलीज मच्छर किसी स्वस्थ्य मनुष्य को काटती है तब प्लाज्मोडियम प्रोटोजोआ उसके रूधिर परिसंचरण तंत्र में पहुँचकर मलेरिया रोग उत्पन्न करते हैं।

रोग के विभिन्न चरण

  • अति ठंडेपन की अनुभूति: बुखार चढ़ने के पूर्व रोगी को 15 मिनट से लेकर एक घंटे तक अति ठंडेपन की अनुभूति होती है।
  • अति गर्म की अनुभूति: रोगी का तापक्रम 105° फारेनहाइट तक पहुँच जाता है तथा वह ज्वर से 2-6 घण्टे तक पीड़ित रहता है। भयंकर सिरदर्द होता है एवं जी मिचलाता है।
  • पसीना की अनुभूति: तेज बुखार के बाद रोगी के शरीर से अत्यधिक पसीना निकलता है, जिससे उसका बुखार कम हो जाता है।
  • एक निश्चित अवधि के बाद फिर यही क्रम दुहराया जाता है।

मलेरिया परजीवी के प्रकार

  • फैल्सीपेरम (प्लाज्मोडियम) (Plasmodium)
  • वाईवेक्स (Vivax)- सबसे अधिक मलेरिया का कारक
  • ओवेल (Ovale)- निम्नतम मलेरिया का कारक
  • मलेरिया (Malariae)
  • संक्रमण की सुसुप्तावस्था– एक प्रभावित मच्छर के काटने को लगभग 20 दिनों के बाद मलेरिया का प्रथम प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

मलेरिया को बढ़ावा देने वाले पर्यावरणीय कारक

भारत की भौगोलिक स्थिति एवं जलवायवीय दशा, मलेरिया के पनपने तथा फैलने के लिए अनुकूल है।

  • मौसम: भारत में मलेरिया का प्रकोप जुलाई से नवंबर तक सर्वाधिक रहता है। मलेरिया एक मौसमी रोग है तथा भारत की वर्षा ऋतु इसके पनपने की आदर्श दशा प्रस्तुत करती है।
  • तापक्रम: मलेरिया परजीवी के पनपने का आदर्श तापक्रम 20°C से 30°C होता है।
  • आर्द्रता: आर्द्रता का प्रभाव मलेरिया परजीवी पर सीधे नहीं पड़ता है, पर मलेरिया वाहक मच्छर के आम जीवन चक्र के लिए कम-से-कम वायुमंडलीय आर्द्रता 60 प्रतिशत आवश्यक होती है। जहाँ आर्द्रता अधिक होती है, वहाँ मलेरिया मच्छरों का तीव्र विकास होता है।
  • वर्षा- वर्षा के कारण ही मलेरिया मच्छर पनपते हैं तथा वर्षा ऋतु में ही यह महामारी का रूप धारण करती है।

मलेरिया की औषधियाँ

  1. क्वीनीन (Quinine)
  • सबसे पुरानी औषधि है जो सिनकोना की छाल (Bark) से प्राप्त की जाती है।
  • आजकल Quinine को Quinine Sulphate के रूप में प्रयोग किया जाता है।
  1. अर्टीथर (Arteether)
  • मलेरिया की नई दावा है जिसे LKo CDRP द्वारा Amissia annua नामक पौधे से तैयार की गयी है।
  • Armissia annua को Wonder Plant भी कहते हैं।

प्लेग

प्लेग का सबसे अंतिम भयंकर प्रकोप 19वीं शताब्दी के अन्त में हुआ था। प्लेग का प्रारम्भ चीन से हुआ। फिर धीरे-धीरे यह भारतीय उपमहाद्वीप, उत्तरी एवं दक्षिणी अफ्रीका, यूरोप, जापान, फिलिपीन्स, आस्ट्रेलिया एवं उत्तर व दक्षिणी अमेरिका में फैला। 19वीं शताब्दी के पश्चात् इसे समाप्त प्राय: मान लिया गया। इस रोग ने 1994 में भारत में भीषण तबाही मचायी। इस दौरान महाराष्ट्र का बीड जिला ब्यूबोनिक प्लेग का एवं गुजरात का सूरत शहर न्यूमोनिक प्लेग का मुख्य केन्द्र-बिन्दु था। येरिसीनिया पेस्टिस, प्लेग का प्रमुख कारण था।

प्लेग के जीवाणुओं को येरसीनिया पेस्टीस अथा पास्चुरेला पेस्टीस के नाम से जाना जाता है। मनुष्य में यह तीन रूपों में उत्पन्न हो सकता है-

  • ब्यूबोनिक प्लेग (Bubonic Plague),
  • न्यूमोनिक प्लेग (Pneumonic Plague),
  • सेप्टीसेमिक प्लेग (Septisemic Plague)

ब्यूमोनिक प्लेग सर्वाधिक प्रचलित रूप है। इसमें रोगग्रस्त चूहे मनुष्यों को काट कर प्लेग फैलाते हैं, जिसमें कांख एवं जांघ की ग्रंथियाँ सूज जाती हैं। न्यूमोनिक प्लेग में जीवाणु एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में सांस द्वारा फैलते हैं, जबकि सेप्टीसेमिक प्लेग यों तो बहुत ही कम देखा गया है, परन्तु यह सबसे अधिक घातक होता है, जिसमें रोगी का रक्त ही जहरीला बन जाता है। प्लेग की दवा के रूप में टेट्रासाइक्लीन तथा सल्फोनामाइड प्रमुख हैं।


सार्स (SSARS)

इसे Killer pneumonia भी कहते हैं।

रहस्यमय घातक निमोनिया अर्थात् सीवियर एक्यूट रिस्पेरट्री सिंड्रोम (सार्स) नामक महामारी से पूरे विश्व, विशेषकर एशिया महाद्वीप में चिंताजनक स्थिति उत्पन्न हो गयी। यह बीमारी सर्वप्रथम चीन के गुआंगडोंग प्रांत में नवंबर, 2002 में फैली थी। इसके बाद विश्व के अन्य हिस्सों में इस रोग ने अपना प्रभाव दिखाया। भारत में सार्स का पहला मामला गोवा में दर्ज किया गया।

विश्व स्वास्थ्य संगठन को अनुसार सार्स कोरोना वायरस (Corona Virus) के कारण होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सार्स के संबंध में दी गयी परिभाषाएं, सावधानियाँ एवं उसके इलाज के बारे में दी गयी जानकारियां इस प्रकार हैं-

लक्षण

  • संक्रमित होने के बाद बीमार होने में दो से दस दिन लग सकते हैं।
  • सिर दर्द और बदन दर्द, सार्स के शुरुआती लक्षण हैं।
  • 104° फॉरेनहाइट से ज्यादा तेज बुखार हो जाता है।
  • बुखार के साथ-साथ सूखा बलगम भी निकलता है।
  • कुछ समय बीतने पर दम फूलने के साथ-साथ सांस की तकलीफ भी बढ़ जाती है।
  • दो से सात दिनों में सूखी खांसी शुरू हो जाती है।

इलाज

समुचित चिकित्सा से 96 प्रतिशत मरीज बचाए जा सकते हैं। संक्रमण से केवल 4 प्रतिशत रोगी ही मरते हैं। वैसे अभी तक इस बीमारी का कोई कारगर इलाज नहीं खोजा जा सका।


एंथ्रेक्स

यह एक घातक एवं संक्रामक बीमारी है, जो बेसिलस एंथ्रेसिस नामक जीवाणु की वजह से होता है। एंथ्रेक्स मानव एवं पशुओं, दोनों में समान रूप से पाया जाता है। पशु एंथ्रेक्स भारत के लगभग सभी राज्यों में पाया जाता है, जबकि मानव एंथ्रेक्स के लक्षण बिहार, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु एवं कर्नाटक में पाये गये हैं। वर्तमान में आतंकवादी इसका प्रयोग जैव-हथियार के रूप में भी करते हैं।


टायफाइड

टायफाइड एक संक्रामक बुखार है, जो सेल्मोनेला टाइफी नामक जीवाणु के कारण होता है। यह जीवाणु, प्रदूषित खाद्य एवं पेय पदार्थ ग्रहण करने पर शरीर में पहुंच जाता है एवं मानव के प्लीहा एवं आन्त्र में संक्रमण करता है। 70 के दशक में टायफाइड को लगभग नियंत्रित कर लिया गया था, किन्तु इस रोग के कारक सेल्मोनेला टाइफी में दवा के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गयी, जिससे यह समस्या और विकट हो गयी है। 90 के दशक में भारत के विभिन्न भागों में इसका संक्रमण देखा गया था उसके पश्चात् भी प्रतिवर्ष स्वच्छता के अभाव में सैकड़ों व्यक्ति इस बीमारी से ग्रसित होते रहते हैं।


कालाजार

यह रोग लिश्मानिया डोनोवानी एवं उसकी प्रजातियों द्वारा होता है तथा यह मधुमक्खी (sandfly) द्वारा फैलाया जाता है। 50 के दशक तक यह रोग समाप्तप्राय हो गया था, किन्तु 60 एवं 70 के दशक में यह रोग पुन: उभर कर सामने आया। कालाजार अब बिहार के 33 जिलों में, झारखंड के 3 जिलों में, पश्चिम बंगाल के 10 जिलों में एवं उत्तर प्रदेश के दो जिलों में स्थानिक है। अब तक प्राप्त सफलता को देखते हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में वर्ष 2010 तक कालाजार के उन्मूलन का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्यक्रम को लागू करने में राज्यों से समर्थ की अपर्याप्तता की समस्या से निपटने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2003-04 से 100 प्रतिशत केन्द्रीय सहायता देने का निर्णय लिया था।


हेपेटाइटिस

भारत में इस समय हेपेटाइटिस के ‘बी’ एवं ‘सी’ किस्म के विषाणुओं से करीब 5 करोड़ 80 लाख लोग संक्रमित हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ 30 लाख लोग हेपेटाइटिस ‘बी’ तथा करीब 1 करोड़ 50 लाख लोग हेपेटाइटिस ‘सी’ से पीड़ित हैं। दुनिया भर में सबसे भयावह संक्रामक रोगों में हेपेटाइटिस का स्थान पाँचवां है। हेपेटाइटिस के विषाणु छह प्रकार के होते हैं – ए, बी, सी, डी, ई और जी। मनुष्य इन सभी किस्मों के विषाणुओं के वाहक होते हैं। ये विषाणु संक्रमित मनुष्य से स्वस्थ्य मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। ‘ए’ और ‘ई’ किस्म के विषाणु पानी में पैदा होने वाले हैं। ये विषाणु मुख के अवसाद पदार्थों आदि के जरिये फैलते हैं, जबकि अन्य किस्म के विषाणु रक्त के जरिये संक्रमित होते हैं। इनमें ‘बी’ और ‘सी’ किस्म के विषाणु अधिक खतरनाक होते हैं।


कुष्ठ रोग

यह एक संक्रामक रोग है और इसका वाहक माइक्रोबैक्टीरियम लेप्रो नामक जीवाणु है। इस रोग को वाहक जीवाणु, त्वचा अथवा श्वसन तंत्र के मार्ग से शरीर में प्रविष्ट होते हैं और इन जीवाणुओं द्वारा नसों एवं त्वचा को क्षति पहुंचायी जाती है। कुछ समय के बाद त्वचा पर सूनापन लिए हुए लाल या सफेद चकते दृष्टिगत होते हैं। रोग के विकास के साथ-साथ उगलियों में विकलांगता आने लगती है और दर्दरहित घावों के कारण हाथों तथा पैरों की उगलियां गल जाती हैं।

कुष्ठ रोग अनेक प्रकार के होते हैं और उनका इलाज भी उनकी प्रकृति पर ही निर्भर करता है। ट्यूबरक्यूलॉयड कुष्ठ रोग, जिसमें जीवाणु बहुत कम होते हैं और संक्रामकता नहीं के बराबर होती है, को मात्र छह महीने में मल्टी ड्रग थेरेपी (MDT) से ठीक किया जा सकता है, जबकि लेप्रोमोटस कुष्ठ रोग, जिसमें जीवाणु अधिक होते हैं और संक्रामकता भी अधिक होती है, को कम-से-कम एक साल की मल्टी ड्रग थेरेपी (एमडीटी) से ही ठीक किया जा सकता है। मल्टी ड्रग थेरेपी में जिन औषधियों का उपयोग किया जाता है, उनमें प्रमुख हैं – डैप्सोन और रिफैम्पिसिन


डेंगू बुखार

डेंगू एक वायरल बुखार है, जो एडीस इजीटिप्याई नामक मच्छर के काटने से होता है। यह मच्छर सामान्यत: दिन में काटता है। इस मच्छर में डेन-1, डेन-2, डेन-3 , एवं डेन-4 नामक वायरस होते हैं, जो काटने पर मनुष्य के रक्त में प्रवेश कर जाते हैं। वायरस के शरीर में प्रवेश करने के बाद संक्रमित व्यक्ति में बुखार के लक्षण दिखायी देने लगते हैं। डेंगू बुखार की तीन अवस्थाएं होती हैं। सबसे पहली अवस्था, सामान्य डेंगू बुखार की होती है। इसमें रोगी को अत्यन्त तेज बुखार हो जाता है, जो चार-पांच दिनों तक रहता है। इस बुखार के साथ-साथ सिर, आंखों, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द भी रहता है। यह बुखार कुछ दिनों में सामान्य उपचार से ठीक हो जाता है। बीमारी की दूसरी अवस्था डेंगू रक्तस्रावी बुखार डेंगू हेमेरिजक फीवर (डी.एच.एफ.) है। यह अवस्था अत्यन्त खतरनाक होती है। इसमें विषाणु रक्त की परतों को तेजी से नष्ट करते हैं जिससे रोगी के आंतरिक अंगों से रक्तस्राव होने लगता है। इस अवस्था में यदि रोग में रक्त की परत नहीं चढ़ायी जाये, तो उसकी मृत्यु हो सकती है। बुखार की तीसरी अवस्था डेंगू शॉक सिंड्रोम की है। इसमें रक्त चाप घट जाता है एवं शरीर में शॉक के लक्षण उभरने लगते हैं।


बर्ड फ्लू

इन्फ्लूएंजा के समान लक्षणों वाली इस बीमारी के विषाणु का नाम एच.एस.एन.ए. है। इस विषाणु में दो एंटीजन- हीमग्लूटिनिन तथा न्यूरोमेमिनेडेस प्रमुख हैं। मई, 1997 में इस विषाणु का पहली बार पता लगा, जब एक व्यक्ति इन्फ्लूएंजा के लक्षणों से ग्रस्त हुआ, किन्तु इसको लिए सामान्य तौर पर प्रयोग होने वाली औषधि का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। इस रोग के विषाणु मुर्गियों द्वारा मनुष्य में प्रवेश करते हैं। इस विषाणु के संक्रमण से तेज ज्वर, नाक बहना, खाँसी, गले में खराश, निमोनिया तथा गुर्दे में खराबी के लक्षण प्रकट होते हैं, जो अंतत: मृत्यु का कारण बनते हैं।


स्वाइन फ्लू

H1N1 स्वाइन फ्लू एक प्रकार का इफ्लुएंजा वायरस है, जो इंसानों को संक्रमित करता है। ऐसा माना जाता है कि यह सूअरों से उत्पन्न हुआ। इसका पहला केस मैक्सिको में 2009 में सामने आया, इसमें 38°C तक का शारीरिक तापक्रम, खराश, दर्द के साथ-साथ सूखी खांसी भी होती है। इसके वायरस स्पर्श, हवा एवं अन्य संचारी माध्यमों से फैलते हैं।


मधुमेह

शरीर में इन्सुलिन के स्राव की कमी या शरीर में उसके सही ढंग से काम करने की क्षमता में कमी होने के कारण रक्त में ग्लूकोज (शर्करा) की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे मधुमेह नामक रोग से मानव शरीर ग्रसित हो जाता है। मधुमेह होने के अन्य कारण हैं – मोटापा, वंशानुगत असंतुलित भोजन तथा तनाव। इस रोग के मुख्य लक्षण हैं – थकान या कमजोरी अनुभव करना, ज्यादा प्यास लगना, पेशाब ज्यादा मात्रा में आना, ज्यादा भूख लगना तथा घावों या छालों के भरे होने के कारण रक्त में ग्लूकोज (शर्करा) की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे मधुमेह नामक रोग से मानव शरीर ग्रसित हो जाता है। भारत में मधुमेह रोग से ग्रसित लोगों की संख्या तो अधिक है ही, अनिवासी भारतीयों में भी, विदेशी स्थानीय लोगों की तुलना में मधुमेह का प्रकोप अधिक है। भारत के शहरी क्षेत्रों में 5 से 10 प्रतिशत लोग मधुमेह से पीड़ित हैं।


ग्वायटर (घेंघा)

आयोडीन एक आवश्यक पोषक तत्व है, जो शरीर को थाइरॉक्सिन (Throxine) तथा ट्राइडोथाइसेमिन (Triodothysemin) नामक दो हॉर्मोन को उत्पन्न करने के लिए प्रेरित करता है। ये हॉर्मोन गर्दन के निचले हिस्से में स्थित दो खंडों वाली थाइरॉयड ग्रंथि (Thyroid Gland) से उत्पन्न होते हैं। आयोडीन के चार परमाणु मिलकर थाइरॉक्सिन के एक अणु (I4) का निर्माण करते हैं। यही थाइरॉक्सिन शरीर को विकास, ऊर्जा की प्राप्ति तथा मस्तिष्क के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जीवन की आरम्भिक अवस्था में इसकी कमी से भ्रूण की मानसिक वृद्धि नहीं हो पाती है तथा ऐसे बच्चे की जन्म के तुरंत बाद ही मृत्यु हो जाती है। गर्भवती महिलाएं तथा 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे इसकी कमी से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं, जिससे इनके गले की थाइरॉयड ग्रंथि में असामान्य रूप से सूजन (Swelling) आ जाती है। इसे ही घेंघा रोग (Goitre) कहा जाता है।


पर्किंसन रोग

यह वास्तव में तंत्रिका तंत्र (Nervous System) से सम्बंधित एक रोग है, जिसके कारण पेशियों के नियंत्रण (Muscular Control) में लगातार कमी आती जाती है। इसके कुछ प्रमुख लक्षणों में शामिल हैं:

  • हाथों में कंपकपी होना;
  • भुजाओं अथवा पांवों में कपकपी होना;
  • धीमी एवं कठिन चाल;
  • शरीर का झुका होना; तथा
  • स्थिर एवं टकटकी वाली नजर (Mask Like Face)

इन लक्षणों के बाद मस्तिष्क आघात अथवा अन्य रोगों के लक्षण उत्पन्न होने की आशंका बढ़ जाती है। इससे अधिकतर प्रौढ़ अथवा बूढ़े व्यक्ति ही प्रभावित होते हैं।


अल्ज़ाइमर रोग

यह बीमारी एक प्रकार की मस्तिष्कीय खराबी (Brain Disorder) है, जो सामान्यतया वयस्कों एवं बूढ़ों में ही देखी जाती है। इस रोग का एक प्रमुख लक्षण लगातार याद्दाश्त में कमी आना (Dementia) है। अभी तक इस रोग के कारणों का पता नहीं चल सका है, परंतु ऐसी धारणा है कि यह वस्तुत: एक प्रकार की स्वतः प्रतिरोधी खराबी (auto-Immune Disroder) है, जिसमें शरीर की प्रतिरोधी क्षमता ही हानिकारक साबित होती है, दरअसल, किसी रोग से मस्तिष्क में विशिष्ट प्रकार की कोशिकाएं खराब होकर मरने लगती हैं। ये विशिष्ट प्रकार की कोशिकाएं एक तरह क न्यूरोट्रांसमीटर (Neurotransmeter) को उत्पन्न करती हैं, जिन्हें एसिटाइलकोलिन (Acetylcholine) कहते हैं। न्यूरोट्रांसमीटर पदार्थ स्नायु संकेतों (Nerve Impulses) को उत्पन्न तथा पारगमित (Transmit) करते हैं। इनके अभाव में स्नायु तंत्र में विकृति आ जाती है।


इन्फ्लुएंजा

यह एक संक्रामक रोग है, जो वायरस तथा बैसिलस इन्फ्लुएंजी नामक जीवाणु के कारण होता है। इसमें सिर के साथ-साथ सम्पूर्ण शरीर में जोर का दर्द, सर्दी-खांसी तथा तेज बुखार होता है। साधारण स्थिति में यह 2-3 दिनों में ठीक हो जाता है।


डिप्थीरिया

यह एक संक्रामक रोग है, जो अधिकांशत: बच्चों को ही होता है। यह रोग के.ए. बैसिलस (K.A. Bacillus) नामक जीवाणु के कारण होता है, जिसमें गले में कृत्रिम झिल्ली बन जाती है तथा श्वास लेने में कठिनाई महसूस होती है। यह रोग प्राय: संदूषित दूध (Infected Milk) के कारण ही होता है। अत: दूध को अच्छी तरह उबालने के बाद ढककर रखना चाहिए। इससे बचाव हेतु बच्चों को ट्रिपल एंटीजन (Tirple Antigen) का टीका लगाया जाता है।


पीलिया

पीलिया (Jaundice) रोग में बाइल पिगमेंट (Bile Pingments) की मात्रा रक्त में काफी बढ़ जाती है। यह वस्तुत: एक यकृत रोग है, जिसमें त्वचा का रंग पीला पड़ जाता है। इसमें यकृत में पित्त वर्गक का निर्माण अधिक मात्रा में होने लगता है, परन्तु यकृत कोशिकाओं में इनका उत्सर्जन निम्न मात्रा में होता है। फलत: यह यकृत शिरा के माध्यम से रक्त में प्रवेश कर जाता है।


हाइड्रोफोबिया

यह एक संघातिक रोग है, जिसका संक्रमण केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nervous System) में होता है। इसका संक्रमण पागल कुत्ते, भेड़िये तथा लोमड़ी के काटने से होता है। इसके काटने से रोग के विषाणु (Neutropic Viruses) शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर देते हैं।


मस्तिष्क मृत्यु

मष्तिष्क में घातक चोट और आंतरिक कपालीय रक्तस्त्राव से जब शरीर का अंग एक-एक कर काम करना बंद कर देता है तो ऐसी परिस्थिति में रोगी को ऑक्सीजन, कृत्रिम श्वसन विधि से शरीर में पहुँचाया जाता है। इसे ही मस्तिष्क मृत्यु की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार को रोगी का मस्तिष्क मृत हो जाता है परन्तु हृदय की धड़कन मरने के कुछ घंटों बाद तक चलती रहती है। ऐसे मृतकों के अंगों का प्रत्यारोपण किया जा सकता है। परन्तु किसी व्यक्ति को इस प्रकार से मृत घोषित करने में उसके संबंधियों की अहम् भूमिका होती है। मस्तिष्क मृत्यु के निम्नलिखित लक्षण हैं-

  • मस्तिष्क ने अपरिवर्त्य रूप से कार्य करना बंद कर दिया हो।
  • मस्तिष्क क्रिया-शून्य को गया हो। पूर्णतया अचेतावस्था में हो तथा उसके उत्तेजक अक्रियाशील हों। ई.ई.जी. (Electro Encephalo Gram, EEG) जाँच में ऐसा सत्यापित किया जा सकता है।
  • मस्तिष्क की शाखाएं क्रियाशील न हों; आंख, गले की नली और श्वसन तंत्र क्रियाशील न हों तथा दाताओं की श्वसन क्रिया स्वतंत्र चलती हो।
  • मस्तिष्क की क्रियाशील न होने तथा अचेतावस्था का पूर्णतः आकलन और निर्धारण होना चाहिए। यह कैट स्कैन (CATSCAN), औषधि परीक्षण, ईई.जी. शारीरिक तापमान और एन्जियोग्राफी से संभव है।
  • मस्तिष्क, शीतलन, हाइपोथर्मिया, स्नायु-मांसपेशियों में अवरोध और झटका लगने से पुन: क्रियाशील हो सकता है। यदि यह साबित हो जाता है कि मस्तिष्क में रक्त प्रवाहित नहीं हो रहा है तो रोगी का मस्तिष्क मृत हो जाता है।

यदि रोगी की मस्तिष्क मृत्यु हो जाती है तो अंग प्रत्यारोपण विधेयक सर्वप्रथम उसके अंगों के उपयोग की अनुमति निकट संबंधी जैसे माता, पिता, भाई और बहन को देता है।


एड्स

एक्वायर्ड एम्यूनो डेफिशिएन्सी सिन्ड्रोम अथवा एड्स सबसे पहले 1981 में समलिंगी वयस्क पुरुषों में, प्रतिरक्षण क्षमता में कमी एवं उच्च मृत्यु दर के लक्षणों के साथ पहचान में आया। वास्तव में एड्स वर्तमान समाज में मानव सभ्यता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। इस बीमारी का लाइलाज होना ही इससे भयाक्रान्त होने का सबसे प्रमुख कारण है।

AIDS का प्रभाव: यह एक ऐसे विषाणु द्वारा उत्पन्न होता है जो शरीर की प्राकृतिक प्रतिरक्षण-व्यवस्था को ध्वस्त कर देता है। इसके कारण शरीर की रोगनिरोधी क्षमता क्षीण हो जाती है, जिसके कारण रोगी व्यक्ति अनेक रोगों के संक्रमण का आसानी से शिकार हो जाता है, और अंतत: मृत्यु को प्राप्त करता है।

  • AIDS मूल रूप में HIV (Human Immunodeficiency Virus) संक्रमण की अंतिम अवस्था है।

HIV क्या है?

HIV एक प्रोटीन कैप्सूल है, जिसमें RNA तथा कुछ एंजाइम पाया जाता है। इसके दो प्रकार हैं- HIV-I एवं HIV-II यह निम्न प्रकार से संक्रमित होता है-

  1. संभोग द्वारा (Sexual transmission)
  2. रुधिर आधान द्वारा (Blood transfusion)
  3. प्रभावित महिला द्वारा उसके गर्भ-शिशु में।
  • HIV वायरस की सुसुप्तावस्था कुछ दिनों से लेकर 6-10 वर्षों तक की होती है।
  • HIV से संक्रमित रोगी में क्षयरोग उत्पन्न होने की संभावना एक आम आदमी की तुलना में 30 से 50 प्रतिशत अधिक होती है।

प्रारंभिक लक्षण

एक महीने से अधिक बुखार, 10 प्रतिशत से अधिक शरीर भार में कमी, एक महिने से अधिक अतिसार (डायरिया)।

परीक्षण

  1. ELISA (Enzyme Linked Immuno Sorvent Assay)
  2. वेस्टर्न-ब्लॉट (Western BLOT) परीक्षण 

एचआईवी संक्रमण की जांच

एचआईवी संक्रमण के सामान्य लक्षण हैं: बुखार, सुस्ती, ग्रसनीशोथ, मितली, सिर दर्द आदि। लेकिन वायरस संक्रमण के लक्षण अभिव्यक्त होने की समयावधि 6 सप्ताह से 10 वर्षों तक विस्तृत है। एड्सग्रस्त व्यक्ति में ही ‘टी’ सहायक कोशिकाओं का ह्रास होने से उसका प्रतिरक्षण तंत्र दुर्बल हो जाता है। ऐसे व्यक्ति मामूली संक्रमण, अवसरवादी संक्रमण के आसान शिकार बन जाते हैं, जबकि सामान्य व्यक्ति इनकी चपेट में नहीं आते। अतएव अवसरवादी संक्रमण के प्रति संवेदनशील व्यक्ति एचआईवी सुग्राहिता दर्शाते हैं। विशेषकर यदि उनमें ‘टी’ सहायक कोशिकाओं की संख्या प्रति मि.ली. 200 से कम हो।

एचआईवी संक्रमण की शंका की जाँच एलिसा द्वारा की जाती है। सकारात्मक परिणामों की पुष्टि वेस्टर्न ब्लॉट परीक्षण से की जाती है। इस तकनीक के उपयोग से मरीज के रक्त में विषाणुओं के जीनोम की उपस्थिति की जाँच भी की जा सकती है।

वेस्टर्न ब्लॉट मापन में एचआईवी प्रोटीन की निर्मित का विद्युम-कम संचलन किया जाता है, तत्पश्चात प्रोटीन को जेल से स्थानांतरित कर नाइट्रो सेल्यूलोज की झिल्ली पर बद्ध किया जाता है। इस झिल्ली को एलिसा सकारात्मक मरीज के सीरम नमूने में उष्मायित किया जाता है तथा एक लैबेल किये गये प्रतिरोधी प्रतिरक्षियों द्वारा प्रतिजन-प्रतिरक्षी अंतक्रिया की जाँच की जाती है। जैसा कि एलिसा के मामले में किया जाता है। यह आमापन विशिष्ट एचआईवी प्रोटीन पर सूचना प्रदान करता है जिसके लिए मरीज के सीरम में प्रतिरक्षी मौजूद होता है। क्लीनिकल लक्षणों की उपस्थिति या अनुपस्थिति, दोनों ही परिस्थितियों में विषाणु संक्रमण के 2 से 12 सप्ताहों के बाद एचआईवी विरोधी प्रतिरक्षी मौजूद होता है।

भारतीय-योजना

भारत में पहली बार कुछ AIDS/HIV प्रभावित लोगों की पहचान वर्ष 1986 में की गई थी। इसके तुरंत बाद भारतीय सरकार ने इसे अत्यंत ही गंभीरता से लिया तथा इस महामारी से निपटने के अभियान की तुरंत शुरूआत की। वर्ष 1986 में ही एक उच्च स्तरीय राष्ट्रीय AIDS समिति का गठन किया गया एवं वर्ष 1987 में राष्ट्रीय AIDS नियंत्रण योजना प्रारंभ की गई।

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण योजना, प्रथम चरण

एड्स बचाव एवं नियंत्रण की यह योजना भारत की पहली योजना थी, जो 1992 से 1999 तक चलायी गई। इसके निम्न उद्देश्य थे: 1. प्रत्येक राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश को एड्स बचाव एवं नियंत्रण से संबंधित गतिविधियों को कार्यान्वित करने का निर्देश।

  1. HIV संक्रमण के माध्यम एवं बचाव के प्रति बड़े पैमाने पर जन-जागरण अभियान।
  2. वेश्यावृत्ति से जुड़े लोगों को गर्भ निरोधकों के प्रयोग के प्रति जागरूक करना।
  3. रक्त दान से प्राप्त सभी खून की जाँच।
  4. रक्त-दान के व्यवसायिक करण पर प्रतिबंध (पैसे के लिए बार-बार रक्तदान पर रोक लगाना)
  5. HIV एवं एड्स से प्रभावित लोगों तथा उनके संबंधियों को मानसिक एवं सामाजिक सहायता प्रदान करना तथा स्वास्थ्य शिक्षा एवं सलाह को दुरूस्त बनाना।
  6. HIV/AIDS विकास के विभिन्न चरणों पर सावधानी पूर्वक नजर रखना।

योजना को परिणाम

  • प्रथम-चरण की योजना के परिणाम संतोषप्रद रहे। इस योजना के बिना देश में एड्स रोगियों की संख्या एवं अन्य आंकड़ों का अध्ययन संभव नहीं था। 1998 सर्वेक्षण के अनुसार
  • गुजरात, प. बंगाल एवं नागालैण्ड में अति संवेदनशील वर्ग में HIV संक्रमण की दर 5 प्रतिशत से अधिक तथा गर्भधारित स्त्रियों में इसकी दर 1 प्रतिशत से कम थी।
  • महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं मनिपुर में यह एक महामारी बन चुकी है तथा गर्भधारित स्त्रियों में HIV संक्रमण की दर 1 प्रतिशत से अधिक है।
  • अन्य राज्यों में HIV संक्रमण का स्तर फिलहाल निम्न है। परंतु भारत में HIV/AIDS संक्रमण का भयंकर खतरा मंडरा रहा है अत: युद्ध स्तर पर इसके विरूद्ध अभियान चलाने की आवश्यकता है।

योजना का द्वितीय चरण

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण योजना का द्वितीय चरण 9 नवंबर 1999 को प्रारंभ किया गया। यह एक 100 प्रतिशत केन्द्रीय योजना है, जो तीन नगर निगमों-अहमदाबाद, चेन्नई एवं मुबई में तथा देश के कई राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चलाई जा रही है।

उद्देश्य

  1. अति संवेदनशील वर्गों में न केवल जागरूकता पैदा करना वरन् सीधे हस्तक्षेप के माध्यम से सुरक्षित यौन संबंध के लिए बाध्य करना।
  2. एड्स योजनाओं का विकेन्द्रीकरण एवं आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करना।
  3. एड्स-प्रबंधन में सुधार-राज्य स्तरीय AIDS नियंत्रण समितियों का सुदृढ़ीकरण उच्च स्तरीय दवाओं की उपलब्धता एवं परीक्षण केन्द्रों की स्थापना आदि।
  4. गैर-सरकारी संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना।

आज पूरी दुनिया में सबसे भयावह व लाइलाज बीमारी एड्स, एक महामारी का रूप लेती जा रही है। लेकिन HIV व एड्स से ग्रसित लोगों की सबसे ज्यादा संख्या निर्धनतम व विकासशील देशों में है। समाज का निम्नतर, अशिक्षित और गरीब तबका इस बीमारी से सबसे ज्यादा पीड़ित है। विश्व की कई संस्थाओं का आकलन है कि आने वाले चंद वर्षों में भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा एड्स मरीज होंगे। लेकिन भारत जैसे देश में इस बीमारी का सबसे दु:खद पहलू है एक ओर एड्स रोगी के लिए इस खौफनाक बीमारी से लगातार जूझना तथा दूसरी ओर पूरे समाज की घृणा,प्रताड़ना और विद्वेष झेलना।

राष्ट्रीय एड्स नीति

नयी एड्स नीति में सरकार ने एचआईवी संक्रमण से बचाव और उस पर काबू पाने तथा इसके सामाजिक दुष्प्रभाव को कम करने की वचनबद्धता पर जोर दिया है। इसमें एड्स से बचाव के लिए अनुकूल माहौल बनाने, रोगियों की देखभाल और उन्हें सही चिकित्सा प्रणाली, रोजगार और गोपनीयता के अधिकार सहित सभी मानवाधिकारों की रक्षा पर भी जोर दिया गया है। इसके अलावा एड्स के खिलाफ अभियान में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाने के लिए अनेक गैर-सरकारी तथा सामुदायिक संगठनों से सहयोग लेने पर भी राष्ट्रीय नीति में विशेष बल दिया गया है। इस नीति में लिंग भेद, मानवाधिकार, एचआईवी जांच, यौन संक्रमित रोगों के जरिए दवाओं के सेवन जैसी समस्याओं के समाधान पर भी जोर दिया गया है। एड्स के खिलाफ अभियान में वित्तीय, तकनीकी और प्रबन्धन के स्तर पर सहायता के लिए संयुक्त राष्ट्र और अन्य सम्बद्ध एजेंसियों की सहायता के महत्व को भी प्राथमिकता दी गयी है।


थैलेसेमिया

  • थैलेसेमिया शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द थैलेसा से हुई है, जिसका अर्थ है विशाल समुद्र। जब इस व्याधि का प्रथमतः वर्णन किया गया था, तब इससे पीड़ित रोगी समुद्र तट के समीप पाए गए थे, तब से इसका नाम थैलेसा से थैलेसेमिया में रूपांतरित हुआ। वर्तमान में इसके रोगी विश्व के अनेक देशों में पाए जाते हैं जिसमें मुख्यत: दक्षिण-पूर्व एशिया, श्रीलंका, बांग्लादेश, उत्तरी अफ्रीका, ग्रीस व इटली आदि देशों में पाए गए हैं। भारतीय जनसंख्या में थैलेसेमिया का प्रमाण 4 से 8.78 प्रतिशत है।
  • थैलेसेमिया मुख्यत: जन्म से पायी जाने वाली रक्ताल्पता है। उपापचयगत विकृति के कारण यह स्थिति निर्मित होता है, हिमोग्लोबिन मुख्यत: दो तत्वों से निर्मित होता है- ग्लोबिनहीम, पुनः ग्लोबीन की उत्पत्ति दो अल्फा चेन व दो बीटा चेन से होती है।
  • यदि अल्फा चेन के निर्माण में विकृति हो तो उसे अल्फा थैलेसेमिया कहते हैं, बीटा चेन में विकृति होने पर उसे बीटा थैलेसेमिया कहते हैं। इसके पुन: दो प्रकार होते हैं, मेजर व माइनर माइनर में माता या पिता, किसी एक के जीन में विकृति होती है, जबकि मेजर में दोनों के जीन में विकृति होती है। यह तीव्र अवस्था है।
  • बीटा थैलेसेमिया मेजर मुख्यत: पाई जाने वाली व्याधि है, जिसे कुलीस एनीमिया भी कहते हैं, यह सिंधी, गुजराती व पंजाबी समाज के व्यक्तियों में अधिक पायी जाती है। यदि माता-पिता, दोनों बीटा थैलेसेमिया के वाहक हैं तो बच्चों में इसके लक्षण निश्चित मिलते हैं। जन्म के समय शिशु प्राकृतावस्था में रहता हैं, क्योंकि बीटा चेन का निर्माण जन्म के पश्चात होता है, बच्चे में छह माह तक माता का खून होने से प्राकृत होता है। छह माह के पश्चात ही लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं।

पोलियो

पोलियो एक भयंकर विषाणु संक्रमण है जो एक RNA युक्त विषाणु के कारण होता है। यह मुख्यतः मानव आहारनाल (alimentary tract) को प्रभावित करता है, परंतु इसका विषाणु केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र को भी कभी-कभी (लगभग 1 प्रतिशत मामलों में) प्रभावित कर देता है, जिससे अंशत: या पूर्णत: लकवा (Paralysis) हो जाता है और मृत्यु तक हो जाती है।

पोलियो वायरस मुंह, फेफड़े और आंतों तक संचरण करता है। यह रीढ़ की हड्डी पर भी आक्रमण करता है, जिससे जीवनपर्यन्त विकलांगता उत्पन्न हो जाती है। इसका 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों में अधिक खतरा रहता है। विकासशील देशों में पोलियो एक भयानक संक्रामक रोग है। वर्ष 1995 में पूरक टीकाकरण गतिवधि को अपनाए जाने के बाद से पोलियोमलाइटिस के उन्मूलन में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जन्म से 5 वर्ष की उम्र तक के सभी बच्चों को छह हफ्ते के अंतराल से पोलियो के टीके की बूंदें मुँह से पिलाई जाती है। पल्स पोलियो टीकाकरण के हरेक दौर में करीब 16 करोड़ बच्चों को पोलियो के टीके की खुराक पिलायी गयी है। देश में सबसे अधिक पोलियो-ग्रस्त रोगियों की संख्या उत्तर प्रदेश में है। बिहार में इस बीमारी का प्रकोप जरी है और राजस्थान, पश्चिम बंगाल हरियाणा, गुजरात तथा दिल्ली में भी पोलियो के वायरस के पुन: सक्रिय हो जाने से स्थानीय स्तर पर पोलियो के मामले सामने आये हैं।

फैलाव के तरीके

  • मुख द्वार से या सीधा फैलाव (Oral or direct spread): यह विकासशील देशों में फैलाव का मुख्य तरीका है। संक्रमण सीधे उंगलियों से भी फैल सकता है जहाँ सफाई की कमी है तथा यह गंदे जल, दूध, भोजन, मक्खी और रोजाना इस्तेमाल की अस्वच्छ वस्तुओं से भी फैल सकता है।
  • थूक-खखार से फैलाव (Droplet Infection): यदि पोलियो अपनी अंतिम अवस्था में है तो पोलियों के विषाणु कंठ में भी पाये जाते हैं तथा रोगी के खाँसने या व्यक्तिगत संपर्क से संक्रमण हो जाता है। संक्रमण का यह माध्यम विकसित देशों के लिए शायद ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहाँ सीधे मुख-द्वार से संक्रमण नहीं होता है।

बचाव

पोलियो से बचाव का एक मात्र प्रभावी साधन है- टीकाकरण। सभी नवजात शिशुओं को 6 माह के पूर्व टीका दिलाना आवश्यक है। विश्वभर में दो प्रकार के टीकों को प्रयोग में लाया जाता है:

  1. इनएक्टीवेटेड (साल्क) पोलियो वैक्सीन (IPV)।
  2. ओरल (साबिन) पोलियो वैक्सीन (OPV)।

पल्स पोलियो टीकाकरण

भारत सरकार ने पोलियो के समूल विनाश के लिए वर्ष 1995 से युद्ध स्तर पर पल्स पोलियो टीकाकरण का प्रारंभ किया, जिसका लक्ष्य था- वर्ष 2000 तक भारत से पोलियो का उन्मूलन। भारत सरकार के सभी विभाग इस कार्यक्रम में शामिल थे। सभी जिलों में जिलाधीश ही नोडल आफिसर के रूप में कार्यरत थे। देशभर में OPV दिलाने के लिए 6.5 लाख केन्द्र खोले गए। पहले चरण में 9 दिसम्बर 1995 तथा 20 जनवरी, 1996 को पल्स पोलियो दिवस मनाया गया। इस अवसर पर 0 से 3 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों को पोलियो का OPV टीका दिया गया। दूसरे चरण में, 9 दिसम्बर 1996 को लगभग 8.7 करोड़ बच्चों ने तथा 20 जनवरी 1997 को लगभग 9.3 करोड़ बच्चों ने OPV टीका लिया।

भारत उन देशों में शामिल है जिन्होंने मई, 1998 में आयोजित विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन के उद्घोषणा मंत्र पर हस्ताक्षर किया और 2000 ई. तक पोलियो उन्मूलन का संकल्प किया। यह भारत के लगातार प्रयास एवं पल्स पोलियो अभियान का ही परिणाम है कि पोलियो रोगियों की संख्या जो 1987 में 28,264 थी 1955 में घटकर 1005 रह गई तथा वर्तमान समय में यह दो अंको में आ गई है।


कैंसर

कैंसर एक विषाणुजन्य रोग है, जिसका आरम्भिक दौर में कोई स्पष्ट लक्षण प्रकट नहीं होता, किन्तु कुछ लक्षण ऐसे हैं, जिन्हें कैंसर का संकेतक माना जाता है, जैसे जल्दी न भरे वाले घाव; असामान्य रूप से रक्त स्राव – विशेषकर स्त्रियों में मासिक धर्म के स्थायी रूप से बंद हो जाने के बाद और उल्टी में; शौच-क्रिया का असामान्य होना; निरन्तर भोजन का अनपच होना और शरीर के किसी अंग विशेष में गांठ का निर्माण – विशेषकर स्त्रियों के स्तन पर इस रोग से होने वाली मृत्यु की दर सम्पूर्ण विश्व में ऊंची है। भारत में अब तक लगभग 20 लाख ऐसे रोगियों की पहचान की जा चुकी है, जो कैंसर से पीड़ित हैं और यहां प्रतिवर्ष लगभग 7 लाख कैंसर रोगियों के मामले सामने आ रहे हैं।

  • मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में, त्वचा से लेकर अस्थि तक, यदि कोशिका वृद्धि अनियंत्रित हो तो इसके परिणाम स्वरुप कोशिकाओं में अनियमित गुच्छा बन जाता है, इन अनियमित कोशिकाओं के गुच्छे को कैंसर कहते हैं। इस प्रकार कैंसर एक तरह की असंगठित ऊतक वृद्धि की बीमारी है, जो कोशिकाओं में अनियंत्रित विभाजन तथा विकास के कारण होती है। कैंसर उन सभी कोशिकाओं में हो सकता है, जो विभाजन की क्षमता रखती हैं। कैंसर सामान्यतया यकृत एवं मस्तिष्क में नहीं होता है। कैंसर प्राय: 35 से 40 वर्ष की अवस्था तक के मनुष्यों में अधिक होता है। इसके पूर्व अवस्था में यह कम होता है।

कैंसर के जल्दी निदान कर उसके तुरंत इलाज के लिए राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के तहत लागू की जा रही योजनाएं इस प्रकार हैं – (i) क्षेत्रीय कैसर केन्द्रों का विकास, (ii) मेडिकल कॉलेजों में आंकोलॉजी शाखा का विकास, (iii) कोबाल्ट थेरेपी यूनिट की स्थापना, (iv) जिला कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम, (v) स्वास्थ्य शिक्षा और प्रारम्भिक निदान की गतिविधियाँ बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में एक परिष्कृत जिला कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया है।

कैंसर की उपचारमूलक विधियां

ये विधियां के उद्भव के आधार पर विशिष्ट होती हैं। तथापि आवश्यकतानुसार समस्त या कुछ विधियों का समन्वित उपयोग किया जा सकता है। ये विधियां निम्नलिखित हैं:

  1. शल्य चिकित्सा: शल्य चिकित्सा द्वारा ट्यूमर बोझ की कांट-छांट कैसर के उपचार का सरलतम तरीका है। यद्यपि इससे समस्त कैंसरमूलक कोशिकाओं को हटा सकना सुनिश्चित नहीं हो सकता है। तथापि ट्यूमर बोझ को घटाना लाभदायक है ताकि अन्य उपचारों का मार्ग प्रशस्त हो सके।
  2. रासायनिक उपचार: ट्यूमर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए सामान्य और विशिष्ट रासायनिक औषधियों की बड़ी मात्रा का प्रयोग किया जा सकता है। इनमें से कई औषधियों के विविध पार्श्व-प्रभाव भी होते हैं जो उपचार की मांग कर सकते हैं।
  3. प्रतिरक्षण उपचार: इसके तहत कैंसर-रोधी प्राकृतिक क्रियाविधि का संवर्धन किया जाता है। कैंसर उपचार के लिए मोनोक्लोनल प्रतिरक्षियों को कई तरीकों, जैसे रेडियो समस्थानिक उपचार से उपयोग में लाया जाता है। कैसररोधी टीका विकसित करने की दिशा में शोध किये जा रहे हैं।
  4. कीमोथैरिपी: लेजर के माध्यम से ट्यूमर को एवं उसके आसपास की त्वचा को जला के नष्ट किया जाता है।

कैंसर की पहचान तथा निदान की विधियां

यह विधि मैलीग्नेंट अर्थात् रक्तवाहिकाओं के माध्यम से अन्य स्थानों पर फैलने की कोशिश करने वाली ट्यूमर कोशिकाओं के अभिलाक्षणिक हिस्टोलोजिकल लक्षणों पर आधारित है। श्वेत रक्तकोशिकाओं तथा रक्तमज्जा विषयक असामान्यता की परख हेतु रक्त परीक्षण किया जा सकता है। वृक्क तथा अग्नाशय के कैंसर के लिए एक्स-किरण जैसे तकनीकी प्रयोग किये जा सकते हैं। कैंसर की पहचान के लिए सी.टी. स्कैन तथा एम.आर.आई. स्कैन का प्रयोग किया जाता है। अत्याधुनिक डाइग्नोसिस में जैव-आणविक स्तर का अनुवीक्षण कर कैंसर की आरम्भावस्था को भी पहचाना जा सकता है। रेडियो समस्थानिकों तथा प्रतिजन प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया की मदद से भी कैंसर की पहचान की जा सकती है।

  • भारत में जीवन प्रत्याशा में वृद्धि तथा जीवन शैली में बदलाव ने कैंसर को एक बड़ी लोक स्वास्थ्य समस्या बना दी है। हमारे देश में कैंसर के 15-20 लाख मामले हमेशा मौजूद रहते हैं तथा लगभग 7 लाख नए मामले हर साल बढ़ते जा रहे हैं। इन्हीं कारणों से 1975 में प्रारंभ किये गये राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम को 1984 में सुधारा गया और कैंसर का प्राथमिक बचाव स्वास्थ्य शिक्षा द्वारा करने का निर्णय लिया गया। इसके अंतर्गत तम्बाकू संबंधित कैंसर तथा स्तन-कैंसर की पहचान के लिए स्वयं जाँच प्रक्रिया के बारे में लोगों को बताना जैसे कार्यक्रम शामिल हैं।
  • द्वितीय स्तर पर कैंसर से निपटने के लिए कैंसर के रोग की पहचान उसक प्रथम चरण में करने के बाद शीघ्र इलाज का प्रारंभ शामिल है। मुँह, स्तन आदि कैंसर के संभावित रोगियों का गहन परीक्षण कैंसर से लड़ाई की द्वितीयक रणनीति है।
  • कैंसर के विरूद्ध लड़ाई के तृतीय-स्तर की रणनीति है- देश के वर्तमान कैंसर संस्थानों का आधुनिकीकरण तथा कैंसर उपचार की अत्याधुनिक तकनीकों का प्रयोग।

सभी क्षेत्रीय कैंसर केन्द्रों को इसके लिए सरकारी अनुदान के रूप में 75 लाख रूपये दिये जा रहे हैं, जिससे कि ये केन्द्र कैंसर बचाव के तृतीयक योजनाओं का कार्यान्वयन कर सकें तथा कैंसर के गंभीर मामलों से भी सफलतापूर्वक निपटा जा सके।

  • जिला स्तर पर कॅसर नियंत्रण कार्यक्रम- भारत के कई राज्यों यथा- उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु तथा पश्चिम बंगाल में कैंसर रोगियों की पहचान के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है, जिसे रूपांतरित जिला कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम (Modified District Cancer Control Programme) कहा जाता है।
  • इसके अंतर्गत 1200 कैंसर स्वास्थ्य कर्मियों तथा 30 पर्यवेक्षक चिकित्सकों को नियुक्त किया गया है। यह एक प्रकार का सर्वेक्षण एवं स्वास्थ्य शिक्षा अभियान है, जिसके अंतर्गत 20 से 65 वर्ष को महिला वर्ग की 12 लाख से भी अधिक महिलाओं का परीक्षण किया जायेगा। इन्हें आम शारीरिक विकारों, कैंसर बचाव के तरीकों तथा कैंसर की प्रारंभिक चरण में ही पहचान के तरीके, स्वयं परीक्षण की विधियों आदि से अवगत कराया जायेगा।
  • राष्ट्रीय कैसर जागरूकता दिवस 7 नवंबर, 2001 को मनाया गया। इस अवसर पर दिल्ली के विज्ञान भवन में कैंसर के ऊपर डाक-टिकट जारी किए गए, जिन पर मैडमक्यूरी की भी तस्वीर है। राष्ट्रीय कैंसर दिवस के ऊपर विभिन्न समाचार पत्रों में विज्ञापन भी जारी किए गये।

नाभिकीय चिकित्सा एक सफल उपचार

न्यूक्लियर मेडिसिन यानी नाभिकीय आयुर्विज्ञान में परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग का प्रमुख स्थान है। रेडियोएक्टिव नाभिकों से उत्सर्जित होने वाली अल्फा, बीटा और गामा किरणों से पिछले पांच दशकों के दौरान कुछ अबूझ समझी जाने वाली बीमारियों पर से रहस्य का आवरण हटाने में मदद मिली है और कई लाइलाज समझे जाने वाले रोगों के उपचार में सफलता मिली है। आज रेडियो समस्थानिकों का उपयोग कर मानव अपनी जटिल समस्याओं का उपयुक्त समाधान करने में सक्षम है।

न्यूक्लियर मेडिसिन का वास्तविक विकास पर सदी के सातवें दशक की शुरुआत में टैक्नेटियम रेडियोन्यूक्लाइड के उपयोग के बाद हुआ। इस समय चिकित्सा सम्बन्धी 90 प्रतिशत [अध्ययनों में (टैक्नेटियम-99 एम) एम.मेटास्टेबल] यौगिको का इस्तेमाल हो रहा। है। वास्तव में न्यूक्लियर मेडिसिन का सर्वाधिक आधारभूत सिद्धान्त ट्रेसर प्रिन्सिपल है। इस सिद्धान्त के लिए जॉर्ज हैवेसी को सन् 1944 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आयुर्विज्ञान संबंधी उपयोग में रेडियोन्यूक्लाइडों द्वारा उत्सर्जित अल्फा और बीटा नाभिकीय उत्सर्जनों का उपयोग उपचार हेतु किया जाता है, क्योंकि ये अपने आयनकारी गुणों की वजह से समीप की लक्ष्य कोशिकाओं को नष्ट करने की दृष्टि से प्रभावी पाये गये हैं। न्यूक्लियर मेडिसिन के क्षेत्र में प्रतिबिंबन की कम्यूटेड टोमोग्राफी स्कैनर से बहुत सुधार हुआ है। पॉजिट्रान इमिशन टोमोग्राफी तकनीकों का प्रोटोटाइप सर्वप्रथम सन् 1975 में औरयोगोसिअन और उनके साथियों ने यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिगंटन में तैयार किया। अब साइक्लोट्रॉन द्वारा ऑक्सीजन-15, नाइट्रोजन-13, कार्बन-11 और फ्लोरीन-18 और जेनरेटर द्वारा रुबिडियम-82, कॉपर-62 और गैलियम-68, जैसे- पॉजिट्रोन उत्सर्जक रेडियोन्यूक्लाइड उपलब्ध हैं, जिनके उपयोग से प्रमस्तिष्कीय ऑक्सीजन उपभोग और चयोपचय, प्रमस्तिष्कीय रक्त आयतन, मायोकार्डियल रक्त आयतन, प्रमस्तिष्कीय ग्लूकोज चयोपचय, ट्यूमर की स्थिति और प्लाज्मा आयतन संबंधी सभी प्रक्रमों और तथ्यों की जानकारी संभव है। अंगों की कार्यप्रणाली में हुए बदलावों की जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से रेडियो भेषजों का उपयोग अत्यधिक लाभदायक है। रेडियो प्रतिबिंबन का उपयोग अस्थि घनत्व, हृदयवाहिका तंत्र, फेफड़ों की कार्यप्रणाली, जठर-आंत्र प्रणाली, तिल्ली, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र, मूत्र पथ, थायरॉइड ग्रंथि, पैराथायरॉइड ग्रंथि और अधिवृक्क ग्रंथियों से संबंधित रोगों के निदान के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है। मिर्गी, पार्किंसन  रोग और माइग्रेन जैसी केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से संबंधित बीमारियों के दौरान मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में होने वाले बदलावों को समझने में पॉजिट्रान इमिशन टोमोग्राफी स्कैनिंग महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कोबाल्ट-60, इरीडियम-192 और गोल्ड-199 विकिरण स्रोतों ने विभिन्न कैंसरों के उपचार में महत्वपूर्ण सफलता दिलायी है।

भारत नाभिकीय चिकित्सा प्रौद्योगिकी में विश्व के विकसित देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर जल रहा है। इस समय भारत में साठ केन्द्रों के पास गामा कैमरे हैं, जो भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र द्वारा तैयार टैक्नेरियम जनित्र की सहायता से प्रतिबिम्बन करते हैं। भारत रेडियो समस्थानिकों के शांतिपूर्ण उपयोग में किसी से पीछे नहीं है।

  • मधुमेह: ऐसी अवस्था, जिसमें अग्नाशय की कोशिकांए इन्सुलिन हार्मोन बनाना बन्द कर देती है, जिससे शर्करा का उपापचय नहीं हो पाता मधुमेह कहलाता है।
  • इससे पेशाब एवं रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है रोगी को पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा नहीं मिल पाती है। जिससे वह कमजोर हो जाता है। रोगी को प्यास बहुत लगती है और बार-बार पेशाब आता है।
  • रोगी को शक्कर और शक्कर से बनी वस्तुएं नहीं लेनी चाहिए। यह दो प्रकार का होता है –

टाइप 1: यह बच्चों में अधिक पाया जाता है। पैंक्रियाज इन्सूलिन बिल्कुल नहीं बना पाते। रोगी को जीवित रहने हेतु इन्सुलिन के टीके लेने पड़ते हैं।

टाइप 2: यह अधिकतर 40 वर्ष की उम्र के बाद होता है। यह मोटे लोगों या जिनके मां-बाप डायबिटिक होते हैं उनकों होता है। इस रोग में पैक्रियाज कम मात्रा में इन्सुलिन बनाते हैं या ठीक समय पर नहीं बनाते हैं। भारत में करीब 90–95प्रतिशत रोगी टाइप-2 प्रकार के ही है।

  • हाइपरग्लाइसीमिया: इन्सुलिन की खुराक निश्चित मात्रा से अधिक होने की स्थिति जिसमें रोगी मूर्छित हो जाता है।
  • हाइपोग्लाइसीमिया: कम सुगर होने की स्थिति, इसमें रोगी को बेचैनी सिर, दर्द, तेज धड़कन, मतली, उल्टी या पेट दर्द की परेशानी होती है। यदि रक्त मे शर्करा 130 मिलिगाम/डेकालीटर तथा खाना खाने के बाद 200 मिलिग्राम/डेकालीटर से अधिक हो तो व्यक्ति मधुमेह से पीड़ित होता है।

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