मंत्रिपरिषद Council of Ministers

यद्यपि सैद्धांतिक रूप से संविधान द्वारा प्रदान की गई समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है तथापि यथार्थ में कार्यपालिका की समस्त सत्ता मंत्रिपरिषद में निहित होती है। वास्तव में शासन की सभी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद ही करती है।

संविधान के अनुच्छेद-74 में यह उल्लिखित है कि राष्ट्रपति को उसकी शक्तियों को प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति इसकी सलाह के अनुसार कार्य करेगा। लेकिन राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर पुनर्विचार करने की अपेक्षा कर सकता है। राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।

संघीय स्तर पर संवैधानिक तंत्र के अवरुद्ध हो जाने तथा राष्ट्रपति के सीधे शासन के परिप्रेक्ष्य में कोई उपबंध नहीं है, जैसा कि राज्यों के लिए अनुच्छेद-356 में उल्लिखित है।

विशेषतया 42वें एवं 44वें संवैधानिक संशोधनों के बाद राष्ट्रपति के लिए यह बाध्यकारी हो गया है कि वह मंत्रिपरिषद के परामर्श को स्वीकार करे। लेकिन राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह की स्वीकृति कोई स्वतः यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह उस पर विचार करते समय अपनी बुद्धि का प्रयोग करे। 44वां संशोधन राष्ट्रपति को इस बात का अवसर प्रदान करता है कि वह मंत्रिपरिषद को सलाह एवं चेतावनी दे और किसी मामले पर पुनर्विचार किए जाने का आग्रह करे और उसके उपरांत ही प्रस्तावित कार्यविधि को स्वीकार करे और उस पर अपने अनुमोदन की मोहर लगाए।

मंत्रिपरिषद का निर्माण

अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री का चयन राष्ट्रपति करता है और अन्य मंत्री प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। मंत्री अपने पद और गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति के समक्ष लेते हैं। कोई मंत्री, जो निरंतर 6 मास की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं रहता है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री पद धारण नहीं कर सकता।

संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम, 2003 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि संसद के किसी भी सदन के उस सदस्य को, जिसे दसवीं अनुसूची के अंतर्गत सदस्यता के अयोग्य सिद्ध कर दिया गया है, मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य माना जाएगा तथा उसे मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार यह सदस्य सदन की अवधि की समाप्ति तक या जब तक वह पुनर्निर्वाचित न हो, इनमें से जो भी पहले हो, मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकता है।


राष्ट्रपति अनिवार्यतः बहुमत दल के नेता को ही प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करता है। कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की नियुक्ति में स्वविवेक से कार्य करने का अवसर मिल सकता है-

  1. उस समय जब लोकसभा में किसी भी दल का बहुमत अस्पष्ट हो।
  2. उस समय जब बहुमत वाले दल में कोई निश्चित नेता नहीं रहे या प्रधानमंत्री पद के दो प्रभावशाली दावेदार हों।
  3. राष्ट्रीय संकट के समय राष्ट्रपति, लोकसभा को भंग करके कुछ समय के लिए स्वेच्छा से कामचलाऊ सरकार का नेता मनोनीत कर सकता है।

मंत्रिपरिषद की संरचना

संविधान केवल मंत्रियों का उल्लेख करता है। वह मंत्रिमंडल के मंत्रियों, उप-मंत्रियों आदि के रूप में मंत्रियों के किसी वर्गीकरण या श्रेणीक्रम का उल्लेख नहीं करता। लेकिन मंत्रिपरिषद का उल्लेख करता है। मंत्रिमंडल का गठन कैबिनेट स्तर के मंत्रियों से होता है। कैबिनेट मंत्रियों के कार्यों में सहायता देने के लिएजब राज्य मंत्रियों और उपमंत्रियों को नियुक्त किया जाता है तो इन समस्त मंत्रियों के समूह को मंत्रिपरिषद कहा जाता है। मंत्रिपरिषद तीन स्तरीय होता है-

  1. कैबिनेट स्तर का मंत्री,
  2. राज्य स्तर का मंत्री, तथा;
  3. उपमंत्री।

वर्ष 2008 तक संविधान में यह नहीं लिखा था कि मंत्रिपरिषद में कितने मंत्री होंगे प्रधानमंत्री उतने मंत्री नियुक्त कर सकता था जितने वह ठीक समझे। 2008 में पारित संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम से स्थिति बदल गई है। अब इस अधिनियम के अनुसार प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोक सभा की सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।

मंत्रियों की विभिन्न श्रेणियां: मंत्रिपरिषद के सभी मंत्री एक ही पंक्ति या श्रेणी के नहीं होते। संविधान में मंत्रियों का विभिन्न पंक्तियों में वर्गीकरण नहीं किया गया है किंतु व्यवहार में चार श्रेणियां स्वीकार की जाती हैं।

कैबिनेट मंत्री: ऐसे मंत्री को मंत्रिमंडल की प्रत्येक बैठक में उपस्थित होने और भाग लेने का अधिकार है। अनुच्छेद 352 के अधीन आपात की उदघोषण के लिए सलाह प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री मिलकर देंगे। उल्लेखनीय है कि मूल संविधान में कैबिनेट शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था लेकिन 44वें संविधान संशोधन (1978) के द्वारा कैबिनेट शब्द को अनुच्छेद 352 में स्थान प्रदान किया गया।

स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री: यह किसी कैबिनेट मंत्री के अधीन काम नहीं करता। जब उसके विभाग से संबंधित कोई विषय मंत्रिमंडल की कार्यसूची में होता है तो उसे बैठक में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित किया जाता है।

राज्य मंत्री: इसके पास किसी विभाग का स्वतंत्र प्रभार नहीं होता और वह कैबिनेट मंत्री के अधीन कार्य करता है। ऐसे मंत्री को उसका कैबिनेट मंत्री कार्य आवंटित करता है।

उप-मंत्री: ऐसे मंत्री कैबिनेट मंत्री या स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री के अधीन कार्य करता है।

प्राधानमंत्री कैबिनेट मंत्रियों और स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्रियों के विभाग का आवंटन करता है। अन्य मंत्रियों के कार्य का आवंटन उनके कैबिनेट मंत्री करते हैं। मंत्री लोक सभा या राज्य सभा से चुने जा सकते हैं। जो मंत्री एक सदन का सदस्य है वह दूसरे सदन में बोल सकता है और उसकी कार्यवाहियों में भाग ले सकता है। किंतु मंत्री मतदान उसी सदन में कर सकता है जिसका वह सदस्य है।

मंत्रियों का कार्यकाल

संविधान के अनुच्छेद 75(2) के अनुसार भी मंत्री राष्ट्रपति की इच्छापर्यंत अपने पद पर आसीन रहेंगे। किंतु व्यावहारिक दृष्टिकोण से राष्ट्रपति की इच्छा का अभिप्राय प्रधानमंत्री की इच्छा है। संसदीय शासन प्राप्त है तब तक वह अपने पद पर कायम रह सकता है। यदि कोई मंत्री अयोग्य सिद्ध हो अथवा वह प्रधानमंत्री की नीतियों से सहमत न हो तो प्रधानमंत्री उस मंत्री को त्यागपत्र देने पर विवश कर सकता है और यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है तो प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति उसे बर्खास्त कर सकता है।

उत्तरदायित्व

सामूहिक उत्तरदायित्व: अनुच्छेद 75(3) के अनुसार, मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। मंत्रिमंडल की यह संवैधानिक बाध्यता है कि विधानमंडल के निर्वाचित सदन का विश्वास खोते ही शीघ्र पदत्याग कर दे। यह सामूहिक उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति है चाहे मंत्री राज्यसभा के भी हों। यदि किसी मंत्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो संपूर्ण मंत्रिमंडल के लिए पदत्याग करना आवश्यक हो जाता है अथवा पदत्याग न करके मंत्रिमंडलराष्ट्रपति की विधानमंडल को भंग करने का परामर्श देता है, क्योंकि सदन निर्वाचन मंडल के मत का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता है।

राष्ट्रपति के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व: राज्य के प्रधान के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का सिद्धांत अनुच्छेद 75(2) में समाविष्ट है- मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहेंगे। यद्यपि सामूहिक रूप से मंत्रीगण विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं, किंतु वे व्यक्तिगत रूप से कार्यपालिका के प्रधान के प्रति उत्तरदायी होंगे और विधान मंडल का विश्वास प्राप्त होने पर भी उन्हें पदच्युत किया जा सकेगा।

व्यावहारिक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत रूप में मंत्रियों को पदच्युत करने के लिए प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति की सलाह देता है। इसलिए राष्ट्रपति की यह शक्ति वास्तव में प्रधानमंत्री की अपने सहकर्मियों के संदर्भ में प्राप्त अप्रत्यक्ष शक्ति है, जैसा कि इंग्लैंड में है।

मंत्रियों का विधिक उत्तरदायित्व: भारतीय संविधान द्वारा विधिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत, जैसा कि इंग्लैंड में है, अंगीकार नहीं किया गया है। इंग्लैंड में सम्राट बिना किसी मंत्री के हस्ताक्षर के कोई संकल्पना और उसका विकास प्रतिनिधानात्मक लोकतंत्र के सर्वोच्च सिद्धांतों के आधार पर किया गया है, जो कि लोकसभा में जनता के सीधे निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति सरकार का दायित्व है। वस्तुतः भारत में राज्य के उन कार्यों के लिए मंत्रियों का कोई क़ानूनी उत्तरदायित्व नहीं होता जो राष्ट्रपति के नाम से किए जाते हैं। उनके बारे में प्रामाणीकरण के रूप में प्रति-हस्ताक्षर की अपेक्षा मंत्री से नहीं की जाती बल्कि उसकी अपेक्षा सरकार के किसी सचिव से की जाती है।

संविधान में यह उपबंध भी है कि कार्यपालिका के प्रधानको मंत्रियों ने क्या परामर्श दिया था, इसके विषय में न्यायालय कोई जांच नहीं कर सकेंगे। यदि राष्ट्रपति का कोई कार्य, उसके द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार भारत सरकार के किसी सचिव द्वारा अधिप्रमाणित किया जाता है तो उस कार्य के लिए कोई मंत्री उत्तरदायी नहीं हो सकता।

मंत्रिमंडल के कार्य एवं शक्तियां

मंत्रिमंडल का गठन प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। परंतु व्यावहारिक रूप में कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति मंत्रिमंडल में निहित होती है, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है। भारत में मंत्रिमंडल के प्रमुख कार्य अग्रलिखित हैं:

राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण: मंत्रिमंडल का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करना है। मंत्रिमंडल के द्वारा यह निश्चय किया जाता है कि आंतरिक क्षेत्र में प्रशासन के विभिन्न विभागों के द्वारा और वैदेशिक क्षेत्र में दूसरे देशों के साथ संबंधों के विषय में किस प्रकार की नीति अपनाई जाएगी। मंत्रिमंडल के द्वारा नीति निर्धारित करने के बाद संबद्ध विभागों के द्वारा इस नीति के आधार पर विभिन्न विधेयक संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं। कानून निर्माण का कार्य मंत्रिमंडल की इच्छा पर ही निर्भर करता है। मंत्रिमंडल युद्ध और शांति दोनों ही स्थितियों में निर्णय लेता है। राष्ट्रपति के अभिभाषणों को भी मंत्रिमंडल ही तैयार करता है।

विधि-निर्माण में संसद का नेतृत्व करना: मंत्रिमंडल संसद का नेतृत्व करता है। दोनों सदनों के अध्यक्ष मंत्रिमंडल के परामर्श से ही सदन की कार्य सूची तय करते हैं और यह निश्चित करते हैं कि प्रत्येक विषय की कितना समय प्रदान किया जाएगा। संसद में अधिकांश विधेयक मंत्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किए जाते हैं। व्यवहारतः, राष्ट्रपति के अधिकारों का प्रयोग मंत्रिमंडल ही करता है। अध्यादेश जारी करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग मंत्रिमंडल ही करता है। मंत्रिमंडल के सदस्य विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते हैं। वे अपने विभागों का संचालन और उनके कार्यों की देखभाल करते हैं।

लोकसभा के विघटन की शक्ति: कानूनी तौर पर लोकसभा को भंग करने का अधिकार राष्ट्रपति को है, परंतु राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिमंडल की सलाह पर ही करता है। इस प्रकार मंत्रिमंडल के पास ऐसी शक्ति है जिससे लोकसभा पर अंकुश रखा जा सदन अपनी अवधि से पहले ही भंग हो जाए।

वित्तीय कार्य: देश की आर्थिक नीति निर्धारित करने का उत्तरदायित्व भी मंत्रिमंडल का ही होता है। बजट का निर्माण, नये कर लगाना तथा पुराने करों की दरों में हेरफेर करना, आदि मंत्रिमंडल के प्रमुख कार्यों में सम्मिलित हैं। मंत्रिमंडल की सहमति के पश्चात् ही वित्त मंत्री बजट लोकसभा में प्रस्तुत करता है। अन्य वित्त विधेयकों को भी मंत्रिमंडल ही लोकसभा में प्रस्तुत करता है।

वैदेशिक संबंधों पर नियंत्रण: वैदेशिक मामलों में मंत्रिमंडल का पूर्ण नियंत्रण होता है। विदेशी राज्यों के अध्यक्षों या सरकारों के साथ सभी वार्ताओं का संचालन प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री के किसी अन्य प्रतिनिधि द्वारा किया जाता है। जब वार्ताओं के परिणामस्वरूप कोई संधि या समझौता हो जाता है तो संसद को उनके संबंध में सूचना दे दी जाती है और यदि आवश्यकता हुई तो संसद से उसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली जाती है। वैदेशिक संबंधों के संचालन में संसद की भूमिका बहुत गौण होती है। कई बार सरकार विदेशों के साथ गुप्त संधियां एवं समझौते करती है और संसद को इस संबंध में सूचना नहीं दी जाती है। वैदेशिक संबंधों के संचालन में गोपनीयता की आवश्यकता होती है और इसी कारण यह कार्य मंत्रिमंडल के द्वारा ही किया जाता है, संसद के द्वारा नहीं।

नियुक्ति संबंधी कार्य: संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को जिन पदाधिकारियों को नियुक्त करने की शक्ति प्रदान की गई है, व्यवहारिक रूप में इनकी नियुक्ति मंत्रिमंडल के द्वारा ही की जाती है। मंत्रिमंडल के परामर्श से ही संसद के दोनों सदनों के मनोनीत सदस्य नियुक्त किए जाते हैं। राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, महाधिवक्ता, महालेखा परीक्षक और सेना के प्रमुखों की नियुक्ति मंत्रिमंडल के परामर्श से ही की जाती है।

गठबंधन सरकार

भारतीय लोकतंत्र आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। तकरीबन विगत दो दशकों से लगभग हर आम चुनावों के बाद त्रिशंकु लोकसभा या त्रिशंकु विधानसभा का निर्माण हो रहा है। किसी भी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में गठबंधन सरकार की ही स्थापना हो रही है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि गठबंधन सरकार की विशेषताओं और त्रुटियों को उसकी सफलता और असफलता की संभावनाओं, उसके स्वरूप और उसके कारक तत्वों पर चर्चा की जाए।

राजनीति शास्त्र में गठबंधन पद को रोजर स्क्रटन (Roger scruton) ने ए डिक्शनरी ऑफ पॉलिटिकल थॉट में परिभाषित किया है। उनके अनुसार, विभिन्न दलों या राजनीतिक पहचान रखने वाले प्रमुख व्यक्तियों का आपसी समझौता गठबंधन कहलाता है।

गठबंधन सरकार की उत्पति विश्व-स्तर पर व्यापक रूप में हुई है। हां, उसकी प्रकृति, उसके कारक तत्व, उसकी स्थिरता हर देश की राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर है। गठबंधन सरकार की उत्पत्ति के कारक हर देश में छोटे और बड़े स्तर पर लगभग समान ही हैं। जब किसी देश में जनता को ऐसा लगता है कि बहुमत आधारित शासन प्रणाली उनके लिए अच्छी नहीं है या एक ही राजनीतिक दल उनके हित के लिए कार्य नहीं कर रहा है- उत्तरदायित्व का निर्वाह ठीक ढंग से नहीं कर रहा है, तब वह विकल्प को तलाशने लगती है। राजनीतिक दल बहुमत में आने के बाद सरकार का गठन करते हैं और सत्ता में आने के बाद जनता को भूलकर चैन की नींद सोने लगते हैं। उन्हें यह सुध भी नहीं रहती है कि चुनाव के दौरान हमने जनता से कुछ वादा भी किया था-हमने उनके सामने विकास के लिए कार्यक्रम निर्धारित किए थे। राजनीतिक दलों की इस निष्क्रियता से मतदाता क्षुब्ध हो जाते हैं और उनका किसी एक राजनीतिक दल में विश्वास नहीं रह जाता। परिणाम यह होता है कि किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिल पाता है। मतदाता जब विकल्प की तलाश करते हैं, तब गठबंधन की प्रक्रिया शुरू होती है।

गठबंधन प्रक्रिया की उत्पत्ति में समाज का मूलभूत परिवर्तन भी प्रमुख कारक है। जब कोई समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा होता है, तब वह ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देता है कि गठबंधन अनिवार्य बन जाता है।

गठबंधन सरकार विभिन्न राजनीतिक दलों के परस्पर सहयोग से बनती है। इसमें विभिन्न मतों और नीतियों का मानने वाली पार्टियाँ सम्मिलित होती हैं। जब गठबंधन सरकार की नीतियों का निर्धारण किया जाता है, तब उसमें सम्मिलित सभी राजनीतिक दलों द्वारा विचार-विमर्श किया जाता है, सभी के विचारों का मिश्रण ही नीति का रूप लेती है। इसमें देश की अधिकांश जनता का प्रतिनिधित्व होता है। यदि किसी एक राजनीतिक दल द्वारा बहुमत प्राप्त कर सरकार गठित की जाती है, तब वह देश के किसी खास समूह का ही प्रतिनिधित्व कर रही होती है, परन्तु जब गठबंधन सरकार की स्थापना होती है, तब वह देश के मतदाताओं के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उसमें सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से विभाजित वर्गों के अधिकांश का प्रतिनिधित्व होता है।

गठबंधन सरकार साझा कार्यक्रम बनाती है और उसका सामूहिक उत्तरदायित्व होता है। इस सरकार द्वारा लिए गए निर्णय उसके विभिन्न घटक राजनीतिक दलों के निर्णय माने जाते हैं, इसलिए कोई भी कार्य करने से पूर्व सभी राजनीतिक दल विचार-विमर्श करते हैं। इससे देश की जनता के हित में अधिकाधिक निर्णय लिए जाते हैं।

गठबंधन सरकार का स्थायित्व हमेशा संदेहास्पद होता है, क्योंकि इसमें विभिन्न मतों को अपनाने वाले राजनीतिक दल निहित स्वार्थवश सम्मिलित होते हैं। राजनीतिक दल सरकार की स्थापना के लिए गठबंधन प्रायः निर्वाचन के बाद ही करते हैं। किसी भी दो दल का राजनीतिक मुद्दा निर्वाचन के दौरान एक समान नहीं होता। वे गठबंधन तो मंत्रिमण्डल के गठन के लिए करते हैं। गठबंधन के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों में नेता पद और मंत्रीपद के लिए तनाव उत्पन्न हो सकता है। सरकार के गठन के बाद गठबंधन में शामिल सभी राजनीतिक दल अपनी नीतियों को प्रभावी बनाने का प्रयास करेंगे और अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहेंगे। ऐसे में जो राजनीतिक दल शक्तिशाली होगा, वह सरकार पर हावी हो जाएगा और अन्य दलों में वैमनस्यता की भावना आ जाएगी। ऐसे में संभव है कि क्षुब्ध राजनीतिक दल गठबंधन से अपना समर्थन वापस ले लें और सरकार गिर जाए।

साझा सरकारों में प्रशासन की समस्याएं: साझा सरकारों के कार्यकाल में प्रशासनिक तंत्र के सम्मुख उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्याएं इस प्रकार हैं-

  • सामान्य रूप से साझा सरकारों के निर्माण के समय सभी दल एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमति प्रकट करते हैं। इस साझा न्यूनतम कार्यक्रम के अनुरूप ही वह सरकार संचालित होती है। स्पष्ट है ऐसे में प्रमुख राजनीतिक दल की अपनी विचारधारा एवं चुनाव घोषणा पत्र तक को तिलांजलि देनी पड़ जाती है। प्रशासनिक तंत्र के लिए भी साझा न्यूनतम कार्यक्रम एक नीतिगत दस्तावेज बन जाता है। यह कार्यक्रम सुविचारित नीति नहीं अपितु मजबूरी में लिखा गया विशुद्ध राजनीतिक दस्तावेज होता है। ऐसे दस्तावेज को क्रियान्वित करते समय नौकरशाही इसमें निहित भावना को भली-भांति पढ़ लेती है तथा समूचे तंत्र की कार्यशैली प्रभावित होती है।
  • साझा सरकारों के समय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का वर्चस्व स्थापित होता है। ये दल क्षेत्र, नस्ल, भाषा, धर्म या अन्य आधारों पर आगे बढ़ने वाले दल होते हैं। ऐसे में ये दल अपने अनुरूप सरकार की नीतियां निरूपित कराना चाहते हैं। अतः क्षेत्रवाद, आरक्षण, भाषावाद, नृजातीयता तथा संकीर्ण मुद्दों को अहमियत मिलने लगती है। इन सभी समस्याओं का प्रतिबिम्ब प्रशासनिक तंत्र में भी दिखने लग जाता है अतः प्रशासनिक संस्कृति विकृत होती है।
  • गठबंधन सरकारों के समय भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लग पाता है, क्योंकि बेहद सारे दलों को साथ बनाए रखने के लिए बहुत से पद, सम्मान तथा प्रशासनिक संस्थाएं गठित करनी पड़ती हैं। लाभ के पद की यह प्रणाली भ्रष्टाचार के नए मार्ग खोलती है। मनोवांछित सचिवों की नियुक्ति तथा भारी मात्रा में स्थानांतरण अराजकता को जन्म देते हैं। मंत्रियों का समूह जैसी परम्पराएं साझा सरकारों का ही परिणाम हैं। साझा सरकारें प्रशासनिक तंत्र का व्यय अधिक बढ़ाती हैं।
  • संयुक्त सरकारों के कारण प्रशासनिक सुधारों की प्रक्रिया को ठेस पहुंचती है क्योंकि प्रशासनिक सुधार प्रक्रिया राजनीतिक प्रतिबद्धता तथा साफ मन से सद्प्रयासों की मांग करती है जबकि साझा सरकार के दौर में प्रशासनिक सुधार, शासन की प्राथमिकता सूची में स्थान नहीं बना पाते हैं। भारत में विगत् दो दशकों से जो भी प्रयास हो रहे हैं केवल वैश्विक प्रवृत्तियों का परिणाम हैं। जब प्रशासनिक विकास नहीं हो पाता है तो स्वाभाविक है कि विकास प्रशासन भी अपने लक्ष्य पूरे नहीं कर पाता है।
  • यद्यपि साझा सरकारों की तुलनात्मक रूप से अधिक लोकतांत्रिक, संतुलित, सहमति पर आधारित एवं प्रशासनिक नियंत्रण के लिए अच्छा अवसर बताया जाता है किंतु लोकनीति की दृष्टि से ऐसी सरकारें निष्फल मानी जाती हैं क्योंकि नीति-निर्माण की प्रक्रिया में जो आगत तथा चिन्तन चाहिए वह अधिक दलों के माध्यम से संभव नहीं हो पाता है।
  • यह भी मानना है कि संयुक्त सरकारें सुशासन को प्रोत्साहित करती हैं लेकिन यह शत-प्रतिशत यथार्थपरक नहीं है क्योंकि पारदर्शिता, जवाबदेयता एवं संवेदनशीलता के बिना सुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती है।
  • अधिकांशतः गठबंधन सरकारें तात्कालिक आवश्यकताओं तथा समझौते के अनुरूप संचालित होती हैं तथा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री गठबंधन में सम्मिलित दलों की जायज-नाजायज मांगों को पूरा करने में विवशता अनुभव करते हैं। महत्वाकांक्षी, महत्वपूर्ण एवं दूरगामी प्रकृति की योजनाएं इससे प्रभावित होती हैं।
  • संयुक्त सरकारों की उत्पत्ति एवं निरंतर बनी रहने वाली कमी सरकार की अस्थिरता से संबंधित हैं। सामूहिक सौदेबाजी पर गठित एवं निर्भर सरकारें प्रशासनिक तंत्र को सार्थक संदेश नहीं दे सकती हैं।

साझा सरकारों की यह विवशता भारत में ही नहीं अपितु इटली, जर्मनी, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, तुर्की, स्विट्ज़रलैंड, इजरायलं ब्राजील, उक्रेन, ताइवान, न्यूजीलैण्ड तथा लगभग सम्पूर्ण मध्य एवं पूर्वी एशियाई देशों, यथा-एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैण्ड, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, मालदोवा, अल्बानिया, मेसिडोनिया इत्यादि में भी विद्यमान है।

गठबंधन के संदर्भ में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचारणीय तथ्य है कि यह सफल कैसे होगा? गठबंधन की सफलता के लिए अनेक शर्ते हैं, जिनमें से पहली है कि, गठबंधन चुनाव के पूर्व हो और गठबंधन में शामिल होने वाले सभी राजनितिक दल संयुक्त नीति और संयुक्त कार्यक्रम की घोषणा करें तथा उन नीतियों और कार्यक्रमों की सफलता तथा असफलता का सामूहिक उत्तरदायित्व लें। दूसरी यह कि, गठबंधन में किसी एक दल की तानाशाही न हो, उसके सभी निर्णय सभी दलों द्वारा सम्मिलित रूप से लिए वैचारिक सामंजस्य के आधार पर किया जाना चाहिए। सभी दलों में सहयोग और सह-अस्तित्व की भावना होनी चाहिए। तीसरी यह कि, गठबंधन के नेता की प्रत्येक संघटक दल के साथ तालमेल रखना चाहिए-उनमें सहयोग की भावना को बढ़ाना चाहिए तथा नियंत्रण रखना चाहिए। उसे हमेशा गठबंधन की एकता और अखंडता को बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए। जब लोकतंत्र संक्रमण के दौर से गुजर रहा हो, तो उसे संक्रमण से बचाने के लिए गठबंधन एक उपयोगी इलाज साबित हो सकती है, यदि यह गठबंधन देश के विकास और सांविधानिक भावनाओं के अनुरूप कार्य करे।

भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता सम्पन्न देश में व्यक्तिगत प्रभुत्व को कायम रखना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। गठबंधन की भावना एक लम्बा सफर तय करने के बाद आती है। भारत के संदर्भ में गठबंधन कोई नाइ विचारधारा नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गठबंधन के आधार पर ही कार्य करती थी। यह विभिन्न विचारधाराओं और नीतियों को पलने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं की एक सामूहिक संस्था थी। यहां यह ध्यातव्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व कांग्रेस राजनीतिक पार्टी नहीं थी। कांग्रेस कोई भी कार्य विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले व्यक्तियों या संस्थाओं से विचार-विमर्श करके ही करती थी। कांग्रेस में समाजवादी, साम्यवादी, पूंजीवादी आदि सभी राजनीतिक विचारधाराओं को मानने वाले लोग कार्यरत थे। आजादी मिलने के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जिस कैबिनेट का गठन किया गया था, उसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी, के.सी. नियोगी और भीम राव अंबेडकर जैसे गैर-कांग्रेसी नेताओं की भी शामिल किया गया था। परन्तु उसे गठबंधन सरकार की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

भारत में गठबंधन सरकार की स्थापना की प्रक्रिया राज्य स्तर पर शुरू हुई, जब 1953 में आंध्र प्रदेश में संयुक्त मंत्रिमण्डल की स्थापना की गई किन्तु, यह मंत्रिमण्डल 13 महीने के छोटे-से कार्यकाल में ही विघटित हो गया। 1957 में उड़ीसा में गठबंधन सरकार की स्थापना हुई, परन्तु 1961 में इसका भी विघटन हो गया। पश्चिम बंगाल में 1967 में पहली बार गठबंधन सरकार की स्थापना की गई, परन्तु बहुत कम समय में ही विघटित हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। भारत में के कई राज्यों में गठबंधन सरकार स्थापित हुई हैं, यथा- पंजाब में अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार। 21 मार्च, 1997 को गठित भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की उत्तर प्रदेश गठबंधन सरकार ने गठबंधन के क्षेत्र में एक नवीन प्रयोग किया था, जिसके तहत गठबंधन का नेता 6-6 महीने पर परिवर्तित होना निश्चित किया गया (6 महीने के लिए बहुजन समाज पार्टी की तथा 6 महीने के लिए भारतीय जनता पार्टी को नेतृत्व का अवसर मिलेगा), परन्तु यह प्रयोग असफल रहा।

केंद्र में गठबंधन सरकार की स्थापना की प्रक्रिया बहुत बाद में शुरू हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर लगभग तीन दशकों तक (30 वर्ष) एक छत्र राज किया, क्योंकि भारतीय जनता का विश्वास उसे स्वतंत्रता-आंदोलन से विरासत में मिला। 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध तक भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में कोई भी राजनीतिक दल राष्ट्रीय-स्तर पर नहीं उभरा था। 1970 के उत्तरार्द्ध के बाद के दशक में भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए और भारतीय जनता ने कांग्रेस का विकल्प ढूंढ़ना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप, 1977 में पहली बार सत्ता परिवर्तन हुआ। 1977 के आम चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली गठबंधन सरकार की स्थापना हुई। इस समय गठबंधन सरकार की स्थापना के लिए किसी भी दो राजनीतिक दलों में नीतिगत मतैक्य नहीं था, लेकिन वे इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल (Emergency Rule) लागू किए जाने के विरोध में एकजुट हुए थे। दूसरी बार गठबंधन सरकार की स्थापना संयुक्त मोर्चा के नेतृत्व में 1989 में हुई। संयुक्त मोर्चा में निर्वाचन से पूर्व ही जनता दल और कम्युनिस्ट पार्टी तथा कई अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन किया था। दोनों ही बार सरकार समय से पूर्व ही गिर गई, क्योंकि गठबंधन के घटक दलों में सहयोग और सह-अस्तित्व की भावना का बिल्कुल अभाव था। घटक दलों के नेता मंत्रिमण्डल के नेता-पद की पाने की लालसा त्याग नहीं पाए। भारत के दो ऐसे राज्य हैं, जहां गठबंधन सरकार की व्यापक सफलता मिली है और वे हैं- केरल और पश्चिम बंगाल। इस सफलता का सबसे बड़ा कारण है- इन राज्यों में साम्यवादी दलों का वर्चस्व। साम्यवादियों के विभिन्न घटकों- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी आदि का आधारभूत सिद्धांत एक ही है। वे समानता पर आधारित समाज की स्थापना के प्रमुख मुद्दे को ही अपनाए हुए हैं। पश्चिम बंगाल में गठबंधन का नेतृत्व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी करती है, तो केरल में कांग्रेस और साम्यवादी में से कोई एक। इन, राज्यों में गठबंधन की एक विशेषता यह भी है कि ये निर्वाचन से पूर्व ही किए जाते हैं और गठबंधन में सम्मिलित विभिन्न घटक दलों द्वारा निर्वाचन के पूर्व ही संयुक्त नीति और संयुक्त कार्यक्रम निर्धारित किए जाते हैं।

भारत में लम्बे समय तक बहुमत प्राप्त दलों द्वारा विकास की दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं किया गया है और इनके शासनकाल में भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। साथ ही ये सरकारें गरीब एवं कमजोर वर्गों के उत्थान में भी असफल रही हैं। इन स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गठबंधन सरकार के लिए मतदाताओं ने अपना मत दिया। परन्तु, केंद्र और राज्य-स्तर पर गठबंधन सरकार की अस्थिरता ने मतदाताओं को बहुमत की ओर ध्यान केंद्रित करने पर मजबूर कर दिया है, क्योंकि ऐसी सरकारों की अस्थिरता के कारण बहुत जल्दी-जल्दी निर्वाचन कराने पड़ते हैं और इस प्रक्रिया में धन का अपव्यय होता है, जिसका बोझ अप्रत्यक्ष रूप से जनता पर ही पड़ता है।

अप्रैल-मई 1996 में 11वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में जनता ने फिर से ऐसा मतदान किया कि किसी भी एक राजनीतिक दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था। ऐसी स्थिति में संयुक्त मोर्चा के नेतृत्व में 14 राजनीतिक दलों की गठबंधन सरकार की स्थापना हुई, जिसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया। 11वीं लोकसभा ने भारत की तीन प्रधानमंत्री दिये- अटल बिहारी वाजपेयी (भारतीय जनता पार्टी), एच.डी. देवगौड़ा (जनता दल) और इंद्र कुमार गुजराल (जनता दल)। 1 जून, 1996 को एच.डी. देवगौड़ा ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की और 12 जून, 1996 को कांग्रेस के अप्रत्यक्ष समर्थन से बहुमत हासिल किया। फिर कुछ राजनीतिक मजबूरियों के कारण 30 मार्च, 1997 को कांग्रेस ने देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापस ले लिया। दस दिनों के घटनाक्रम के बाद इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली मोर्चा सरकार को कांग्रेस द्वारा समर्थन दिया गया। 20 नवम्बर, 1997 को राजीव गांधी हत्याकांड की जांच से संबंधित जैन आयोग की रिपोर्ट में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़घम पर लगे आरोपों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने मोर्चा सरकार से द्रमुक को गठबंधन से निकालने को कहा लेकिन संयुक्त मोर्चे ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। इस प्रकार, 28 नवम्बर, 1997 को कांग्रेस अध्यक्ष ने गुजराल सरकार को दिया जा रहा बाह्य समर्थन वापस लिया और प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया।

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा गठबंधन सरकार के मात्र एक मत से लोक सभा में विश्वास मत में पराजित होने के पश्चात् वैकल्पिक सरकार के गठन की कोई सम्भावना न बनते देखकर राष्ट्रपति के. आर. नारायणन् ने मंत्रिमंडल की सिफारिश पर 12वीं लोकसभा को 26 अप्रैल, 1999 को भंग कर दिया। मार्च 1998 में गठित इस लोक सभा का कार्यकाल केवल 18 माह तक ही रहा जो स्वतंत्रता के पश्चात् अब तक गठित किसी भी लोकसभा के कार्यकाल से कम है। फिर 1999 में 13वीं लोकसभा के लिए चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में जनमत ने एक बार पुनः किसी एक पार्टी को देश का शासन चलाने का अधिकार देने की बात को अस्वीकार कर दिया तथा गठबंधन की राजनीति के पक्ष में अपना मत दिया। इन चुनावों में यद्यपि भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में अवश्य उभरी किंतु वह सरकार बनाने की अधिकारिता तभी प्राप्त कर सकी जब उसने अपने घटक दलों का सहारा लिया।

अप्रैल-मई 2004 में चौदहवीं लोक सभा के लिए विभिन्न चरणों में सम्पन्न हुए चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को पराजित कर कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन ने 8 वर्षों के अंतराल के बाद केंद्र में नई सरकार का गठन किया।

इस चुनाव में विभिन्न पार्टियों की स्थिति पर नजर डालने पर पता चलता है कि देश की जनता ने किसी भी दल को बहुमत नहीं दिया है। फिर भी, गठबंधन के आंकड़ों के अनुसार कांग्रेस गठबंधन को जनता ने देश की बागडोर संभालने का अवसर अवश्य दिया है।

अप्रैल-मई 2009, में पंद्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुए जिसमें जनादेश ने कांग्रेस को 206 लोकसभा सीट जिताकर सबसे बड़ी पार्टी बनाया। एक बार फिर दूसरे कार्यकाल के लिए मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन ने सरकार बनाई। भारतीय जनता पार्टी को 116 सीटें प्राप्त हुई और वह विपक्ष की भूमिका निभा रहा था। कुल मिलाकर इस बार भी किसी एक पार्टी विशेष को बहुमत नहीं मिला और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का गठन हुआ। इसलिए अब आवश्यकता गठबंधन सरकार को विकासात्मक सरकार के रूप में बदलने की है।

राजनीतिक विश्लेषक और राजनीति दल दोनों ही इस बात पर एकमत हैं कि गठबंधन राजनीतिक का दौर शुरू हो चुका है और यहां पर अपने पैर भी जमा चुका है। यह वह समय है जब क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ गया है और एकल दल की सरकार अब बीते दिनों की बात हो गई है, गठबंधन राजनीति से बचने का अभी कोई रास्ता नहीं है। विशेषज्ञ मानते हैं कि गठबंधन राजनीति क्षेत्रीय दलों के उभरने और उनके राष्ट्रीय महत्व के एजेंडे का परिणाम है। क्षेत्रीय दलों के महत्व के बढ़ने का एक कारण, उनका अश्पृश्यों, दलितों और पिछड़ी जातियों के हितों की गणना करने में सफलता रही है। यह दल भौगोलिक अवस्थिति के संदर्भ में क्षेत्रीय हैं, लेकिन देश से जुड़े मुद्दों के मामले में राष्ट्रीय हैं। राष्ट्रीय गठबंधन में उनकी भूमिका अधिक प्रतिस्पर्द्धात्मक और धुवीय दल व्यवस्था का भी संकेत है।

गठबंधन सरकार की निरंतरता (पहली बार एनडीए की और बाद में यूपीए के तहत) ने न केवल एकदलीय शासन के पतन और क्षेत्रीय एवं छोटे दलों के उत्थान को सुनिश्चित किया है, अपितु चमत्कारी नेतृत्व वाली एकल दल की प्रभुता का संकट भी उत्पन्न किया है। दोनों गठबंधनों ने विभिन्न साथी दलों के उत्थान को सुनिश्चित किया है, अपितु चमत्कारी नेतृत्व वाली एकल दल की प्रभुता का संकट भी उत्पन्न किया है। दोनों गठबन्धनों ने विभिन्न साथी दलों के अलग-अलग घोषणापत्रों के कारण अंतर्कलह की समस्या का सामना किया। गठबंधन राजनीति के स्थायी भविष्य को बनाए रखने के लिए, सहयोगी दलों को अपनी विचारधारा से पहले साझा कार्यक्रम सामने रखना चाहिए।

गठबंधन सरकार के समय ने सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के संकेत दिए हैं। हमें सकारात्मक संकेतों को धारण करना चाहिए। जैसे राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पार्टियों के बीच सहयोग एवं समझ, न्यूनतम साझा कार्यक्रम, समन्वय समिति, सह्मिति की राजनीति की संस्कृति इत्यादि, और लोकप्रिय राष्ट्रीय सरकार जैसी संसदीय सरकार का अद्वितीय मॉडल बनाने का प्रयास करना चाहिए जो हमारी बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक राजव्यवस्था के लिए बेहद उपयुक्त होगा। यदि, हालाँकि, भगवान न करे, हमने दबाव डालने की युक्तियां, ब्लैकमेलिंग, राजनीति का अपराधीकरण, अपराधियों का राजनीतिकरण, आर्थिक एवं राजनीतिक फायदों के लिए शक्ति का दुरुपयोग, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, संप्रदायवाद इत्यादि गठबंधन राजनीति से जन्मे ह्रासमान ताकतों को अपना लिया तो, न केवल देश में लोकतंत्र बर्बाद हो जाएगा, अपितु एक लोकतांत्रिक राज्य के तौर पर हमारी छवि भी खतरे में पड़ जाएगी।

इस प्रकार हमारी राजनीतिक व्यवस्था परीक्षण के दौर में है। हमें साबित करना होगा कि लोकतंत्र एवं संवैधानिक सरकार के लिए हम पूरी तरह तैयार हैं।

राष्ट्रीय सरकार: जब किसी विधायिका के विभिन्न राजनीतिक दल आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सरकार का गठन करते हैं, तब उसे राष्ट्रीय सरकार कहते हैं। राष्ट्रीय सरकार में राजनीतिक दलों के बाहर के भी वैसे व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं, जिन्होंने समाज के लिए उल्लेखनीय योगदान किया है (दूसरे शब्दों में जो ख्याति प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता हैं)। राष्ट्रीय सरकार गठबंधन सरकार का ही एक वृहत् रूप है। राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। परन्तु, जब एक बार राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हो जाती है, तब सहयोग और सहमति की भावना का होना आवश्यक है।

संसदीय व्यवस्था बनाम अध्यक्षीय व्यवस्था

शासन-व्यवस्था के प्रकार का चयन भारत के नवीन संविधान की रचना में सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न था। संविधान-निर्मात्री सभा के समक्ष तीन प्रकार की उत्तरदायी शासन-प्रणाली का विकल्प था— स्विस प्रकार की बहुल कार्यपालिका, अमेरिकी प्रकार की अध्यक्षीय शासन-प्रणाली तथा ब्रिटिश प्रकार की संसदीय शासन-व्यवस्था। सभा के गैर-कांग्रेसी सदस्य विशेषतया अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य स्विस प्रकार की शासन-व्यवस्था चाहते थे परंतु कुछ सदस्य ऐसे भी थे जिन्हें अमेरिकी प्रकार की शासन-व्यवस्था पसंद थी। किंतु, संविधान सभा के अधिकांश सदस्य संसदीय कार्यपालिका के पक्ष में थे।

1917 में स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् से ही भारत का शासन संसदीय ढांचे की लोकतंत्रात्मकव्यवस्था के अंतर्गत संचालित हो रहा है। श्री नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल के बाद 1996 से 1999 के बीच तीन आम चुनावों की नौबत आई और यही कारण है कि आज हमारी संसदीय व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग गया। हालांकि 1999 के बाद तीन गठबंधन सरकारें बनीं जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। हमारे लोकतंत्र को समय रहते इन प्रश्नों के उत्तर जुटाने होंगे। अन्यथा संसद जनता के असंतोष की सह नहीं पाएगी।

पहला प्रश्न तो यह है कि क्या बदली हुई परिस्थितियों में, जबकि क्षेत्रीय राजनैतिक दलों का वर्चस्व बाधा है, हमारी संसदीय प्रणाली कारगर हो सकती है?

दूसरा प्रश्न यह है कि, हम भारत के लोग कब तक संसदीय अराजकता, सरकारों की उठा-पटक और बार-बार प्रतिवर्ष चुनावों का भार ढोने की बाध्य रहेंगे? क्या इस व्यवस्था में कुछ मर्यादाएं पूरे अनुशासन के साथ लागू नहीं की जा सकती? क्या संसदीय प्रणाली के वर्तुल में ही इन समस्याओं का समाधान संभव है?

तीसरा प्रश्न यह है कि क्या हमारे लिए संसदीय प्रणाली की बजाय राष्ट्रपति प्रणाली अधिक श्रेयस्कर सिद्ध हो सकती है?

यह सर्वविदित है कि संसद में दोनों सदन ठीक तरह से नहीं चलते। संसदीय बहस का स्थान संसदीय कोलाहल ने ले लिया है। यदि राजनैतिक दल इस प्रकार की अनुशासनहीन उद्दंडता का स्पष्ट और बेबाक निषेध करें और सख्त कार्यवाही का समर्थन करें तो इस रोग को निर्मूल करना जरा भी मुश्किल नहीं है।

सरकारों की उठा-पटक और बार-बार चुनावों का भार ढोने का सवाल हमारी सांविधानिक लोकतांत्रिक प्रणाली की पराजय और राजनैतिक दलों की संकुचित स्वार्थपरकता का परिचय है। किंतु इसमें विश्रृंखला दिशाहीन जनमत का दोष भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। देश बहुत विशाल है और हर राज्य और क्षेत्र में अलग-अलग मुद्दे हैं। उन मुद्दों को लेकर जब बेहिसाब राजनैतिक दल चुनावी मौसम में उभर आते हैं फिर प्रत्येक राजनैतिक दल अपने क्षेत्रीय समर्थन को सम्पुष्ट करने के लिए अपनी मांगें रखता है और एक तरह की प्रतियोगी राजनैतिक नीलामी का उपक्रम शुरू हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में उठा-पटक की राजनीति का लोभ संवरण नहीं किया जाता। बिना सोचे-समझे, बिना विकल्प तैयार किए सरकार गिराने का खेल एक दिशाहीन और दायित्वहीन दुराग्रह ही कहा जा सकता है।

सांविधानिक प्रावधान द्वारा प्रत्येक लोकसभा की पांच वर्ष की अवधि परिवर्तनीय रूप से निर्धरित की जा सकती है। अमेरिका की तरह एक सुनिश्चित एवं स्थायी रूप से पूर्व निर्धारित तिथि क्रम से निर्वाचन का सांविधानिक आदेश दिया जा सकता है।

प्रधानमंत्री का चुनाव गुप्त मतदान से लोकसभा के सब सदस्यों द्वारा किया जा सकता है। यदि दो से अधिक प्रत्याशी हों तो पहली पारी में जो दो प्रत्याशी सर्वाधिक मत प्राप्त करें केवल उन्हीं के बीच दूसरी पारी में निर्वाचन होना चाहिए। प्रधानमंत्री को अपने पद से हटाने के लिए संसदीय नियमों में यह प्रावधान होना चाहिए कि एक ही प्रस्ताव में अविश्वास की अभिव्यक्ति के साथ प्रधानमंत्री पद के लिए वैकल्पिक नाम प्रस्तुत किया जाए। यदि दो से अधिक प्रत्याशी हों तो पहली पारी में जो दो प्रत्याशी सर्वाधिक मत प्राप्त करें केवल उन्हीं के बीच दूसरी पारी में निर्वाचन होना चाहिए। प्रधानमंत्री को अपने पद से हटाने के लिए संसदीय नियमों में यह प्रावधान होना चाहिए कि एक ही प्रस्ताव में अविश्वास की अभिव्यक्ति के साथ प्रधानमंत्री पद के लिए वैकल्पिक नाम प्रस्तुत किया जाए।

इन सुगम-सुलभ सांविधानिक एवं संसदीय सुधारों के माध्यम से हमारी संसदीय व्यवस्था में एक हद तक कुछ दायित्व लाया जा सकता है। संसदीय प्रणाली की वृहदाकार विकृतियों के कारण राष्ट्रपति प्रणाली का विकल्प अब अधिक आकर्षक लगने लगा है। वस्तुतः संसदीय प्रणाली यदि ठीक तरह से जिम्मेदारी के साथ चलाई जाए तो एक श्रेष्ठ प्रणाली है।

राष्ट्रपति प्रणाली विकल्प नहीं हो सकती: राष्ट्रपति प्रणाली को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम हैं। विश्व में लगभग एक दर्जन किस्म की राष्ट्रपति पद्धतियां प्रचलित हैं। कुछ देशों में (जैसे-दक्षिण अमरीकी देशों में) राष्ट्रपति पद्धति का स्वरूप तानाशाही व्यवस्था के रूप में है, जबकि अमरीका, फ्रांस और श्रीलंका जैसे देशों में उसका स्वरूप पूरी तरह लोकतांत्रिक है तथापि इन देशों में भी इस व्यवस्था के रूप भिन्न-भिन्न हैं। कुछ देशों में राष्ट्रपति अपने पूरे मंत्रिमंडल का गठन संसद के बाहर की प्रतिभाओं से करता है। कुछ देशों में मंत्रिमंडल का निर्माण संसद सदस्यों में से किया जाता है और कुछ देशों में राष्ट्रपति संसद और बाहर दोनों क्षेत्रों से मंत्रियों का चयन करता है।

राष्ट्रपति पद्धति लागू करने की बात क्यों की जाती है? क्या राष्ट्रपति पद्धति में देश को अधिक सशक्त, अधिक समर्थ, अधिक प्रभावी, अधिक अनुभवी शासन उपलब्ध होने की अधिक सम्भावना है? जिन लोगों ने अमरीका के संवैधानिक इतिहास का अध्ययन किया है वे यह जानते हैं कि अमरीकी राष्ट्रपतियों को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों ने बड़ी संवैधानिक चोटें पहुंचाई हैं। राष्ट्रपति प्रणाली के संबंध में सबसे बड़ा तर्क यह है कि राष्ट्रपति देश के योग्य व्यक्ति को बिना किसी चुनाव में खड़ा किये अपना मंत्री बना सकता है चाहे वह प्रख्यात अर्थशास्त्री हों अथवा को प्रोफेसर, लेकिन जो लोग राष्ट्रपति रीगन (प्रथम कार्यकाल) के मंत्रिमण्डल का निर्माण का तमाशा देख चुके हैं उन्हें यह देखकर कौतूहल हुआ होगा कि रीगल किसी साथी को अपने मंत्रिमण्डलीय पद के लिए चुनते हैं, इस मंत्री के विरुद्ध सीनेट ने यह आरोप लगाया कि इसकी कम्पनी का सरकार से कारोबार है या बीस साल पहले

इन्होंने कोई ऐसी हरकत की थी जिसे आर्थिक अपराध कहा जा सकता था। हम सभी जानते हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति अपने किसी कार्यक्रम की वैधता प्रदान करने के लिए किसी कानून का मसविदा वहां की कांग्रेस में भेजते हैं और कभी प्रतिनिधि सभा और कभी सीनेट और कभी दोनों उसकी छीछालेदारी कर उसे रद्दी की टोकरी में फेंक देते हैं। भारत को आणविक ईधन देने के संबंध में सरकारी समझौतों और राष्ट्रपति के आश्वासनों के बाद भी उनकी जो दुर्दशा होती है उसे देखकर राष्ट्रपति पर हंसी आती है। ज्ञातव्य है कि, वुडरो विल्सन काफी लोकप्रिय राष्ट्रपति थे, लेकिन वे अमेरिकी जनता को राष्ट्र संघ का सदस्य बनने के लिए राजी नहीं कर सके। राष्ट्रपति निक्सन की जो छीछालेदारी हुई वह भी किसी संसदीय लोकतंत्र में किसी प्रधानमंत्री की नहीं हुई।

राष्ट्रपति प्रणाली के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि राष्ट्रपति का कार्यकाल निश्चित होता है और निर्धारित समय से पूर्व विधायिका उसे आसानी से पदच्युत नहीं कर सकती, जिससे शासन में स्थायित्व आ जाता है। जबकि यह भी गौर करने की बात है कि अमरीका का कोई राष्ट्रपति आठ साल से अधिक पद पर नहीं रह सका। रूजवेल्ट ने इस प्रथा को तोड़ने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। भारत में जवाहरलाल नेहरू 18 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। श्रीमती इंदिरा गांधी भी बावजूद सारे संघर्षों और विरोधों के 11 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहीं थीं और यदि उन्होंने स्वेच्छा से 1977 में मतदान न कराया होता तो उनका कार्यकाल और भी बड़ा हो सकता था।

राष्ट्रपति प्रणाली में इस बात की सम्भावना अधिक है कि विधायिका चाहे वह न बन सके या उसमें कोई अनावश्यक मीनमेख निकालने लगे। सीनेट द्वारा वर्ष 1919 में वर्साय संधि को अस्वीकार कर देना एक ऐतिहासिक घटना बन चुकी है। वर्ष 1789 से 1984 तक सीनेट के समक्ष 889 संधियां स्वीकृति के लिए प्रस्तुत की गयीं जिनमें से उसने 682 संधियों को स्वीकार किया, 192 में संशोधन किया और 15 को अस्वीकार किया। राष्ट्रपति भी कांग्रेस द्वारा पारित विधेयक को अस्वीकार कर सकता है, वापस भेज सकता है, पर अगर कांग्रेस अपनी बात पर अडिग रहे तो जो परिवर्तन वह कराना चाहे उसे करा नहीं सकता है। इस प्रकार आर्थिक और सामाजिक कानून को कार्यान्वित कराने में राष्ट्रपति प्रणाली जितनी कारगर हो सकती है, संसदीय प्रणाली उससे कहीं अधिक कारगर है। भारत के संसदीय इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आज तक प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की संसद द्वारा किसी विधेयक को पारित कराने में कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। बाधाएं भारतीय संसद द्वारा प्रधानमंत्री के मार्ग में कभी भी प्रस्तुत नहीं की गयीं । राष्ट्रपति प्रणाली की सिफारिश करने वाले इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि इस पद्धति से शासित 90 प्रतिशत देशों में तानाशाही है और वे अलोकतांत्रिक हैं। यह प्रणाली लोकतंत्र की सामूहिक बुद्धि के सिद्धांत की नकार सकती है। इस प्रणाली में निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन की सारी सम्भावनाएं विद्यमान होती हैं। इस प्रणाली में राष्ट्रपति की सामान्य स्थिति में भी वे अधिकार प्राप्त रहते हैं जिनकी जरूरत आपातकाल में पड़ सकती है। राष्ट्रपति प्रणाली के संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति में शक्तियों के केंद्रीकरण की यह प्रवृत्ति अफ्रीकी और लैटिन अमेरिका के कुछ देशों की घटनाओं से आसानी से समझी जा सकती है। लेबनान से लेकर नाइजर, पेरू, अंगोला, ब्राजील, कैमरून, चाड, कांगो, आदि अनेक देशों में इस तरह के अनेक उदाहरण प्राप्त होंगे जहां राष्ट्रपति शासन पद्धति होने के बाद संविधान इस रूप में बदले गये जिसमें सारे अधिकार राष्ट्रपति में केंद्रित हो गये।

अध्यक्षीय प्रणाली से शासित होने वाले अनेक देश ऐसे हैं जो लगभग उन्हीं समस्याओं से जूझ रहे हैं जो भारत के लिए कठिनाई का कारण बनी हैं। यह आवश्यक नहीं है कि उसकी वजह से ज्ञान, अंतर्दृष्टि और राजनीतिक जीवन के नैतिक मानदण्डों में विकास हो ही।

  • संविधान के अनुच्छेद-74 के अधीन प्रधानमंत्री के नेतृत्व में संघीय मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को उसकी शक्तियों का प्रयोग करने हेतु सहायता एवं परामर्श प्रदान करती है।
  • मंत्रिपरिषद त्रि-स्तरीय होती है-
  1. कैबिनेट स्तर के मंत्री;
  2. राज्य स्तर के मंत्री, तथा;
  3. उप-मंत्री।

प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति

राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच संचार साधन के रूप में कार्य करने के संदर्भ में अनुच्छेद 78 में यह प्रावधान है:

प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य होगा कि वह (i) संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रिपरिषद के सभी विनिश्चय राष्ट्रपति को संसूचित करे। (ii) संघ के कार्य-कलापों के प्रशासन संबंधी और विधानविषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जी जानकारी राष्ट्रपति मांगे, वह दे, और; (iii) किसी विषय पर यदि किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया है और मंत्रिपरिषद ने उस पर विचार नहीं किया है, तो राष्ट्रपति द्वारा अपेक्षा किए जाने पर परिषद के समक्ष विचार के लिए रखे।

अगर किसी मंत्री ने कोई परामर्श प्रधानमंत्री को दिया है और मंत्रिपरिषद के समक्ष नहीं रखा है तो राष्ट्रपति (प्रधानमंत्री के माध्यम से) को यह शक्ति है कि वह उसे मंत्रिपरिषद के विचार के लिए निर्दिष्ट करे। राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के उत्तरदायित्व की मयदिाओं के अधीन कार्य करता है। वास्तव में कार्यपालिका की शक्ति मंत्रिमंडल में होती है, जो और कार्यों के लिए विधान मंडल के निर्वाचित सदन के प्रति उत्तरदायी होती है।

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