नागरिकता Citizenship

किसी भी संप्रभु राष्ट्र या देश में राज्य की ओर से नागरिकों को कुछ ऐसे राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं, जो अन्य लोगों को प्रदान नहीं किए जाते। लोकतंत्रात्मक राज्यव्यवस्था के मूल अपरिहार्य सिद्धांत को नागरिकता कानूनी रूप प्रदान करती है। यह इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि व्यक्ति को राज्य की पूर्ण राजनीतिक सदस्यता प्राप्त है, राज्य के प्रति उसकी स्थायी निष्ठा है और वह राज्य द्वारा इस बात की अधिकाधिक स्वीकृति है कि उसे राजनीतिक प्रणाली में शामिल कर लिया गया है। नागरिकता कतिपय दायित्व, अधिकार, कर्तव्य और विशेषाधिकार प्रदान करती है। ये अधिकार विदेशियों को प्रदान नहीं किये जाते।

भारत के नागरिकों को संविधान के अधीन निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं–

  1. मतदान करने का अधिकार तथा कतिपय मूल अधिकार जी केवल भारत के नागरिकों को ही प्रदान किए गए हैं, जैसे-अनुच्छेद-15, 16 और 19 में प्रदत्त अधिकार।
  2. केवल नागरिक ही कुछ पदों के योग्य होगे, जैसे- राष्ट्रपति का पद [अनुच्छेद-58(1)(क)],उपराष्ट्रपति का पद [अनुच्छेद-66(3)(क)], उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश [अनुच्छेद-124(3)], उच्च न्यायालय का न्यायाधीश [अनुच्छेद-217(2)], महान्यायवादी [अनुच्छेद-76(2)], राज्यपाल (अनुच्छेद 157), महाधिवक्ता (अनुच्छेद-165)।
  3. लोकसभा और प्रत्येक राज्य की विधान सभा के निर्वाचन के लिए मत देने का अधिकार (अनुच्छेद-326) और संसद का सदस्य होने का अधिकार (अनुच्छेद-84) तथा राज्य के विधानमंडल का सदस्य होने का अधिकार [अनुच्छेद-19(1)(घ)] केवल भारत के नागरिकों के लिए ही उपलब्ध है।

भारतीय संविधान में नागरिकता के संबंध में संविधान के भाग-2 में अनुच्छेद 5 से लेकर अनुच्छेद 11 तक उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार हैं-

अनुच्छेद-5: इस अनुच्छेद में संविधान लागू होने की तिथि पर नागरिकता की व्याख्या की गई है। इस अनुच्छेद में नागरिकता के किसी स्थायी नियम का निर्धारण नहीं था, क्योंकि स्थायी नियम के निर्धारण का अधिकार संसद को सौंप दिया गया था। संविधान के प्रारंभ होने की तिथि पर वह प्रत्येक व्यक्ति जो भारतीय राज्य क्षेत्र का अधिवासी था, जो भारत में उत्पन्न हुआ हो या माता-पिता दोनों में से कोई एक भारत में उत्पन्न हुआ हो अथवा संविधान के प्रांरभ से पांच वर्ष पूर्व से भारत का निवासी रहा हो, वह भारत का नागरिक माना जाएगा।

इस प्रकार प्रवासियों में दो प्रकार के भेद किए गए है- प्रथम, जो व्यक्ति 19 जुलाई, 1948,जब प्रवास के लिए परमिट सिस्टम शुरू किया गया था, से पहले भारत में प्रवास कर गए थे और वे जो उस तारीख के बाद आए थे, तथा; द्वितीय, जो व्यक्ति 19 जुलाई, 1948 से पहले पाकिस्तान से प्रवास करके भारत में आ गया था, उसे संविधान के प्रारंभ पर भारत का नागरिक समझा जाएगा बशर्ते कि उसके माता-पिता में से कोई एक अथवा पितामह में से कोई भारत शासन अधिनियम, 1935 में यथा पारिभाषित भारत में जन्मा था और जो अपने प्रवास की तारीख से आमतौर पर भारत में रह रहा था।

19 जुलाई, 1948 के बाद प्रवास करने वाले की स्थिति में शर्त यह थी कि उसे भारत सरकार द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियुक्त अधिकारी द्वारा भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत कर लिया गया हो। किंतु इस दूसरी स्थिति में, किसी व्यक्ति को तब तक इस रूप में पंजीकृत नहीं किया जाएगा जब तक वह अपने आवेदन की तारीख से ठीक पहले कम-से-कम छह महीनों से भारत में न रह रहा हो।

अनुच्छेद-6: संविधान के इस अनुच्छेद में पाकिस्तान से भारत को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार का उपबंध है।


अनुच्छेद-7: संविधान के इस अनुच्छेद में भारत से पाकिस्तान को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार का उपबंध है।

अनुच्छेद 7 में उन व्यक्तियों की नागरिकता के अधिकारों के संबंध में विशेष उपबंध किए गए हैं जो 1 मार्च, 1947 के बाद पाकिस्तान में प्रवास कर गए थे किंतु बाद में भारत लौट आए थे। अनुच्छेद-7 के अनुसार, 1 मार्च, 1947 के बाद पाकिस्तान को प्रवास करने वाला व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा, किंतु उन व्यक्तियों की दशा में अपवाद किया गया है जो भारत में पुनर्वास के लिए परमिट के आधार पर भारत लौट आए थे। ऐसे व्यक्ति भारत के नागरिक होने के हकदार बन गये थे यदि वे पाकिस्तान से प्रवास करने वाले व्यक्तियों के लिए अनुच्छेद 6 के अधीन निर्धारित शर्तों को पूरा करते हो।

अनुच्छेद-8: संविधान के इस अनुच्छेद में विदेशों में रहने, वाले भारतीय मूल के कुछ व्यक्तियों के लिये नागरिकता के अधिकार का उपबंध है।

इस अनुच्छेद में विदेशों में रहने वाले भारतीयों की नागरिकता संबंधी भावी जरूरतों का ध्यान रखा गया है। भारतीय मूल के अनेक व्यक्ति रोजगार के प्रयोजनों के लिए या अन्यथा विदेशों में रह रहे हैं या वहां प्रवास कर गए हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए अनुच्छेद-8 में प्रावधान किया गया है कि कोई व्यक्ति या उसके माता-पिता अथवा पितामह में से कोई भारत शासन अधिनियम, 1935 के अनुसार भारत में जन्मा था और जो भारत के बाहर किसी देश में सामान्यतया निवास कर रहा है, उसे भारत का नागरिक समझा जाएगा लेकिन शर्त ये है कि उसे नागरिकता की प्राप्ति के लिए, सम्बद्ध देश में भारत के राजनयिक या काउंसिलीय प्रतिनिधि द्वारा भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत कर लिया गया हो।

अनुच्छेद-9: संविधान के इस अनुच्छेद में यह उपबंध है कि यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से विदेशी नागरिकता स्वीकार कर ले तो वह किसी उपबंध के अनुसार नागरिकता का अधिकार होते हुए भी भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा। अनुच्छेद-10: इस अनुच्छेद में नागरिकता के अधिकारों के बने रहने का प्रावधान है। इस अनुच्छेद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो अनुच्छेद 5 से 10 में किए गए उपबंधों में से किसी के अधीन भारत का नागरिक है या समझा जाता है, ऐसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, जो संसद द्वारा बनाई जाए, भारत का नागरिक बना रहेगा। अभिप्राय यह है कि किसी नागरिक की नागरिकता का अधिकार, संसदीय विधान के अतिरिक्त किसी अन्य रीति से, छीना नहीं जा सकता (इब्राहिम वजीर बनाम बंबई राज्य 1954)। कुछ समय तक इस विषय में काफी मतभेद बना रहा कि क्या निगम भी कानूनी व्यक्तियों के दायरे में आ सकते हैं? किंतु नागरिकता अधिनियमने यह स्पष्ट कर दिया कि निगम नागरिक नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि निगम अनुच्छेद 19 के अधीन अधिकारों का दावा नहीं कर सकते। वे तो केवल नागरिकों के लिए हैं।

अनुच्छेद-11: इस अनुच्छेद के उपबंध के तहत देश की राष्ट्रीयता के संबंध में संसद को परिस्थिति के अनुकूल कानून बनाने का पूर्णाधिकार दिया गया है। संसद का यह अधिकार नागरिकता-प्राप्ति के संबंध में कानून वाले अन्य विषयों से भी जुड़ा है।

इस अनुच्छेद में संसद को भारत की नागरिकता के अर्जन तथा निरसन के संबंध में तथा उससे संबंधित सभी विषयों के संबंध में विधान अधिनियमित करने की निर्बाध शक्तियां प्रदान करता है। तद्नुसार, संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 पारित किया जिसमें नागरिकता के अर्जन तथा निरसन की व्यवस्था की गई है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि, संविधान के प्रारंभ के बाद नागरिकता के अधिकारों से संबंधित सभी मामलों का निपटारा इसके उपबंधों के अनुसार किया जाता है।

नागरिकता अधिनियम, 1955

भारत सरकार ने नागरिकता से संबंधित एक व्यापक कानून 1955 में पारित किया। इस अधिनियम के उपबंध तीन भागों में विभक्त किए जा सकते हैं- नागरिकता प्राप्त करना, नागरिकता से वंचित होना और अनुपूरक उपबंध।

नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार भारत की नागरिकता पांच प्रकार से ग्रहण की जा सकती है-

जन्म से नागरिकता

जिस व्यक्ति का जन्म 26 जनवरी, 1950 को या उसके पश्चात् हुआ हो, जन्म से भारत का नागरिक होगा। किंतु इस नियम के दो अपवाद हैं- प्रथम, विदेश के राजनैतिक कर्मचारियों के भारत में उत्पन्न होने वाले बच्चे, और; द्वितीय, शत्रुओं के अधीन भारत के किसी भाग में उत्पन्न होने वाले इनके बच्चे।

वंशानुगत

26 जनवरी, 1950 अथवा उसके पश्चात् भारत के बाहर जन्म लेने वाला बच्चा वंशानुक्रम से भारत का नागरिक होगा यदि उस समय उसका पिता भारत का नागरिक हो। इसके अतिरिक्त भारतीय नागरिकों के बच्चे और उन लोगों के बच्चे जो भारत के नागरिक न होते हुए भी भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन सेवा कर रहे हैं, वे इस उपबंध का लाभ उठा सकते हैं, और पंजीकरण द्वारा वंशानुगत भारतीय नागरिक बन सकते हैं।

पंजीकरण द्वारा

संविधान में उल्लिखित उपबंधों के आधार पर जो व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है, परंतु निम्नलिखित शर्तों में से किसी एक से भी संबंधित हो, तो पंजीकरण द्वारा वह भारत का नागरिक बनने के योग्य है। ये शर्ते निम्नानुसार हैं-

  1. भारतीय उद्गम के व्यक्ति जो साधारणतया भारत में रहते हैं और विशेषतया पंजीकरण के लिए आवेदन प्रस्तुत करने के कम से कम छः महीने पहले से भारत में रहते हैं।
  2. भारतीय उद्गम के वे व्यक्ति, जो अविभाजित भारत से बाहर किसी देश अथवा स्थान में रहते हों।
  3. वे स्त्रियां, जो भारतीय नागरिकों के साथ विवाह करें।
  4. भारतीय नागरिक के अल्पवयस्क बच्चे।
  5. राष्ट्रमंडल के राज्यों के तथा आयरलैंड गणराज्य के वयस्क और स्वस्थ बच्चे।

देशीयकरण द्वारा नागरिकता

कोई भी विदेशी नागरिक भारत सरकार को आवेदन करके भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकता है लेकिन इसके लिए कुछ शर्तो की योग्यता अनिवार्य है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. वह जिस देश का नागरिक है, उसकी नागरिकता का त्याग।
  2. संबंधित देश में निश्चित अवधि तक निवास करना।
  3. वह सच्चरित्र हो।
  4. आवेदन-पत्र प्रस्तुत करने के तत्काल पूर्व कम से कम एक वर्ष भारत में निवास किया हो।
  5. संविधान में उल्लिखित भाषाओं में से किसी भी एक भाषा का पर्याप्त ज्ञान होना।
  6. राष्ट्र के प्रति सकारात्मक आस्था का होना।

परंतु इस अधिनियम में एक विशेष उपबंध शामिल किया गया है, जिसके अनुसार यह छूट दी गई है कि यदि कोई व्यक्ति विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य विश्व-शांति अथवा मानव विकास के क्षेत्र में विशेष कार्य कर चुका हो, तो उसे इन सभी शर्तों को पूर्ण किए बिना भी देशीयकरण द्वारा नागरिकता प्रदान की जा सकती है।

राज्यक्षेत्र में मिल जाने से प्राप्त नागरिकता

यदि कोई अन्य राज्यक्षेत्र भारत का भाग बन जाता है तो भारत सरकार यह विनिर्दिष्ट करेगी कि उस राज्यक्षेत्र के व्यक्ति भारत के नागरिक होंगे।

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986

नागरिकता अधिनियम, 1955 में परिवर्तन कर नागरिकता संबंधी उपबंध को 1986 में संशोधित किया गया। उस संशोधित अधिनियम में नागरिकता का प्रावधान इस प्रकार किया गया है-

  1. भारत में जन्म लेने वाला कोई व्यक्ति यदि भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकृत होना चाहता है, तो उसे भारत में लगातार पांच वर्षों तक रहने का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा। इसके पूर्व यह अवधि मात्र छह मास की थी।
  2. किसी भी व्यक्ति का जन्म भारत में हो, उसे इस आधार पर भारतीय नागरिकता स्वतः प्रदान नहीं की जा सकती। जन्म के आधार पर मात्र उन्हीं लोगों को नागरिकता प्रदान की जा सकती है, जिनके माता-पिता में से कोई एक पहले से ही भारत का नागरिक रहा हो। इससे पूर्व के अधिनियम में मात्र जन्म लेने से ही स्वतः नागरिकता प्राप्त होने का प्रावधान था|
  3. प्रवासी के रूप में रहने वाले विदेशी व्यक्ति के लिए देशीयकरण के आधार पर नागरिकता प्राप्त करने के लिए भारत में निवास करने की जो शर्ते पूर्ववत् पांच वर्ष की थी अब इस संशोधन द्वारा निवास करने की अवधि में वृद्धि करके दस वर्ष कर दी गयी।
  4. इस संशोधन अधिनियम के पश्चात् भारतीय पुरुष से विवाह करने वाली विदेशी महिला को नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।

नागरिकता की समाप्ति

जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर सकता है, उसी प्रकार कोई भी नागरिक अपनी नागरिकता खो भी सकता है। नागरिकता के खोने का नियम भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में होता है, परंतु सामान्यतः निम्नलिखित नियमों के अनुसार नागरिकता का लोप हो सकता है-

स्वैच्छिक त्याग

भारतीय नागरिकता का स्वैच्छिक रूप से त्याग किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य राष्ट्र की नागरिकता प्राप्त करने के लिए भारत की नागरिकता का परित्याग करता है तो उस पर कोई संवैधानिक अवरोध नहीं लगाया जा सकता, बशर्ते कि वह व्यक्ति किसी प्रकार के अपराध में लिप्त न रहा हो और पूर्णतः निर्दोष हो।

प्रवसन द्वारा जैसे ही कोई व्यक्ति भारत की नागरिकता का परित्याग कर किसी अन्य देश की नागरिकता अर्जित कर लेता है वैसे ही भारत की नागरिकता समाप्त हो जाती है।

अवैध रूप से अर्जित

यदि किसी व्यक्ति ने भारत की नागरिकता कपटता से अर्जित की है या उसने भारतीय संविधान के प्रति अभक्त या अप्रीतिपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित किया है तो भारत सरकार उसे भारतीय नागरिकता से वंचित कर सकती है।

भारतीय मूल के व्यक्ति को नागरिकता
7 जनवरी, 2005 की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन समस्त भारतीय मूल के व्यक्तियों को दोहरी नागरिकता प्रदान करने की घोषणा की जो 26 जनवरी, 1950 के पश्चात् भारत से प्रवास कर गए थे। उनकी इस घोषणा के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संसद ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2005 को पारित किया, क्योंकि पूर्ववर्ती 2003 के अधिनियम में मात्र 16 देशों में निवास करने वाले भारतीय मूल के व्यक्तियों के लिए ही दोहरी नागरिकता की व्यवस्था थी, जबकि 2005 के नए संशोधित अधिनियम में यह व्यवस्था पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के नागरिकों को छोड़कर सभी देशों के नागरिकों के लिए है। दोहरी नागरिकता के प्रावधान के अनुसार व्यक्ति भारत में अनिश्चित (Indefinitely) तौर पर रहता हो; न कि भारतीय मूल के व्यक्ति (Person of Indian Origin–PIO) का कार्डधारक, जो कि केवल छह माह की अवधि हेतु ही एकल निवास की अनुमति प्रदान करता है।नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2005 का प्रवर्तन जून 2005 से हुआ। इस अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित शर्ते पूरी करने वाले भारतीय मूल के दूसरे देशों के नागरिकों (पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को छोड़कर) के लिए दोहरी नागरिकता की व्यवस्था की गई है-

  1. वे व्यक्ति जो अब किसी भी देश के नागरिक हैं, किंतु जो 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू होने के समय अथवा बाद में किसी भी समय भारत के नागरिक थे;
  2. वे व्यक्ति जो किसी अन्य देश के नागरिक हैं, किंतु संविधान लागू होने के समय भारत की नागरिकता प्राप्त करने के पात्र थे;
  3. वे व्यक्ति जो किसी अन्य देश के नागरिक हैं, किंतु भारत के किसी ऐसे क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हो, जो 15 अगस्त, 1947 के पश्चात् भारत का अंग बना हो;
  4. उल्लिखित नागरिकों के बच्चे अथवा पौत्र-पत्रियां अथवा (1) और (4) में संदर्भित व्यक्तियों के छोटे बच्चे।

विवाह द्वारा

जब कोई स्त्री या पुरुष किसी अन्य राष्ट्र के स्त्री या पुरुष से विवाह कर लेते हैं तो उन्हें स्वतः वहां की नागरिकता प्राप्त हो जाती है। साथ ही साथ उनकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है।

विदेश में नौकरी पाना

जब कोई व्यक्ति विदेश में जाकर सरकारी नौकरी करता है, तब वह अपने देश की नागरिकता खो देता है।

राष्ट्र विरोधी कार्य

जब कोई व्यक्ति राष्ट्र विरोधी कार्य करता है तो उसकी नागरिकता समाप्त कर दी जाती है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति फौज से भाग जाता है या देशद्रोह के अपराध में पकड़ा जाता है या किसी और अपराध के कारण दण्डित होता है तो उस व्यक्ति की नागरिकता को समाप्त कर दिया जाता है।

कुछ अन्य कारण

इन कार्यों के अतिरिक्त अन्य भी कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे नागरिकता का लोप हो सकता है, जैसे- पागलपन, फकीरी, संन्यास ग्रहण, इत्यादि।

एकल नागरिकता

भारत में केवल एक ही नागरिकता की व्यवस्था की गई है। यद्यपि भारत का संविधान संघात्मक है, फिर भी यहां नागरिकों को केवल एक ही नागरिकता प्रदान की गई है, जबकि विश्व के अन्य विशेषतः अमेरिकी और स्विट्ज़रलैंड के परिसंघीय संविधानों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था है। इन देशों में राष्ट्रीय नागरिकता के अतिरिक्त उस राज्य की नागरिकता भी प्राप्त होती है जहां उस व्यक्ति का जन्म हुआ है अथवा जहां वह स्थायी रूप से निवास करता है। किंतु भारत में प्रत्येक व्यक्ति को एक ही राष्ट्रीय नागरिकता उपलब्ध है चाहे वह किसी भी राज्य का निवासी हो।

लेकिन कुछ परिस्थितियों में इसके अपवाद के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 16(3) के अधीन संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के अधीन किसी वर्ग या वर्गों के नियोजन के लिए यह अधिकथित करे कि उस राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में निवास करना आवश्यक अर्हता होगी। राज्य में नियोजन की दशा में अपवाद इसलिए रखा गया है जिससे कार्य में दक्षता ही क्योंकि स्थानीय परिस्थितियों से परिचय पर कुछ कार्य आधारित होते हैं। मुख्यतः ये अपवाद इस प्रकार हैं-

  1. संसद द्वारा अनुच्छेद-16(3) में प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करके लोक नियोजन (निवास की अपेक्षा) अधिनियम, 1957 सीमित अवधि के लिए अधिनियमित किया गया था। इस अधिनियम द्वारा संसद ने केंद्रीय सरकार को आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में अराजपत्रित पदों पर नियुक्ति के लिए निवास की अपेक्षाएं निहित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति दी थी। 1974 में इस अधिनियम को संसद द्वारा निरस्त कर दिया गया। इस अधिनियम की समाप्ति के पश्चात् किसी भी व्यक्ति को किसी भी राज्य में इस आधार पर नियोजन से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह उस राज्य का निवासी नहीं है।
  2. कोई राज्य अपने राज्य के निवासियों के लाभ के लिए कोई कानून बना सकता है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-15(1) में केवल, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया गया है। इसमें निवास स्थान का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार संविधान भी यह अनुमति देता है कि राज्य संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों से भिन्न विषयों में अपने निवासियों की लाभ प्रदान कर सकता है। उच्चतम न्यायालय ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा कि अनुच्छेद 15 में निवास स्थान के आधार पर विभेद की प्रतिषिद्ध नहीं किया गया है, इसलिए राज्य अपने शिक्षण संस्थानों में फीस आदि के विषय में अपने निवासियों की रियायत दे सकता है [जोशी बनाम मध्य भारत राज्य (1955)]।
  3. जम्मू-कश्मीर राज्य के विधानमण्डल के निम्नलिखित विषयों के संबंध में राज्य में स्थायी रूप से निवास करने वाले व्यक्ति को अधिकार तथा विशेषाधिकार प्रदान करने की शक्ति प्रदान की गयी है-
  • राज्य के अधीन नियोजन के संदर्भ में,
  • राज्य में अचल सम्पत्ति के अर्जन के संदर्भ में,
  • राज्य में स्थायी रूप से बस जाने के संदर्भ में, तथा;
  • छात्रवृत्तियों अथवा इसी प्रकार की सहायता के संदर्भ में।

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