केन्द्रीय शासन का संगठन: मौर्य प्रशासन Central Rule Organization: Maurya Administration

कौटिल्य अर्थशास्त्र में अध्ययन से मौर्य-साम्राज्य के केन्द्रीय संगठन के सम्बन्ध में भली-भाँति परिचय मिलता है। इस काल में शासन के विविध विभाग तीर्थ कहलाते थे। इनकी संख्या अठारह होती थी। प्रत्येक तीर्थ एक महामात्य के अधीन रहता था। इन अठारह महामात्यों और उनके विविध कार्यों का संक्षेप में उल्लेख करना उपयोगी है-

1. मन्त्री और पुरोहित- ये दोनों अलग-अलग पद थे, पर सम्भवतः चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में आचार्य चाणक्य मन्त्री और पुरोहित दोनों पदों पर विद्यमान थे। बाद में राधागुप्त जैसे प्रतापी अमात्य भी सम्भवतः मन्त्री और पुरोहित दोनों पदों पर रहे। कौटिल्य अर्थशास्त्र में इन दोनों पदों का उल्लेख प्राय: साथ-साथ आया है। राजा इन्हीं के साथ मिलकर अन्य राजकर्मचारियों के शौचाशौच की परीक्षा लेता था, प्रजा की सम्मति जानने के लिए गुप्तचरों को नियत करता था, विदेशों में राजदूतों की नियुक्ति और परराष्ट्र नीति का संचालन करता था। शिक्षा का कार्य भी इन्हीं के अधीन रहता था। राज्य के अन्य विभागों पर भी मन्त्री और पुरोहित का निरीक्षण रहता था। राजा इन्हीं के परामर्श से अपने राज्यकार्य का सचालन करता था।

2. समाहर्त्ता- विविध जनपदों के शासन के लिए नियुक्त राजपुरुषों को जहाँ समाहर्ता कहते थे, वहाँ सब जनपदों के शासन का संचालन करने वाला विभाग (तीर्थ) भी समाहर्ता नामक अमात्य के अधीन था। राजकीय करों को एकत्र करना इस विभाग का सर्वप्रधान कार्य था। समाहर्ता के अधीन अनेक अध्यक्ष होते थे, जो अपने-अपने विभाग के राजकीय करों को एकत्रित करते थे, और व्यापार तथा व्यवसाय आदि का संचालन करते थे। ऐसे कुछ अध्यक्ष निम्नलिखित थे-

  • शुल्काध्यक्ष- विविध प्रकार के व्यापार से सम्बन्ध रखने वाले अनेक प्रकार के शुल्कों (करों) को एकत्र करना इसका कार्य था।
  • पौतवाध्यक्ष- तोल और माप के परिमाणों पर नियन्त्रण रखने वाले राजपुरुषों को पौतवाध्यक्ष कहते थे। इन परिमाणों को ठीक न रखने पर जुरमाना किया जाता था।
  • मानाध्यक्ष- देश और काल को मापने के विविध साधनों का नियन्त्रण राज्य के अधीन था। यह कार्य मानाध्यक्ष के अधिकार में होता था।
  • सूत्राध्यक्ष- राज्य की ओर से अनेक व्यवसाय चलाये जाते थे। विधवा, विकलांग मनुष्य, अनाथ लड़की, भिखारी, राज्य के कैदी, वेश्याओं की वृद्ध माताएँ, वृद्ध राजदासी, देवदासी आदि के पालन-पोषण के लिए राज्य की ओर से उन्हें काम दिया जाता था। इन कार्यों में सूत कातना, कवच बनाना, कपड़ा बुनना और रस्सी बनाना मुख्य थे। इन सब कायों पर सूत्राध्यक्ष का नियंत्रण रहता था।
  • सीताध्यक्ष- कृषि विभाग के अध्यक्ष की सीताध्यक्ष कहते थे। वह न केवल देश में कृषि की उन्नति पर ही ध्यान देता था, अपितु राजकीय भूमि पर दास, मजदूर आदि से खेती भी करवाता था।
  • सुराध्यक्ष- शराब का निर्माण तथा प्रयोग राज्य द्वारा नियन्त्रित था। सुराध्यक्ष शराब बनवाता था, उसकी बिक्री का प्रबन्ध करता था तथा उसके प्रयोग पर नियन्त्रण रखता था।
  • सूनाध्यक्ष- इसका कार्य बूचड़खानों को नियन्त्रण रखना था। बूचड़खानों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के नियम होते थे। अनेक प्रकार के पशुओं और पक्षियों की हत्या निषिद्ध थी। सूनाध्यक्ष न केवल देश के विविध बूचड़खानों को नियंत्रित करता था, अपितु राजकीय पशु वधशालाओं का प्रबन्ध भी उसके हाथों में था।
  • गणिकाध्यक्ष- मौर्यकाल में वेश्याओं का प्रयोग राजनैतिक दृष्टि से भी किया जाता था। संघ-प्रधान, समान्त आदि को वश में लाने के लिए गणिकाएँ प्रयुक्त की जाती थी। अत: बहुत-सी वेश्याएँ राज्य की ओर से भी नियत होती थी। राजा के स्नान, मर्दन, छत्रधारण, सेविका, पीठिका, रथ पर साथ चलने आदि के लिए भी राज्य की ओर से वेश्याओं को रखा जाता था। यह सब विभाग गणिकाध्यक्ष के अधीन था। स्वतन्त्र वेश्याओं का सम्पूर्ण प्रबन्ध तथा निरीक्षण भी इसी विभाग के कार्य थे।
  • मुद्राध्यक्ष- देश से बाहर जाने या देश में आने के लिए राजकीय मुद्रा प्राप्त करना आवश्यक होता था। यह कार्य मुद्राध्यक्ष के अधीन था।
  • विवीताध्यक्ष- गोचर भूमियों का प्रबन्ध इस विभाग का कार्य था। चोर तथा हिंसक जन्तु चरागाहों को नुकसान न पहुँचाएँ, यह प्रबन्ध करना; जहाँ पशुओं के पीने का जल न उपलब्ध हो, वहाँ उसका प्रबन्ध करना और तालाब तथा कुएँ बनवाना इसी विभाग के कार्य थे। जंगल की सड़कों को ठीक रखना, व्यापारियों के माल की रक्षा करना, काफिलों को डाकुओं से बचाना तथा शत्रुओं के हमलों की सूचना राजा को देना, यह सब कार्य विवीताध्यक्ष के सुपुर्द थे।
  • नावाध्यक्ष- जलमार्गों का सब प्रबन्ध नावध्यक्ष के अधीन था। छोटी-बड़ी नदियों, समुद्रतटों तथा महासमुद्रों को पार करने वाली नौकाओं और जहाजों का वही प्रबन्ध करता था। जलमार्ग से यात्रा करने पर क्या किराया लगे, यह सब नावध्यक्ष द्वारा ही तय किया जाता था।
  • गो-अध्यक्ष- राजकीय आय तथा सैनिक दृष्टि से, राज्य की ओर से गौओं तथा अन्य उपयोगी पशुओं की उन्नति का विशेष प्रयत्न होता था। राज्य की ओर से बड़ी-बड़ी गोशालाएँ भी होती थीं। इन सबका प्रबन्ध गो-अध्यक्ष के अधीन था।
  • अश्वाध्यक्ष- सैनिक दृष्टि से उस समय घोड़ों का बड़ा महत्त्व था। उनके पालन, नस्ल की उन्नति आदि पर राज्य की ओर से बहुत ध्यान दिया जाता था। घोड़ों को युद्ध के लिए तैयार करने के लिए अनेक प्रकार के अभ्यास या कवायद करायी जाती थी। ये सब कार्य अश्वाध्यक्ष के अधीन थे।
  • हस्त्याध्यक्ष- यह जंगलों से हाथियों को पकडवाने, हस्तिवनों की रक्षा करने तथा हाथियों के पालन और सैनिक दृष्टि से उन्हें तैयार करने का कार्य करता था। इसी तरह ऊंट, खच्चर, भैस, बकरी आदि के लिए भी पृथक् उपविभाग थे।
  • कुप्याध्यक्ष- कुप्य पदार्थों का अभिप्राय शाक, महुआ, तिल, शीशम खैर, शिरीष, देवदार, कत्था, राल, औषधि आदि से है। ये सब पदार्थ जंगलों में पैदा होते हैं। कुप्याध्यक्ष का कार्य यह था, कि जंगलों उत्पन्न होने वाले विविध पदार्थों को एकत्र कराकर उन्हें कारखानों में भेज दें, ताकि वहाँ कच्चे माल को तैयार माल के रूप में परिवर्तित किया जा सके। कुप्याध्यक्ष के अधीन द्रव्यपाल और वनपाल नाम के कर्मचारी होते थे, जो जंगलों से कुप्य द्रव्यों को एकत्र कराने तथा जगलों की रक्षा का कार्य करते थे।
  • पण्याध्यक्ष- यह न केवल स्वदेशी और विदेशी व्यापार का नियंत्रण करता था, अपितु राज्य द्वारा अधिकृत व निर्मित पदार्थों को बेचने का भी प्रबन्ध करता था।
  • लक्षणाध्यक्ष- सम्पूर्ण मुद्रापद्धति (करेंसी) इसके अधीन थी। मौर्य-युग का प्रधान सिक्का पण कहलाता था, जो चाँदी का बना होता था। पण के अतिरिक्त अर्धपण, पादपण तथा अष्टभागपण नाम के सिक्के भी होते थे।
  • आकराध्यक्ष- मौर्यकाल में आकरों (खानों) से धातुओं और अन्य बहुमूल्य पदार्थों को निकालने का कार्य बहुत उन्नत था। यह सब कार्य आकराध्यक्ष के अधीन रहता था। उसके अधीन अन्य अनेक उपाध्यक्ष होते थे, जिनमें लोहाध्यक्ष, लवणाध्यक्ष, खन्याध्यक्ष और सुवर्णाध्यक्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
  • देवताध्यक्ष- विविध देवताओं और उनके मन्दिरों का प्रबन्ध इसके अधीन रहता था।
  • सौवर्णिक- टकसाल के अध्यक्ष को सौवर्णिक कहते थे।

ये विविध अध्यक्ष समाहर्ता के विभाग के अधीन होते थे। समाहर्ता राज्य का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अधिकारी होता था, और जनपदों के शासन का संचालन बहुत-कुछ इसी के हाथ में रहता था।

सन्निधाता- राजकीय कोष का विभाग सन्निधाता के हाथ में होता था। राजकीय आय और व्यय का हिसाब रखना और उसके सम्बन्ध में नीति का निर्धारण करना सन्निधाता का ही कार्य था। चाणक्य ने लिखा है- सन्निधाता को सैकड़ों वर्ष की बाहरी तथा अन्दरूनी आय-व्यय का परिज्ञान होना चाहिये, जिससे कि वह बिना किसी संकोच या घबराहट के तुरन्त व्ययशेष अथवा अधिशेष (नेट इन्कम या सरप्लस) को बता सके।

सन्निधाता के अधीन भी अनेक उपविभाग थे- कोशगृह, पण्यगृह, कोष्ठागार, कुप्यगृह, आयुधागार और बंधनागार ऐसे ही उप-विभाग थे जिन पर सतिधाता का नियंत्रण था। कोषगृह के अध्यक्ष को कोषाध्यक्ष कहते थे। वह कोषगृह में सब प्रकार के रत्नों तथा अन्य बहुमूल्य पदार्थों का संग्रह करता था। चाणक्य के अनुसार कोषाध्यक्ष का कर्तव्य है कि वह रत्नों के मूल्य, प्रमाण, लक्षण, जाति, रूप, प्रयोग, संशोधन, देश तथा काल के अनुसार उनका घिसना या नष्ट होना, मिलावट, हानि का प्रत्युपाय आदि बातों का परिज्ञान रखे। पण्यगृह में राजकीय पण्य (विक्रय पदार्थ) एकत्र किये जाते थे। राज्य की तरफ से जिन अनेक व्यवसायों का संचालन होता उनसे तैयार किये गए पदार्थ सन्निधाता के अधीन पण्यगृह में भेज दिये जाते थे। राजकीय पण्य की बिक्री के अतिरिक्त पण्याध्यक्ष का यह कार्य भी था की वह अन्य विक्रय माल की बिक्री को नियन्त्रित करे। माल के विक्रय के सम्बन्ध में अर्थशास्त्र में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है कि उसे जनता की भलाई की दृष्टि से बेचा जाए। कोष्ठागार में वे पदार्थ संगृहीत किये जाते थे, जिनकी राज्य को आवश्यकता रहती थी। सेना, राजपुरुष आदि के खर्च के लिए राज्य की ओर से जो माल खरीदा जाता था, स्वयं बनाया जाता था या बदले में प्राप्त किया जाता था, वह सब कोष्ठागार में रखा जाता था। कुप्यगृह में कुप्य पदार्थ (जंगल से प्राप्तव्य विविध प्रकार के काष्ठ, ईंधन आदि) एकत्र किये जाते थे। आयुधागार में सब प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों का संग्रह रहता था। कारागार (जेलखाना) का विभाग भी सन्निधाता के अधीन था।

  1. सेनापति यह युद्धविभाग का महामात्य होता था। चाणक्य ने सेनापति की अहताओं और दायित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि सेनापति सम्पूर्ण युद्ध-विद्या तथा अस्त्र-शस्त्र विद्या में पारंगत हो, हाथी, घोड़ा तथा रथ के संचालन में समर्थ हो। वह चतुरंग (पदाति, अश्व, रथ, हस्ति) सेना के कार्य तथा स्थान का निरीक्षण करे। वह अपनी भूमि (मोरचा), युद्ध का समय, शत्रु की सेना, सुदृढ़ व्यूह का भेदन, टूटे हुए व्यूह का फिर से निर्माण, एकत्रित सेना को तितर-बितर करना, तितर-बितर हुई सेना का संहार करना, किले को तोड़ना, युद्धयात्रा का समय आदि बातों का हर समय ध्यान रखे।
  2. युवराज- राजा की मृत्यु के बाद जहाँ युवराज राजगद्दी का उत्तराधिकारी होता था, वहाँ राजा के जीवनकाल में भी वह शासन में हाथ बंटाता था। उसका तीर्थ (विभाग) अलग था, और शासन सम्बन्धी अनेक अधिकार उसे प्राप्त रहते थे। राजा की अनुपस्थिति में वह रीजेन्ट का भी कार्य करता था। वह समदत्त शासन कायों में राजा की सहायता करता था।
  3. प्रदेष्टा- मौर्यकाल में न्यायालय दो प्रकार के होते थे, धर्मस्थीय और कंटकशोधन। कंटकशोधन न्यायालयों के न्यायाधीश को प्रदेष्टा कहते थे। विविध अध्यक्षों और राजपुरुषों पर नियन्त्रण रखना और वे बेईमानी, चोरी, रिश्वत आदि से अपने को अलग रखें, इसका ध्यान रखना भी प्रदेष्टा का कार्य था।
  4. नायक- सेना के मुख्य संचालक को नायक कहते थे। सेनापति सैन्य-विभाग का महामात्य होता था, पर नायक सेना का युद्धक्षेत्र में संचालन करता था। स्कधावार (छावनी) तैयार कराने का काम उसी के हाथ में था। युद्ध का अवसर आने पर विविध सैनिकों को क्या-क्या काम दिया जाय, सेना की व्यूह-रचना आदि कैसे की जाय-इन सब बातों का निर्णय नायक ही करता था। युद्ध के समय वह सेना के आगे रहता था।
  5. व्यवहारिक- धर्मस्थीय न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को व्यवहारिक कहते थे। इसी को धर्मस्थ भी कहते थे।
  6. कामान्तिक- मौर्यकाल में राज्य की ओर से अनेक कारखानों का संचालन होता था। खानों, जगलों, खेतों आदि से एकत्र कच्चे माल को, विविध प्रकार के तैयार माल के रूप में परिवर्तित करने के लिए राज्य की ओर से जो कारखाने थे, उनका संचालन कामान्तिक के अधीन था। उसे बेचने का प्रबन्ध एक स्थान पर किया जाता था।
  7. मन्त्रि परिषद् अध्यक्ष- राजा को सलाह देने के लिए मन्त्रिपरिषद् होती थी। उसका एक पृथक विभाग होता था, जिसके अध्यक्ष की गिनती राज्य के प्रधान अठारह तीथों में की जाती थी।
  8. दण्डपाल- सेना के दो महामात्यों, सेनापति और नायक का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। दण्डपाल भी सेना के साथ ही सम्बन्ध रखता था। इसका विशेष कार्य सेना की सब आवश्यकताओं को पूरा करना और उसके लिए सब प्रबन्ध करना होता था।
  9. अन्तपाल- मगध साम्राज्य में सीमान्त प्रदेशों का बड़ा महत्त्व था। उस समय सीमा की रक्षा के लिए बहुत-से दुर्ग बनाये जाते थे। विदेशी सेना जब आक्रमण करके अपने राज्य की सीमा को लांघने लगे, तो यह दुर्ग देश की रक्षा के लिये बड़े उपयोगी होते थे। सीमाप्रदेश के रास्तों पर भी जगह-जगह छावनियाँ डाली जाती थी, जिनकी व्यवस्था का कार्य अन्तपाल के सुपुर्द था। सीमाप्रान्त में ऐसी भी अनेक जातियों को बसाया जाता था, जिन्हें लड़ाई में ही आनन्द आता था और जिनका पेशा ही युद्ध करना होता था। इन्हें साम, दाम और भेद द्वारा अपने पक्ष में रखा जाता था। शत्रु के आक्रमण करने पर ये सब जातियाँ उसका मुकाबला करने के लिए उठ खड़ी होती थीं। इनकी व्यवस्था भी अन्तपाल के ही हाथ में थी।
  10. दुर्गपाल- जिस प्रकार सीमा-प्रदेशों के दुर्ग अन्तपाल के अधीन थे, वैसे ही साम्राज्य के अन्तर्वर्ती दुर्ग दुर्गपाल के अधिकार में रहते थे। इस युग में बड़े-बड़े नगर भी दुर्ग के रूप में ही बसे होते थे। इन सब की दुर्ग-रूप में व्यवस्था दुर्गपाल के हाथ में होती थी।
  11. नागरक- जैसे जनपदों का शासन समाहर्ता के अधीन था, वैसे ही पुरों या नगरों के शासन का सर्वोच्च अधिकारी नागरक होता था। विशेषतया राजधानी का शासन नागरक के हाथ में रहता था। साम्राज्य में राजधानी की विशेष महत्ता होती थी। पाटलिपुत्र उस युग में संसार का सबसे बड़ा नगर था। रोम और एथेन्स का विस्तार पाटलिपुत्र की अपेक्षा बहुत कम था। 9 मील लम्बे और 1½ मील चौडे इस विशाल नगर का प्रबन्ध एक पृथक् महामात्य के अधीन हो, यह उचित ही था।
  12. प्रशास्ता- चाणक्य के अनुसार- राजकीय आज्ञाओं पर शासन आश्रित होता है। सन्धि और विग्रह का मूल राजकीय आज्ञाएँ ही होती हैं। इन सब आज्ञाओं (राजशासन) को लिपिबद्ध करने के लिए एक पृथक् विभाग था, जिसके प्रधान अधिकारी को प्रशास्ता कहते थे। राज्य के लिए सब विभागों का रिकार्ड रखना भी इसी का काम था। उसके अधीन जो विशाल कार्यालय होता था, उसे अक्षपटल कहते थे। राजकीय कर्मचारियों के वेतन, नौकरी की शर्ते, विविध देशों, जनपदों, ग्रामों, श्रेणियों आदि के धर्म, व्यवहार तथा चरित्र आदि का उल्लेख, और खानों, कारखानों आदि के कार्य का हिसाब-ये सब अक्षपटल में भली-भाँति पंजीकृत किये जाते थे।
  13. दौवारिक- यह राजप्रासाद का प्रधान पदाधिकारी होता था। मगध-साम्राज्य के कूटस्थानीय राजा का राजप्रासाद अत्यन्त विशाल था, जिसमें हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष रहते थे। इन सबका प्रबन्ध करना और अन्त:पुर के आन्तरिक शत्रुओं से राज्य की रक्षा करना दौवारिक का कार्य था। दौवारिक एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी होता था। यह हर्षचरित्र से भी ज्ञात होता है, जहाँ पारिपात्र नाम के दौवारिक का वर्णन कर उसे महाप्रतीहारों में मुख्य कहा गया है।
  14. आन्तर्वशिक राजा का निजी अगरक्षक सेना के अध्यक्ष को आन्तर्वशिक कहते थे। अन्त:पुर के अन्दर भी आन्तर्वशिक के विश्वस्त सैनिक राजा की रक्षा के लिये सदा तत्पर रहते थे। जिस समय राजा रानी से मिलता था, तभी वह अकेला होता था। पर उस समय भी यह भली-भाँति देख लिया जाता था कि रानी के शयनागार में कोई अन्य व्यक्ति तो छिपा हुआ नहीं है। परिचारिकाएँ रानी की भी अच्छी तरह तलाशी ले लेती थीं। यह सब प्रबन्ध आन्तर्वशिक के अधीन होता था।
  15. आटविक- मगध-साम्राज्य की सेना में आटविक बल का बड़ा महत्त्व था। मगध-सम्राटों ने अपनी शक्ति के विस्तार में इन आटविक सेनाओं का भली-भाँति उपयोग किया था। इन्हीं के प्रधान राजकर्मचारी को आटविक या अटविपाल कहते थे, और उसे राज्य के अठारह तीथों में से एक माना जाता था। यूनानी लेखकों ने तीन प्रकार के कर्मचारियों की चर्चा की है। इनमें एग्रोनोमाई, एरिस्टोनोमाई और सैनिक कायों की देखभाल करने वाले अधिकारी होते थे। सिंचाई और भूमि की पैमाइश का, शिकार तथा कृषि वनसंपदा, कारखानों और खानों का निरीक्षण इनका दायित्व था। एरिस्टोनोमार्इ नगर कमिश्नर होते थे। मेगस्थनीज भारतीय समाज के सप्रवर्गीय श्रेणीकरण के क्रम पर जाँच अधिकारियों की श्रेणी का उल्लेख करते हैं। डायोडोरस ने एपिसकोपोड़ तथा एसियन ने इफ़ोरोई के रूप में इसका उल्लेख किया है।

गुप्तचर व्यवस्था


मौर्य साम्राज्य के केन्द्रीयकरण का आधार गुप्तचर व्यवस्था थी। गुप्तचर व्यवस्था ने विशाल साम्राज्य तथा इसकी विशाल नौकरशाही पर केन्द्रीय नियंत्रण को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस समय गुप्तचरों को चर या गूढ़पुरूष कहा जाता था। गुप्तचर दो प्रकार के होते थे: संस्था और संचारा, संगठित होकर काम करने वाले गुप्तचर को संस्था कहा जाता था। इसके विभिन्न प्रकार इस प्रकार हैं-

  • कापाटिक छात्र – दूसरे के मन की बात जानने में प्रवीण
  • उदास्थित – संन्यासी के वेश में
  • गृहपतिक – कृषकों के वेश में
  • वैदेहक – सौदागर के वेश में
  • तापस – साधु के वेश में।

घुमक्कड़ गुप्तचरों को संचार कहा जाता था। इसके निम्न प्रकार थे–

  • सूत्री – प्रशिक्षित
  • तीक्ष्ण – साहसी
  • रसद – क्रतूर
  • परिव्राजिका – सन्यासिनी
  • उभयवर्तन – शत्रुराज्य से मिल जाने वाले गुप्तचर, कौटिल्य द्वारा उभयवेतन का उल्लेख।

न्याय व्यवस्था

विशाल मगध-साम्राज्य में न्याय के लिए अनेक प्रकार के न्यायालय होते थे। सबसे छोटा न्यायालय ग्राम-संस्था (ग्रामसंघ) का होता था, जिसमें ग्राम के निवासी अपने मामलों का स्वयं निपटारा करते थे। इसके ऊपर सग्रहण के, फिर द्रोणमुख के और फिर जनपदसन्धि के न्यायालय होते थे। इनके ऊपर पाटलिपुत्र में विद्यमान धर्मस्थीय और कंटकशोधन न्यायालय थे। सबसे ऊपर राजा होता था, जो अनेक न्यायाधीशों की सहायता से किसी भी मामले का अन्तिम निर्णय करने का अधिकार रखता था। ग्राम संघ और राजा के न्यायालय के अतिरिक्त बीच के सब न्यायालय भी धर्मस्थीय और कंटकशोधन, इन दो भागों में विभक्त रहते थे। धर्मस्थीय न्यायालयों के न्यायाधीश धर्मस्थ या व्यवहारिक कहलाते थे और कटकशोधन के प्रदेष्टा। कौटिल्य ने विधि के चार स्रोत माने हैं:- धर्म, व्यवहार, चरित्र तथा राजाज्ञा।

धर्मस्थीय- इन दोनों प्रकार के न्यायालयों में किन-किन बातों के मामलों का फैसला होता था। इसकी विस्तृत सूची कौटिल्य अर्थशास्त्र में दी गई है। धर्मस्थीय में प्रधानतया निम्नलिखित मामले पेश होते थे- दो व्यक्तियों या व्यक्तिसमूहों के आपस के व्यवहार के मामले, आपस में जो समय अनुबंध हुआ हो उसके मामले, स्वामी और भृत्य के झगडे, दासों के झगड़े, ऋण को चुकाने के मामले, धन को अमानत पर रखने से पैदा हुए झगडे, क्रय-विक्रय सम्बन्धी मामले, दिये हुए दान को फिर लौटाने या प्रतिज्ञात दान को न देने के मामले, डाका, चोरी या लूट के मुकदमे, किसी पर हमला करने का मामला, गाली, कटुवचन या मानहानि के मामले, जुए-सम्बन्धी झगडे, स्वामित्व मिल्कियत के बिना ही किसी सम्पत्ति को बेच देना, मिल्कियत सम्बन्धी विवाद, सीमा सम्बन्धी झगडे, इमारतों को बनाने के कारण उत्पन्न मामले, चरागाहों, खेतों और मार्गों को क्षति पहुँचाने के मामले, पति-पत्नी सम्बन्धी मुकदमें, स्त्री-धन सम्बन्धी विवाद, सम्पत्ति के बंटवारे और उत्तराधिकार सम्बन्धी झगडे, सहकारिता, कम्पनी तथा साझे के मामले, विविध रूकावटें पैदा करने के मामले, न्यायालय में स्वीकृत निर्णयविधि सम्बन्धी विवाद और विविध मामले।

कण्टकशोधन न्यायालय- कंटकशोधन न्यायालयों में निम्नलिखित मामले पेश होते थे-शिल्पियों व कारीगरों की रक्षा तथा उनसे दूसरों की रक्षा, राष्ट्रीय व सार्वजनिक आपत्तियों के निराकरण सम्बन्धी मामले, गैर कानूनी उपायों से आजीविका चलाने वाले लोगों को गिरफ्तारी, अपने गुप्तचरों द्वारा अपराधियों को पकड़ना, सन्देह होने पर या वस्तुतः अपराध करने पर गिरफ्तारी, मृतदेह की परीक्षा कर मृत्यु के कारण का पता लगाना, अपराध का पता करने के लिए भाँति के प्रश्नों तथा शारीरिक कष्टों का प्रयोग, सरकार के सम्पूर्ण विभाग की रक्षा, अंग काटने की सजा मिलने पर उसके बदले में जुरमाना देने के आवेदन-पत्र, शारीरिक कष्ट के साथ या उसके बिना मृत्युदण्ड देने का निर्णय, कन्या पर बलात्कार और न्याय का उल्लंघन करने पर दण्ड देना। इसके विपरीत कंटकशोधन न्यायालयों में वे मुकदमे उपस्थित किये जाते थे, जिनका सम्बन्ध राज्य से होता था। कंटकशोधन का अभिप्राय ही यह है कि राज्य के कटकों (काँटों) को दूर करना।

राजकीय आय-व्यय

कौटिल्य अर्थशास्त्र में राजकीय आय के निम्नलिखित साधन लिखे गये हैं-

  1. दुर्ग- नगरों से जो विविध आमदनी मगध-साम्राज्य की होती थी, उसे दुर्ग कहा जाता था। दुर्गों से आय के विविध साधन निम्नलिखित थे- (क) शुल्क-चुंगी। (ख) पौतव-तौल और माप के साधनों को प्रमाणित करने से प्राप्त कर। (ग) दण्ड-जुर्माना। (घ) नागरक-नगर के शासक द्वारा किये गए जुरमानों से आय। (ङ) लक्षणाध्यक्ष-मुद्रा पद्धति की आय। (च) मुद्रा-नगर प्रवेश के समय मुद्रा (सरकारी पास) लेने से होने वाली आमदनी। (छ) सुरा-शराब के ठेकों की आय। (ज) सूना-बूचड़खानों की आमदनी। (झ) सूत्र-राज्य की ओर से सूत कातने आदि के जो काम कराये जाते थे, उनकी आमदनी। (ज) तेल-तेल के व्यवसाय पर जो राज्य कर वसूल किया जाता था, उसकी आय। (ट) घृत-घी के कारोबार से वसूल होने वाला कर। (ठ) नमक-नमक बनाने पर लगाया गया कर। (ड) सौवर्णिक-सुनारों से वसूल होने वाला कर। (ढ) पण्यसंस्था-राजकीय पण्य की बिक्री से होने वाली आय। (ण) वेश्या-वेश्याओं द्वारा आय तथा स्वतन्त्र व्यवसाय करने वाली वेश्याओं से कर। (त) द्यूत-जुए की आय। (थ) वास्तुक-अचल सम्पत्ति से वसूल किया जाने वाला कर तथा जायदाद की बिक्री के समय लिया जाने वाला कर। (द) कारीगरों तथा शिल्पियों की श्रेणियों से वसूल होने वाला कर। (ध) देवताध्यक्ष-धर्म मन्दिरों से प्राप्त होने वाली आय का अंश। (न) द्वार-नगर के द्वार से आने या जाने वाले माल पर लिया हुआ कर। (प) वाहिरकादेय-अत्यन्त धनी लोगों से लिया जाने वाला अतिरिक्त कर।
  2. राष्ट्- देहातों या जनपद से जो आमदनी राज्य की होती थी, उसे राष्ट्र कहते थे। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकार की आय होती थी- (क) सीता-राज्य की अपनी जमीनों से होने वाली आय। (ख) भाग-जिन जमीनों पर राज्य का स्वामित्व नहीं था, उनसे वसूल किया जाने वाला अंश। (ग) बलि-तीर्थस्थान आदि धार्मिक स्थानों पर लगा हुआ विशेष कर। (घ) वणिक्-देहात के व्यापार पर लिया जाने वाला कर। (ङ) नदी-नदियों पर बने हुए पुलों पर से पार उतरने पर लिया जाने वाला कर। (च) नाव-नौका से नदी पार करने पर लिया जाने वाला कर। (छ) पट्टन-कसबों के कर। (ज) विवीत-चरागाहों के कर। (झ) वर्तनी-सड़कों के कर। (ञ) चोर रज्जु-चोरों की गिरफ्तारी से प्राप्त होने वाली आमदनी।
  3. खनि- मौर्य-युग में खाने राज्य की सम्पत्ति होती थी। सोना, चाँदी, हीरा, मणि, मुक्ता, शंख, लोहा, नमक, पत्थर तथा अन्य अनेक प्रकार की खानों से राज्यकोष को बहुत आय होती थी।
  4. सेतु- पुष्पों और फूलों के उद्यान, शाक के खेत और मूलों (मूली, शलगम, कन्द आदि) के खेतों से जो आय होती थी, उसे सेतु कहते थे।
  5. वन- जंगलों पर उस युग में राज्य का अधिकार होता था। जंगलों से राज्य की अनेक प्रकार की आय होती थी।
  6. व्रज- गाय, घोडा, भैंस, बकरी आदि पशुओं से होने वाली आय को व्रज कहते थे। मौर्य काल में राज्य की अपनी पशुशालाएँ भी होती थीं।
  7. वणिक्पथ- वणिक्पथ दो प्रकार के होते थे, स्थल-पथ और जल-पथ। इनसे होने वाली आय भी वणिक्पथ कहलाती थी।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में राजकीय आय के ये सात साधन वर्णित हैं। यदि आधुनिक राजस्व शास्त्र के अनुसार मौर्यकाल की राजकीय आय का हम अनुशीलन करना चाहें तो इस प्रकार कर सकते हैं-

1. भूमिकर- जमीन से राज्य को दो प्रकार की आमदनी होती थी-सीता और भाग। राज्य को अपनी जमीनों से जो आमदनी होती थी, उसे सीता कहते थे। जो जमीनें राज्य की अपनी सम्पत्ति नहीं थी, उनसे भाग वसूल किया जाता था। जो किसान स्वतन्त्र रूप से खेती करते थे, और सिंचाई का प्रबन्ध भी अपने आप करते थे, उनसे जमीन के उत्तम या निकृष्ट होने के अनुसार कुल उपज का 1/4 या 1/5 भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था। जो किसान सिंचाई के लिए सरकार से जल लेते थे, उनके भूमिकर की दर अलग थी। जिन जमीनों की सिंचाई कूप आदि से हाथ द्वारा पानी खींचकर होती थी, उनसे उपज का 1/5 भाग लिया जाता था। जिनको चरस, रहट आदि द्वारा पानी खींचकर सींचने के लिए दिया जाता था, उनसे उपज का 1/4 भाग लिया जाता था। जहाँ सिंचाई पम्प, वातयन्त्र आदि द्वारा होती थी उनसे उपज का 3/4 भाग लेने का नियम था। नदी या नहर से सिंचाई होने की दशा में भूमिकर की मात्रा उपज का चौथाई भाग होती थी।

यदि कोई किसान तालाब या पक्के मकान को नये सिरे से बनाये तो उसे पाँच साल के लिये भूमिकर से मुक्त कर दिया जाता था। टूटे-फूटे तालाब या मकान का सुधार करने पर चार वर्ष तक और बने हुए को बढ़ाने पर तीन साल तक भूमिकर नहीं लिया जाता था।

2. तटकर- मौर्यकाल में तटकर दो प्रकार के होते थे, निष्क्राम्य (निर्यातकर) और प्रवेश्य (आयात-कर)। आयात माल पर कर की मात्रा प्राय: 20 फीसदी थी। सन के कपड़े, मलमल, रेशम, लोहा, पारा आदि अनेक पदार्थों पर कर की दर 10 फीसदी थी। कुछ पदार्थों पर कर की मात्रा 5, 6¼, 7½ और 12½ फीसदी भी होती थी। पर साधारण नियम 20 फीसदी का ही था। कुछ देशों के साथ आयात-कर के सम्बन्ध में रियायत भी की जाती थी। इसे देशोपकार कहते थे। चाणक्य ने लिखा है- देश और जाति के चरित्र के अनुसार नये और पुराने माल पर कर स्थापित करें अन्य क्षेत्रों के अपकार करने पर शुल्क को बढ़ा दें। जिन व्यवसायों पर राज्य का एकाधिकार था, उनके अन्य देशों से आने पर अतिरिक्त-कर (वैधरण) भी लिया जाता था। उदाहरण के लिये यदि नमक को विदेश से मंगाना हो, तो 16⅔, फीसदी आयात-कर तो लिया ही जाता था, पर साथ ही उतना वैधरण (हरजाना या अतिरिक्त-कर) भी देना पड़ता था, जितना कि विदेशी नमक के आने से नमक के राजकीय व्यवसाय को हानि पहुँची हो। इसी तरह तेल, शराब आदि राज्याधिकृत वस्तुओं के आयात पर भी हरजाना देना होता था। इस आयात का उद्देश्य राजकीय आमदनी को बढ़ाना ही था। विदेशी व्यापार के सम्बन्ध में आचार्य चाणक्य की नीति यह थी- विदेशी माल की अनुग्रह से स्वदेश में प्रवेश कराया जाय। इसके लिये नाविकों तथा विदेशी माल के व्यापारियों के लिए मुनाफे के ऊपर लिये जाने वाला कर माफ कर दिया जाय।

निर्यात माल पर भी कर लिया जाता था, यह तो कौटिल्य अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है, पर इस कर की क्या दर थी, इस सम्बन्ध में कोई सूचना चाणक्य ने नहीं दी। अपने देश के माल को बाहर भेजने के सम्बन्ध में अर्थशास्त्र के निम्नलिखित वाक्य महत्त्व के हैं- जल-मार्ग से विदेश में माल को भेजने से पहले मार्ग-व्यय, भोजन-व्यय, विनिमय में प्राप्त होने वाले विदेशी माल की कीमत तथा मात्रा, यात्राकाल, भय-प्रतीकार के उपाय में हुआ व्यय, बन्दरगाहों के रिवाज, नियमों आदि का पता लगाये। भिन्न-भिन्न देशों के नियमों को जानकर जिन देशों में माल भेजने से लाभ समझे, वहाँ माल भेजा जाए। जहाँ हानि की सम्भावना हो, वहाँ से दूर रहे। इसी प्रकार परदेश में व्यापार के लिए, पण्य एवं प्रतिपण्य (निर्यात माल और उसके बदले में वाला माल) के मूल्य में चुंगी, सड़क-कर, गाड़ी का खर्च, दुर्ग का कर, नौका के भाड़े का खर्च आदि घटाकर शुद्ध लाभ का अनुमान करे। यदि इस ढंग से लाभ न मालूम पड़े, तो यह देखे कि अपने देश के बदले में कोई ऐसी वस्तु विदेश मंगाई जा सकती है या नहीं, जिससे लाभ रहे। इसमें संदेश नहीं कि आचार्य चाणक्य विदेशी व्यापार को उत्तम मानते थे और उसकी वृद्धि में देश का लाभ समझते थे।

3. बिक्री पर कर- मौर्यकाल में बिक्री पर शुल्क लेने की व्यवस्था थी। चाणक्य ने लिखा है, कि उत्पत्ति स्थान पर कोई भी पदार्थ बेचा कोई भी वस्तु शुल्क से न बच सके, इसलिए यह नियम बनाया गया था कि जो इस नियम का उल्लंघन करे, उन पर भारी जुर्माना लगाया जाये। इन जुर्मानों की मात्रा बहुत अधिक थी। खानों से खनिज पदार्थ खरीदने पर 600 पण, और खेत से अनाज मोल लेने पर 53 पण जुरमाने की व्यवस्था थी। सब माल पहले शुल्काध्यक्ष के पास लाया जाता था। शुल्क दे देने के बाद उन पर अभिज्ञानमुद्रा लगाई जाती थी। उसके बाद ही माल की बिक्री हो सकती थी, पहले नहीं।

शुल्क की मात्रा के सम्बन्ध में यह विवरण उद्धृत करने योग्य हैं- नाप कर बेचे जाने वाले पदाथों पर 6¼ फीसदी, तोलकर बेचे जाने वाले पदाथों पर 5 फीसदी और गिनकर बेचे जाने वाले पदार्थों पर 9½ प्रतिशत शुल्क लिया जाये।

4. प्रत्यक्ष कर- मौर्ययुग में जो विविध प्रत्यक्ष कर लगाये जाते थे, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-

  • तोल और माप के परिमाणों पर चार माषक कर लिया जाता था। प्रमाणिक बट्टों और माप के साधनों को काम में न लाने पर दण्ड के रूप में 27¼ पण जुरमाना लिया जाता था।
  • जुआरियों पर- जुआ खेलने की अनुमति लेने पर कर देना पड़ता था, और जो धन जुए में जीता जाए, उसका 5 फीसदी राज्य लेता था।
  •  रूप से आजीविका चलाने वाली वेश्याओं से दैनिक आमदनी का दुगना प्रतिमास कर-रूप में लिया जाता था। इसी तरह के कर नटों, व अन्य तमाशा करने वालों से भी वसूल करने का नियम था। पर यदि ये लोग विदेशी हों, तो इनसे पाँच पण अतिरिक्त कर भी लिया जाता था।
  • धोबी, सुनार और इस तरह के अन्य शिल्पियों पर भी अनेक कर लगाये जाते थे। इन्हें अपना व्यवसाय चलाने के लिए लाइसेंस लेना होता था।

5. राज्य द्वारा अधिकृत व्यवसायों से आय- राज्य का जिन व्यवसायों पर एकाधिपत्य था, उनमें खाने, जंगल, नमक का निर्माण और अस्त्र-शस्त्र का कारोबार मुख्य थे। इनके अतिरिक्त शराब का निर्माण भी राज्य के ही अधीन था। इन सबसे राज्य को अच्छी आमदनी होती थी। अनेक व्यापारियों पर भी राज्य का स्वत्व उस युग में होता था। राज्य की ओर से जो पदार्थ बिक्री के लिए तैयार कराये जाते थे, उनकी बिक्री भी वह स्वयं ही करता था।

6. जुरमानों से आय- मौर्यकाल में अनेक अपराधों के लिए दण्ड के रूप में जुरमाना लिया जाता था। इनका बड़े विस्तार से वर्णन कौटिल्य अर्थशास्त्र से उपलब्ध होता है।

7. विविध- मुद्रापद्धति पूर्णतया राज्य के हाथ में होती थी। रूप्य, पण आदि सिक्के टकसाल में बनते थे। जो व्यक्ति चाहे अपनी धातु ले जाकर टकसाल में सिक्के ढलवा सकता था। पर इसके लिए एक निश्चित प्रीमियम देना पड़ता था। जो कोई सरकारी टकसाल में नियमानुसार सिक्के न बनवाकर स्वयं बनाता था, उस पर 25 पण जुरमाना किया जाता था। गरीब और अशक्त व्यक्तियों के गुजारे का प्रबन्ध राज्य करता था, पर इस तरह के लोगों से सूत कातने, कपड़ा बुनने, रस्सी बँटने आदि के काम भी लिये जाते थे। राज्य की इनसे भी आय होती थी।

इन सबके अतिरिक्त आपात्काल में सम्पत्ति पर अनेक प्रकार के विशेष कर लगाये जाते थे। अर्थशास्त्र में इनका भी विस्तार से वर्णन किया गया है। सोना-चाँदी, मणिमुक्ता आदि का व्यापार करने वाले धनी लोगों से ऐसे अवसर पर 2 फीसदी अतिरिक्त कर लिया जाता था। अन्य प्रकार के व्यापारियों व व्यवसायियों से भी ऐसे अवसरों पर विशेष कर की व्यवस्था थी, जिसकी मात्रा 50 फीसदी से 2½ फीसदी तक होती थी। मन्दिरों और धार्मिक संस्थाओं से भी ऐसे अवसरों पर उपहार और दान लिये जाते थे। जनता से अनुरोध किया जाता था, कि ऐसे अवसर पर उदारतापूर्वक राज्य को धन दें। इसके लिये दानियों का अनेक प्रकार से सम्मान भी किया जाता था।

राज्य को विविध करों से जो आमदनी होती थी, उसके व्यय के सम्बन्ध में भी बहुत-सी उपयोगी बातें कौटिल्य अर्थशास्त्र से ज्ञात होती हैं। यहाँ इनका भी संक्षेप में उल्लेख करना उपयोगी है।

1. राजकर्मचारियों के वेतन- अर्थशास्त्र में विविध राजकर्मचारियों के वेतनों की दरें उल्लिखित हैं। इनमें मन्त्री, पुरोहित, सेनापति जैसे बड़े पदाधिकारियों का वेतन 4000 पण मासिक दिया गया है। प्रशास्ता, समाहर्ता और आंतर्वशिक सदृश्य कर्मचारियों को 2000 पण मासिक; नायक, व्यवहारिक, अन्तपाल आदि को 1000 पण मासिक; अश्वमुख्य, रथमुख्य आदि को 660 पण मासिक; विविध अध्यक्षों को 330 पण मासिक; पदाति, सैनिक, लेखक, संख्यायक आदि को 42 पण मासिक और अन्य छोटे-छोटे कर्मचारियो को 5 पण मासिक वेतन मिलता था। इनके अतिरिक्त यदि किसी राजसेवक की राजसेवा करते हुए मृत्यु हो जाती थी, तो उसके पुत्र और स्त्री को कुछ वेतन मिलता रहता था। साथ ही, उसके बालक, वृद्ध तथा व्याधिपीड़ित सम्बन्धियों के साथ अनेक प्रकार के अनुग्रह प्रदर्शित किये जाते थे।

2. सैनिक व्यय- सेना के विविध सिपाहियों और ऑफिसरों को किस दर से वेतन मिलता था, इसका पूरा विवरण अर्थशास्त्र में दिया गया है। मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में 6 लाख पदाति, तीस हजार अश्वारोही, 9000 हाथी और 8000 रथ थे। यदि अर्थशास्त्र में लिखी दर से इन्हें वेतन दिया जाता तो केवल वेतनों में ही 36½ करोड़ पण प्रतिवर्ष खर्च हो जाता था। इसमें सन्देह नहीं कि मगध-साम्राज्य में सैनिक व्यय की मात्रा बहुत अधिक होती थी।

3. शिक्षा- मौर्यकाल में जो व्यय राज्य की ओर से शिक्षा के लिए किया जाता था, उसे देवपूजा कहते थे। अर्थशास्त्र के अध्ययन से प्रतीत होता है, कि अनेक शिक्षणालयों का संचालन राज्य की ओर से भी होता था, और इनके शिक्षकों को राजा द्वारा वेतन मिलता था। इसे भृति या वृत्ति न कहकर पूजा वेतन (आनरेरियम) कहते थे। इनकी दर प्राय: 500 पण से 1000 पण वार्षिक तक होती थी।

4. दान- बालक, वृद्ध, व्याधिपीड़ित, आपत्तिग्रस्त और इसी तरह के अन्य व्यक्तियों का भरण-पोषण राज्य की ओर से होता था। इस खर्च को दान कहते थे।

5. सहायता- सरकार की ओर से अनेक कायों में अनेकविध लोगों की सहायता की जाती थी। मेगस्थनीज के अनुसार शिल्पी लोगों को राज्यकोश से अनेक प्रकार से सहायता प्राप्त होती थी। उन्हें समय-समय पर न केवल करों से मुक्त किया जाता था, पर राज्यकोश से धन भी दिया जाता था।

6. सार्वजनिक आमोद-प्रमोद- इस विभाग में वे पुण्यस्थान, उद्यान, चिड़ियाघर आदि हैं, जिनका निर्माण राज्य की ओर से किया जाता था। राज्य की ओर से पशु, पक्षी, साँप आदि जन्तुओं के बहुत-से वाट बनाये जाते थे, जिनका उद्देश्य जनता का मनोरंजन था।

7. सार्वजनिक हित के कार्य- मौर्यकाल में जनता की स्वास्थ्यरक्षा व चिकित्सालय आदि का राज्य की ओर से प्रबन्ध किया जाता था। दुर्भिक्ष, आग, महामारी आदि आपत्तियों से भी जनता की रक्षा की जाती थी। जहाँ जल की कमी हो, वहाँ कूप, तड़ाग आदि बनवाने का विशेष ध्यान रखा जाता था।

इन सब में राज्य को बहुत खर्च करना पड़ता था और राजकीय आमदनी का पर्याप्त अंश इन कायों में व्यय हो जाता था।

राजा का वैयक्तिक खर्च- मौर्यकाल में राजा का वैयक्तिक खर्च भी कम नहीं था। अन्त:पुर बहुत शानदार और विशाल बनाये जाते थे। सैकड़ों दौवारिक और हजारों आतवशिक सैनिक हमेशा राजमहल में विद्यमान रहते थे। राजा बहुत शान के साथ रहता था। उनके निजी ठाठ-बाट में भी बहुत अधिक व्यय होता था। केवल पाकशाला (रसोई) का खर्च इतना अधिक था, कि चाणक्य ने व्यय के विभागों में उसका भी पृथक रूप से उल्लेख किया है। राजप्रासाद की अपनी पशु-वधशाला (बूचड़खाना) पृथक् होती थी। राजमहल और अन्त:पुर के निवासी स्त्री-पुरुषों की संख्या हजारों में रहती थी।

राजा के परिवार के विविध व्यक्तियों को राज्यकोश से वेतन दिया जाता था। इसकी दर भी बहुत अधिक होती थी। युवराज, राजमाता और राजमहिषी की चार-चार हजार पण मासिक और कुमार तथा कुमारियों को एक-एक हजार पण मासिक वेतन मिलता था। यह उनकी अपनी निजी आमदनी थी, जिसे वे स्वेच्छा से खर्च कर सकते थे।

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