कार्बोहाइड्रेट उपापचय Carbohydrate Metabolism

कार्बोहाइड्रेट्स जीवों के लिए रासायनिक उर्जा का प्रमुख स्रोत होते हैं\ भोजन में ये जटिल मंड (complex starch) व सरल शर्कराओं (simple starch) के रूप में होते हैं। शरीर में कार्बोहाइड्रेट मेटाबोलिज्म में ग्लूकोज की ही प्रमुख मात्र होती है। कार्बोहाइड्रेट-प्रधान भोजन के बाद रुधिर में शर्करा की मात्रा औसतन 0.1%  से बढ़कर 0.12-0.14% प्रति 100 मिली. हो जाती है। यकृत कोशाएं (Liver Cells) शरीर की तत्कालीन आवश्यकता से अधिक शर्कराओं को रक्त से हटाकर, रुधिर में इनकी मात्रा का नियमन (regulation) भी करती है। शरीर-कोशाओं में कार्बोहाइड्रेट उपापचय के निम्नलिखित पहलु होते हैं-

  1. ग्लाइकोजेनेसिस Glycogenesis- रक्त से ग्रहण करके शरीर कोशाओं उर्जा के लिए ग्लूकोज का जारण करती है, परन्तु कुछ फालतू ग्लूकोज को ये ग्लाइकोजेन (Glycogen) में बदलकर संचित भी करती हैं। अग्न्याशय (Pancreas) के लैंगरहैंस की द्विपिकाएं (Islets of Langerhans) से स्रावित इन्सुलिन ही रक्त के ग्लूकोज को ग्लाइकोजेन में परिवर्तित करती हैं। ग्लाइकोजेन का संचय (storage) सबसे अधिक जिगर (Liver) तथा पेशी कोशिकाओं में होता है। ग्लाइकोजेन को जंतु मंड (Animal Starch) कहते हैं। ग्लूकोज से ग्लाइकोजेन के संश्लेषण (synthesis) को ही ग्लाइकोजेनेसिस कहते हैं।
  2. ग्लाइकोजीनोलाइसिस Glycogenolysis- जंतु-मंड संचित ईंधन (Reserve Fuel) का काम करती है। शरीर कोशाएं रक्त से आवश्यकतानुसार ग्लूकोज लेती रहती हैं तथा रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम होने पर ग्लाइकोजेन फिर से ग्लूकोज में बदलता जाता है। यह परिवर्तन लैंगरहैस की द्विपिकाओं से स्रावित ग्लूकागॉन हॉर्मोन करता है। इस प्रकार शरीर कोशाओं को रक्त जितनी ग्लूकोज देता रहता है उतनी उसे यकृत से मिलती रहती है। अतः रक्त में ग्लूकोज की एक नियत मात्रा 82 से 110 mg/dL बनी रहती है। पेशियों में संचित ग्लाइकोजेन केवल इन्ही से आती है। ग्लाइकोजेन को ग्लूकोज मे तोड़ने की प्रक्रिया ग्लाइकोजीनोलाइसिस कहते हैं।
  3. ग्लाइकोलाइसिस एवं क्रैब्स चक्र Glycolysis and Krebs cycle- ग्लाइकोलाइसिस सभी कोशाओं में ग्लूकोज के जारण (Combustion) की प्रारंभिक अवस्था होती है। इसमें रासायनिक प्रतिक्रियाओं के 10 चरणों (10 steps) की एक श्रृंखला के फलस्वरूप ग्लूकोज के प्रत्येक अणु का 2 पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) के अणुओं में विखंडन होता है और इससे मुक्त हुई उर्जा ए.टी.पी (ATP) के डो अणुओं में आबाद होती है।
  4. क्रैब्स चक्र में रासायनिक प्रतिक्रियाओं की एक 9-10 चरणों की चक्रीय (cycle) श्रृंखला द्वारा ग्लाइकोलाइसिस के फलस्वरूप बने पाइरुविक अम्ल के प्रत्येक अणु को, आणविक ऑक्सीजन की सहायता से कार्बन डाइऑक्साइड और पानी में तोड़ा जाता है। अतः यह प्रक्रिया केवल वायु (Aerobic) श्वसन (Respiration) में होती है। यह श्रृंखला माइटोकाण्ड्रिया में ही होती है। इसके फलस्वरूप कोशिका को ग्लोकोज के एक अणु से कुल मिलाकर एटीपी (ATP) के 36 अणुओं का लाभ होता है। कोशाएँ कुछ ग्लूकोज सेग्लाइकोजेन के अतिरिक्त अन्य ऐसे कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण करती हैं, जो इनके कुछ भागों के निर्माण एवं मरम्मत के लिए आवश्यक होते हैं। कुछ ग्लूकोज को 5 कार्बन युक्त शर्कराओं राइबोज में बदलकर न्युक्लियोटाइड अणुओं का संश्लेषण किया जाता है। शरीर में ग्लूकोज इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद भी बची रहती है, तो इसे वसा (Fat) में बदलकर (Lipogenesis) संचित रखा जाता है। इसका वसा में रूपांतरण शरीर की सभी कोशिकाएं कर सकती हैं, लेकिन यह मुख्यतः यकृत (Liver) कोशाएं कर सकती हैं। इस वसा का संचय विशेष वसा उतकों (adipose tissues) में होता है।
  5. ग्लुकोनियोजेनेसिस Gluconeogenesis शरीर में कार्बोहाइड्रेट्स की अधिक कमी हो जाने पर वसाओं, प्रोटीन आदि पदार्थों से कार्बोहाइड्रेट्स का संश्लेषण भी होता है। इसे ग्लुकोनियोजेनेसिस कहते हैं। इसका नियंत्रण मुख्यतः एड्रीनल कार्टेक्स के हॉर्मोन- कोर्टिसोल (Cortisol) तथा कार्टीकोस्टिरोन (corticosterone) कहते हैं। यह प्रक्रिया भी मुख्यतः यकृत में, लेकिन कुछ वृक्कों में होती है।

वसा उपापचय Fat Metabolism

कार्बोहाइड्रेट्स के बाद, वसाएं उर्जा का दूसरा प्रमुख स्रोत होती हैं। जीवों के लिए 3 प्रमुख प्रकार की वसाएं महत्वपूर्ण होती हैं- जीवों के लिए 3 प्रकार की वसाएं महत्वपूर्ण होती हैं- विशुद्ध या उदासीन वसाएं (True or neutral fats or triglycerides), फास्फोलिपिड (Phospholipids) तथा (Sterols)। सभी वसाओं में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है, अतः इनका जारण (combustion) या ऑक्सीकरण अधिक होता है। उर्जा के लिए संचित भोजन (reserve food) के रूप में इनका विशेष महत्व होता है। शरीर के वसीय उतकों (Adipose Tissue) में इनका संचय होता है। ये वसीय उतक, वसा संचय के अतिरिक्त, ताप नियमन एवं सुरक्षा में भी सहायता करते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वसाओं को कार्बोहाइड्रेट में बदला जा सकता है। कुछ वसीय पदार्थ, मुख्यतः फस्फोलिपिड्स तथा कोलेस्ट्रॉल (Cholesterol) कोशों के भागों की रचना, मुख्यतः अंगकों की कलाओं के निर्माण में भाग लेते हैं।

पाचन में वसीय पदार्थ वसीय अम्लों, ग्लिसराल फास्फोरिक अम्ल, स्वतंत्र कोलेस्ट्रॉल  आदि में विखंडित होकर यही वसा सूक्ष्म बिन्दुकों, अर्थात काइलोमाइक्रोन्स के रूप में सूक्ष्मांकुरों (villi) की लसिका वाहिनियों (Lacteals) में जाती हैं। जो इस अंत में रुधिर में ही पहुंचा देती हैं। लगभग एक घंटे में काइलोमाइक्रोन्स को वसा उतकों (Adipose Tissue) की वसा कोशिकाएं रुधिर से लेकर इनका संचय कर लेती हैं। इसलिए वसा उतकों को वसा गोदाम (Fat-Depots) कहते हैं। वसा उतकों और रक्त के बीच स्वतंत्र वसीय अम्लों का कुछ आदन-प्रदान सदैव होता रहता है। इसके लिए वसीय ऊतक अपनी वसाओं का वसीय अम्लों एवं ग्लिसरॉल (glycerol) में विखंडन करके मुक्त करते रहते हैं।

कीटोसिस Ketosis

असाधारण अवस्थाओं, जैसे-निरंतर भूखा रहना पड़े (starvation) तो यकृत-कोशाएँ (Liver Cells) रक्त से वसीय अम्लों को लेकर तेजी से इनका निम्नीकरण (degradation) करने लगती है। इसके फलस्वरूप इन कोशाओं में एसीटोऐसिटिक अम्ल (Acetoacetic acid) एवं एसीटोन आदि कीटोन-कॉय (ketone-Bodies) बन-बन कर रक्त में मुक्त होने लगते हैं। रक्त में कीटोन-कार्यों की मात्रा बढ़ने पर श्वास बढ़ने लगती है, तंत्रिका-तंत्र का कार्य बिगड़ जाता है तथा बेहोशी और मृत्यु भी हो सकती है। शरीर की आवश्यकता से अधिक ग्रहण किया हुआ तथा पचाया हुआ वसा शरीर में संग्रहीत होता है।  इसलिए शरीर मोटा हो जाता (obesity) हो जाता है।

प्लाज्मिड Plasmids


मुख्य गुणसूत्री इकाई के अतिरिक्त, कुछ सहायक आनुवंशिक (Auxillary genetic) यूनिट भी होते हैं, जिन्हें प्लाज्मिड कहते हैं। प्लाज्मिड अधिकांश जीवाणुओं (bacteria) में सामान्य रूप से पाए जाते हैं तथा उच्चतर जीवों में बहुत कम होते हैं। ये कोशिकाओं में पाए जाते हैं परन्तु ये आवश्यक भाग नहीं होते हैं। कोशिका के सभी सामान्य कार्य प्लाज्मिड की अनुपस्थिति में चलते रहते हैं, लेकिन प्लाज्मिडों की क्रिया केवल कोशिका के भीतर ही संपन्न होती है। अतः प्लाज्मिडों को उप्कोश्कीय अंग भी कहते हैं।

यद्यपि प्लाज्मिड कई प्रकार से विषाणुओं (virus) के समान होते हैं, तथापि निश्चित ही ये भिन्न प्रकार की रचनाएं हैं। विषाणुओं में न्यूक्लीक अम्ल (डी.एन.ए. या आर.एन.ए.) का एक अणु प्रोटीन कोट में लिपटा हुआ होता है, परन्तु प्लाज्मिडों में डी.एन.ए. के दोहरी लड़ीदार (stranded) अणु होते हैं, जिनमे कुछ जींस (Genes) छोटे वृत्त (small circle) में सह्लग्न होते हैं तथा इनमे प्रोटीन कोट (coat) नहीं होता है। प्लाज्मिड, कोशिका की सहायता के बिना जनन (reproduction) करते हैं। जबकि विषाणु केवल पोषी कोशिका में ही जनन करते हैं और पोषी कोशिका को नष्ट कर देते हैं। इसके विपरीत प्लाज्मिड पोषी कोशिका को कोई हानि नहीं पहुंचाते तथा पोषी कोशिका को कुछ सहायक आनुवंशिक विशेषकों (Accessories genetic traits) को प्रदान करते हैं, जो पोषी कोशिका के गुणसूत्री जीनों (chromosomal genes) में नहीं होता है। गुणसूत्री जीनों तथा प्लाज्मिडों में कोई आधारभूत भिन्नता नहीं होता है, किन्तु प्लाज्मिडों में  जीन कम संख्या में होता हैं। दोनों प्रकार के जीन एक ही तरह के उपापचयी प्रक्रम  (Metabolic process) द्वारा प्रोटीनों का संश्लेषण करते हैं। परन्तु दोनों की कार्यिकी तथा गुणता में अंतर होता है- गुणसूत्री जीन केवल अपने से मिलते-जुलते जीनों या अपने युग्म विकलपी (Allelic) जीनों के साथ संयोग करते हैं, जबकि प्लाज्मिड जिन सभी प्रकार के जीनों, यहाँ तक कि बिलकुल भिन्न जीनों के साथ भी संयोग करते हैं, जीवाणुओं (bacteria) के भीतर प्लाज्मिड अनेक प्रकार की जैविक क्रियाओं (biological activities) के लिए उत्तरदायी होते हैं। अतः प्रतिजैविकी (antibiotics) में इनका बहुत महत्व है। प्लाज्मिडों की खोज ने जैव प्रौद्योगिकी (biotechnology) को एक नाइ दिशा प्रदान की है और आनुवंशिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) में इनका बहुत प्रयोग हो रहा है।

प्रोटीन उपापचय Protein Metabolism

प्रोटीन्स का संश्लेषण कोशीय उपापचय में सबसे महत्वपूर्ण होता है। शरीर का सारा जल निकाल दें टो बचे हुए ठोस भाग का 75% प्रोटीन होती है। विभिन्न प्रकार की प्रोटीन में विभिन्न कार्य करती है।

  1. संरचनात्मक Structural- ये प्रोटीन्स कोशाद्रव्य एवं सभी अंगको (organelles) रक्त एवं उतक द्रव की रचना में भाग लेती हैं।
  2. एंजाइम Enzyme- एंजाइम के रूप में ये सारे उपापचय का नियमन करती हैं।
  3. ग्लोबिन्स Globins- रक्त में ऑक्सीजन एवं अन्य पदार्थों के संवहन का कार्य करती हैं।
  4. पेशियों की प्रोटीन्समायोसीन एवं एक्टिन (Myosin and Actin), पेशियों का संकुचन करके अंगों को गति प्रदान करती हैं।
  5. एंटीबाडीज Antibodies- एंटीबाडीज के रूप में ये शरीर की सुरक्षा का काम करती हैं।
  6. न्यूक्लियोप्रोटीन Nucleoprotein- आनुवंशिकी में सहायता करती हैं।

उल्लेखनीय है की जीव शरीर में प्रोटीन्स ही वृद्धि एवं मरम्मत’ तथा उपापचय के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती हैं। इसलिए इन्हीं में सबसे अधिक विभिन्नता भी होती है। शरीर में इनकी अनेक किस्में होती हैं और किन्हीं दो जीवों की एक ही जाति के दो सदस्यों की, या एक ही शरीर की दो विभिन्न प्रकार की कोशाओं की प्रोटीन्स बिलकुल समान नहीं हो सकती हैं।

भिजन में प्रोटीन, समान्य या सरल (simple) तथा आबद्ध (conjugated) प्रोटीन्स के रूप में मिलती हैं, एल्ब्यूमिन, ग्लोब्युलिन, एक्टिन, मायोसीन, कोलैजेन, इन्सुलिन आदि सामान्य या सरल प्रोटीन्स तथा दूध की कैसीन, हीमोग्लोबिन आदि आबद्ध (conjugated) प्रोटीन्स के उदाहरण हैं।

कार्बोहाड्रेट्स Carbohydrate

ये वे पदार्थ हैं जिनमे कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन होते हैं, इनमे से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन उसी अनुपात में होता हैं जैसे की वे पानी में होता हैं। कुछ कार्बोहाइड्रेट्स पानी में घुलनशील होते हैं, जैसे शक्कर (sugar) और इनुलिन (Inulin) और अघुलनशील में सबसे महत्वपूर्ण मंड (starch) हैं। कुछ महत्वपूर्ण कार्बोहाड्रेट्स इस प्रकार हैं-

  1. पौधों के शरीर में कई प्रकार की शक्करें पाई जाती हैं। इनमे अंगूरी शक्कर या ग्लूकोज (grape sugar or glucose) महत्वपूर्ण है। इसका रासायनिक सूत्र C6H12O6 है तथा 12-15% अंगूरों में होती है। दुसरे गन्ने की शक्कर या सुक्रोज (cane sugar or sucrose), जिसका सूत्र है C12H22O11 है तथा 15-20% गन्ने में तथा 10-20% चुकंदर में होती है। ये साधारणतया घुलनशील कार्बोहाड्रेट्स हैं।
  2. इनुलिन Inulin- इनुलिन घुलनशील कार्बोहाड्रेट्स है। डहेलिया की सकंद मूल (tuberous root of Dehelia), डैन्डीलिअन (Dandelion) की जड़ों तथा सूरजमुखी कुल के अन्य पौधों में पाई जाती है। डहेलिया की जड़ के टुकड़े को अल्कोहल में रखने पर इनुलिन के पूर्ण निर्मित दाने सितारे के आकर के या वक्राकर (star ओर wheel shaped) रूप में दिखायी दते हैं। इनका सूत्र (C6H10O5)n है।
  3. हेमी सेल्यूलोज Hemi Cellulose- यह कार्बोहाइड्रेट बहुत से बीजों जैसे पाम (पाम) में पाया जाता है।
  4. सेल्यूलोज Cellulose- यह भी कार्बोहाइड्रेट है, जो पादप कोशिका में शक्कर से बनती है, तथा कोशाभित्ति बनाने के काम में आता है।
  5. मंड Starch- यह कार्बोहाइड्रेट जल में अघुलनशील होता है। इसका रासायनिक सूत्र (C6H10O5)nहै। यह प्रायः सभी कोशिकाओं में ठोस रचना के रूप में पाया जाता है। परन्तु हरी कोशिकाओं और भण्डारीय अंगों (storage organs) की कोशिकाओं में अधिक होता है, जैसे बीज, कंद (tubers), घनकन्द (corm)। मंड प्रायः स्तरीय कणों के रूप में पाया जाता है। स्टार्च चावल, जौ आदि के भ्रूणपोष (Endosperm) में संचित रहता है। यह आयोडीन द्वारा नीला हो जाता है।
  6. ग्लाइकोजेन Glycogen- फंजाई में कार्बोहाइड्रेट ग्लाइकोजेन के रूप में मिलते हैं यह सफ़ेद रंग का अक्रिस्‍टलीय (Amorphous) पाउडर है जो गर्म पानी में घुल जाता है। इसका रासायनिक सूत्र (C6H10O5)nहै।

आहार नाल Alimentary Tract

आहार नाल में पाचन के फलस्वरूप, भोजन की प्रोटीन्स, एमिनो अम्लों (amino acids) में टूटती हैं, क्योंकि एमिनो अम्ल (amino acids) में ही इनकी संरचनात्मक इकाइयां अर्थात (monomers) होते हैं। जीवों में संभवतः 20 प्रकार के amino अम्ल, प्रोटीन्स की रचना में भाग लेते हैं। इनमें से 10 को तो जंतु कोशाएँ स्वयं स्वयं संश्लेषण करती हैं, अनावश्यक (non essential) तथा जो amino अम्ल भोजन से प्राप्त होते हैं, आवश्यक (essential) कहलाते हैं। वह भोजन जिसमें दसों आवश्यक amino अम्ल हों पूर्ण आहार (complete food) कहलाते हैं।

रुधिर में सामान्यतः amino अम्लों की मात्रा 35-65 मिग्रा प्रति 100 मिग्रा होती है। जब शरीर कोशाएँ रक्त से अपनी आवश्यकतानुसार, सभी एमिनो अम्ल को ग्रहण कर लेती हैं, टो रक्त में बचे हुए शेष एमिनो अम्लों को यकृत कोशाएँ ले लेती हैं। यहाँ इनके एमिनो और कर्बोक्सिल समूह (amino and carboxyl groups) पृथक कर दिए जाते हैं। इसी को एमिनो अम्लों का एमिनोहरण या डीएमीनेशन कहते हैं। amino समूह अमोनिया (NH3) तथा कर्बोक्सिल समूह कीटो-अम्ल (keto-acid) के रूप में पृथक होते हैं। अमोनिया कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) से मिलकर यूरिया (urea) बन जाता है। कीटों-अम्लों का उर्जा उत्पादन के लिए जारण हो जाता है।

आधारक उपापचयी दर Basal Metabolic Rate- B.M.R.

उर्जा व्यय की उस दर को जो मात्र जीवित रहने के लिए आवश्यक है, सामान्य ताप तथा दबाव की दशाओं में कैलोरी/शरीर सतह का प्रति स्कवैयर मीटर/घंटा में व्यक्त करते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए, इसका निर्धारण कुछ दशाओं में करते हैं। ज्वर में शरीर का तापमान 1° बढ़ने से आधारक उपापचयी दर भी लगभग 5% बढ़ जाती है। इसलिए, ज्वर में भी शरीर का भार कम हो जाता है।

जंतुओं में समस्थिति Homeostasis- शरीर की सारी कोशाएं, अपने-अपने उपापचय की आवश्यकतानुसार वाह्यकोशीय द्रव्य से निरंतर रासायनिक पदार्थों का लेन-देन करती रहती हैं। उपापचय के लिए आवश्यक ऑक्सीजन (O2) तथा पोषक पदार्थों को द्रव से ग्रहण करती हैं और उपापचय के अपशिष्ट पदार्थों (waste products) को इनमे मुक्त करती है। अतः वाह्य कोशीय द्रव में कोशाओं के लिए आवश्यक पदार्थों  की निरंतर पूर्ति तथा अपजात  पदार्थों को इसमें से निरंतर हटाना कोशों के सुचारू उपापचय (metabolism) अर्थात जीवन के लिए नितांत आवश्यक होता है। इस द्रव की रासायनिक एवं भौतिक दशाओं को अखण्ड बनाये रखने के लिए इसी प्रक्रिया को वाल्टर कैनन (1932) ने समस्थिति (Homeostasis) का नाम दिया। समस्थिति की प्रक्रिया में पुनर्निवेशन नियंत्रण (feedback control) बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसके अंतर्गत अन्तः वातावरण में किसी पदार्थ की मात्र बढ़ने पर सम्बंधित अंग से इस पदार्थ का रुधिर में मुक्त होना कम हो जाता है और घटने पर इसका रुधिर में मुक्त होना बढ़ जाता है। इस प्रकार जंतुओं में अन्तः वातावरण की अखंडता बनायीं रखी जा सकती है।

उपापचय का जीनिक नियंत्रण Genic Control of Metabolism

बीडल तथा टैटम (Beadle and Tatum, 1941) ने एक महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किया- एक जीन एक एंजाइम एक रासायनिक प्रतिक्रिया (one gene →one enzyme →one reaction)। इसके अनुसार जीव-शरीर में प्रत्येक उपापचयी प्रतिक्रिया का नियंत्रण एक एंजाइम करता है तथा एक एंजाइम का संश्लेषण एक जीन के नियंत्रण में इसी के अनुरूप होते है। उत्परिवर्तन (Mutation) के कारण जीन में परिवर्तन हो जाने पर ही कोई उपापचयी प्रतिक्रिया इतनी प्रभावित हो सकती है कि जीव का कोई लक्षण बदल जाये।

जींस के मूल नियंत्रण के अतिरिक्त, उपापचयी प्रतिक्रियाओं पर हॉर्मोन्स (Hormones) तंत्रिका तंत्र तथा सहएंजाइम के अग्रदूतों (precursors of coenzymes) के रूप में विटामिनों का भी नियंत्रण होता है।

जीव-शरीर में कोशिकाओं की निरंतर छीजन (wear & tear) होती रहती है। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए निरंतर ऊतकों में कुछ कोशिकाएं निरंतर विभाजित होकर नयी कोशाएँ बनती रहती हैं। इसे ऊतक का पुनरुदभवन (regeneration of tissues) कहते हैं। चोट लग जाने, कट जाने या जल जाने आदि पर ऊतकों की क्षति पुनरुदभवन द्वारा ही पूरी करके घाव के ऊतक की मरम्मत की जाती है\ अतः वह सम्पूर्ण प्रक्रिया जिसमें जंतु अपने शरीर के क्षत भागों का पुनर्निर्माण करता है, पुनरुदभवन कहलाती है।

भूख Hunger

एक बार प्राणी जितना भोजन ग्रहण करता है, उसकी मात्रा अचेतन (involuntary) इचा पर निर्भर करती है, इसी इच्छा को भूख कहते हैं। किसी समय जिस प्रकार के स्वाद वाले भोजन की हमारी इच्छा होती है, वह हमारी क्षुधा (appetite) कहलाती है। भूख का आभास, हमें अमाशय (stomach) की दीवार में उपस्थित ऐसे सूक्ष्म आंतरांगीय संवेदांगों (interreceptors) द्वारा होता है, जो अमाशय के देर तक रिक्त रहने से संवेदित होते हैं। यह संवेदना जब मष्तिष्क में पहुँचती है, तो हाइपोथैलेमस के पार्श्व भागों में स्थित भूख के केंद्र संवेदित होकर अमाशय की दीवार में तीव्र क्रमांकुचन (rhythmic peristalsis hunger contraction) प्रेरित कर देते हैं, इसी से हमें भूख का आभास होता है। भूख के ग्लूकोज मत (Glucostatic theory of Hunger) के अनुसार रुधिर में ग्लूकोज की मात्र कम हो जाने पर भी भूख केंद्र संवेदित हो जाते हैं। भूख के ऊष्मा स्थैतिक मत (Thermostatic Theory) के अनुसार, शरीर ताप के कुछ कम होने पर भी भूख-केंद्र संवेदित होते हैं। इसलिए ज्वर (Fever) में हमें भूख नहीं लगती है और जड़ों में हम गर्मियों की अपेक्षा अधिक खाते हैं। कभी-कभी भूख से प्रभावित अमाशय का क्रमानुकंचन (peristalsis) इतना तीव्र होता है की हमें पीड़ा का अनुभव होता है, जिसे भूख की टीस (hunger pangs) कहते हैं। भोजन की पर्याप्त मात्र ग्याहन करने पर जब अमाशय भर जाता है, तो हाइपोथैलमस की मध्य-अधर रेखा में उपस्थित परितृप्ति केंद्र (satiety center) के नियंत्रण में हमें भूख का आभास होना रुक जाता है।

प्यास Thirst

जल ग्रहण की इच्छा को प्यास कहते है। इसका भी एक नियंत्रण केंद्र हाइपोथैलमस में होता है। शरीर के अन्तः वातावरण (रक्त, लिम्फ तथा ऊतक द्रव) में ताप, उपापचय, परिश्रम, पसीना, मूत्र त्याग आदि के कारण जल की कमी से, या लवणों के बाहुल्य से, या चोट लगने आदि पर अधिक रक्त कोशाओं के निर्जलीकरण (dehydration) होने लगता है, अर्थात इनमें से जल बाहर निकलने लगता है, इसी से हमें प्यास का आभास होने लगता है। संभवतः रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा कम हो जाने से भी हमें प्यास का आभास होने लगता है।

भूख केंद्र, परितृप्त केंद्र तथा प्यास केंद्र मानव में ही नहीं वरन सभी गर्म-रुधिर (warm blooded) कशेरुकियों में संभवतः होते हैं।

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