जीवाणु Bacteria

जीवाणु हरितलवक रहित (Non chlorophilous), एककोशिकीय (Unicellular) या बहुकोशिकीय (Multicellular) प्रोकैरियोटिक सूक्ष्मजीव होते हैं। जीवाणु वास्तव में पौधे नहीं होते हैं। इनकी कोशिकाभिति का रासायनिक संगठन पौधों की कोशिका के रासायनिक संगठन से बिल्कुल भिन्न होता है। यद्यपि कुछ जीवाणु प्रकाश-संश्लेषण क्रिया किया करते हैं लेकिन उनमें विद्यमान बैक्टीरियोक्लोरोफिल पौधों में उपस्थित क्लोरोफिल से बिल्कुल भिन्न होता है।

जीवाणु की खोज 1683 ई० में हॉलैंड (Holland) के वैज्ञानिक एण्टॉनी वॉन ल्यूवेनहॉक (Antony Von Leeuwenhock) ने की थी। उन्होंने अपने बनाये हुए सूक्ष्मदर्शी से दाँत के खुरचन में इन जीवाणुओं को देखा तथा इन्हें सूक्ष्म जीव (Tiny animalcules) कहा। इसी कारण से ल्यूवेनहॉक को जीवाणु विज्ञान का पिता (Father of Bacteriology) कहा जाता है। एहरेनबर्ग (Ehrenberg) ने 1829 ई. में इन्हें जीवाणु (Bacteria) नाम दिया। लुई पाश्चर ने किण्वन (Fermentation) पर कार्य किया और बतलाया कि यह जीवाणुओं द्वारा ही होता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पदार्थों का सड़ना तथा अनेक रोगों का कारण सूक्ष्मजीव होते हैं। पाश्चर ने अपने कार्य के आधार पर रोगों के जर्म मत (Germ theory of diseases) को प्रतिपादित किया। रॉबर्ट कोच (Robert Koch) ने 1881 ई० में यह सिद्ध किया कि चौपायों में होनेवाली एन्थ्रेक्स (Anthrax) रोग तथा मनुष्यों में तपेदिक रोग (Tuberculosis) तथा हैजा (Cholera) रोग का कारण भी जीवाणु है। रॉबर्ट कोच ने ही सर्वप्रथम जीवाणुओं का कृत्रिम संवर्द्धन (Artificial culture) किया। लिस्टर (Lister) ने जीवाणुओं के सम्बन्ध में प्रतिरोधी मत (Antiseptic theory) प्रस्तुत किया।

जीवाणुओं के अध्ययन को जीवाणु विज्ञान (Bacteriology) कहा जाता है।

प्राप्ति स्थान (Occurrence): जीवाणु अति सूक्ष्म होते हैं एवं प्रायः सभी जगह पाये जाते हैं। ये अनुकूल तथा प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में पाये जाते हैं। ये मानव द्वारा साँस लेने की वायु, पीने के जल तथा भोजन में मौजूद रहते हैं। ये मिट्टी में, दूसरी जीवित वस्तुओं में और मृत जैव पदार्थों में भी उपस्थित रहते हैं। मानव के मुँह में भी कई प्रकार के जीवाणु पाये जाते हैं।

संरचना (structure): जीवाणु का सम्पूर्ण शरीर एक ही कोशिका का बना होता है। इसके चारों ओर एक कोशिकाभित्ति पायी जाती है। कोशिकाभिति के नीचे कोशिका झिल्ली होती है। यह प्रोटीन एवं फॉस्फोलिपिड की बनी होती है। इसके कोशिका द्रव्य में माइटोकॉण्ड्रिया, अंत:द्रव्य जालिका (Endoplasmic reticulum) तथा अन्य विकसित विकसित कोशिकांग का अभाव होता है। इनमें केन्द्रकभित्ति तथा क्रोमोसोम का भी अभाव होता है। इनमें प्राथमिक प्रकार का केन्द्रक पाया जाता है जिसे न्यूक्लिआइड (Nucleoid) कहते हैं। जीवाणुओं में रोम और कशाभिका भी पाए जाते हैं जो उन्हें गमन, पोषण एवं प्रजनन में सहायता प्रदान करते हैं।

सामान्य लक्षण

  1. विषाणु को छोड़कर जीवाणु सबसे सरलतम जीव है।
  2. ये सभी स्थानों पर पाये जाते हैं।
  3. ये एककोशिकीय जीव हैं जो एकल या समूहों में पाये जाते हैं।
  4. इनका आकार 2-10 μ तक होता है।
  5. इनकी कोशिकाभित्ति मोटी तथा काइटिन (Chitin) की बनी होती है।
  6. इनमें सत्य केन्द्रक का अभाव होता है। ये परजीवी, मृतोपजीवी अथवा सहजीवी होते हैं।
  7. इनकी कोशिका में लवक, माइटोकॉण्ड्रिया, गॉल्जी उपकरण तथा अंत:द्रव्यी जालिका नहीं होते हैं।
  8. इनमें जनन मुख्य रूप से विखण्डन द्वारा होता है।

आकृति (shape): आकृति के आधार पर जीवाणु निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-


  1. शलाकवत् (Bacillus): इस प्रकार का जीवाणु छड़नुमा या बेलनाकार आकृति का होता है। जैसे बेसिलिस एन्थ्रासिस (Bacillus anthracis)।
  2. गोलाकार (Coccus): गोलाकार आकृति के जीवाणुओं को कोकस (Coccus) के नाम से जाना जाता है। ये सबसे छोटे जीवाणु होते हैं। कोशिकाओं के विन्यास के आधार पर ये कई प्रकार के होते हैं-

(i) माइक्रोकोकाई (Micrococci): एक कोशिका के रूप में, जैसे- माइक्रोकोकस (Micrococcus)।

(ii) डिप्लोकोकाई (Diplococci): दो-दो कोशिकाओं के समूह में, जैसे- डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae)।

(iii) स्ट्रेप्टोकोकाई (streptococci): अनेक कोशिकाओं के समूह में, जैसे- स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस (streptococcus Iactis)I

(iv) सारसिनी (sarcinae): 8,64 अथवा 128 के घनाकृतिक पैकेट में, जैसे सारसीना (Sarcina)।

  1. सर्पिलाकृतिक (spirallior Helical): इस प्रकार का जीवाणु Coiled अथवा spiral होता है। जैसे- स्पाइरिलम सारसि रुप्रेम (Spirillum ruprem)।
  2. कौमा (Comma): इस प्रकार का जीवाणु अंग्रेजी के चिह्न कौमा (,) के आकार के होते हैं। जैसे-विब्रियो कोमा (Vibrio comma)।

जीवाणुओं में पोषण (Nutrition in Bacteria): जीवाणुओं में मुख्यतः दो प्रकार का पोषण पाया जाता है। ये है-

  1. स्वपोषी पोषण: इस प्रकार के पोषण में जीवाणु अपने भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के पोषण आते हैं-

(i) प्रकाश संश्लेषी (Photo synthetic): इस प्रकार के पोषण के अन्तर्गत जीवाणु प्रकाश ऊर्जा का उपयोग करके अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। इनमें पर्णहरित की जगह जीवाणु पर्णहरित होता है। जैसे- क्रोमैटियम (Chromatium) रीडोस्पिरिलम (Rhodospirillum) आदि।

(ii) रसायन संश्लेषी (Chemosynthetic): इस प्रकार के पोषण के अन्तर्गत जीवाणु अकार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। जैसे- नाइटोसोमोनास, नाइटोबैक्टर आदि।

  1. विषमपोशी पोषण (Heterotrophic nutrition): इस प्रकार के पोषण के अंतर्गत जीवाणु अपना भोजन दूसरे जीवों से प्राप्त करते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं-

(i) परजीवी (Parasitic)– इस प्रकार के पोषण में एक जीवाणु दूसरे जीव पर आश्रित रहते हैं और रोग कारक होते हैं। जैसे- माइकोबैक्टीरियम (Mycobacterium)

(ii) सहजीवी (symbiotic)- इस प्रकार के पोषण में जीवाणु अन्य जीव के शरीर में रहकर भोजन प्राप्त करते हैं, लेकिन उस जीव को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते हैं। जैसे- राइजोबियम (Rhizobium)।

(iii) मृतोपजीवी (saprophytic): इस प्रकार के पोषण में जीवाणु मृत अवशेषों से भोजन प्राप्त करते हैं। जैसे-लैक्टोबेसिलस (Lactobacillus)।

प्रजनन (Reproduction): जीवाणुओं में प्रजनन निम्नलिखित विधियों द्वारा होता है-

  1. अलैंगिक जनन (Asexual reproduction): जीवाणुओं में अलैंगिक जनन द्विविभाजन (Binary fission) द्वारा, कोनिडिया (Conidia) द्वारा एवं अन्तःबीजाणु (Endospores) द्वारा होता है। द्विविभाजन प्रक्रिया में एक जीवाणु कोशिका समान प्रकार की दो संतति कोशिकाओं (Daughter cells) में विभाजित हो जाती है। यदि तापक्रम, नमी, खाद्य पदार्थों की उपलब्धता आदि जीवाणुओं के लिए अनुकूल हों, तो मात्र 6 घंटे में एक जीवाणु कोशिका से 10 लाख तक जीवाणु बन सकते हैं। अधिकांश खाद्य पदार्थों के खराब होने का कारण उनमें उपस्थित जीवाणुओं का तेजी से प्रजनन करना है। कुछ जीवाणुओं में प्रतिकूल परिस्थितियों में दृढ़ भितिवाली अत्यन्त रोधी संरचनाएँ बनती हैं जिसे अन्तःबीजाणु (Endospores) कहते हैं। अनेक जीव वैज्ञानिक अन्तः बीजाणु को उत्तरजीविता का साधन मानते हैं न कि प्रजनन का। अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर अन्तःबीजाणु से कोशिका बाहर निकल जाती है और वृद्धि करने लगती है।
  2. लैंगिक प्रजनन (sexual reproduction): जीवाणुओं में ण टो युग्मक (xygote) का निर्माण होता है और न ही निषेचन (Fertilization) होता है। इनमें केवल आनुवंशिक पदार्थों का आदान-प्रदान होता है। इसे पुनर्योजन (Genetic recombination) कहते हैं। जीवाणुओं में आनुवंशिक पुनर्योजन तीन विधियों से होता है, ये हैं-

(i) संयुग्मन (conjugation): इस विधि की खोज लेडरबर्ग (Lederberg) तथा टेटम (Tatum) ने 1946 ई० में की थी। इस प्रकार के लैंगिक जनन में दो कोशिकाओं का मिलन और DNA का स्थानांतरण होता है।

(ii) जीन-वाहन (Transduction): जीवाणुओं में होने वाले इस प्रकार के लैंगिक जनन की विधि की खोज जिन्डर (zinder) एवं लेडरबर्ग (Lederberg) ने 1952 में की थी। इस विधि में एक विषाणु (virus) द्वारा एक जीवाणु का DNA दूसरे जीवाणु के DNA से मिल जाता है।
(iii) रूपांतरण (Transformation): जीवाणुओं में होने वाली लैंगिक प्रजनन की विधि की खोज ग्रिफिथ (Griffith) ने 1928 ई० में की थी। इस विधि में जीवाणु बाह्य माध्यम से DNA का अवशोषण करके आनुवंशिक स्वरूप परिवर्तित करता है।

जीवाणुओं का आर्थिक महत्व (Economic importance of bacteria): जीवाणु लाभदायक एवं हानिकारक दोनों ही प्रकार के होते हैं-

  1. लाभदायक जीवाणु (Useful bacteria)
  2. भूमि की उर्वरता (Fertility) में वृद्धि: कुछ जीवाणु भूमि की उर्वरता बढ़ाने का काम करते हैं। राइजोबियम (Rhizobium) नामक जीवाणु जो दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित गाँठ में पाया जाता है, वायुमण्डलीय नाइट्रोजन लेकर उसे नाइट्रेट में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं। चूँकि पौधे सीधे वायुमण्डल से नाइट्रोजन ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखते हैं, इसलिए उन्हें नाइट्रोजन नाइट्रेट के रूप में इन्हीं जीवाणुओं की मदद से प्राप्त होता है।
  3. दूध का दही में परिवर्तन: दूध से दही बनाने में जीवाणुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। लैक्टोबेसिलस (Lactobacillus) नामक जीवाणु दूध में पाये जाने वाले केसीन (Casein) नामक प्रोटीन की छोटी-छोटी बूंदों को एकत्रित करके दही जमाने में सहायता करते हैं।
  4. सिरका (Vinegar) के निर्माण में: शर्करा घोल (Sugar solution) का किण्वन कर एसेटोबैक्टर एसेटी (Acetobacter acetii) नमक जीवाणु उसे सिरका में परिवर्तित कर देता है।
  5. तम्बाकू की पत्ती में सुगंध एवं स्वाद बढ़ाने में: बेसिलस मेगाथेनियम माइकोकोकस (Bacillus megathenium mycococcus) नामक जीवाणु का उपयोग तम्बाकू की पत्ती में सुगंध एवं स्वाद बढ़ाने में किया जाता है।
  6. चाय की पत्तियों के क्यूरिंग (Curing) में: माइकोकोकस कोन्डीसैंस (Mycococcus condisans) नामक जीवाणु द्वारा चाय की पत्तियों पर किण्वन क्रिया द्वारा क्यूरिंग (Curing) किया जाता है।
  7. रेशों के रेटिंग में: जल में पाए जाने वाले क्लोस्ट्रीडियम ब्यूटीरियम (Clostridium butyrium) नामक जीवाणु द्वारा जूट, पटसन और सन के रेशों का रेटिंग होता है।
  8. लैक्टिक अम्ल के निर्माण में: बैक्टीरियम लैक्टिसाई एसिडाई (Bacterium lactici acidi) और बैक्टीरियम एसिडाई लैक्टिसाई (Bacterium acidi lactic) नामक जीवाणु जो दूध में पाए जाते हैं, वह दूध में पायी जाने वाली लैक्टोस (Lactose) शर्करा का किण्वन कर लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) का निर्माण करते है।
  9. प्रतिजैविकी औषधियों के निर्माण में: कुछ प्रति जैविकी औषधियाँ जीवाणुओं की किण्वन क्रिया द्वारा बनायी जाती है। जैसे-
प्रतिजैविकी का नाम जीवाणु का नाम
1. आरोमाइसीन (Auromycin) स्टेप्टोकोकस आरोफेसीइंस (Streptococcus Aurofasciens)
2. बैसीट्रेसीन (Bacitracin) बैसीलस सबटिलिस (Baciilus subtilis)
3. क्लोरोमाइसीटीन (Chloromycitin) स्ट्रेप्टोकोकस वेनेजुएली (streptococcus venezualae)
4. इरीथ्रोमाइसीन (Erythromycin) स्ट्रेप्टोकोकस इरीथ्रीइस (streptococcus erythreus)
5. नोवोबायोसीन (Novobiocin) स्ट्रेप्टोकोकस नीवियस (streptococcus niveus)
6. पालीमाइक्सीन-B (Polymyxin-B) बैसीलस पालीमिक्सा (Bacillus polymyxa)
7. स्ट्रेप्टोमाइसीन (Streptomycin) स्टेप्टोकोकस ग्रीसस (Streptococcus griseus)
8. टेरामाइसीन (Terramycin) स्टेप्टोकोकस रिमोसस (Streptococcus rimosus)
9. टाइरोथ्राइसीन (Tyrothrycin-A) बैसीलस ब्रेवीस (Bacilius brevis)
10. नाइस्टेटीन (Nystatin) स्टेप्टोकोकस नीसी (Streptococcus noursei)

  1. सड़े-गले पदार्थों एवं मृत अवशेषों के क्षय में: कुछ जीवाणु सड़े-गले पदार्थों एवं मृत अवशेषों के क्षय में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।
  2. हानिकारक जीवाणु (Harmful bacteria):
  3. भोजन विषाक्तन (Food poisoning): कुछ जीवाणु जैसे- क्लोस्ट्रिडियम बोटूलिनियम (Clostridium botulinium) भोजन को विषाक्त बना देते हैं।
  4. विनाइट्रीकरण (Denitrification): कुछ जीवाणु नाइट्रेट, नाइट्राइट तथा अमोनियम यौगिकों को स्वतंत्र नाइट्रोजन में परिवर्तित कर देते हैं। जैसे- बैसिलस डिनाइट्रीफिकेन्स (BaciIIus denitrificans)।
  5. पौधों में रोग (Disease in plants): पौधों में होने वाले अनेक रोगों के लिए जीवाणु उत्तरदायी होते हैं। जैसे-

(i) आलू का शैथिल रोग (Potato wilt) स्यूडोमोनास सोलेनिसियेरम (Pseudomonas solanacearum) नमक जीवाणु द्वारा होता है।

(ii) नींबू का कैंकर रोग (Citrus canker) जेन्थोमोनास सीट्री (xanthomonas citri) नामक जीवाणु द्वारा होता है।

(iii) गेहूँ का टुन्डू रोग (Tundu disease) कोरीनो बैक्टीरियम ट्रिट्रिकी (corynebacterium tritici) नामक जीवाणु द्वारा होता है।

(iv) सेब का अग्निनीरजा रोग (Fireblight of apple) इरविनिया (Ervinia) नामक जीवाणु द्वारा होता है।

(v) चावल का अंगमारी रोग (Blight of rice) जैन्थोमोनास ओराइजी (Xanthomonas oryzae) नामक जीवाणु द्वारा होता है।

(vi) फलों में क्राउन गॉल (Crowngall) एग्रोबैक्टिरियम ट्यूमेफिसीयेन्स (Agrobacterium tumefaciens) नामक जीवाणु द्वारा होता है।


 

  1. पशुओं में रोग: जीवाणुओं द्वारा जानवरों में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। जैसे-

(i) जानवरों का काला पैर रोग (Black leg of animals) क्लासट्रीडियम चावेई (CIostridium chauvei) नामक जीवाणु द्वारा होता है।

(ii) भेड़ में एन्थ्रैक्स रोग बेसिलस एन्थ्रैसिस (Baciuus anthrasis) नामक जीवाणु द्वारा होता है।

  1. मानव रोग (Human disease): मनुष्यों में होने वाले अनेक रोग जीवाणुओं के द्वारा पैदा होते हैं। जैसे-

रोग का नाम जीवाणु
1. हैजा (Cholera) विब्रियो कॉलरी (vibrio cholerae)
2. डिप्थीरिया (Diphtheria) कोरीनोबैक्टीरियम डिप्थीरी (Corynbacterium diphtheriae)
3. सुजाक (Gonorrhoeae) गोनोकोकस गोनोराही (Gonococcus gonorrhoeae)
4. कोढ़ या कुष्ठ (Leprosy) माइकोबैक्टीरियम लेप्री (Mycobacterium leprae)
5. न्यूमोनिया (Pneumonia) डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae)
6. प्लेग (Plague) बैसिलस पेस्टिस (BaciIIus pestis)
7. सिफलिस (syphilis) ट्रेपोनेमा पैलीडम (Treponema pallidum)
8. टाइफाइड (Typhoid) सालमोनेला टाइफी (salmonella typhi)
9. तपेदिक (Tuberculosis) माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (Mycobacterium tuberculosis)
10. टिटेनस (Tetanus) क्लोस्ट्रीडियम टिटैनी (Clostridium tetani)
11. काली खाँसी (Whooping cough) हेमोफिलास परटूसिस (Hemophilouspertusis)

साइनोबैक्टीरिया: नील-हरित शैवाल (Cyanobacteria: Blue-green algae): नील-हरित शैवाल भी एक प्रकार का जीवाणु होता है। इन्हें साइनोबैक्टीरिया के नाम से भी जाना जाता है। साइनोबैक्टीरिया को पृथ्वी का सफलतम जीवधारियों का समूह माना जाता है। ये विश्व के उन सभी स्थलों पर पाये जाते हैं, जहाँ ऑक्सीजन उत्पादक प्रकाश संश्लेषी जीवधारी निवास कर सकते हैं जैसे- सामान्य जल, समुद्री जल, नम चट्टान, मिट्टी आदि। ये बहुकोशिकीय (Multicellular) या एककोशिकीय (Unicellular) जीवाणु होते हैं। संरचना के आधार पर इनकी कोशिकाओं की मूलभूत रचना शैवालों की अपेक्षा जीवाणुओं से अधिक समानता रखती है। इनमें क्लोरोफिल (Chlorophyll) नामक प्रकाश संश्लेषी वर्णक पाया जाता है जिसके कारण ये प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा अपने भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं। इस क्रिया के रूप में ये जीवाणु हाइड्रोजन के स्रोत के रूप में जल का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार के जीवाणुओं में निम्नलिखित प्रमुख लक्षण पाये जाते हैं-

  1. ये जलीय (Aquatic), तंतुवत (Filamentous), स्वपोषी (Autotrophs) एवं क्लोरोफिलयुक्त (Chlorophyllous) होते हैं।
  2. ये प्रकाश संश्लेषण में हाइड्रोजन के स्रोत के रूप में जल का प्रयोग करते हैं।
  3. इनकी कोशिकाभिति में सेल्यूलोज पाया जाता है।
  4. इनमें लैंगिक जनन नहीं होता है।
  5. इनमें अलैंगिक जनन एकानीट (Akanit) द्वारा होता है।
  6. इनमें विकसित कोशिकांगों जैसे-अंत:प्रद्रव्यी जालिका (Endoplasmicreticulum), माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) आदि का अभाव होता है।
  7. इनमें आनुवंशिक इकाई के रूप में DNA होता है।
  8. कुछ साइनोबैक्टीरिया मिट्टी में रहकर नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation) का कार्य करते हैं। जैसे-नॉस्टॉक (Nostoc)।
  9. ये गंधकीय वातावरण में भी जीवित रहने की क्षमता रखते हैं।
  10. इन्हें अत्यधिक आत्मनिर्भर स्वपोषी माना जाता है।
  11. इनमें शैवालों की भाँति लिनोलिक अम्ल (Linolic acid) तथा गैलेक्टोज (Galactose) पाया जाता है।
  12. इनमें कोशिका विभाजन (Cell division) असूत्री (Amitosis) प्रकार का होता है।

नोट: लाल सागर का लाल रंग ट्राइकोडेथियम एरीथ्रियम नामक साइनोबैक्टीरिया को कारण ही दिखलायी पड़ता है, क्योंकि ये इस सागर में प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

महत्व (Importance): ऐसा माना जाता है कि साइनो बैक्टीरिया सर्वप्रथम ऑक्सीजनक प्रकाशसंश्लेषी जीवधारी थे, यह भी समझा जाता है कि इनकी क्रियाओं के फलस्वरूप पृथ्वी वायवीय (Aerobic) हो पायी। अतः वायुमण्डल के निर्माण का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है। नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा कुछ साइनोबैक्टीरिया मृदा की उर्वरता में वृद्धि के लिए सहायक होते हैं। अनेक सइनोबैक्टीरिया जैसे- ऑसिलेटोरिया, स्पाइरूलिना, एनाबीना इत्यादि मछलियों व अन्य जलीय जन्तुओं के लिए भोजन का कार्य करते हैं, जिससे जीवों को प्रोटीन की आपूर्ति होती है। साइनोबैक्टीरिया कवक से लेकर साइकस तक अनेक जीवधारियों के साथ सहजीवी (symbiotic) सम्बन्ध रखते हैं। राइजोबियम नामक साइनोबैक्टीरिया नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं। दलहनी पौधों के साथ राइजोबियम का सहजीवी सम्बन्ध होता है।

सहजीवी सम्बन्ध: दो जीवों के मध्य ऐसा सम्बन्ध जिसमें दोनों जीव एक दूसरे से लाभान्वित होते हों, सहजीवी सम्बन्ध (symbiotic relationship) कहलाता है। ऐसे साहचर्य में सम्मिलित जीवों की सहजीवी कहते हैं। जैसे-लाइकन (Lichen)।

लाइकेन ऐसे जीव हैं जिनमें साइनोबैक्टीरिया एवं कवक (Fungi) साथ-साथ रहते हैं। इनमें कवक जल का अवशोषण करता है तथा साथ ही साथ यह जीवाणु को सहारा (support) प्रदान करता है जबकि साइनोबैक्टीरिया भोजन बनाने का कार्य करता है। इस प्रकार के सहजीवी सम्बन्ध को सहोपकारिता (Commonalism) कहते हैं।

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