बाबर: 1526-1530 ई. Babur: 1526-1530 AD.

1526 ई. से लेकर 1556 ई. तक का भारत का इतिहास मुख्यतः इस भूमि पर प्रभुता स्थापित करने के लिए मुग़ल अफगान-संघर्ष की कहानी है। भारत पर जो पहले मुग़ल (मंगोल) आक्रमण हुए थे, उनका दो बातों को छोड़ और कोई स्पष्ट फल नहीं निकला। इन आक्रमणों से नये मुसलमानों के बसने के फलस्वरूप भारतीय आबादी में एक नया तत्व जुड़ गया जो समय-समय पर तुर्क-अफगान सुल्तानों के लिए समस्याएँ खड़ा करता रहा। पर तैमूर के, जिसने साम्राज्य के एक प्रांत पंजाब पर अधिकार कर लिया था, आक्रमण से ह्रासोन्मुख सल्तनत के पतन की गति तीव्र हो गयी। उसके एक वंशज बाबर को उत्तरी भारत की क्रमबद्ध विजय करने का प्रयत्न करना तथा इस प्रकार यहाँ एक नये तुर्की राज्य की स्थापना करना बदा था। यह राज्य उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूँ के समय में अफगान पुनरूत्थान के कारण हाथ से निकल गया तथा 1556 ई. तक पुन: अधिकार में आया, जिसे अकबर ने धीरे-धीरे बढ़ाया। वास्तव में भारत की मुग़ल-विजय के इतिहास में तीन अवस्थाएँ थीं। पहली अवस्था (1526-1540 ई.) हुमायूँ के शासनकाल से आरम्भ हुई, जिसने मालवा, गुजरात एवं बंगाल को वशीभूत करने के असफल प्रयास किये, पर शेरशाह द्वारा भारत से भगा दिया गया। इसका मतलब था अफगान शक्ति का पुनरुत्थान। तीसरी अवस्था में (1545-1556 ई.) हुमायूँ द्वारा मुग़ल राज्य का पुन: स्थापन एवं अकबर द्वारा उसका दृढ़ीकरण हुआ।

बाबर एक चगताई तुर्क था। वह अपने पिता की ओर से तैमूर का वंशज था तथा माँ की और से चंगेज खाँ से सम्बन्धित था। 1494 ई. में ग्यारह वर्ष की उम्र में उसे फरगाना की छोटी रियासत पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिली, जो इन दिनों चीनी तुर्किस्तान का एक प्रान्त है। उसका प्रारम्भिक जीवन कठिनाईयों से भरा था। पर वे प्रच्छन्न वरदान सिद्ध हुई, क्योंकि उनसे उसे भाग्य के चढ़ाव-उतार से संघर्ष करने का पर्याप्त प्रशिक्षण मिला। उसने तैमूर के सिंहासन को पुनः प्राप्त करने की आकांक्षा पाल रखी थी, पर फरगाना के उसके बन्धुओं एवं निकट सम्बन्धियों तथा उजबेक सरदार शैबानी खाँ की प्रतिस्पर्द्धा ने उसे विफल कर दिया। अति-इच्छित समरकन्द नगर को जीतने के 1497 ई. एवं 1503 ई. के उसके दोनों प्रयत्न असफल हुए। उसके दुर्भाग्य का यहीं अंत नहीं था। उसे अपनी पैतृक सम्पत्ति फरगाना से भी हाथ धोना पड़ा तथा एक वर्ष तक गृहहीन भ्रमणकारी के रूप में अपने दिन बिताने पड़े। इस घोर विपत्ति के समय भी उसने तैमूर के समान हिन्दुस्तान जीतने की साहसपूर्ण योजना बनायी। उजबेकों की बढ़ती हुई शक्ति ने तैमूरियों को उनकी रियासतों से दूर रखा था। पर इस समय उजबेकों के राज्य के एक दूसरे भाग में विद्रोह हो गया था। बाबर ने इससे लाभ उठाकर 1504 ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया। बाबर ने उजबेक नेता शैबानी खाँ के विरुद्ध फारस के शाह इस्माइल सफावी की सहायता लेकर अक्तूबर, 1511 ई. में समरकन्द जीतने की पुन: एक बार कोशिश की, पर शैबानी के उत्तराधिकारी के अधीन, उजबेकों ने उसे 1512 ई. में अंतिम रूप में परास्त कर दिया। उत्तर-पश्चिम में अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के इस प्रकार विफल हो जाने पर बाबर ने दक्षिण-पूर्व में अपना भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। उसने इस दिशा में कई चढ़ाइयाँ कीं, जो उस भूभाग की सैनिक परीक्षा के रूप में थीं। इसके बारह वर्ष बाद उसे हिन्दुस्तान के मध्य भाग में घुसने का अवसर मिला।

बाबर कुछ समय से हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने की महत्त्वाकांक्षा को पाल रहा था। विपत्ति-विद्यालय में हुए उसके प्रारंभिक प्रशिक्षण के कारण उसमें साहसिक काम करने की भावना घर कर गयी थी। उसने शीघ्र पंजाब में घुसकर 1524 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। पर उसके भारतीय मित्र दौलत खां तथा आलम खां ने तुरंत पानी गलती महसूस की जब उन्होंने देखा की भारत में जीते प्रदेशों के छोड़ने का बाबर का इरादा नहीं है, तब वे उसके विरुद्ध हो गये। इससे विवश होकर बाबर काबुल लौट गया, जहाँ वह फिर एक बार आक्रमण करने के उद्देश्य से सेना इकट्ठी करने लगा।

इस आक्रमण के आने में बहुत देर नहीं लगी। नवम्बर, 1525 ई. में वह से सेना लेकर चला तथा पंजाब पर अधिकार कर दौलत खाँ लोदी को अधीन होने के लिए बाध्य कर दिया। दिल्ली-विजय करने का दुस्तर कार्य, जो निश्चय ही बाबर की महत्वाकांक्षा के घेरे में था, अभी पूरा करना बाकी था। इसलिए वह एक छोटे से अफगान-साम्राज्य के नाममात्र के शासक इब्राहिम लोदी के विरुद्ध बढ़ा तथा 21 अप्रैल, 1526 ई. को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में उससे मुठभेड़ हुई। उसके पास तोपों के रखने का एक विशाल यंत्र तथा बारह हजार मनुष्यों की एक सेना थी, जबकि इब्राहिम के सिपाहियों की संख्या बहुत अधिक थी, जिसमें बाबर की गणना के अनुसार एक लाख मनुष्य थे। पर बाबर में चरित्रबल एवं एक रण-कुशल सेनापति का अनुभव था। इस प्रकार उच्चतर युद्ध-कौशल एवं सेनापतित्व तथा तोपों के प्रयोग के कारण बाबर की लोदी सुल्तान पर निर्णयात्मक जीत हुई। इस लड़ाई में बाबर ने तुलगमा युद्ध प्रणाली को तोपखान से जोड़ दिया। कुछ इतिहासकारों ने इस युद्ध पद्धति को रूमि पद्धति भी कहा है।

परन्तु इब्राहिम पर बाबर की जीत से हिन्दुस्तान पर मुग़ल-विजय पूरी नहीं हुई। इससे उसे देश पर वास्तविक प्रभुता प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि अफगान सनिकों, नायकों एवं राणा सांगा के अधीन राजपूतों जैसी अन्य पराक्रमी शक्तियां अभी शेष थीं। फिर भी, पानीपत के युद्ध का अपना ही महत्त्व है, क्योंकि इससे भारत में मुग़ल राज्य की नींव पड़ गयी। आगरे के बाद उसने ग्वालियर, धौलपुर आदि क्षेत्रों को जीता। आगरा में हुमायूँ ने उसे प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा भेंट किया पर उसने उसे वापस हुमायूँ को लौटा दिया। यह हीरा ग्वालियर के शासक विक्रमजीत से प्राप्त किया गया था। बाबर ने हुमायूँ को बदख्शां का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

दोआब पर अधिकार करने के शीघ्र बाद बाबर ने पूर्व के अफगान सरदारों का दमन किया। उसने देश के अविजित भागों में अफगान नायकों को खदेड़ भगाने के लिए अपने अपने सरदारों को भेजा तथा स्वयं वीर राजपूत नायक राणा साँगा से, जिसके साथ टक्कर अनिवार्य थी, भिडन्त करने के उद्देश्य से आगरे में अपने साधनों को व्यवस्थित करने में लग गया। वास्तव में यह संघर्ष अफगान सरदारों के अधीन करने का कार्य प्राय: पहले ही पूर्ण हो गया। राणा साँगा, जो एक रणकुशल एवं निर्भीक योद्धा था, सेना लेकर बयाना गया, जहाँ हसन खाँ मेवाती एवं कुछ अन्य लोदी-वंश के मुस्लिम समर्थक उसके साथ हो गये। इस प्रकार राजपूत और कुछ भारतीय मुस्लिम, भारत में किसी अन्य विदेशी शक्ति की स्थापना को रोकने के संकल्प से आपस में मिल गये। पर इस संकटपूर्ण क्षण में सभी अफगान नायक राजपूतों से मिल सके। फलत: इस प्रकार बाबर का काम अपेक्षाकृत सुगम हो गया। यदि उसे भारत के हिन्दुओं एवं सभी मुस्लिमों की सम्मिलित शक्ति का सामना करना पड़ता, तो भारतीय इतिहास का स्वरूप कुछ और ही होता।

राजपूत राष्ट्रीय पुनर्जागरण का नायक राणा साँगा निस्सन्देह इब्राहिम से अधिक भयंकर शत्रु था। वह एक सेना लेकर बढ़ा, जिसमें एक सौ बीस नायक, अस्सी हजार घुड़सवार और पाँच सौ लड़ाई के हाथी थे। मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर एवं चंदेरी के शासक तथा सुल्तान महमूद लोदी (सुल्तान सिकन्दर लोदी का एक दूसरा पुत्र), जिसे राणा साँगा ने दिल्ली का शासक स्वीकार किया था, उसके साथ हो गये। राजपूत, जो स्फूर्तिवान्, शूर, युद्ध एवं रक्तपात के प्रेमी थे प्रबल राष्ट्रीय भावना से उत्प्रेरित थे, उस (विरोधी) पक्ष के सबसे साहसी एवं रण-कुशल वीरों का सामना करने को तत्पर थे तथा अपनी प्रतिष्ठा के लिए अपना जीवन देने को सर्वदा प्रस्तुत रहते थे। बाबर की छोटी सेना भय एवं घबड़ाहट से ग्रस्त हो गयी तथा उसने स्वयं भी अपने कार्य की विकरालता का पूर्ण अनुभव किया। पर वह अदमनीय वृत्ति से सम्पन्न था। बिना हतोत्साहित हुए उसने अपने कातर सैनिकों के दिलों में नवीन साहस एवं जोश भरने का प्रयत्न किया। उसने अपनी मदिरा की प्यालियों को तोड़ डाला, अपने हाथ की सारी मदिरा को भूमि पर उडेल दिया तथा फिर कभी मदिरापान न करने की शपथ खायी तथा एक उत्तेजनापूर्ण भाषण में अपने आदमियों से अपील की।


इसका इच्छित फल निकला। उसके सभी सैनिकों ने कुरानशरीफ के नाम पर उसके लिए युद्ध करने की शपथ खायी। 16 मार्च, 1527 ई. को खनआ अथवा कनवा में मुगलों तथा भारतीयों की निर्णयात्मक मुठभेड़ हुई। यह गाँव आगरे के करीब-करीब ठीक पश्चिम में है। राजपूत जान पर खेलकर लड़े, पर बाबर पानीपत के समान व्यूह-रचना कर, उन पर विजयी हुआ। राजपूतों का पूर्ण पराभव हुआ। राणा अपने कुछ अनुगामियों की सहायता से बच गया, पर लगभग दो वर्ष बाद भग्न हृदय होकर मर गया। बाबर ने खनवा में प्राप्त अपनी सफलता को और आगे बढ़ाया। उसने यमुना पार कर चंदेरी के दुर्ग पर धावा बोल दिया और राजपूतों के वीरतापूर्ण विरोध के बावजूद उस पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।

खनवा का युद्ध निस्सन्देह भारतीय इतिहास के निर्णयात्मक युद्ध में से एक है। एक तरह से इसके परिणाम पानीपत के प्रथम युद्ध के परिणामों से अधिक महत्त्वपूर्ण थे। पानीपत की प्रथम लड़ाई से दिल्ली के नाममात्र के सुल्तान की पराजय हुई, जो वास्तव में प्रभुता का अधिकार खो चुका था पर खनवा के युद्ध का परिणाम हुआ शक्तिशाली राजपूत-संघ की पराजय। इस प्रकार खनवा के युद्ध से राजपूतों के राजनैतिक पुनरुत्थान का अवसर जाता रहा, जिसके लिए उन्होंने तुर्क-अफगान सल्तनत के पतन के बाद प्रयत्न किया था। पर यह कहना सत्य से दूर होगा कि राजपूत अब से हिन्दुस्तान की राजनीति में एक प्रमुख तत्त्व नहीं रहे। वास्तव में उनका राजनीति के क्षेत्र से हटना केवल थोडे समय के लिए था। लगभग तीस वर्षों के बाद एक बार पुन: उनका उत्थान हुआ तथा उन्होंने मुग़ल-साम्राज्य के इतिहास पर गहरा प्रभाव डाला। शेरशाह तक को राजपूतों से निपटना पड़ता। पर खनवा के बाद राजपूतों के कुछ समय तक हतप्रभ हो जाने से भारत में बाबर का कार्य सुगम हो गया तथा नवीन वैदेशिक शासन की स्थापना सम्भव हो गयी। उसके जीवन की नयी अवस्था की जो इस युद्ध के बाद आयी, यह विशेषता है कि उसके बाद उसे कभी हारी हुई लड़ाई के प्रश्न पर अपने सिंहासन तथा जीवन को संकट में नहीं डालना पड़ा। लड़ाई है और लड़ाई काफी करनी है; पर यह लड़ाई उसकी शक्ति के विस्तार के लिए है, विद्रोहियों के अधीन करने के लिए तथा उसके राज्य की व्यवस्था के लिए है। यह लड़ाई कभी भी उसके सिंहासन के लिए नहीं है। बाबर की महत्त्वपूर्ण विजयों की संघर्ष विशेषता है कि अब से उसकी शक्ति का केन्द्र काबुल से हिन्दुस्तान चला आता है।

बाबर अफगान नायकों को पूर्णत: अधीन करने का कार्य अपूर्ण छोड़कर राजपूतों से संघर्ष करने को शीघ्र चल पड़ा। पर अब वह अपना सम्पूर्ण ध्यान उस ओर दे सकता था। बिहार तथा बंगाल के संयुक्त अफगानों से पटना के ऊपर घाघरा तथा गंगा के संगम के निकट घाघरा के किनारे उसकी मुठभेड़ हुई तथा उसने 6 मई, 1529 ई. को उन्हें बुरी तरह परास्त किया। इस प्रकार तीन युद्धों के परिणामस्वरूप बाबर ने उत्तरी भारत के विशाल भाग को अपने अधीन कर लिया। वह ऑक्सस से घाघरा एवं हिमालय से ग्वालियर तक फैले हुए राज्य का स्वामी बन गया, यद्यपि पूर्ति करने के लिए यहाँ-वहाँ कुछ रिक्त स्थान बच गये थे।

परन्तु इतनी कठिनाई से अर्जित की हुई अपनी विजयों के फल अधिक समय तक भोगना बाबर के भाग्य में नहीं था। सैंतालीस या अड़तालीस वर्षों की आयु में 26 दिसम्बर, 1530 ई. को आगरे में उसकी मृत्यु हो गयी।

हिन्दुस्तान में व्यतीत किये गये चार वर्षों के अन्दर बाबर ने पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार को जीत लिया तथा मेवाड़ का प्रमुख राजपूत राज्य भी उसके अधीन हो गया। पर वह देश विजय के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सका। किन्तु मात्र भू-आधिपत्य साम्राज्य के स्थायित्व के लिए पर्याप्त नहीं होता। भू-आधिपत्य के साथ प्रशासनिक संरचना की शीघ्र सुव्यवस्था और सशक्तीकरण नितान्त आवश्यक होता है।

बाबर एशिया के इतिहास में एक अत्यन्त रोमांचकारी तथा रोचक व्यक्तित्व है। यह अदम्य साहस तथा विलक्षण सैनिक पराक्रम का मनुष्य था। वह अनावश्यक जन-संहारों तथा उद्देश्यहीन विध्वंस में प्रफुल्लित होने वाला निर्दय विजेता नहीं था। वह स्नेही पिता, दयालु स्वामी, उदार मित्र, ईश्वर में दृढ़ आस्था रखने वाला, प्रकृति एवं सच्चाई का उत्कट प्रेमी तथा संगीत एवं अन्य कलाओं में दक्ष था। शायद साहसिकता की अविश्रांत प्रवृत्ति एवं स्वभाव की दयालुता उसे अपने पिता से मिली थी, जिसे उसने अपने जीवन के अत्यन्त कष्टपूर्ण समय तक में नहीं खोया तथा साहित्यिक रुचि उसे अपने नाना से मिली थी। उसने मंगोल की शक्ति तथा तुर्क के साहस एवं योग्यता का प्रयोग असावधान हिन्दू को पराधीन बनाने में किया। यद्यपि वह स्वयं साम्राज्य-निर्माता नहीं, बल्कि जीविका ढूंढने वाला सैनिक था, तथापि उसने भव्य इमारत का पहला पत्थर डाला, जिसको उसके पौत्र अकबर ने पूरा किया।…….इतिहास में उसका स्थायी स्थान उसकी भारतीय विजयों के कारण है, जिन्होंने सम्राटों के एक वंश की स्थापना का रास्ता खोल दिया, परन्तु जीवन-कथा तथा साहित्य में उसका स्थान उसके अपने प्रारम्भिक दिनों के साहसपूर्ण कार्यों तथा अनवरत चेष्टाओं के कारण तथा उसकी आनन्ददायक आत्मकथा के कारण जिसमें उसने इनका वर्णन किया है, निश्चित होता है। जीविका ढूंढने वाला एक सैनिक होते हुए भी बाबर साहित्यिक सुरुचि एवं दुस्तोषणीय आलोचनात्मक दृष्टि का व्यक्ति था। संस्कृति की भाषा तथा मध्य एशिया की लैटिन फारसी में, जो भारत की भी लैटिन (भाषा) है, वह निपुण कवि था। स्वदेशीय भाषा तुर्कों में समान रूप से गद्य एवं पद्य की शुद्ध और स्वाभाविक शैली पर उसका असाधारण अधिकार था। उसकी आत्मकथा का मानव-साहित्य के इतिहास में उच्च स्थान है, जो उचित ही है। 1590 ई. में अकबर के समय में अब्दुर्रहीम खानखाना ने उसका फारसी में अनुवाद किया। लीडेन एवं एर्सकीन ने 1826 ई. में इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। 1871 ई. में फ्रेंच भाषा में इसका अनुवाद निकला। एनिटी सुसन्ना बेवेरिज ने इसका एक संशोधित अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित किया है। उसके सुन्दर तुर्की गीतों का भी एक छोटा संग्रह है।

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