खगोल भौतिकी Astrophysics

खगोलिकी का विकास

खगोलिकी या खगोल विज्ञान (Astronomy): आकाशीय पिण्डों, उनकी बनावट, परिमाण और गति का अध्ययन करनेवाला विज्ञान खगोलिकी या खगोल विज्ञान कहलाता है।

खगोलिकी की शाखाएँ (Branches of Astronomy): खगोल-भौतिकी (Astro-Physics = Astronomy + Physics), खगोल-गतिकी (Astro-Dynamics), खगोल-जैविकी (AstroBiology) आदि।

विश्व या ब्रह्मांड (Universe or Cosmos): पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा उसमें उपस्थित सभी खगोलीय पिण्डों (आकाशगंगा या मंदाकिनी, तारें आदि) को समग्र रूप से विश्व या ब्रह्मांड कहते हैं। ब्रह्मांड से संबंधित अध्ययन को ब्रह्मांड विज्ञान (Cosmology) कहते हैं।

विश्व की रचना आकाशगंगाओं या मंदाकिनियों (Galaxies) से हुई है। अनुमानतः विश्व में खरबों की संख्या में आकाशगंगाएँ हैं तथा प्रत्येक आकाशगंगा में खरबों तारें (stars) हैं। बहुत से तारों का अपना-अपना परिवार हो सकता है, जैसे सौर परिवार में पृथ्वी सहित 8 ग्रह हैं।

प्रसिद्ध खगोलवेत्ता और उनका योगदान (Famous Astronornists & Their Contributions): खगोलिकी के विकास में जिन खगोलवेत्ताओं ने योगदान दिया है, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- (कालक्रम के अनुसार)

  1. टॉलेमी का भूकेंद्री सिद्धांत (Ptolemy’s Geocentric Theory): सर्वप्रथमं वर्ष 140 ई० में यूनानी खगोलविद् टॉलेमी (2 सदी ई०) द्वारा विश्व का अध्ययन किया गया। टॉलेमी ने भूकेंद्री सिद्धांत [Geos (→ Earth) + Centric = Geocentric] का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत के अनुसार, पृथ्वी विश्व के केन्द्र में स्थित है तथा सूर्य और अन्य ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं।
  2. कोपरनिकस का सूर्यकेंद्री सिद्धांत (Copernicus’s Heliocentric Theory)- वर्ष 1543 ई० में पोलैण्ड के खगोलविद् कोपरनिकस (1473-1543) ने सूर्यकेन्द्री सिद्धांत [Helios (→sun) + Centric = Heliocentric] का प्रतिपादन किया । इस सिद्धांत के अनुसार, विश्व के केन्द्र में सूर्य है न कि पृथ्वी तथा पृथ्वी सहित सभी अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। कोपरनिकस को आधुनिक खगोलिकी का जनक (The Father of Modern Astronomy) कहा जाता है।
  3. केप्लर का ग्रहीय गति के नियम (Kepler’s laws of Planetary Motion): जोहानस केप्लर (1571-1630) ने सर्वप्रथम स्पष्ट किया कि सूर्य के चारों ओर चक्कर लगानेवाले ग्रहों का पथ दीर्घवृतीय या अण्डाकार (elliptical) है।
  4. गैलीलियो (Galileo, 1564-1642): इतालवी खगोलवेत्ता गैलीलियो ने अपने समकालीन केप्लर के विचारों का समर्थन किया। वर्ष 1609 ई. में गैलीलियो ने अपवर्तक दूरबीन (Refractor Telescope) का आविष्कार किया। गैलीलियो ने बृहस्पति ग्रह के चार उपग्रहों तथा सूर्य कलंक या सूर्य धब्बे (sun spots) का पता लगाया। गैलीलियो ने ही बताया कि सूर्य का निकटवर्ती तारा प्रॉक्सिमा सेंचुरी (Proxima Centauri) है।
  5. न्यूटन (Newton, 1642-1727): ब्रिटिश भौतिकीवेत्ता आइजक न्यूटन ने वर्ष 1668 ई० में परावर्तक दूरबीन (Reflector Telescope) का आविष्कार किया।
  6. हर्शेल (Herschel): वर्ष 1805 ई० में ब्रिटेन के खगोलवेत्ता हर्शल ने दूरबीनों की सहायता से अंतरिक्ष का अध्ययन किया तथा बताया कि विशव केवल सौर मंडल तक सीमित नहीं है बल्कि यह सौर मंडल स्वयं आकाशगंगा नामक तारा निकाय का अंश मात्र है। इस अध्ययन के पश्चात् मानव ने ब्रह्मांड की असीमित व्यापकता को देखा।
  7. 7. हब्बल का आकाशगंगाओं के प्रतिसरण का नियम (Hubble’s law of Recession of Galaxies): अमेरिकी खगोलवेत्ता एडविन पी. हब्बल (Edwin P. Hubble, 1889-1953) ने वर्ष 1925 ई० में बताया कि विश्व में हमारी आकाशगंगा-दुग्ध-मेखला (Milkyway) की तरह लाखों अन्य आकाशगंगाएँ हैं। इसके बाद वर्ष 1929 में हब्बल ने अपने प्रेक्षणों के आधार पर यह साबित किया कि आकाशगंगाएँ अंतरिक्ष में स्थिर नहीं हैं, बल्कि वे एक-दूसरे से दूर होती जा रही हैं। जैसे-जैसे उनकी दूरी बढ़ती जाती है उनके भागने की गति भी तीव्र होती जाती है। इसे आकाशगंगाओं के प्रतिसरण का नियम (The law of Recession of Galaxies) कहते हैं।

नोट: हब्बल के मत से खगोलवेत्ता आइजक एसीसीव सहमत नही हैं। उनका कहना है कि हब्बल के निरुपण के अनुसार यदि दूरी के साथ प्रतिसरण की गति बढ़ती जाएगी तो 125 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी पर आकाशगंगाएँ इस तेजी से प्रतिसरण करेंगी कि उन्हें देख पाना हमारे लिए संभव नहीं होग।


  1. डाप्लर विस्थापन (Doppler shifts): आकाशगंगाएँ दूर भाग रही है और विश्व का लगातार विस्तार हो रहा है। यह डाप्लर प्रभाव (Doppler Effect) द्वारा ज्ञात किया गया है। आकाशगंगाओं से आनेवाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में रक्त विस्थापन (Red shift) की घटना (अर्थात् प्रकाश की तरंगदैर्ध्य लाल रंग के प्रकाश की ओर विस्थापित हो जाती है) प्रत्यक्ष देखी गई है। स्पेक्ट्रम में रक्त विस्थापन बतलाता है कि प्रेक्षित आकाशगंगा (observed galaxy) पृथ्वी से दूर भाग रही है। यदि स्पेक्ट्रम में बैंगनी विस्थापन (violet shift) हो तो प्रेक्षित आकाशगंगा पृथ्वी के पास आ रही है। ये विस्थापन डाप्लर विस्थापन कहलाते हैं।
  2. जार्ज लेमेत्रे विश्व उत्पति का महा विस्फोट सिद्धांत (Georges Lemiatre’s Big Bang Theory of Origin of Universe): 1927 ई० में बेल्जियम के खगोलवेत्ता एबे जार्ज लेमेत्रे (Abbe Georges Lemaitre) ने विश्व उत्पति का महा विस्फोट सिद्धांत [Big (→Great) Bang (→explosion) Theory] प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व अंतरिक्ष में एक अत्यंत भयंकर विस्फोट हुआ जिसमें से प्रारंभिक पदार्थ [मुख्यतः फोटॉन (Photon) तथा लेप्टोक्वार्क ग्लुऑन (Leptoquark Gluon)] इधर-उधर छिटक गया और उसी से आकाशगंगाएँ बनी जो अभी तक भाग रही हैं। विश्व की उत्पति का यह सिद्धांत सबसे अधिक मान्य है।
  3. एलन संडेज का स्पंदमान या दोलायमान विश्व सिद्धांत (Pulsating or oscillating UniverseTheory): विश्व के विकास का यह नवीनतम सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार, यह विश्व करोड़ों वर्षों के अंतराल में क्रमशः फैलता और सिकुड़ता रहा है। डॉ० एलन संडेज का कथन है कि आज से लगभग 120 करोड़ वर्ष पूर्व एक भयंकर विस्फोट हुआ था और तब से विश्व विस्तृत होता जा रहा है। यह प्रसार 290 करोड़ वर्ष तक चलता रहेगा। जिसके बाद गुरुत्वाकर्षण इनके अधिक विस्तार पर रोक लगा देगा। उसके पश्चात् इसका सिकुड़न प्रारंभ हो जाएगा अर्थात् यह अपने अंदर ही सिमट जाएगा। इस प्रक्रिया को अंत:विस्फोट कहते हैं। यह प्रक्रिया करीब 410 करोड़ वर्ष तक चलती रहेगी। जब यह अत्यधिक संपीडित या घनीभूत हो। जाएगा तब एक बार फिर विस्फोट होगा।
  4. खगोलीय या आकाशीय पिण्ड

खगोलीय या आकाशीय पिण्ड (Celestial Bodies): आकाश में दिखायी देनेवाले पिण्डों जैसे आकाशगंगा, तारा, ग्रह, उपग्रह, धूमकेतु आदि को खगोलीय पिण्ड कहते हैं।

  1. आकाशगंगा या मंदाकिनी (Galaxy): आकाशगंगा या मंदाकिनी तारों के ऐसे विशाल समूह हैं जो गुरुत्वाकर्षण के कारण एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। इनकी विशालता के कारण इन्हें प्रायद्वीपीय ब्रह्मांड कहा जाता है।

आकाशगंगा असंख्य तारों का विशाल पुंज है जिनमें अधिकांश तारें आँखों द्वारा दिखाई नहीं पड़ते हैं। रात्रि को स्वच्छ आकाश में एक चमकदार मेहराब (arch) के रूप में दिखायी पड़ती है। प्रत्येक आकाशगंगा में तारों के अतिरिक्त गैसें तथा धूल भी होती हैं। आकाशगंगा का 98% भाग तारों से तथा शेष 2% गैसों या धूल से बना है।

संरचना के आधार पर आकाशगंगा तीन प्रकार के होते हैं- सर्पिल (spiral), दीर्घवृतीय (Elliptical) तथा अनियमित (Irregular)। अब तक की ज्ञात आकाशगंगाओं में 80% सर्पिल, 17% दीर्घवृतीय तथा 3% अनियमित संरचनावाले हैं। हमारी आकाशगंगा- दुग्धमेखला (Milkyway)– एक सर्पिल संरचनावाली आकाशगंगा है। एण्ड्रोमेडा (Andromeda) भी एक सर्पिल संरचनावाली आकाशगंगा है। हमारी आकाशगंगा दुग्धमेखला के बाद सबसे निकटतम आकाशगंगा एण्ड्रोमेडा है।

हमारी आकाशगंगा: दुग्धमेखला (Milkyway): हमारा सौर मंडल जिस आकाशगंगा का सदस्य है उसका नाम दुग्धमेखला (Milkyway) है। यह दुग्धमेखला चौबीस आकाशगंगाओं के एक समूह का सदस्य है जो स्थानीय समूह (Local group) कहलाता है।

इस आकाशगंगा की विशिष्टता यह है कि इससे होकर एक संपूर्ण वृत में प्रकाश की धारा प्रवाहमान दिखाई देती है। पृथ्वी से देखने पर यह धारा आकाश में बहती प्रकाश की एक नदी की तरह दिखायी देती है। परन्तु ऐसा नहीं है, यह करोड़ों टिमटिमाते तारों से मिलकर बनी है। हमारी आकाशगंगा-दुग्धमेखला-एक सर्पिल संरचनावाली आकाशगंगा है।

  1. तारामंडल (Constellation): आकाश में वैसे तो अनेक धुंधले तारे दिखायी देते हैं, परन्तु उनमें कुछ चमकीले तारों के समूह भी होते हैं जिनकी कुछ विशेष आकृतियाँ होती हैं। इन्हें ही तारामंडल कहते हैं। इनके नाम उन आकृतियों के नाम पर रखे गये हैं जिनके समान इन तारा समूहों की रचना होती है। प्रमुख तारामंडल हैं- सप्तर्षि या सप्तऋषि (Ursa Major-Great Bear), ध्रुव मत्स्य (Ursa Minor–Little Bear), ओरियन (Orion-Great Hunter), ड्रैको (Draco-Dragon), सिग्नस (Cygnus-Swan), हरकुलीज (Hercules), हाइड्रा (Hydra), सेन्टॉरस (Centaurus) आदि। अभी तक 89 तारामंडलों की पहचान की गई है। इनमें सबसे बड़ा तारामंडल सेन्टॉरस (Centaurus) है जिनमें 94 तारे हैं। हाइड्रा (Hydra) में कम-से-कम 68 तारे हैं।
  2. तारे या नक्षत्र (stars)– तारे वे विशाल आकाशीय पिण्ड हैं जिनके पास अपना प्रकाश (या चमक) होता है, जैसे सूर्य एक तारा है। भार के अनुपात में तारों में 70% हाइड्रोजन, 28% हीलियम, 1.5 कार्बन, नाइट्रोजन व निऑन तथा 0.5 लौह व अन्य भारी तत्व होते हैं।

तारे गुच्छों का निर्माण करते हैं। खगोल में ऐसे तारे अपवाद हैं जो अलग-थलग अकेले पड़े हों। ऐसे तारों की संख्या तारों की कुल संख्या के 25% से अधिक नहीं है। युग्म तारों (Binary stars) की संख्या लगभग 33% है, जैसे ज्येष्ठा में दो तारे हैं। शेष 42% बहुसंख्यक तारे हैं, जैसे अल्फा सेन्टॉरी में 3 तारें एवं मिथुन (Caster) में 6 तारे हैं।

विश्व में भिन्न-भिन्न आयु के अरबों तारे हैं। इनमें से कुछ वयस्क हैं, कुछ हमारे सूर्य की भाँति मध्यम आयु के हैं तथा कुछ अपनी मृत्यु के बहुत निकट हैं। तारे पैदा होते हैं, ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं व विकास करते हैं एवं अंत में स्वत: मर जाते हैं।

तारे का जन्म तथा विकास (Birth & Evolution of Star): किसी तारे का जीवनचक्र आकाशगंगा में हाइड्रोजन तथा हीलियम गैसों के संघनन से प्रारंभ होता है, जो अंततः छोटे-छोटे घने बादलों (oort clouds) के रूप धारण कर लेते हैं। ये बादल स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ता चला जाता है और एक प्रक्रिया शुरु हो जाती है जो गैसों के इस विशाल बादल को तारों में परिवर्तित कर देती है। यह सिकुड़ता हुआ घना गैस पिण्ड आदि तारा या आद्य तारा (Proto Star) कहलाता है।

आदि तारे के सिकुड़ने पर गैसों के बादल में परमाणुओं की परस्पर टक्करों की संख्या बढ़ जाती है, जिससे उसका ताप बढ़ जाता है। सिकुड़ने की प्रक्रिया लगभग एक अरब वर्ष तक चलती रहती है। इस दौरान आंतरिक ताप अत्यधिक बढ़ जाता है। इस अत्यधिक उच्च ताप पर हाइड्रोजन के नाभिक नाभिकीय संलयन (nuclear fusion) अभिक्रिया द्वारा संलयित होकर हीलियम के नाभिक बनाने लगते हैं। इससे अंदर का ताप तथा दाब और अधिक बढ़ जाता है।

तारे के जीवन का अंतिम चरण (Final stage of star’s Life): जब तारे में हाइड्रोजन हो जाती है तो इसका बाहरी सतह फूलने लगता है और वह लाल हो जाता है। यह तारे के अंतिम समय की पहली निशानी है। ऐसे तारे को लाल दानव (Red Giant) कहते हैं। हमारा सूर्य आगामी 5 अरब वर्षों में ऐसा ही लाल दानव बन जाएगा ऐसी संभावना है।

लाल दानव चरण के बाद तारे में दो स्थितियों में से कोई एक स्थिति आती है या तो वह श्वेत वामन तारे (white Dwarf stars) में बदलता है या फिर न्यूट्रॉन तारे (Neutronstars) में। यदि तारे का प्रारंभिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के बराबर हो तो वह श्वेत वामन तारा बनता है तथा यदि तारे का प्रारंभिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से बहुत अधिक हो तो उसका अंत अत्यंत विस्फोटक होता है व न्यूट्रान तारा बनता है। स्पष्ट है कि लाल दानव तारा का भविष्य उसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है।

(i) जब तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के बराबर हो: इस स्थिति में तारे का बाह्य कवच (shell) प्रसारित होकर अन्ततः लुप्त हो जाता है और केवल तारे का क्रोड (core-तारे का केन्द्रीय भाग) बचा रहता है जो निरंतर सिकुड़ता चला जाता है। सिकुड़न के कारण तारे का आंतरिक ताप बढ़ जाता है जिसके फलस्वरूप हीलियम के नाभिक संलयित होने लगते हैं। हीलियम में संलयन के परिणामस्वरूप विमोचित ऊर्जा के कारण यह क्रोड किसी श्वेत वामन तारे (white Dwarf stars) के समान चमकने लगता है। यह तब तक चमकता रहता है जब तक कि इसके समस्त हीलियम का उपयोग न हो जाय। हीलियम के चुक जाने के बाद यह कृष्ण वामन तारा (Black Dwarf Star) बन जाता है व अत्यधिक घनत्व के पदार्थ के रूप में गहन अंतरिक्ष में लुप्त हो जाता है। लगभग 90% तारों का अंत इसी तरह से होता है।

(ii) जब तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से बहुत अधिक हो: इस स्थिति में तारे का बाह्य कवच (shell) सिकुड़ने के दौरान विमोचित ऊर्जा के कारण विस्फोट के साथ ध्वंस हो जाता है। इसके कारण आकाश बहुत दिनों तक जगमगा उठता है। ऐसे विस्फोटक तारे को नवतारा (Nova) या अधिनिव तारा (Supernova) कहते हैं।

अधिनव तारा विस्फोट में गैसों के बादल अंतरिक्ष में विमोचित हो जाते हैं। ये गैसें नये तारों के निर्माण हेतु कच्चे पदार्थ (raw materials) प्रदान करते हैं। अधिनव तारा विस्फोट के पश्चात् केवल क्रोड (core-तारे का केन्द्रीय भाग) बचा रहता है जो निरंतर सिकुड़ता चला जाता है। विशाल गुरुत्वाकर्षण बल क्रोड को संपीडित कर उसके पदार्थ का घनत्व असीमित मात्रा में बढ़ा देता है। अत्यधिक संघनित पदार्थ का यह पिंड न्यूट्रॉन तारा (Neutron star) कहलाता है क्योंकि ये न्यूट्रॉनों से बने होते हैं। न्यूट्रॉन तारे का भविष्य भी उसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है। भारी न्यूट्रॉन तारे में अत्यधिक मात्रा में द्रव्यमान अंततः एक ही बिन्दु पर संकुचित (pack) हो जाता है। ऐसे अत्यधिक घनत्व के पदार्थ युक्त पिण्ड को कृष्ण छिद्र (Black Hole) कहते हैं। कृष्ण छिद्र के एक चम्मच भर पदार्थ का भार कई टनों के बराबर होता है। कृष्ण छिद्र का गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र (gravitational field) इतना प्रबल होता है कि इससे किसी भी पदार्थ का यहाँ तक कि प्रकाश का भी पलायन नहीं हो सकता। इसीलिए कृष्ण छिद्र दिखायी नहीं देते हैं। यह अंतरिक्ष में गहरी अनंत खाई के समान है। कृष्ण छिद्र न तो कोई विकिरण उत्सर्जित करता है और न ही किसी विकिरण को परावर्तित करता है बल्कि यह सभी विकिरणों को अवशोषित कर लेता है। अतः उसको पहचानना या संसूचित करना (detection) बहुत कठिन है।

तारों का वर्गीकरण (Classification of stars): तारों का वर्गीकरण उनके भौतिक लक्षणों के आधार पर किया जाता है जैसे उनकी चमक (brightness), वर्णक्रम (spectrum), ताप (heat) तथा आकार (size)।

(i) चमक के आधार पर: इस आधार पर तारों को 3 मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है – (a) तीव्र चमकीले तारे (b) मध्यम चमकीले तारे (उदाहरण-सूर्य) (c) कम चमकीले तारे

तारों का जीवनकाल उनके द्रव्यमान (mass) तथा चमक (brightness) पर निर्भर करता है। जो तारा जितना अधिक चमकीला होता है उसका जीवनकाल उतना ही कम होता है।

(ii) वर्णक्रम के आधार पर: इस आधार पर तारों को 7 वगों में विभाजित किया जाता है। O, B, A, E G, K तथा M। ये घटते हुए तापमान के क्रम में होते हैं। सूर्य एक G प्रकार का तारा है जिसके तीव्रतम प्रकाश की तरंगदैर्घ्य 550 नैनोमीटर है।

कुछ प्रसिद्द तारे (some Famous stars): ध्रुव तारा (Polestar), बर्नार्ड तारा(TTT (Bernard’s Star) आदि।

ध्रुव तारा (Pole star): जो तारा हमेशा उत्तर दिशा में चमकता रहता है तथा उत्तरी ध्रुव (North Pole) के ठीक ऊपर स्थित होने के कारण एक ही दिशा में हमेशा दिखाई पड़ता है, उसे ध्रुव तारा कहते हैं। यह ध्रुव मत्स्य (Ursa Minor-Little Bear) तारा समूह का एक सदस्य है।

पृथ्वी से निकटतम तारों की दूरियां
तारा पृथ्वी से दूरी (प्रकाश वर्ष में)
सूर्य (सबसे निकटतम तारा) 1 प्रकाश वर्ष से बहुत कम
प्रोक्सिमा सेन्टॉरी (सूर्य के बाद सबसे निकटतम तारा) 4.22
अल्फा सेन्टॉरी (सूर्य, प्रोक्सिमा सेन्टॉरी के बाद सबसे निकटतम तारा) 4.35
साइरस (सबसे चमकीला तारा) 8.60

नोट: तारों की दूरियाँ प्रकाश वर्ष (Light Year) में मापी जाती हैं। (1 Iy = 9.46 × 1015 Metre)

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