गुप्त काल में कला Art in the Gupta Period

गुप्त काल (319-550 ई.) भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग (गोल्डन पीरियड) कहलाता है। इतिहासकारों ने इसे क्लासिकल युग भी कहा है। इस युग में साहित्य और कला का विकास अप्रतिम विकास हुआ। यहाँ हम कला और साहित्य के विकास के मुख्य पक्षों से अवगत होने का प्रयास करेंगे।

स्तूप तथा गुहा स्थापत्य- गुप्त सम्राटों के राजत्व काल में स्तूप तथा गुहा स्थापत्य का अच्छा विकास हुआ। जहाँ तक स्तूपों का प्रश्न है, उस युग में दो युग-प्रसिद्ध स्तूपों का निर्माण हुआ। ये स्तूप है- सारनाथ का धमत्व स्तूप तथा राजगृह स्थित जरासंघ की बैठक धमेत्व स्तूप 128 फुट ऊँचा है। जिसका निर्माण बिना किसी चबूतरे के समतल धरातल पर किया गया है। इसके चारों कोने पर बौद्ध मूर्तियाँ रखने के लिए ताख बनाए गए हैं जहाँ तक गुहा स्थापत्य का प्रश्न है।

यह युग परम्परागत गुहा वास्तु के चरम विकास का द्योतक है। पांचवीं शताब्दी ईसवी से लेकर 750 ई. तक, ईसा पूर्व की अंतिम सदियों की अपेक्षा अधिक संख्या में गुहाओं का निर्माण हुआ। महायान युग में निर्मित गुहायें अधिक विशाल, विस्तृत अलंकृत तथा संख्या में अधिक हैं। इस काल में चैत्य गृहों की अपेक्षा विहार निर्माण पर अधिक जोर दिया गया है। इस समय की बौद्ध गुहायें अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद एवं बाघ की पहाड़ियों में निर्मित हुई।

अजन्ता गुहा वास्तु का विकास-क्रम सर्वाधिक लम्बा है। यहाँ ईसा की प्रारम्भिक सदियों से 750 ई. तक लगभग 30 गुहाओं का निर्माण हुआ, जिनमें 3 चैत्य गृह एवं शेष विहार हैं। अजन्ता की लगभग 29-30 गुहाओं में से पाँच प्रारम्भिक काल की है। तीन चैत्यगृहों में से 2 चैत्य गृह (नौ एवं दस) हीनयान युग में उत्कींण किये गये। विद्वानों की मान्यता है कि 20 विहार एवं एक चैत्यगृह पांचवीं सदी ई. से सातवीं सदी ई. के मध्य निर्मित हुए। गुहा संख्या 19 एवं 26 चैत्य हैं, अन्य विहार हैं। हीनयान चैत्य के साथ जो विहार बने थे, उनकी उपयोगिता कालान्तर में समाप्त हो गई। महायान युग के चैत्य तथा विहार मिश्रित तैयार हुए जिनका क्षेत्रफल पहले से बड़ा था। इनका आकार-प्रकार बढ़ाया गया। विहार संख्या 7, 11, 6 का निर्माण दूसरे क्रम में हुआ था। संख्या 15 से 20 तक के विहार बनावट में सर्वोत्तम माने जाते हैं। सोलह एवं सत्रह भित्तिचित्र के लिए सुप्रसिद्ध हैं, जिन्हें देखने के लिए संसार के लोग आते हैं। अजन्ता गुहायें अपनी विशिष्टता के कारण बरबस लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं।

अजन्ता एवं अन्य स्थलों की गुहाओं को भीतर से चट्टान खण्ड को काटकर स्तूप निर्माण किये गये हैं, स्तूप हर्मिका एवं छत्रयुक्त है। महायान काल में निर्मित गुहाओं में महात्मा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं का अंकन मिलता है। गुप्त काल से पूर्व की हीनयान गुहाओं में बुद्ध मूर्तियों का अंकन नहीं देखा जाता। बुद्ध को प्रतीकों के माध्यम से ही अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया। महायान गुहाओं में बुद्ध एवं बोधिसत्वों के अतिरिक्त यक्ष, यक्षिणी, विविध देवताओं एवं नाग प्रतिमाओं का उत्कीर्णन हुआ है। प्रारम्भिक गुहाओं के स्थापत्य में जहाँ सादगी देखी जाती है वहीं गुप्तकालीन गुहा मंदिरों के निर्माण में अलंकरण एवं सजावट की प्रमुखता है। हीनयान विहार चैत्य के साथ सम्बद्ध होने से छोटे होते थे, किन्तु महायान विहारों की विशालता के कारण स्तम्भों का निर्माण आवश्यक हो गया।

महायान विहारों में भिक्षुओं के निवास का प्रावधान था। अत: तीन ओर कोठरियाँ निर्मित की गयीं जिनमें भिक्षुओं के शयन हेतु प्रस्तर चौकियाँ बनाई गई। तदनुसार विहार के प्रारूप में परिवर्तन किये गये। भिक्षुओं के लिए कोठरियों से बाहर पूजा की व्यवस्था भी जरूरी थी। इसलिए केन्द्रीय कमरे में बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई। इसके अतिरिक्त दीवारों को भी विविध अलंकरणों द्वारा अलंकृत किया गया। भस्मपात्र की पूजा का समापन हो गया एवं ब्राह्मण मत की भक्ति भावना का बौद्ध मत में प्रवेश हुआ।

विहार- वास्तुकला की दृष्टि से महायान गुहायें विशिष्ट हैं जिन्हें विहार या संघाराम की संज्ञा दी गई। अजन्ता, एलोरा, बाघ एवं औरंगाबाद आदि के विहार इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं, जिनका निर्माण भिक्षुओं के निवास के लिए किया गया। गुप्तकाल में विहार योजना में सतत् परिवर्तन एवं परिष्कार लक्षित होता है। केवल आकृति में ही नहीं बल्कि तल विन्यास की दृष्टि से इस युग में दो तीन तल के विहारों का निर्माण किया गया। एक पहाड़ी में दो या तीन तले गुहाओं का निर्माण तकनीकी दृष्टि से अपने आप में एक उपलब्धि है। तिथिक्रम की दृष्टि से प्राचीनतम विहार अजन्ता की पहाड़ी में निर्मित किये गये।


बौद्ध गुहा स्थापत्य के अतिरिक्त ब्राह्मण परम्परा में भी स्थापत्य की अभिव्यक्ति का अवसर मिला। विदिशा के पास प्रदयगिरि की कुछ गुफाओं का निर्माण भी इसी युग में हुआ। यहाँ की गुफाएँ भागवत तथा शैव धर्मों से सम्बन्धित हैं। उदयगिरि पहाड़ी से चन्द्रगुप्त द्वितीय के विदेश सचिव वीरसेन का एक लेख मिलता है। जिससे विदित होता है कि उसने यहाँ एक शैव गुहा का निर्माण करवाया था। यहाँ की सबसे प्रसिद्ध बाराह-गुहा है। जिसका निर्माण भगवान विष्णु के सम्मान में किया गया था। गुहा के द्वार-स्तम्भों को देवी देवताओं तथा द्वारपालों की मूर्तियों से अलंकृत किया गया है।

मन्दिर-निर्माण कला

गुप्तकाल से पूर्व मन्दिर वास्तु के अवशेष नहीं मिलते। मन्दिर निर्माण का प्रारम्भ इस युग की महत्त्वपूर्ण देन कही जा सकती है। इस काल में मन्दिर वास्तु का विकास ही नहीं हुआ बल्कि इसके शास्त्रीय नियम भी निर्धारित हुए। मन्दिर निर्माण के उद्भव का सम्बन्ध व्यक्तिगत देवता की अवधारणा से है। भारत में देवपूजा की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। प्राय: इसके उद्भव को प्रागार्थ (अनार्य) परम्परा में खोजने का प्रयत्न किया गया है।

इत्सिंग ने श्री गुप्त द्वारा ‘मि-लि-क्या-सी-क्या-पोनो’ (सारनाथ) में चीनी यात्रियों के लिए मन्दिर बनाये जाने का उल्लेख किया है। इसी तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री शाब (वीरसेन) द्वारा उदयगिरि गुहा में भगवान शिव के लिए गुहा मन्दिर बनवाये जाने का विवेचन आया है। कुमारगुप्त के मिलसद अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने कार्तिकेय के मन्दिर का निर्माण करवाया। उसके मन्दसोर अभिलेख से भी सूर्य मन्दिर निर्माण करवाये जाने एवं मन्दिरों के जीर्णोद्धार की जानकारी मिलती है।

गुप्तकालीन मन्दिरों के अवशेष अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं, जैसे-सांची, शंकरमढ़, दहपर्वतया (आसाम), भीतरी गाँव, अहिच्छत्र, गढ़वा, सारनाथ, बौद्धगया आदि। इन मन्दिरों को गुप्तकालीन स्वीकार किये जाने का एक आधार तो कुछ मन्दिर स्थलों से अभिलेखों की प्राप्ति रहा है।

प्रारूप की दृष्टि से एक गर्भ के मन्दिर धीरे-धीरे पंचायतन शैली में परिवर्तित हुए अर्थात् इस प्रक्रिया में पाँच देवों के गृह की स्थापना की गई। साधारणतः मन्दिर वर्गाकार हैं। इस विकास प्रक्रिया के प्रमाण भूमरा एवं देवगढ़ के मंदिर हैं। आयताकार योजना वाले मंदिर अवश्य ही दक्षिण के चैत्य गुहाओं से सम्बद्ध रहे होंगे। वस्तुत: पंचायतन योजना वर्गाकार मंदिर का विकसित रूप है। इस प्रक्रिया में गर्भ गृह के चारों ओर चार अतिरिक्त देवालय बनाये गये। भूमरा के गर्भगृह के सामने चबूतरों के दोनों कोनों पर देवालय बने हैं। पृष्ठ भाग में गर्भगृह हैं तथापि इन्हें इसी शैली में रखा जाता है। यह मन्दिर देवगढ़ से पूर्ववर्ती है।

प्रारम्भिक मंदिर शिखर- रहित अर्थात् सपाट छत से आवृत्त थे किन्तु सपाट छत क्रमश: ऊंची उठती गई और गर्भगृह के ऊपर पिरामिडाकार स्वरूप बनता गया। इस प्रक्रिया में कई तल वाले शिखर का विकास हुआ। इस तरह मंदिर का स्वरूप सप्त एवं नवप्रासाद के रूप में परिवर्तित हुआ। शिखर मूलतः गर्भ पर बनी ऐसी वास्तुरचना है जो क्रमश: कई तल, गवाक्ष, कर्णश्रृंग, शुकनाशा, आमलक, कलश, बीजपूरक, ध्वजा से युक्त होता है। इन तत्त्वों के साथ शिखर की रचना पीठायुक्त अथवा ऊपर की ओर क्रमश: तनु होते हुए भी कोणाकार हो सकती है। संभवत: शिखर का विकास मानव निर्मित कई मजिलों के प्रासादों के अनुकरण पर हुआ होगा। शिखर प्रासाद के विभिन्न तल ऊपर की ओर छोटे होते गये। इसका सर्वोत्तम उदाहरण नाचनाकुठारा का मंदिर है जिसमें प्रथम कक्ष पर दूसरे एवं तीसरे कक्ष (या खण्ड) दिखाई देते हैं। संभवत: इसी से आगे शिखर विकास का प्रारम्भ हुआ और आगे जाकर शिखर की बनावट में अनेक तत्त्व जुड़ते गये।

शंकरगढ़- जबलपुर में तिगवां से तीन मील पूर्व में कुण्डाग्राम में लाल पत्थर का एक छोटा शिव मंदिर प्राप्त हुआ है।

मुकुंददर्रा- राजस्थान के कोटा जिले में एक पहाड़ी दर्रा, जिसे मुकुन्ददर्रा कहा जाता है, में एक छोटे सपाट छतयुक्त स्तम्भों पर खड़ा मंदिर अवस्थित है।

तिगवा- पत्थर से निर्मित एक वर्गाकार सपाट छत का मंदिर है जिसके सामने चार स्तम्भों पर मण्डप स्थित है।

भूमरा- सतना (मध्य प्रदेश) में भूमरा नामक स्थान में शिवमंदिर का निर्माण पाँचवीं शताब्दी के मध्य में हुआ माना जाता है।

नाचना कुठारा- भूमरा के निकट अजयगढ़ के पास नाचना कुठारा में पार्वती मंदिर स्थित है।

देवगढ़- देवगढ़ (ललितपुर) झाँसी के पास गुप्तकाल के बचे हुए उत्कृष्ट मंदिर में से है, जिसका विस्मयकारी अलंकरण मन मोह लेता है।

भीतरगाँव- कानपुर के निकट दक्षिण में भीतरगाँव का विष्णु मंदिर ईंटों से निर्मित किया गया। इसका महत्त्व ईंट का प्राचीनतम मंदिर होने में ही नहीं है वरन् इस बात में भी है कि उसमें शिखर है।

मूर्तिकला

मूर्ति निर्माण के क्षेत्र में इस काल में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। गुप्तकाल में तीन प्रकार की मूर्तियों का निर्माण किया गया-पत्थर, धातु एवं मिट्टी। इस काल में मूर्तिकला के दो महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि गुप्त साम्राज्य के विकास के आरम्भिक दिनों में मथुरा मूर्ति-कला का प्रमुख केन्द्र था। यह एक मान्य तथ्य है कि प्रथम कुमारगुप्त के शासन काल में बनी बुद्ध की मूर्ति, जो मानकुंवर से प्राप्त हुई है, मथुरा से निर्यात की हुई है। मथुरा के बाद काशी-सारनाथ गुप्त कला का केन्द्र रहा है और साथ ही यह भी कहा जाता है कि मथुरा कला की ही एक धारा नयी ताजगी लेकर यहाँ फूटी है। वस्तुतः मथुरा कला शैली के विकास से बहुत पहले से ही काशी प्रदेश इस कला का केन्द्र रहा है।

सारनाथ में प्राप्त मूर्तियों में बौद्ध, ब्राह्मण और जैन प्रतिमाएँ सम्मिलित की जाती हैं। इनमें सबसे अधिक संख्या बौद्ध मूर्तियों की है। संख्या की दृष्टि से दूसरे स्थान पर ब्राह्मण देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं और सबसे कम जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। गुप्तकालीन मूर्तियों का विशेष महत्त्व मथुरा, सारनाथ, सुल्तानगंज और अनेक अन्य स्थलों से अनंत मात्रा में उपलब्ध गुप्त भारतीय शैली में निर्मित नमूनों से है।

इस काल से पूर्व अर्थात् कुषाणकालीन मूर्तियों में विदेशी आदशों का प्रभाव देखा जाता है। कहा गया है कि संघटी की चुन्नटें गांधार-शैली ने उन्हें दी थीं। उन्होंने उसे स्वीकार किया पर इस रूप से उन्होंने नये सिरे से उन्हें साधा कि चुन्नटें तो गायब हो गयीं पर उनकी लहरियाँ शरीर से एकाकार होकर उसमें समा गयीं और लगने लगा कि तन उनके भीतर से झलक रहा है, परिधान का मात्र आभास रह गया। अब तन परिधान से अधिक महत्त्व का हो गया। ध्यातव्य है की मथुरा केंद्र की बनी हुई मूर्तियों मूर्तियों को छोड़कर गुप्तकालीन किसी बुद्ध प्रतिमा में वस्त्रों में चुन्नटें नहीं देखि जाती। यह भी देखा गया है कि इस काल की मूर्तियों की भौहें तिरछी न होकर सीधी प्रदर्शित की गयीं हैं। कलाकारों ने भावों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न मुद्राओं का सहारा लिया है।

प्रतिभा-निर्माण के शास्त्रीय नियमों का निर्धारण किया गया। तदनरूप मूर्तियों के वक्षस्थल विकसित बनाये गये और सुदृढ़ कंधों को प्रमुखता से उभारा गया। मूर्ति निर्माण हेतु प्रयुक्त किये जाने वाले पत्थरों के विषय में जैसा पहले उल्लेख किया गे की मथुरा कला की अभिव्यक्ति बलुआ लाल पठार द्वारा की गयी। गुप्तकाल तक भी इसी पठार का उपयोग स्थानीय कलाकारों द्वारा किया जाता रहा किन्तु सारनाथ में मूर्ति निर्माण हेतु चुनर के सफ़ेद बालूदर पठार का प्रयोग किया गया।

सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की एक खड़ी मूर्ति तांबे की है जिसकी लम्बाई 7½ फीट है। महात्मा बुद्ध के शीश पर कुंचित केश हैं परन्तु उसके चारों ओर प्रभामण्डल नहीं है। बुद्ध पारदर्शक वस्त्र से आवृत हैं तथा दायाँ हाथ अभयमुद्रा में, बायां हाथ आधा नीचे की ओर झुका हुआ है। अंगुलियों के बीच कुछ वस्तुएँ दिखाई देती हैं। मथुरा से प्राप्त विष्णु मूर्ति अपनी स्वाभाविकता और भावुकता में सारनाथ के महात्मा बुद्ध की मूर्ति से समता रखती है। भगवान विष्णु रत्नजड़ित मुकुट पहने हैं, कानों में आभूषण हैं, उनके सुगठित शरीर में पूरा अनुपात है और मुख पर आध्यात्मिक आभा और शांति विद्यमान है।

देवगढ़ के मंदिर से अनेक सुन्दर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ से प्राप्त महत्त्वपूर्ण मूर्तियों में शेष विष्णु की मूर्ति का उल्लेख किया जा सकता है। भगवान ने सिर पर किरीट मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में हार, केयूर, बनमाला एवं हाथों में कंकण धारण किये हैं। पैरों की ओर लक्ष्मी बैठी हैं। नाभि से निकले कमल पर शिव-पार्वती हैं।

उदयगिरी पहाड़ी पर उत्कीर्ण, विष्णु का वाराह अवतार बड़ा ही सजीव है। इसमें पृथ्वी को ऊपर की ओर उठाते दिखाये गये हैं। एक वाराह मूर्ति एरण से भी प्राप्त हुई है जिसका निर्माण मातृविष्णु के अनुज धन्यविष्णु ने करवाया था। गुप्त कलाकारों ने बुद्ध एवं विष्णु के अतिरिक्त शिव मूर्तियाँ भी निर्मित कीं। गुप्तकालीन अनेक एकमुखी तथा चतुर्मुखी शिवलिंग प्राप्त हुए हैं। इनमें करमदण्डा, मथुरा, सारनाथ, खोह, विलसद उल्लेखनीय हैं। इस काल की अनेक जैन मूर्तियाँ भी मिली हैं। मथुरा से प्राप्त प्रतिमा में महावीर को पद्यासन में ध्यानमुद्रा में बैठे दर्शाया गया है।

चित्रकला

प्रस्तर मूर्तियों के अतिरिक्त इस काल में पकी हुई मिट्टी की भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाई गई। इस प्रकार की मूर्तियाँ विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा, यमुना आदि की हैं। ये भृण्मूर्तियाँ पहाड़पुर, राजघाट, मीटा, कौशाम्बी, श्रावस्ती, अहिच्छल, मथुरा आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियाँ सुडौल, सुन्दर और आकर्षक हैं।

मानवजाति के इतिहास में संभवत: कला की दृष्टि से अभिव्यक्ति की यह परम्परा सबसे प्राचीन है। चित्रकला के द्वारा एक तलीय द्विपक्षों में भावों की अभिव्यक्ति होती है। चित्र लिखना मानव स्वभाव का स्वाभाविक परिणाम है। इस दृष्टि से चित्र मनुष्य के भावों की चित्रात्मक परिणति हैं।

प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर अनुमान किया जाता है कि शुंग सातवाहन युग में इस कला का विकास हुआ जिसकी चरम परिणति गुप्त काल में हुई। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, ‘गुप्त युग में चित्र-कला अपनी पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी।’ अजन्ता की गुहा संख्या 9-10 में लिखे चित्र संभवत: पुरातात्विक दृष्टि से ऐतिहासिक काल में प्राचीनतम हैं। समय के परिप्रेक्ष्य में, अजन्ता की गुहा संख्या 16 में अंकित वाकाटक शासक हरिषेण का अभिलेख महत्त्वपूर्ण है।

बौद्ध चैत्य एवं विहारों में आलेखित चित्रों का मुख्य विषय बौद्ध धर्म से सम्बद्ध है। भगवान बुद्ध को बोधिसत्व या उनके पिछले जन्म की घटनाओं अथवा उन्हें उपदेश देते हुए अंकित किया है। अनेक जातक कथाओं के आख्यानों का भी चित्रण किया गया जैसे शिवविजातक, हस्ति, महाजनक, विधुर, हस, महिषि, मृग, श्याम आदि। बुद्ध जन्म से पूर्व माया देवी का स्वप्न, बुद्ध जन्म, सुजाता द्वारा क्षीर (खीर) दान, उपदेश राहुल का यशोधरा द्वारा समर्पण आदि बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध चित्रों का विशेष रूप से आलेखन किया गया।

अजन्ता में पहले सभी गुफाओं में चित्र बनाए गए थे। समुचित संरक्षण के अभाव में अधिकांश चित्र नष्ट हो गए तथा अब केवल छ: गुफाओं (1–2, 9-10 तथा 16-17) के चित्र बचे हुए हैं। इनमें से सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी के भित्ति-चित्र गुप्तकालीन हैं।

सामान्यतः अजन्ता चित्रों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-कथाचित्र, प्रतिकृतियाँ (या छवि चित्र) एवं अलंकरण के लिए प्रयुक्त चित्र। गुप्तकालीन चित्रों में कुछ चित्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं।

बाघ चित्रकला- यह चित्रकला आवश्यक रूप में गुप्त काल की ही है, जहाँ पर अजंता चित्रकला के विषय धार्मिक हैं, वहीं पर बाघ चित्रकला का विषय लौकिक है। संगीतकला का भी गुप्त काल में विकास हुआ। वात्सायन के कामसूत्र में संगीत कला की गणना 64 कलाओं में की गई है। माना जाता है कि समुद्रगुप्त एक अच्छा गायक था। मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि नगरों में कला भवन थे।

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