मौर्योत्तर कला Art in Post-Mauryan Period

मौर्य काल के बाद वास्तुकला के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात होता है। राजकीय छत्रछाया में विकसित मौर्यकला उत्कृष्ट होते हुए भी जनता के मनोभावों एवं वस्तुस्थिति को अभिव्यक्ति नहीं दे सकी थी। शुंगकाल तक आते-आते कला और सार्वजनिक जीवन के बीच अन्तर निरन्तर क्षीण होता चला गया। शुंगकालीन कला में जन सामान्य के भावों की सच्ची अभिव्यक्ति हुई।

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पुष्यमित्र के राज्याभिषेक (184 ई.पू.) के साथ शुंगकाल का प्रारम्भ होता है। कला के क्षेत्र में इस काल में अनेक केन्द्रों में स्थापत्य एवं शिल्प का व्यापक प्रचार हुआ। शुगकालीन कला का प्रमुख विषय धर्म न होकर, जन-जीवन था। इस काल में काष्ठ वेदिकाओं के स्थान पर प्रस्तर वेदिकायें एवं भव्य तोरणद्वार बनाये गये। वेदिकाओं एवं तोरणद्वारों पर स्थापत्य कृतियाँ बनाई गई। वे अधिकांशतः बौद्धिक एवं सामाजिक जीवन से सम्बद्ध थीं। भरहुत, साँची और अमरावती, नागार्जुनकोण्ड जैसे महास्तूप इस युग में निर्मित हुए। स्तूप शुग कला के सर्वोत्तम स्मारक हैं। चैत्यहार या स्तूप निर्माण इस काल की महत्त्वपूर्ण देन हैं। स्तूप एक मिट्टी का बड़ा थूहा (गोलाकार ढेर) होता था जो चिता के स्थान पर बनाया जाता था। अतएव उसे चैत्य भी कहते थे। यह बुद्धकाल के पहले से चली आ रही थी। चिता के स्थान पर स्मृतिरूप में पीपल का वृक्ष रोपा जाता था या मिट्टी का थूहा बना दिया जाता था जिसे चैत्य कहते थे। स्तूप सामान्यतः बौद्ध धर्म से सम्बद्ध माने जाते हैं किन्तु ऋग्वेद में भी इनका उल्लेख आया है। शुंग काल में छोटे बड़े सभी प्रकार के स्तूपों का निर्माण किया जाने लगा। छोटे स्तूप अल्पेशाख्य एवं बड़े महेशाख्य कहे जाते थे।

स्तूप वास्तुकला के विषय में अधिक जानकारी करने से पूर्व इस काल की कला की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन करना उचित होगा। शुंगकालीन कलाकारों ने मूर्ति बनाने की अपेक्षा शिला की पृष्ठभूमि में अद्धचित्र शैली में उत्कीर्ण किया अथवा उभारा। इस पद्धति में मूर्ति का एक छोटे प्रस्तर खण्ड पर आमुख ही दृष्टिगोचर होता है। कला के प्रसंग विशेष रूप से जातकों, बुद्ध- जीवन की घटनाओं, लोकदेवताओं अर्थात् यज्ञ, नाग, किन्नर, चन्द्रायक्षी, सुदर्शनायक्षी, चुलकोका, महाकोका आदि से लिये गये। इस तरह वैयक्तिकता सामाजिकता में बदल गई। जीवन की सामान्य घटनायें पाषाणों में उभर कर सामने आने लगीं। जो घटनायें पूर्व में साहित्य का अंग थीं, कला के माध्यम से समाज का अंग बन गई। शुंगकालीन कलाकार का एक मात्र लक्ष्य मानव जीवन के ऐहिक स्वरूप का दिग्दर्शन है।

इस युग की कला की एक अन्य विशेषता वास्तुशास्त्र के नये विधानों का स्थिरीकरण था। प्रस्तर मूर्ति के निर्माण का प्रारम्भ मौर्यकाल से माना जाता है। इस काल तक आते-आते कलाकारों ने कला के नये प्रतिमान स्थापित किये। नई-नई विधियों द्वारा मूर्ति शिल्प में लालित्य और रूप विधान का विकास किया जाने लगा। बिहार, स्तूप, तोरण, स्तम्भ, वेदिका (वेष्टिनी) आदि इस काल की कला अभिव्यक्ति की अनुपम विधायें थीं। इन प्रतिमानों के माध्यम से सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया जाने लगा एवं विविध अलंकरणों एवं नक्काशी द्वारा उनकी सौन्दर्य अभिवृद्धि का प्रयास किया गया। बेसनगर का स्तम्भ तथा विदिशा का गरुड़-स्तम्भ शुंग-कला के अच्छे उदाहरण हैं। इस युग के स्तूपों में गन्धर्वों, यक्ष-यक्षिणियों, देव-देवताओं, पशु-पक्षियों एवं पुष्पों की जो आकृतियाँ हैं, वे अनोखी हैं।

शुंगकाल तक बौद्ध धर्म में महायान शाखा का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। अत: शिल्पकला में बुद्ध मूर्तियों का अंकन नहीं देखा जाता। भगवान बुद्ध की उपस्थिति में प्रारम्भिक चरण में स्थापत्य में पत्र, पुष्पलता आदि का अधिक प्रयोग किया जाता था। पशु एवं मानव आकृतियाँ भी इसी शैली में बनाई जाती थीं जिससे अभिप्राय (रिलीफ) आकृतियाँ अधिक उभर नहीं पाई। पत्थर, चट्टान, धातु आदि के फलक पर जो चित्र या मूर्ति उकेर कर बनाई जाती है, उहें रिलीफ स्थापत्थ्य या चित्र कहा जाता है। किन्तु इस काल के अन्तिम चरण में इस कला में प्रौढ़ता दिखाई देती है और बाद की कुछ मूर्तियाँ गहरी उभरी होने के कारण स्वाभाविक लगती हैं। शुंगकाल के प्रमुख केन्द्र श्रावस्ती, भीटा, कौशाम्बी, मथुरा, बोधगया, पाटलिपुत्र, भरहुत, साँची, सारनाथ आदि थे।

सातवाहनकाल में पहाड़ियों में पत्थर की चट्टानों को काटकर गुहाओं का निर्माण बड़ी संख्या में किया गया। बिहार की बाराबर पहाड़ी में अशोक ने आजीविका भिक्षुओं के लिए गुहा निर्माण करवाकर इस परम्परा का आरम्भ किया था। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी गुहाओं का निर्माण करवाया था जो आजीविका भिक्षुओं को चातुर्मांश में विश्राम हेतु दान में दी गई। इन गुहाओं को कुमायें कहा गया। खारववेलकालीन गुहायें जैन साधुओं के आवास हेतु बनाई गई थीं। इनमें रानीगुम्फा सबसे बड़ी है। कलिंग राजा खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में सातवाहनों का उल्लेख आया है जिनका राज्य पश्चिम दिशा में स्थित कहा है। पश्चिम भारत में सातवाहनों एवं शकों द्वारा बौद्ध भिक्षुओं के लिए गुहाओं का निर्माण करवाया गया। सामान्यत: इनका निर्माण काल ई.पू. दूसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी ईसवी तक माना गया है। दूसरी शताब्दी ई.पू. से दूसरी शताब्दी तक हीनयान तथा तीसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक महायान समर्थकों द्वारा इस क्षेत्र में गुहाओं का निर्माण करवाया गया। पश्चिम जुन्नर, कन्हेरी आदि का उल्लेख किया जा सकता है।


भाजा- पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में पुणे से कुछ दूर चट्टानें काटकर गुहायें निर्मित की गई। भाजा कालें से चार मील दूर है। यहाँ के वास्तुशिल्प के तीन प्रमुख अवशेष हैं: बिहार, चैत्य एवं स्तूप। बिहार का मुख मण्डप 17.1/1 फीट लम्बा है एवं उसका पूर्वी भाग 7 फीट एवं पश्चिमी भाग 9.1/2 फीट चौड़ा है। आन्तरिक मण्डप 16 फीट 7 इंच लम्बा है। भाजा बिहार की दीवारों पर दो विशाल अर्द्ध चित्र (रिलीफ), सूर्य एवं इन्द्र के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सूर्य शुंगकालीन उष्णीय वेशभूषा में एवं उनकी दो पत्नियाँ प्रभा और छाया चंवर एक छत्र धारण किये हुए हैं। उनके सिर पर भी सूर्य की भाँति उष्णीय शोभा बढ़ा रहा है। सूर्य अपने चार घोड़ों के रथ पर सवार अंतरिक्ष में उड़े जा रहे हैं और नीचे अंधकार का स्थूल दैत्य कुचला जा रहा है। पास के घुड़सवार पैरों को रिकाब में डाले हुए हैं।

भाजा का चैत्यगृह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण तथा उत्कृष्ट स्थापत्य का उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह 55 फीट लम्बा और 26 फीट चौड़ा है। इसके दोनों ओर का परिक्रमा-पथ केवल 2.1/2 फीट चौड़ा है। चैत्यगृह में स्थित स्तम्भ 11 फीट ऊँचे हैं। स्तूप ठोस चट्टान द्वारा निर्मित है जिसके चारों ओर लकड़ी की वेदिका है। चैत्य से कुछ दूरी पर 14 स्तूपों का समूह है। स्तूप के ऊपरी भाग पर वेदिका बनाई गई है।

कोंडन- कार्ले गुहा से 10 फीट उत्तर की ओर कोण्डन का चैत्यगृह एवं विहार स्थित हैं। विहार के बीच स्तम्भों पर आधारित बड़ा मण्डप है जिसके तीन ओर भिक्षुओं के निवास हेतु कक्ष बने हुए हैं। मण्डप का आन्तरिक भाग 23 फीट चौड़ा एवं 29 फीट लम्बा है। इसे भाजा के बाद बना हुआ माना है।

पीतलखोरा- अजन्ता से दक्षिण-पश्चिम 50 मील दूर शतमाला पहाड़ी पर पीतलखोरा की गुहाएँ स्थित हैं। भाजा एवं कोंडन की ही भाँति प्रमुख चैत्यगृह बनाया गया। वासुदेव शरण अग्रवाल की मान्यता है कि पीतलखोरा में पर्वतीय वास्तु का आरम्भ दूसरी सदी ईसवी पूर्व में हुआ। उसी के रूप में चैत्यगृह और विहार हैं। यह स्थान दो सदी बाद कुछ उजड़ गया किन्तु कालान्तर में भिक्षुओं ने फिर इसे अपना केन्द्र बनाया और उस समय विहार में मूर्तियों और चैत्यगृह में भित्तिचित्र लिखे गये जो अजन्ता की शैली के हैं।

अजन्ता- इसी काल में हम अजन्ता में भी गुहावास्तु कला का विकास होता हुआ पाते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि ई.पू. दूसरी शताब्दी में ईसा की सातवीं शताब्दी तक अजन्ता गुहाओं का विकास हुआ। प्रारम्भ में दूसरी शताब्दी तक हीनयान मत और चौथी से सातवीं शताब्दी तक महायान मत का केन्द्र रहा। अजन्ता में कुल 29 गुहाएँ हैं जिनमें 25 विहार एवं 4 चैत्यगृह हैं।

बेडसा- कार्ले से 10 मील दक्षिण में बेड़सा गुहाएँ स्थित हैं। यहाँ का चैत्य गृह आकार में छोटा है। इसमें काष्ठ शिल्प की अपेक्षा प्रस्तर शिल्प का अधिक प्रयोग हुआ है। इस गुहा की प्रमुख विशेषता एक ओर हय-संघाट और दूसरी ओर गजसंघाट (हाथियों का समूह) निर्मित दो विशालकाय स्तम्भों का प्रवेश द्वार पर स्थित होना है। चैत्यगृह के अन्दर का आकार 45 फीट 6 इंच लम्बा और 24 फीट चौड़ा है। महराबदार छत में पहले लकड़ी की पट्टिकायें थीं। वे बाद में पत्थर की निर्मित की गई। स्तूप एवं स्तम्भों पर चित्रों (फ्रे स्को पेंटिंग) के अवशेष देखे जाते हैं जिन्हें महायान काल में बनाया गया। चैत्यगृह के निकट ही एक आयताकार विहार है जिसके तीन ओर छोटे-छोटे कक्ष बने हुए हैं। मण्डप का पिछला भाग वृत्ताकार है।

कार्ले- पश्चिमी घाट से भाजा से कुछ दूर कार्ले का एक विशाल चैत्यगृह और तीन विहार हैं। यहाँ का चैत्यगृह अत्यन्त सुन्दर और हीनयान चैत्यगृहों में सर्वोत्कृष्ट है। इसमें वास्तु एवं शिल्पकला अपनी पूर्णता को प्राप्त हो गई। इसके प्रवेश द्वार पर अंकित लेख में इस चैत्य गुहा को सम्पूर्ण जंबूद्वीप में श्रेष्ठ कहा है। इस गुहा के निर्माण का प्रारम्भ पहली सदी ई.पू. में माना है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने काल चैत्यगृह को निम्नलिखित भागों में विभक्त किया है- 1. दो सिंह शीर्ष स्तम्भ, 2. स्तम्भों पर आश्रित दुमंजिला मुख मण्डप, 3. मुखमण्डप के मध्य में आगे निकली हुई काष्ठ की निर्मित संगीतशाला, 4. द्वार मण्डप के पीछे की दीवार में एक विशाल चैत्य वातायन, 5. आभ्यन्तर मण्डप, 6. दो लम्बे प्रदक्षिणा पाथ, 7. अर्द्धवृत चैत्य प्रभाग, 8. गर्भगृह के मध्य स्थित स्तूप, 9. पन्द्रह-पन्द्रह स्तम्भों की दो पंक्तियाँ एवं सात गर्भगृह के चतुर्दिक, 10. महराबदार छत, 11. छत के निचले भाग में काष्ठ शिल्प की पट्टिकायें तथा 12. आन्तरिक एवं बाह्य विविध लेख।

जुनार- पुणे से 48 मील उत्तर की ओर जुनार की पहाड़ियों में 150 शैल गुहाएँ हैं जिनमें 10 चैत्य एवं शेष विहार हैं। इनका निर्माण ई.पू. दूसरी शताब्दी से ईसा के प्रथम शताब्दी के मध्य माना गया है। यह हीनयान सम्प्रदाय का केन्द्र था। वास्तु में मूर्तिकला के अवशेष नहीं देखे गये। कुछ गुहाओं को श्री, लक्ष्मी, कमल, गरूड़, सर्प आदि से अलंकरण किया गया।

नासिक- गोदावरी तट पर स्थित नासिक दूसरी शताब्दी ई.पू. में बौद्ध धर्म का केन्द्र था। यहाँ 17 गुहाएँ हैं जिनमें एक चैत्यगृह और शेष विहार हैं। प्रारम्भिक विहार हीनयानी है। विद्वानों की मान्यता है कि पहला विहार नहपान, दूसरा गौतमीपुत्र शातकर्णी और तीसरा यज्ञश्री शातकर्णी के काल का है। यहाँ के विहारों में नासिक का चैत्यविहार सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसके सामने का भाग दुमंजिला है। पाण्डुलेण चैत्यगृह का निर्माण ई.पू. प्रथम शताब्दी में हुआ।

मौर्योत्तर काल की कला के अन्य तथ्य

ख्वारिज्म के टोपरकला नामक स्थान पर एक विशाल कुषाण प्रसाद खुदाई में मिला है, जो तीसरी-चौथी सदी का है। इसमें एक प्रशासनिक अभिलेखागार था, जिसमें अरामाइक लिपि और ख्वारिज्मी भाषा में लिखा गया है।

फाहियान ने अपने वृतांत में पुरुषपुर के बुर्ज का उल्लेख किया है। वह तेरह मंजिली भव्य इमारत थी। वस्तुतः मन्दिरों का निर्माण और उसमें पूजा की प्रक्रिया बाद के वर्षों में शुरू हुई। इस काल में बौद्ध स्तूप और अन्य धार्मिक इमारतें ज्यादा बनाई गई।

स्तूप- स्तूपों का आकार अर्द्धवृत्ताकार होता था। उसका ऊपरी हिस्सा समतल होता था। उसे हर्मिक या ईश्वर का आवास स्थल माना जाता था। यहीं पर बुद्ध या किसी अन्य धार्मिक व्यक्ति का अवशेष सोने या चांदी के डिब्बे में रखा जाता था। मध्य में लकड़ी का एक खंभा होता था और खंभों के ऊपर तीन छत्रियाँ होती थीं, जो सम्मान, श्रद्धा और उदारता की प्रतीक होती थी।

महत्त्वपूर्णं स्तूप

1. बोधगया (बिहार)- अशोक ने इसे निर्मित कराया। इन पर जातक कथाएँ चित्रित की गई हैं।

2. सांची का स्तूप- संभवत: यह भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण स्तूप था। इसमें तीन स्तूप हैं। तीनों स्तूपों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार थे। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण महिन स्तूप है। इसका निर्माण अशोक काल (250 ई.पू.) में हुआ। 150 ई.पू. में शुंग काल में उसका आकार दुगुना किया गया। इसके दक्षिण द्वार पर एक वक्तव्य है, जिसके अनुसार यह प्रवेश द्वार राजा शतकणीं ने धर्म के लिए दान दिया। इस पर बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित प्रमुख घटनाएँ हैं- 1. जन्म, 2. बोधिसत्व की प्राप्ति, 3. धर्मचक्र परिवर्तन और 4. महापरिनिर्वाण।

आरम्भिक चरणों में बुद्ध का प्रतिनिधित्व प्रतीकों के माध्यम से हुआ है। परन्तु प्रथम सदी से इन प्रतीकों के साथ बुद्ध की प्रतिमा बनने लगी।

1. मथुरा- इस स्थान पर भी इस काल के दो स्तूप मिले हैं।

2. अमरावती- यह स्तूप सफेद संगमरमर से बना है। यहाँ कई प्रकार की मूर्तियाँ पाई गई हैं। यहाँ आरम्भिक चरणों में बुद्ध का प्रतिनिधित्व प्रतीकों के माध्यम से हुआ है। परन्तु प्रथम शताब्दी से इन प्रतीकों के साथ बुद्ध की प्रतिमा भी बनने लगी। मूलत: इस स्तूप का निर्माण 200 ई.पू. के आसपास हुआ था। बाद में वशिष्टीपुत्र पुलुमावी के समय में इसका जीर्णोद्धार कराया गया तथा इसे कलाकृतियों से सजाया गया। सम्भवत: इसी समय इस स्तूप के चारों ओर पावण-वेदिका बना दी गई। यह स्तूप अपने समय का अत्यन्त प्रसिद्ध स्तूप था किन्तु अब यह स्तूप अपने मूल स्थान से नष्ट हो चुका है। हाँ, इसके कुछ अवशेष कोलकाता, चेन्नई एवं लन्दन के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

3. नागार्जुनकोंड (आंध्रप्रदेश)- यह विशेषरूप से इच्छवाकुओं के समय में निर्मित हुआ। यहाँ का महास्तूप गोलाकार था। इसका व्यास 106 फुट तथा ऊँचाई लगभग 80 फुट थी। भूतल पर 13 फुट चौडा प्रदक्षिणापथ था जिसके चारों ओर वेदिका थी।

4. तक्षशिला- सर जॉन मार्शल ने चीरतोपे स्तूप का उत्खनन किया है। 1908 ई. में किए गए एक उत्खनन में पेशावर के निकट शाहजी की ढेरी से एक स्तूप प्राप्त हुआ है। स्तूप का निर्माण कनिष्क ने कराया। इसका जिक्र फाहियान के द्वारा भी किया गया है। इनकी वास्तुकला गंधार कला का नमूना है। झंडियाल (तक्षशिला) से भी एक स्तूप प्राप्त हुआ है। जो स्काई थियां-पार्थियन शैली में है।

गुफा वास्तुकला- बौद्ध एवं जैन दोनों पूजा और अर्चना के लिए चैत्यों और विहारों का निर्माण करते थे।

चैत्य- चैत्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है चिता सम्बन्धी। शवदाह के पश्चात् बचे हुए अवशेषों को भूमि में गाड़ कर उनके ऊपर जो समाधियाँ बनाई गई, उन्हीं को प्रारम्भ में चैत्य या स्तूप कहा गया। महापुरुषों से जुड़े होने के कारण कालान्तर में ये उपासना के केन्द्र बन गए। इस प्रकार यह एक प्रकार का पूजा कक्ष होता था, जिसके केंद्र में एक स्तूप था। इसमें एक लंबा आयताकार कक्ष होता था, जिसका अन्तिम छोर अर्द्धगोलाकार होता था। इसके अग्रभाग में घोड़े के नाल के आकार की खिड़की बनी होती थी। इसे चैत्य खिड़की कहा जाता था।

बिहार- भिक्षुओं के रहने के लिए पहाड़ियाँ काटकर बनायी गयी गुफाओं को विहार कहते हैं। इस काल में अधिकांश चैत्य पश्चिमी एवं पूर्वी भारत में बनाए गए। पश्चिम भारत में भज, कालें, बेदसा, अजन्ता, पीतलकोरा, नासिक आदि। गुफा वास्तुकला का दूसरा नमूना विहार या मठ था। इसमें जैन और बौद्ध भिक्षु रहते थे। प्रश्चिम भारत में आरम्भिक विहार भज, बेदसा, अजन्ता, पीतलकोरा, नासिक और कार्ले था। खारवेल के शासन काल में जैन भिक्षुओं के लिए उदयगिरी और खंडगिरी में विहार खुदवाए गए। उदयगिरी की पहाड़ी में दुमंजली रानीगुम्फा सबसे विशाल है।

मूर्तिकला केन्द्र- मूर्तिकला के तीन महत्त्वपूर्ण केद्र थे-उत्तर में गांधार एवं मथुरा तथा दक्षिण में अमरावती। शुंग काल में जैन धर्म में मूर्ति पूजा शुरू हो गई थी। पटना में लोहानीपुर से प्राप्त सिरविहीन नग्न मूर्ति का सम्बन्ध तीर्थंकर से बताया जाता है। हाथीगुंफा अभिलेख से ज्ञात होता है कि पूर्वी भारत के जैनों के बीच मौर्यकाल से पहले मूर्ति पूजा शुरू हो गई थी।

गांधार कला- मौर्य साम्राज्य के पतन के और शुंग साम्राज्य के प्रारम्भ के साथ भारत पर विदेशी आक्रमणों का तांता लग गया था। अनेक विदेशी आक्रमणकारियों में कुषाण प्रमुख थे, जिनका साम्राज्य भारत के बाहर भी विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। कुषाणों द्वारा बौद्ध धर्म को अपनाये जाने के साथ इसके प्रसार में विशेष योगदान दिया। विदेशी जातियों के सम्पर्क से न केवल बौद्ध आदि धमों का विदेशों में प्रसार हुआ बल्कि कई देश भारतीय संस्कृति के सम्पर्क में आये। अनेक देशों के लोगों से भारतीयों से सम्पर्क के परिणामस्वरूप कला के क्षेत्र में भी विशेष परिवर्तन हुए और नई शैलियों का आविर्भाव हुआ।

कुछ विद्वानों की मान्यता है कि ईरानी सम्पर्क से लिपि एवं मूर्तिकला पर प्रभाव, छठी-पाँचवी ई.पू. से देखा जाता है। उपाध्याय ने लिखा है कि जो प्रभाव ग्रीकों का भारतीय कला पर पड़ा, वह घटिया था। उसमें वह उदात रूप प्रकट न हो सकता था जो ईरानियों की ऊँची कला के प्रभाव से भारत की कला में प्रकट हुआ था। स्वयं उनके मूल देश ग्रीस में क्लासिकल युग समाप्त हो चुका था और वहाँ मात्र शालीनकला की याद बनी थी। उस कला को रोम ने निश्चय रूप से थोड़ा बहुत साधने के प्रयत्न किये पर उनके उपक्रम ग्रीक आदर्श मूर्तनों के अनुकायाँ तक ही सीमित रह गये। इस प्रकार भारत की कला पर जो ग्रीक प्रभाव पड़ा, वह क्लासिकल ग्रीस के आदशाँ का न पड़कर इस मिली-जुली घटिया रोमन ग्रीक छेनी का पड़ा। ग्रीक कलावन्त मूल देश से कोई प्रेरणा पाये बिना भारतीय अपनी अकुशल छेनी से विशेषतः बौद्ध घटनाओं को रूपायत करने लगे। यह ग्रीक भारतीय कला शैली चूंकि विशेषत: अफगानिस्तान और पश्चिमी पंजाब के बीच की भूमि गान्धार में पल्लवित हुई थी, उसका नाम गांधार शैली पडा।

ऋग्वेद काल में गान्धार की भेड़े अपनी ऊन के लिए प्रसिद्ध थीं। ऐतरेय एवं शतपथ ब्राह्मणों में यहाँ के शिल्पाचायों का उल्लेख आया है। गांधार की राजधानी तक्षशिला प्राचीन शिक्षा का प्रमुख केन्द्र थी। यहाँ दूर-दूर से लोग शिल्प कला की शिक्षा लेने आते थे। गांधार क्षेत्र में वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी और पेशावर जिले और पूर्वी अफगानिस्तान सम्मिलित था। इस क्षेत्र में रहने वाले ग्रीक लोगों की प्रभावशाली (हेलेनिस्टिक) कला और भारतीय बौद्ध परम्पराओं के मध्य संश्लेषण का परिणाम गांधार कला कही गई है।

विद्वानों की मान्यता है कि कुषाण काल से पूर्व बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण नहीं होता था। जैसा विदित है कि भरहुत एवं साँची आदि के स्तूपों में प्रारम्भ में बुद्ध की अभिव्यक्ति प्रतीकों (पादुका, स्तूप) के माध्यम से की गई। धीरे-धीरे इन प्रतीकों का स्थान बुद्ध की मूर्तियों ने लेना आरम्भ किया। ऐसी मान्यता है कि भागवत धर्म के प्रभाव से बौद्ध धर्म में भक्ति भावना का प्रवेश हुआ। भक्ति भावना को मूर्त अभिव्यक्ति प्रदान करने की दृष्टि से बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया जाने लगा।

मूर्तियों के निर्माण हेतु स्लेटी एवं भूरे स्लेटी पत्थर का उपयोग किया गया जो इस क्षेत्र में उपलब्ध था। बाद की मूतियाँ लाइम प्लास्टर, स्टूको ओर धातु की बनाई जाने लगीं। इस शैली के महत्त्वपूर्ण अवशेष गांधार प्रदेश से मिले हैं जिसकी सीमाएँ पूर्व में गांधार तक्षशिला तथा पश्चिम में जलालाबाद को स्पर्श करती थीं। गांधार कला के प्रमुख केन्द्र जलालाबाद, हड्डा, बमियान, स्वातघाटी, पुष्कलावती (चरसद्दा), पेशावर एवं तक्षशिला थे।

गांधार कला का भारत के बाहर भी अच्छा प्रभाव पड़ा। इसके प्रभाव क्षेत्र में चीन, कोरिया, जापान, चीनी तुर्किस्तान तथा मंगोलिया का क्षेत्र आता था। वहाँ की बौद्ध कला की गांधार शैली से पूरी तरह प्रभावित थी। मार्शल के अनुसार गांधार की पाषाण-कला का चौथी शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में हृास हो गया।

गांधार कला एवं मथुरा कला में अंतर

1. मथुरा कला भारतीय थी जबकि गांधार कला यूनानी एवं रोमन कला से प्रभावित थी। मूलत: यह यूनानी कला से प्रभावित थी। इसलिए गांधार कला भारतीय यूनानी या रोमन-कला कहलाती है। निर्माण कला यूनान से ली गई है किन्तु भावना में यह मूलतः भारतीय है। इस प्रसंग में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गांधार-कला की निर्माण विधा यूनानी शिल्प-कला से प्रभावित अवश्य है किन्तु उसकी आत्मा भारतीय है।

2. मथुरा कला में एक प्रकार का चिह्नित लाल पत्थर का उपयोग किया गया है जबकि गांधार कला में एक प्रकार की गहरी नीली परतदार चट्टान और काले पत्थर का प्रयोग किया गया है।

3. मथुरा कला के संरक्षक सर्वप्रथम कुषाण हुए जबकि गांधार कला के संरक्षक शक और कुषाण थे।

4. मथुरा कला आदर्शवादी थी, जबकि गांधार कला यथार्थवादी थी। गांधार कला में शारीरिक विवरणों की शुद्धता पर विशेष बल दिया गया था, विशेषकर मांसल त्वचा एवं मूछों आदि का चित्रांकन किया गया था। दूसरे, इसकी खास विशेषता मोटे कपड़ों की भड़कीली मोड़, मूर्तियों में व्यक्त किया गया है, जबकि मथुरा कला को आध्यात्मिकता की भावना देने की कोशिश की गयी है।

5. गांधार कला की सबसे बड़ी देन है- बुद्ध की मूर्ति की क्रमिक उन्नति, शायद वे यूनान के अपोलो जैसे देवता की अनुकृति थी।

मथुरा कला- भरहुत एवं साँची में जिस कला का विकास होता हुआ हम यह हम देखते है, उसका स्रोत निरंतर आगे बढ़ता रहा और कुशन काल तक आते-आते यह भारतीय कला मथुरा कला के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुषाण काल में भी शुंग काल की भाँति अनेक स्तूपों का निर्माण किया गया। दक्षिण में विशाल अमरावती स्तूप का निर्माण इसी काल में पूरा हुआ। उत्तर भारत में कुषाण शासकों द्वारा अनेक नगरों का विकास किया गया, कुछ नगर व्यापार एवं कला के प्रमुख केन्द्र बन गये। मथुरा भी कुषाण क्रियाकलापों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। मथुरा से अनेक स्तूपों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

आन्ध्र के गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के दक्षिणी तट पर धान्यकटक नामक स्थान से अमरावती स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस स्तूप का निर्माण दूसरी सदी ई.पू. में हो गया था परन्तु उसकी वेदिका (रेलिंग) का दूसरी तीसरी सदी ईसवी तक विकास किया जाता रहा अर्थात् इस स्तूप में अनेक कालों में संशोधन, परिवर्द्धन होते रहे। स्तूप को कुषाण एवं उत्तर आन्ध्रकाल में संगमरमर की चित्रांकित पट्टिकाओं से आच्छादित किया गया। विद्वानों की मान्यता है कि लगभग 17000 वर्ग फीट भूमि को आवृत की हुई रेलिंग का निर्माण भी संगमरमर से किया था। वेदिका के मध्य एक स्तूप स्थित था जिसका चित्र एक पट्टिका पर अंकित पाया गया। स्तूप के वास्तु विन्यास का महत्त्वपूर्ण भाग महावेदिका थी जिसमें उष्णीष (उनिस) परिचक्र या पुष्पांकित सूचियाँ या आड़े तकिये थे। महावेदिका में चार तोरण द्वार थे। प्रवेश द्वारों के सामने पाँच-पाँच स्तम्भ दक्षिण के स्तूपों का विशिष्ट लक्षण था। महावेदिका का व्यास 193 फीट था अर्थात् यह भरहुत से दुगुनी परिधि में विस्तृत था। प्रत्येक अर्द्धस्तम्भ 9 फीट ऊँचे एवं 2 फीट 10 इंच चौडे थे। वेदिका की चारों दिशाओं में 26 फुट चौड़ा द्वार तोरण था। वेदिका के बाह्य भाग में प्रदक्षिणा पथ था किन्तु आन्तरिक प्रदक्षिणा पथ पाँच फीट ऊँचा था जिस पर सोपान मार्ग द्वारा पहुँचा जा सकता था।

मथुरा में भरहुत एवं साँची स्तूप परम्परा के अन्तर्गत स्तूप निर्माण किये गये। किन्तु यहाँ के स्तूप निर्माण कला के अवशेष सुरक्षित नहीं रहे हैं।

मथुरा कला की अपनी कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषतायें हैं जिनके अध्ययन से इस कला को अन्य कलाओं से पृथक कर के देखा जा सकता है। अत: यहाँ संक्षेप में मथुरा कला की सामान्य विशेषताओं का विवेचन समीचीन होगा। मथुरा के कला अभिव्यंजकों ने अपनी कला-साधना के लिए स्थानीय क्षेत्रों से प्राप्त मजीठिया रंग (लाल चकतेदार) के पत्थर का उपयोग किया जो रूपवास एवं सीकरी की खदानों से लाया जाता था।

मथुरा कला के अवशेष मथुरा के अतिरिक्त सारनाथ, कोसम, कौशाम्बी, श्रावस्ती, साँची, पंजाब, बैराठ (राजस्थान) से प्राप्त हुए हैं। इस कला के साधकों ने बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण आदि सभी धमों से सम्बद्ध देवों की मूर्तियों का निर्माण किया।

गांधार कला की भाँति मथुरा कला में महात्मा बुद्ध की प्रतिमाओं के मस्तक के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल देखा जाता है। इसके अतिरिक्त बुद्ध को मुण्डित शीश या उष्णीय युक्त एवं मूंछ विहीन बनाया है तथा उत्तरीय से एक कन्धे को ही आवृत दिखाया है। बुद्ध मूर्तियाँ दो प्रकार की बनाई गई- एक खड़ी हुई और दूसरी बैठी हुई। कला की दृष्टि से खड़ी मूतियाँ यक्ष परम्परा में और बैठी हुई मुनियों की मुद्रा में बनाई गई, जिनकी पूर्व परम्परा थी।

स्त्रियों की मूर्तियों के निर्माण में मथुरा के कलाकारों ने विशेष रूचि दिखाई। स्त्री मूर्तियाँ वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण की गई हैं। उनकी आकृतियाँ आकर्षक एवं लालित्य लिए हुए हैं। उनके शरीर पर वस्त्र एवं आभूषणों का प्रयोग न्यूनतम देखा गया। जिन मूर्तियों को वस्त्रों से आवृत किया है, उनके द्वारा उर्ध्ववस्त्र और अधोवस्त्र का प्रयोग किया है। कलाविदों की मान्यता है कि मथुरा कलाकारों ने अपने आपको रूढ़ियों के बन्धन से नितान्त मुक्त कर लिया था और वे धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृश्यों को पूरी स्वतंत्रता से अलंकृत कर रहे थे।

कल्पनाजन्य अभिप्रायों (मोटिफ) का प्रयोग वेदिका अलंकरणों के लिए किया जाने लगा जैसे हस्तिमक्ष, व्याधमच्छ, अश्वमच्छ, नरमच्छ, श्येनमच्छ, वृषमच्छ आदि। इसी तरह सपक्ष (पंख युक्त) पशुओं का अंकन भी वेदिकाओं पर देखा गया- सपक्ष सिंह, सपक्ष हाथी, सपक्ष अज एवं सपक्ष ईहामृग आदि। मांगलिक चिह्नों का उपयोग भी बड़ी तादाद में हुआ है, जैसे कल्पवृक्ष स्तूप, मुचकुन्द, सपक्ष भद्रशंख, भिक्षापात्र, हाथी, वृषी, मृग, पन्चदल, अष्टदल, दशदल, बहुसंख्यक पंखुड़ियों के कमल आदि। विविध लताओं के द्वारा भी अलंकरण वृद्धि की गई।

मथुरा कला से सम्बद्ध मूर्तियाँ बड़ी तादाद में मथुरा शहर के जेल क्षेत्र (जमालपुर), कचहरी, कंकाली, गणेशर आदि टीलों से प्राप्त हुई हैं। इस कला की एक खास विशेषता यह है कि गांधार कला की तरह इसमें भी कुषाण काल के राजा एवं सामंतों की मूर्तियाँ बनाई गयी हैं।

बुद्ध की प्रतिमाएँ- इसमें बैठी और खड़ी हुई दोनों प्रकार की मूर्तियाँ मिली |

जैन की प्रतिमाएँ- कंकाली टीला मथुरा का एक प्रमुख स्थल है जहाँ से कई जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। द्वितीय शताब्दी के एक अभिलेख में जैन श्रावकों को उतरदाशक कहा गया है।

ब्राह्मण धर्म की मूर्तियाँ- इस प्रकार की आरम्भिक मूर्तियों में शिव, लक्ष्मी और बलराम उल्लेखनीय हैं। कुषाण काल में कार्तिकेय, विष्णु, सरस्वती, कुबेरनाथ और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। हालांकि शिव लिंग के रूप में पूजे जाते थे, परन्तु इस काल में चतुर्भुख लिंग का निर्माण होने लगा था। इसमें एक लिंग के चारों ओर शिव की मुखाकृति लगी होती थी। कुषाण काल में सूर्य देवता, दो घोड़े जुते हुए एक रथ पर सवार हैं। दुर्गा (महिषमर्दिनी) रूप में दिखाई गई है। मथुरा में यक्ष एवं यक्षिणी की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इसका समबन्ध बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण तीनों धर्म से है। कुबेर की मूर्ति मोटे व्यक्ति के रूप में बौद्द्ध, जैन एवं ब्राह्मण तीनों धर्म से है। कुबेर की मूर्ति मोटे व्यक्ति के रुप में बनाई गई है। उसका सम्बन्ध मदिरा एवं मदिरापान से दिखाया गया है। इस देवता पर यूनानी मदिरा के देवता हैं।

शासकों की प्रतिमा- मथुरा के मटगाँव से प्रमुख कुषाण एवं शक राजा कनिष्क, भीम और चष्टन की विशाल प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं।

अमरावती कला केन्द्र- पूर्वी दक्कन में कृष्णा एवं गोदावरी की निचली घाटी में अमरावती कला केंद्र का विकास हुआ। इस कला केन्द्र को सातवाहन एवं इक्ष्वाकु शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ। यह कला बौद्ध धर्म से प्रभावित थी। इसका प्रमुख केन्द्र नागार्जुनकोंड, अमरावती, घटशाल और जगय्यपेटा था। यह कला 150 ई. से 350 ई. के बीच फलती-फूलती रही। इस कला का प्रारम्भिक उदाहरण जगेयपेट्टा से प्राप्त हुआ है जो 150 ई.पू. का है।

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