आर्कटिक परिषद Arctic Council

सदस्यता: कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, रूस, स्वीडन और संयुक्त राज्य अमेरिका।

पर्यवेक्षक सदस्य: जर्मनी, अंतर्राष्ट्रीय आर्कटिक विज्ञान समिति, नीदरलैंड, पोलैंड, उत्तरी मंच, यूनाइटेड किंगडम, भारत चीन इटली, जापान दक्षिण कोरिया और सिंगापूर।

गैर सरकारी सदस्य:  यूएनडीपी, आईयूसीएन, रेडक्रॉस, नार्डिक परिषद्, यूएनईसी।

उद्मव एवं विकास

आर्कटिक परिषद के गठन का प्रस्ताव सबसे पहले 1989 में कनाडा ने रखा, जो आधुनिक विकास से उत्पन्न सांस्कृतिक और पर्यावरणीय अधोगति (degradation) से बहुत चिंतित था। पंरिषद की संविदा पर 19 सितंबर, 1996 की ओटावा (कनाडा) में हस्ताक्षर किये गये।

आर्कटिक परिषद् में पर्यवेक्षक का दर्जा मिलने से संसाधनों से भरपूर आर्कटिक क्षेत्र पर भारत का दावा और मजबूत हो गया है। भारत समेत 6 नए देशों को पर्यवेक्षक के तौर पर आर्कटिक परिषद् में शामिल किया गया। आर्कटिक परिषद् की बैठक में घोषणा करते हुए यह कहा गया कि पर्यवेक्षक राष्ट्रों की सूची में ऊर्जा के जरूरतमंद देशों को शामिल करने से परिषद् के इस क्षेत्र की सुरक्षा करने के लक्ष्यों में मदद मिलेगी।

इन राष्ट्रो (भारत, चीन, इटली, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर) को पर्यवेक्षक का दर्जा मिलना, पृथ्वी के सुदूर उत्तरी क्षेत्र के व्यापार और ऊर्जा क्षमता में बढ़ते वैश्विक हितों को दर्शाता है। यद्यपि कि इस परिषद् के स्थायी पर्यवेक्षकों को निर्णय लेने संबंधी अधिकार नहीं होते। पर्यवेक्षक राष्ट्र का दर्जा मिलने से ये राष्ट्र परिषद् की बैठकों में शामिल हो सकते हैं एवं वित्तीय नीतियों से संबंधित प्रस्ताव रख सकते हैं। आकटिक क्षेत्र में बर्फ के पिघलने से नए व्यापारिक मार्गों एवं तेल और गैस के नए स्रोतों का पता चला है। पर्यवेक्षक राष्ट्रों का स्वागत करते हुए कनाडा ने कहा कि तेल, गैस एवं सोना, टिन, सीसा, निकेल, तांबा जैसे खनिजों से संपन्न इस क्षेत्र में व्यापक संभावनाएं एवं चुनौतियां हैं। दायित्वपूर्ण सतत् पर्यावरणीय तरीकों से इस क्षेत्र की क्षमता का उपयोग किया जाएगा। नए राष्ट्रों को पर्यवेक्षक राष्ट्र के रूप में शामिल करने से उन राष्ट्रों की ध्रुवीय अनुसंधान क्षमताओं एवं वैज्ञानिक विशेषज्ञताओं का लाभ इस क्षेत्र को प्राप्त होगा। वहीं स्थानिक राष्ट्रों ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पर्यवेक्षक राष्ट्रों की संख्या में वृद्धि से उनकी आवाज कमजोर होगी और तेल-गैस खनन परियोजनाओं की वृद्धि से उनकी पारंपरिक संस्कृतियों को नुकसान होगा।


आर्कटिक परिषद् एक उच्च स्तरीय अंतरसरकारी संगठन है। इस परिषद् की अध्यक्षता सदस्य राष्ट्रों द्वारा प्रत्येक दो वर्ष के लिए की जाती है। वर्तमान में इस परिषद् की अध्यक्षता कनाडा (2013-2015) के पास है। वर्ष 2014 तक पर्यवेक्षक राष्ट्रों की कुल संख्या 12 है। पर्यवेक्षक राष्ट्र का दर्जा देने का निर्णय परिषद् की द्विवार्षिक बैठक में किया जाता है। अध्यक्षता करने वाले राष्ट्र द्वारा इसका संचालन किया जाता है। इसका कोई स्थायी सचिवालय नहीं है।

उद्देश्य

आर्कटिक प्रदेश के लोगों का कल्याण सुनिश्चित करने के लिये आर्कटिक विषयों पर नियमित अंतर-सरकारी परामर्श की व्यवस्था करना; स्थायी विकास सुनिश्चित करना, और; पर्यावरण की रक्षा करना परिषद के मुख्य लक्ष्य हैं।

संरचना

सचिवालय और मंत्रिस्तरीय बैठक आर्कटिक परिषद के मुख्य अंग हैं। सचिवालय का कोई स्थायी कार्यालय नहीं है तथा इसकी अध्यक्षता और स्थान प्रत्येक दो वर्षों पर सदस्यों के मध्य आवर्तित होते हैं। मंत्रिस्तरीय बैठकों के निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाते हैं। यह बैठक प्रत्येक दो वर्ष के अंतराल पर आयोजित की जाती है।

गतिविधियां

आर्कटिक क्षेत्र में पर्यावरण की रक्षा करने के लिये एक आकटिक पर्यावरणीय संरक्षण रणनीति (एईपीएस) को अपनाया गया। इसके अतिरिक्त पांच और कार्यक्रम विकसित किये गये, जो इस प्रकार हैं-आर्कटिक विश्लेषण और आकलन योजना (एएमएपी); आर्कटिक सामुद्रिक पर्यावरण संरक्षण (पीएएमई); आपातकाल, निवारण तैयारी और प्रतिक्रिया (ईपीपीआर); आर्कटिक जीव, जंतु और पादप संरक्षण (सीएएफएफ), तथा; सतत विकास एवं उपयोग (एसडीयू) ।

आर्कटिक परिषद आर्कटिक क्षेत्र को हमारे भूमंडल के लिये एक शीघ्र पर्यावरणीय चेतावनी प्रणाली के रूप में परिभाषित करती है और यह आशा रखती है कि संपूर्ण विश्व इस बात का अनुभव करेगा कि सांस्कृतिक और पर्यावरणीय अधोगति का एकमात्र निदान पर्यावरण के मुद्दे पर व्यापक अंतरराष्ट्रीय सहयोग है।

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