प्रशासन- वैदिक काल Administration- Vedic Period

चूंकि इस काल की अर्थव्यवस्था एक निर्वाह अर्थव्यवस्था थी, जिसमें अधिशेष के लिए बहुत कम गुंजाइश थी। अत: करारोण प्रणाली भी स्थापित नहीं हो पायी तथा राजकीय अधिकारियों की संख्या भी सीमित थी। किन्तु राजा को अपने दायित्व निर्वाह के बदले प्रजा से बलि या कर पाने का अधिकारी माना जाता था। यह राजा को स्वेच्छापूर्वक दिया गया उपहार होता था। राजा को प्रारम्भ में प्रजा से नियमित कर नहीं मिलते थे। अत: इन्द्र से प्रार्थना की गई कि वह राजकर देने के लिए प्रजा को विवश करे। कालान्तर में नियमित करों की प्रथा उत्तरवैदिक काल में प्रतिष्ठित हुई।

समाज की सबसे बड़ी इकाई राज्य के लिए जन शब्द का प्रयोग मिलता है। जन शब्द का 275 बार प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है, पर जनपद शब्द का एक बार भी नहीं। राज्य का आधार कुल थे जिन्हें संजाति एवं सनाभि (एक नाभि से उत्पन्न) कहा गया है तथा अन्य राष्ट्र के लिए अनाभि या अरण शब्द आया है। जन प्रारम्भ में अनवस्थित एवं संचरणशील थे अर्थात् ग्राम के ग्राम अपने पशुओं के साथ संचरण करते थे। समय क्रम से आर्य स्थायी रूप से निवास करने लगे। अत: कुलों के स्थायी होने से ग्राम एवं जनपदों से राष्ट्र का प्रारूप सामने आया।

ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि समाज कुल (परिवार), ग्राम, विश्व् तथा जन या राष्ट्र के रूप में विभक्त था। पर यह जानकारी नहीं मिलती है कि परिवार या कुल में कितनी पीढ़ी तक लोग एक साथ रहते थे, तथापि कीथ की धारणा है कि तीन पीढ़ी तक एक परिवार या कुल के सदस्य साथ-साथ रहते होंगे। कीथ के अनुसार, उस समय ऐसी प्रथा भी नहीं होगी कि माता-पिता की मृत्यु के बाद अलग रहा जाये, सम्भवत: उस काल में भूमि अथवा सम्पत्ति के प्रति अधिक लगाव नहीं रहा होगा क्योंकि कृषि भूमि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। परिवार एवं कुल में साथ रहने का उद्देश्य मात्र पारस्परिक सहयोग एवं सहायता था। कुल का संरक्षक कुलप कहलाता था। परिवार के समस्त सदस्य कुलप के अनुशासन को मानते हुए एक ही गृह में निवास करते थे।

ग्रामों का आविर्भाव विभिन्न परिवारों के समुदाय से हुआ। ग्राम स्वशासी एवं आत्मनिर्भर थे तथा ग्रामीण लोगों के हितों की रक्षा का दायित्व ग्रामणी नामक पदाधिकारी का होता था। युद्ध काल में वह राजा की सहायता भी करता था एवं युद्ध काल के अतिरिक्त ग्राम का सामान्य प्रशासन देखता था। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि ग्रामणी सैनिक, आर्थिक तथा सामाजिक आदि सभी मामलों में ग्राम का प्रमुख था और सम्भवत: ग्राम से कर या बलि भी वसूल करता होगा। राजा को बलि हृन्त: (बलिकर को अपद्वत करने वाला) कहा गया है। ग्राम के लोगों को गोधन के लिए उत्सुक कहा गया है। अनेक ग्रामों से मिलकर बना, उपजिला का स्पष्ट वर्गीकरण ऋग्वेद में नहीं मिलता। जन के सदस्यों को सामूहिक रूप से विश कहा जाता था। ऋग्वेद में इसका 170 बार उल्लेख है। ग्राम से बड़ी इकाई विश स्वीकार की जा सकती है क्योंकि इसके मुखिया विशपति का उल्लेख मिलता है। राजा की सहायता के लिए निम्नलिखित अधिकारी होते थे

पुरोहित

पुरोहित का महत्त्वपूर्ण स्थान राजा के मंत्रियों में था। उसे राजा का प्रमुख परामर्शदाता माना जाता था एवं यह धारणा थी कि उसकी प्रार्थना राजा तथा जन की रक्षा करती है। युद्ध के समय पुरोहित राजा की विजय के लिए प्रार्थना ही नहीं करता था, बल्कि युद्ध में भी भाग लेता था। पुरोहित द्वारा राजा एवं उसके परिवार के धार्मिक कृत्यों के निष्पादन किये जाने के बदले उसे दान था। कीथ ने वैदिक पुरोहित को वैदिक राजनीति का अग्रज कहा है। कोई सन्देह नहीं है कि प्रारम्भिक वैदिक राज्य में विश्वामित्र एवं वशिष्ठ पुरोहितों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अत: कहा जा सकता है कि पुरोहित शान्ति तथा युद्ध दोनों अवस्थाओं में राजा का शिक्षक, पथ प्रदर्शक, मित्र तथा राजनैतिक एवं धार्मिक परामर्श-दाता होता था।

सेनानी


युद्ध में विजय के लिए सैन्य संचालन करना राजा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था और सेनानी नामक मंत्री उसे इस कार्य में सहयोग प्रदान करता था। युद्ध नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता राजा की प्रमुख योग्यता मानी गई थी। स्मरणीय कि तत्कालीन युद्धों का प्रमुख कारण एक दूसरे के क्षेत्र पर अधिकार करने की कामना के साथ पशु धन की प्राप्ति भी था। उस काल में पशुधन की प्राप्ति के लिए युद्ध इतने सामान्य थे कि ऋग्वेद में युद्ध के लिए गविष्टि, गोषु, गवेषण, गव्यत आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। सामान्यतः पैदल एवं रथारोही सेना में होते थे। इसके अतिरिक्त अश्वारोहियों का अस्तित्व भी रहा होगा। रथों का युद्धों में विशेष महत्त्व था। राजा तथा प्रमुख योद्धा रथों पर सवार होकर युद्ध करते थे।

सुरक्षा की दृष्टि से योद्धा कवच एवं शिरस्त्राण युद्ध में धारण करते थे, जिनके लिए क्रमश: वर्म एवं शिप्र शब्दों का प्रयोग हुआ है। वैदिक मंत्रों में विविध अस्त्र-शस्त्रों का विवरण मिलता है। धनुष बाण युद्ध काल के प्रमुख शस्त्र थे, किन्तु परशु, भाला (सृक्ति), तलवार का प्रयोग भी किया जाता था। बाणों का आगे का सिरा सींग अथवा धातु से मढ़ दिया जाता था। कभी-कभी विषयुक्त बाण भी प्रयोग में लाये जाते थे। युद्ध के दौरान विभिन्न प्रकार की व्यूह रचनायें की जाती थीं। शर्ध, गण एवं व्रात आदि शब्द संभवतः विविध प्रकार की व्यूह रचनाओं को इंगित करते हैं। प्राय: नदियों के किनारे युद्ध आयोजित होते थे। दशराज्ञ युद्ध पुरुष्णी (रावी) तट पर लड़ा गया था। ऋग्वेद में पुर-चरिष्णु का उल्लेख मिलता है, जिसका तात्पर्य दुर्गों को गिराने के प्रयोग में लाया जाने वाला कोई उपकरण रहा होगा। युद्ध सम्बन्धी मामलों में सेनापति राजा का सहयोग करता था। सेनापति की नियुक्ति राजा द्वारा की जाती थी। राजा की सहायता से सेनापति सेना का गठन करता एवं युद्ध की योजना बनाता था। सेनानी के पद के विषय में जी.एस.पी मिश्र की मान्यता है कि वह अधिकारी राज्य के अधिक संस्थागत हो जाने के पश्चात् अस्तित्व में आया होगा।

यह कुलपति परिवार का मुखिया होता था, यह विशपति विश का प्रधान होता था। व्राजपति-चारागाह का अधिकारी होता था। साथ ही यह युद्ध में कुलप को संगठित कर युद्ध मैदान में ले जाता था, यह ग्रामणी ग्राम का प्रधान था और युद्ध में ग्राम का नेतृत्व करता था। यह स्पर्श गुप्तचर होता था। यह दूत विभिन्न राजनैतिक इकाइयों को एक दूसरे के विषय में सूचित करता था। यह पुरप दुर्ग का अधिकारी होता था। सबसे बड़ा अपराध पशु चोरी को माना जाता था।

न्याय व्यवस्था

विचारकों ने इस काल में विधि या धर्म की सर्वोच्चता की घोषणा ही नहीं की थी, वरन् राजसत्ता द्वारा इसके पालन पर भी जोर दिया था। ऋग्वेद में विधि अथवा व्यवहार के लिए धर्मन् (बाद में धर्म) शब्द का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः धर्म के अनेक उपादान आगे जाकर विधि के अंग बन गये। धर्म या विधि के स्वरूप तथा सर्वोच्चता की परिभाषा सामाजिक सन्दर्भ में की गई है, क्योंकि धर्म एवं विधि का मूल मानव समाज है। समाज में व्यक्ति नैसर्गिक रूप में धर्म से अनुप्राणित होकर व्यवस्था बनाये रखता है अथवा दण्ड के भय से व्यवस्था को स्वीकार करता है। इस प्रकार ‘धर्म प्रारम्भ में ऐसे नियमों का संग्रह प्रतीत होता है जिसके अनेक प्रावधानों ने बाद में विधि का स्वरूप ग्रहण कर लिया था और वे प्रावधान प्रारम्भ में समाज की व्यवस्था तथा नैसर्गिक नियमों के द्योतक थे। वेदों की ऋचाओं में पाप और अपराध परस्पर सम्बद्ध दिखाई देते हैं। ऋतु या धर्म के विपरीत किया गया कार्य अपराध माना गया। इस काल में चोरी, सेंधमारी, डकैती एवं पशु अपहरण मुख्य अपराध थे। हत्या का दंड द्रव्य के रूप में दिया जाता था। उच्च श्रेणी के व्यक्ति की हत्या का दड, द्रव्य के रूप में 100 गायों तक लिया जाता था जो मृतक के संबंधियों को प्रदान किया जाता था। वरदेय (बदला चुकाने की प्रथा) का प्रचलन था। शतदाय (100 गायों का दान) सदृश विशेषण का प्रयोग होता था। इसका तात्पर्य यह था कि वह व्यक्ति जिसके जीवन मूल्य की बराबरी 100 गायें करती थीं। दिवालिये को ऋणदाता का दास बनाया जाता था। छोटे-छोटे विवादों का निर्णय ग्राम पंचायत करती थी।

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